Wednesday, August 20, 2014

शब्दों का बावरा अहेरी 'अज्ञेय' /डॉ. विमलेश शर्मा(अजमेर) - Apni Maati Quarterly E-Magazine

                                                   
                                                         
कुछ हस्ताक्षरों से साहित्य कालजयी हो जाता है। हिन्दी साहित्य में ऐसे ही हस्ताक्षरों की अग्रिम पंक्ति में जिनसे साहित्य को विशिष्ट पहचान मिली है में शुमार है सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय। अज्ञेय 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर ग्राम में जन्मे थे। अज्ञेय आज भी सामान्य पाठकों के लिए अज्ञेय है। इस महानायक का जीवन अत्यधिक वैविध्यपूर्ण रहा है। उन्होंने अपनी अनुभवी आँखों से जीवन को बेहद नजदीक से देखा था यही कारण है कि बात चाहे कहानियों की की जाए या इनकी कविताओं की वहां पर सम्पूर्ण मानव जीवन अत्यंत ही सहजता एवं सूक्ष्मता के साथ अनेक स्तरों पर उद्घाटित होता है। व्यक्तिगत जीवन में मितभाषी होते हुए भी वे अपनी रचनाओं में असामान्य रूप से मुखर हैं।  वे साहित्य सृजन में वैयक्तिकता को प्राथमिकता देते हैं। उनकी सृजनधर्मिता सदैव से नवोन्मेषी रही है। अज्ञेय का मानना था कि परम्परा बहता नीर है जो नित नवीन होकर बहती रहती है। वस्तुतः तभी उसकी प्रासंगिकता भी है। साहित्य में वे प्रयोगधर्मी थे । वे सत्य ही साहित्य सृजन में राही नहीं वरन् नवीन राहों के अन्वेषी रहें हैं।
               
अज्ञेय जी 
अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार सप्तक का प्रकाशन हिन्दी कविता के क्षेत्र में एक युगान्तरकारी परिवर्तन है। तार सप्तक का प्रकाशन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी वरन् यह एक लम्बी सुनिश्चित योजना का परिणाम था। तारसप्तक के कवि एक साथ एक जगह एक विचारधारा में कैसे संग्रहित हुए इसका भी एक अपना इतिहास है। इसी तार सप्तक से हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट प्रवृत्ति प्रयोगवाद का प्रारम्भ हुआ है। अज्ञेय के अनुसार प्रयोग क्रिया है तो प्रयोगशीलता कवि कर्म। अज्ञेय और आलोचना का भी विशेष संबंध रहा है। तार सप्तक की भूमिका भी आलोचना का विषय रही है। रचनात्मक स्तर पर तार सप्तक के कवियों में पूर्ववर्ती काव्य परम्परा के प्रति आक्रोश था। तारसप्तक के सभी कवि अलग-अलग शैली में लिख रहे थे पर अलग - अलग लिखते हुए भी वे  एक स्वर में यही कह रहे थे- कवि तोड़ो अपने शब्द जालजो आज खोखला शून्य हुआ। यह है अपने पुरखों की वैभव योगमयी कलुषित वाणी त्याग इसे अब बनना है ..तुझ को ही अगुआ।’ (अज्ञेय-ता.स. पृ.88) नवीन के प्रति यह आग्रह ही तारसप्तक की महत्ता है।

 अज्ञेय का साहित्य परम्पराप्रयोग और आधुनिकता का मिश्रण है। वे रचना में सम्प्रेषण और वैयक्तिक अभिव्यक्ति को महत्व देते हैं। उनके अनुसार ‘‘यदि हम आधुनिकता की चर्चा साहित्य और कलाओं के संदर्भ में करते हैं तो इन दोनों को जोड़कररखना अनिवार्य हो जाता है। साहित्य और कला मूलतः एक सम्प्रेषण है। इस सम्प्रेषण में वे भाषा का प्रयोग एक तीर की भाँति करते हैं। (केन्द्र और परिधि)  अज्ञेय समय-समय पर इस तीर को पैना भी करते रहते हैं। इस संबंध में अज्ञेय की अवधारणा स्पष्ट है वे कहते हैं- ‘‘मेरी खोज भाषा की खोज नहीं हैकेवल शब्दों की खोज है। भाषा का उपयोग में ऐसे ढंग से करना चाहता हूं कि वह नए प्राणों से दीप्त हो उठे।’’ य़ही कारण है कि भाषा के परिमार्जन में अज्ञेय निरन्तर प्रयोग करते रहे हैं। आज हम प्रयोगों के प्रति दुराग्रह रखकर शब्दों के प्रयोग में भाषा के परिष्कार और परिमार्जन को लेकर चिंतित हो जाते हैं। अज्ञेय उसे बड़ी सहजता से लेते हैं। अज्ञेय शब्दों की गरिमा में विश्वास रखते हैं वे कहते हैं- शब्द का आत्यंतिक या अपौरूषेय अर्थ नहीं है। अर्थ वही हैउतना ही है जितना हम उसे देते हैं। उनके अनुसार शब्द का अर्थ एक सर्वथा मानवीय अविष्कार है। जिसे वह अभिव्यक्ति के सफल सम्प्रेषण हेतु प्रयुक्त करता है।

                अज्ञेय के कवि रूप की बात की जाए तो उसमें अखिल विश्व अपने श्रेष्ठतम रूप में संपदित होता है। उनकी कविताओं में उनका युग प्रतिबिम्बित होता है जो परम्पराओं को सहेजे हुए स्वंय को अद्यतन करता रहता है। अज्ञेय की काव्य यात्रा जहां भग्नदूत’ और चिंता’ काव्य संग्रहों की गीतात्मक कविताओं से प्रारंभ होती है वहीं वे इत्यलम्हरी घास पर क्षण परबावरा अहेरीइन्द्रधनुष रौंदे हुए थे,अरी ओ करूणामय प्रभासागर मुद्राआँगन के पार द्वार और कितनी नावों में कितनी बार द्वारा आधुनिक हिन्दी कविता को सर्वथा नया मोड़ देते हैं। कवि मन संवेदनशील होता है परन्तु अज्ञेय में एक सजग बौद्धिकता की उपस्थिति उनकी संवेदना को नियंत्रित करती है। यही नहीं उनकी कविताओं में स्वर वैविध्य व बिम्ब प्रयोग भी उनकी बौद्धिकता का ही परिचायक है। अज्ञेय की कविताओं में निजी अनुभूतियां शब्दों का आकार लेती है।साथ ही अज्ञेय परिवेश से बहुत अधिक प्रभावित होते हैं। इस संदर्भ में वे कहते हैं- ‘‘आज का लेखक इस प्रकार अपने परिवेश से दबा है- जो कि वह स्वयं है और जितना ही अच्छा लेखक हैउतना ही अधिक वह अपना परिवेश है।वे कहते हैं अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के अनावश्यक आड़म्बर की आवश्यकता नहीं होती वरन् संवेदनाएं तो मौन में भी प्रखरित होती हैं। इसी को लेकर वे कहते हैं- ‘‘मौन भी अभिव्यंजना है,जितना तुम्हारा सच हैउतना ही कहो। (जितना तुम्हारा सच है।)

                अज्ञेय शब्दों के चतुर शिल्पी हैं। प्रयोगधर्मिता से जहां वे तारसप्तक बुनकर नया इतिहास रचते हैं वहीं रंगों  और सौन्दर्य से वे बिम्बों की सजीव झांकी भी प्रस्तुत करते हैं। भोर का ये बावरा अहेरी,अपनी बौद्धिकता की कनियों से हरी घांस पर कविता की शबनम खिलाता है। कवि होने के साथ ही अज्ञेय ऐसे कथाकार और चिंतक भी हैं जिन्होंने तमाम तरह के विरोधों को झेलकर भी सतत् नवोन्मेषी प्रयोग साहित्य में किये हैं। अज्ञेय आधुनिक लेखक और पाठक दोनों को अपनी रचनाधर्मिता से प्रभावित करते हैं। अज्ञेय अन्तर्मुखी है वे बनने से पहले गुनते हैं। यही गुनना और घटनाओं का सूक्ष्म दृष्टि से चुनाव हम शेखरः एक जीवनी, ‘नदी के द्वीप’ और अपने-अपने अजनबी में देखते हैं।  अपनी रचनाओं में कभी वे श्लील और अश्लील पर प्रश्न करते हैं तो कभी चेतन अवचेतन मन का द्वन्द्व अपनी रचनाओं में दिखाते हैं। शेखर एक जीवनी तो चेतन अवचेतन मन के तनावसंवाद और जिज्ञासाओं की प्रश्नावली है जिसे अज्ञेय अपने रचनाकर्म से उद्घाटित करते हैं।

                
डॉ. विमलेश शर्मा
कॉलेज प्राध्यापिका (हिंदी)
राजकीय कन्या महाविद्यालय
अजमेर राजस्थान 
ई-मेल:vimlesh27@gmail.com
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प्रयोगों के  प्रति आग्रही इस राहों के अन्वेषी ने एक से बढ़ कर एक प्रयोग साहित्य की हर विधा में किए हैं। पठार का धीरज, गेंग्रीन, शरणदाता अज्ञेय की श्रेष्ठ कहानियां है।अज्ञेय के समग्र चिंतन को टी. एस.इलियट के चिंतन के समकक्ष देखा जा सकता है। उनके बिम्ब और भाषा शब्द के आकर्षण की सीमा मानते हैं । किसी भी रचना में अज्ञेय के विचार सीधी सपाट शैली में नहीं आते वरन् उनमें विचारों का अद्भुत संकेन्द्रण देखने को मिलता है। अज्ञेय आधुनिकता की आड़ में मूल्यों को भूलने का नहीं करते वरन् इसके बरक्स वे उनका निरन्तर परीक्षण करने को कहते हैं। साहित्य अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का ही क्षेत्र है अतः साहित्यकार को अपनी रचना दृष्टि के विकास हेतु संवेदना में नित नए प्रयोग करने होते हैं। उसे सूक्ष्म दृष्टि से घटना के मौन स्पंदन को बुनना होता है क्योंकि यह साहित्य के वर्तमान होने की परम आवश्यकता है।  वस्तुतः यही अज्ञेय की उपादेयता है कि अज्ञेय अनवरत विचारों से गतिशील हाते हुए परम्परा के साथ रहकर भी उससे अभिन्न रहकर  कालातीत साहित्य का सृजन कर कालजयी होते हैं। अज्ञेय के लेखन में  एक युग झलकता है । व्यक्ति के माध्यम से वहां भारतीय लोक जीवन और पश्चिम के बौद्धिक अभिजात्य का अनुपम संतुलन है।वैचारिकता , गहन सम्वेदनशीलता ,शिल्प के प्रति असामान्य सजगता, ऱमणीय गम्भीरता में भी तरल चापल्य का लालित्य, अंतर्मुखी  चिन्तनधारा का प्रभाव आदि ऐसे तत्व है जो उनके काव्य को एक खास विशिष्टता प्रदान करते हैं।  वे अपने रचनाकर्म से कुछ इस प्रकार हर नवोदित कवि और रचनाकार को क्षण भर सोचकर सजग रहते हुए सृजन कर्म करने को कहते हैं-        
      
  “सुनो कवि। भावनाएं नहीं है सोती,
                भावनाएं खाद है केवल
                जरा उनको दबा ऱखो
       जरा सा और पकने दो, ताने और तचने दो..”…..

प्रेमचंद होने का अर्थ/ डॉ. विमलेश शर्मा

हमारी सभ्यता साहित्य पर आधारित है। हम जो कुछ हैंसाहित्य के बनाए हैं। प्रेमचन्द का यह कथन उनकी रचनात्मक सजगता और साहित्यिक दायित्व को रेखांकिंत करता है। शब्दों का शिल्पी प्रेमचंद कलम का जादूगर प्रेमचंद,उर्दू में फितरतनिगार की उपाधि से महिमामंडित,  उपन्यास सम्राट प्रेमचंद, हिन्दी साहित्य का प्रारम्भकर्ता प्रेमचंद ये सभी उपमाएं मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक व्यक्तित्व के समक्ष छोटी जान पड़ती है। यों तो हिन्दी साहित्य परम्परा में अनेक शब्द शिल्पी हुए हैं परन्तु प्रेमचन्द का अंदाज एकदम निराला है। इसका कारण है प्रेमचंद जमीन से जुड़े थें। उनकी कथाओं के पात्र एक व्यापक भूमि से उठाए गए थे। जिनमें आम जनजीवन सांसे लेता है। यही कारण हे कि आम आदमी प्रेमचन्द साहित्य को पढ़ते हुए उनमें स्वयं को पाता है और यही एक कारण भी है कि प्रेमचंद आज भी प्रांसगिक है। प्रेमचंद समन्वय के पक्षधर थे फिर चाहे बात सामाजिक समन्वय की हो, सांस्कृतिक समन्वय की, भाषायी समन्वय की या आदर्श और यथार्थ के समन्वय की उनकी रचनाएँ इन सभी समन्वयों का जीवंत उदाहरण है। मानसरोवर के आठ खण्ड़ो में वर्णित कहानियों में जिंदगी की पेचीदेगियों और यंत्रणाओं को झेलता हुआ आम आदमी ही अपनी सम्पूर्ण दुर्बलताओं एवं सबलताओं के साथ दिखाई पड़ता है। ईदगाह, नशा, बूढ़ी काकी, बड़े भाई साहब,मंत्र ऐसी ही कहानियाँ है जिनमें मानव अपनी तमाम क्षुद्रताओं और वृहद् संवेदनाओं को लेकर एक साथ उद्घाटित हुआ है। 

प्रेमचंद की कहानियाँ जहां एक और सामाजिक समस्याओं को उठाती है तो वहीं देश की अनेक राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं पर करारा व्यंग्य करती हुई भी दिखाई पड़ती है। चार बेटो वाली विधवा ओर शतरंज के खिलाड़ी कहानी इन्हीं विसंगतियों को अपने चरम पर उद्घाटित करती है। वस्तुतः प्रेमचंद का समूचा साहित्य एक संवेदनशील एवं जागरूक मन की उपज है वे कहते है कि मन पर जितना गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती। वे स्कूली शिक्षा के बजाय व्यावहारिक शिक्षा के पक्षधर थे। उनका मानना था कि अनुभवों से व्यक्ति सब कुछ अर्जित कर सकता है। यही जीवन मूल्य उन्होंने अपने पात्रों में भी उतारें है।

      उनके कर्मभूमि उपन्यास का नायक अमरकान्त इसी संदर्भ में कहता है कि मैं अब तक व्यर्थ में शिक्षा के पीछे पड़ा रहा। स्कूल और शिक्षा से अलग रहकर भी आदमी बहुत कुछ सीख सकता हैं। वे शिक्षा को केवल अपनी मनोभावनाओं की योग्यता को प्राप्त करने का साधन भर मानते थे। इसी के साथ वे इसे प्रगतिशीलता का वाहक भी मानते थे। परम्परा और प्रगतिवाद दो परस्पर विरोधी अवधारणाएँ रही है परन्तु प्रेमचंद के साहित्य में ये दोनों ही अवधारणाऐं स्थान पाती हैं, क्योंकि प्रेमचंद का साहित्य समय सापेक्ष रहा है। उनका 1930 से पूर्व रचा गया साहित्य आदर्शवादी साहित्य की श्रेणी में आता है। जहां वे आदर्श की बड़ा महत्व देते हुए आदर्श को साहित्य की आत्मा कहते हैं। इसीलिए इस समय के साहित्य में देश सेवा , त्याग, क्षमा, बलिदान, वीरता और उदारता की उदात्त भावनाओं पर बल दिया। परन्तु रंगभूमिउपन्यास के बाद उनका आदर्शवाद खंडित होना प्रारम्भ हो गया। गबन ,कर्मभूमि ,और गोदान उपन्यास और बासी भात खुदा का साझो, कफन और पूस की रात कहानियां इसका स्पष्ट प्रमाण है। प्रे

मचंद ने अपने अनुभव से यह भलीभांति जान लिया था कि कोरा आदर्शवाद भारत की मेहनतकश जनता की समस्याओं का हल नहीं हैं इसलिए वे स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं कि बंधुत्व और समता, सभ्यता तथा प्रेम जीवन में आरम्भ से ही आदर्शवादियों का सुनहला स्वप्न रहे है जिसे वास्तविकता में प्राप्त करना संभव नहीं है। उनके विचार और चिंतन में आया यह मोड़ कफन कहानी के माध्यम से बडे ही कलात्मक ढंग से उजागर हुआ है। जहाँ वे घीसू ओर माधो पात्रों के माध्यम से धार्मिक मान्यताओं के प्रति न केवल उदासीनता व अवज्ञा प्रकट करते है वरन् वे उनकी खिल्ली भी उड़ाते हैं। इस कहानी में घीसू ओर माधो भूख के आगे बर्बर और हृदयहीन भी हो जाते है। जिसके चलते वे प्रसूति पीड़ा स्त्री की मृत्यु को भी भूल जाते है। यही वह वीभत्स दृश्य है जहां बौद्धिक मानवता की प्रगतिशीलता पर व्यंग्य कसा जाता है कि कहां है विकास और मूल्य जहां इंसान को दो जून की रोटी ओर एक कफन भी भयस्सर नहीं हो पाता। उन पर इस कहानी को लेकर अनेक आक्षेप भी लगाए गए परन्तु उनका मानना था कि काव्य और साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ना मात्र नहीं है वरन् साहित्य वह है जो समाज की आम समस्याओं से स्पंदित होता हो, जुड़ाव रखता हो और हमारी विचार और भाव संबंधी आवश्यकताओं की खुराक हो। वे चीजों की तरह कला और साहित्य की भी उपयोगिता को तराजू पर तोलते थे। उनका मानना था कि साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना व मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं हैं । वह देशभक्ति और राजभक्ति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
      प्रेमचंद आडम्बर व दिखावे के विरोधी थे। यही बात उन्होंने साहित्य में भाषा के प्रयोग में भी अपनायी। उनका मानना था कि साहित्य में उसी भाषा का प्रयोग सार्थक है,जिसे आम जनजीवन समझता हो इसीलिए उन्होंने अपने लेखन में हिन्दुस्तानी भाषा का समावेश किया। क्योंकि उस समय हिन्दुस्तानी भाषा सम्पर्क भाषा थी और उसका दायरा बड़ा था। वे मानते थे कि समाज की बुनियाद भाषा है और उसी भाषा का प्रयोग साहित्य में होना चाहिए जिसे कौम समझे जिसमें कौम की आत्मा हो। प्रेमचंद को साहित्य यथार्थ जीवन का सच्चा पैरोकार है। उनका साहित्य अपने युग का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है वरन् उन्होंने जीवन के ऐसे अमिट रेखा चित्र साहित्य में उकेरे है जो आज भी जीवंत है।