Sunday, December 27, 2015

कशमकश..



सृष्टि आलोकित करने को
मैनें माँगा है उजास
शब्दों से

कुछ लिखने की जद्दोजहद में
उतरती हूँ गहरी खोह में
पथरीले सफर में भी खोजती हूँ
हरियल पगडंडियाँ
देखती हूँ!
बहुत कुछ बिखरा है

कुछ यादें, रिश्तें और मूल्य अनगिनत
वहीं औंधें मुँह गिरी
ख्वाबों की एक पोटली है
रिसता दर्द है
कुछ जज्बातों की खूशबू है
औऱ सिसकती आस है

दूर किसी कोने में
हिंसा के तांडव से सहमी
टूटती कल्पना की साँसें है
इसी टूटन से याद आता है
उसने कहा था
तुम छायावादी हो
तपाक कह उठी थी तब मैं
हाँ! प्रगतिवाद की पृष्ठभूमि हूँ

शायद! उसी को सच करने
खुद को फिर फिर आजमाने
कुछ दरकते हुए को बचाने
अब रंग रही हूँ भावनाओं को
वैचारिकता की स्याही से...


डॉ विमलेश शर्मा

Friday, December 25, 2015

एक शोख़ मासूमियत औऱ कातिलाना नज़र का जादू






साधना वह नाम जो खूबसूरती की हदें पार करता हो.. जो मासूम हो पर शोखी से भरा हो, जिसे बस एकटक सराहना भाव से निहारा जा सकता हो।  रूप जो अपनी पूर्णता  में आत्मविश्वास यूँ छलकाता हो कि सौन्दर्य को चार चाँद लग जाए. अपनी साधना हेयर स्टाइल से प्रसिद्ध साधना शिवदासानी अपने अभिनय में भी अलहदा थी। उनके जैसे नाम कम ही है फिल्म इंडस्ट्री में जो अपने सौन्दर्य और अदाकारी के दम पर दर्शकों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ते हो. 

झूमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में हो या फिर ए नर्गिसे मस्ताना या फ़िर मेरा साया उनकी आँखों का वो काजल जो शायद रात भर जलता रहा होगा बरबस याद आ जाता है। वे अपने व्यक्तित्व में सादा थी और लोकप्रियता के चरम पर ऐसी सादगी कम ही मिलती है।

साधना जिसके नाम से साधना कट हेयर स्टाइल मशहूर हुआ वह उन्होंने अपनी पारम्परिक छवि बदलने के उद्देश्य से  फिल्म लव इन शिमला के लिए करवाया  था औऱ कहा जाता है कि इसको सुझाया भी उन्होंने ही था । तंग चूड़ीदार-कुर्ता को वे पहले पहल वक्त फिल्म में रूपहले पर्दे पर लेकर आयी ।  सौन्दर्य के साथ - साथ वे सौन्दर्यबोध की भी धनी थी।  

यों तो उनकी अनेक फ़िल्में है परन्तु आप आए बहार आयी, एक फ़ूल दो माली और मेरा साया मेरी पंसदीदा फ़िल्में है। इन फ़िल्मों के पोस्टर भी अभी तक जेहन में हैं और अभिनय तो है ही अमिट। मेड़ता जैसे कस्बे में बचपन गुज़ारने का यह फ़ायदा रहा कि ये फिल्में जो काफ़ी समय पूर्व ही रूपहले पर्दे पर अपनी उपस्थिति दे चुकी थीं, मैं उन्हें नब्बे के दशक में देख पा रही थी।  साल बीतते बीतते विदा हुए सौन्दर्य के इस चाँद को अलविदा! जिसकी चाँदनी का साया मन को सदा -सदा भिगोता रहेगा...

साधना आप चमकती रहें यूँहीं सदा इस रूपहले पर्दे से फ़लक के उस पार तक...

Wednesday, December 23, 2015

मीडिया में उभरते सौन्दर्यवादी मिथक और वस्तु बनती स्त्री

                
                                                          

भूमण्डलीकरण के इस दौर में मीडिया आम आदमी तक पहुँचने तक का महत्वपूर्ण माध्यम है। अक्सर कहा जाता है कि मीडिया समाज का आईना है और वह जो देखता है वही गढ़ता भी है।  कई बार उसकी अवधारणाओं पर सामाजिक और अनेक मानकों से प्रेरित अवधारणाएँ हावी हो जाती है।  इन अवधारणाओं के पीछे एक मानसिक तंत्र काम करता है। दरअसल मीडिया के तंत्र में वह ताकत है कि वह यथार्थ को झूठ का जामा पहना सकता है और  झूठ को सच बनाकर प्रस्तुत कर सकता है। कई बार मीडिया के पैरोकार इसे मीडिया के अस्तित्व के लिए  इन्हें जरूरी मानते हैं। परन्तु क्या यह जरूरी है कि व्यावसायीकरण के खतरनाक खेल में किसी व्यक्तित्व को ही एक वस्तु बना दिया जाए। अगर आधी दुनिया के संदर्भ में बात की जाए तो मीडिया ने स्त्री को सर्व गुण सम्पन्न और अतिमानवीय चरित्र के रूप में उकेरा है। आखिर क्यों स्त्री को तमाम अपेक्षाओँ युक्त इन सौन्दर्यवादी और देहवादी दायरों में बाँधने का प्रयास किया जा रहा है। यहाँ चिट्टियाँ कलाईयों को ही तरज़ीह  क्यों मिलती है और आखिर क्यों लिपे पुते चेहरे ही सौन्दर्य के मानक निर्धारित किए गए हैं।  सामाजिक दायरों की बात की जाए तो स्त्री को सदा एक षोडसी के रूप में ही देखा गया है परन्तु क्या यह जरूरी है कि स्त्री सदा रूपवान ही हो।  आखिर क्यों उसका वैचारिक पक्ष मीडिया में हाशिए पर रखा जाता है ?  आखिर क्यों स्त्री अपराध की भूमिका को ग्लैमराइज कर के परोसा जाता है। आखिर क्यों अपराध की तहे खोलते खोलते मीडिया केवल और केवल उसके निजी जीवन की खुदाई प्रारम्भ कर देता है। यह सारे प्रश्न है जिनके पीछे देखा जाए तो टी आर पी के समीकरण समझ आने लगते हैं।  इन्हीं समीकरणों में उलझकर स्त्री आज मानवी के स्थान पर महज एक वस्तु बन गई है। स्त्री की छवि के लिए इतिहास  में मिथकों की कमी नहीं है,स्त्री अभी उन्हीं से जूझ रही थी कि मीडिया ने जीरो फिगर और सुपरमोम जैसी नयी अवधारणाओँ को गढ़ दिया है।
आज अगर इन मिथकों को  तोड़ने में हमारा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहायता करता  तो यह निःसंदेह एक सराहनीय कदम होगा पर ऐसा नहीं है अतः इसकी भूमिका पर  हमें पुनः चिंतन करना होगा और उसे बाध्य करना होगा क्योंकि आखिरकार मीडिया पथ प्रदर्शक की भूमिका में भी हैमीडिया का आज सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही रूप देखने को मिल रहा है स्त्री अस्मिता के जिन मापदंडों का जिक्र हम मीडिया के परिप्रेक्ष्य में कर रहें हैं वहाँ दोहरे मापदंड है जहाँ एक ओर स्त्री मुक्ति का परचम उठाता हुआ मीडिया है वहीं उसी अस्मिता को देह बनाकर परोसने का खतरा भी वहाँ मंडरा रहा है। आज सभी पैमाने स्त्री मुक्ति और व्यवसाय के दोहरे स्तरों को साथ-साथ लेकर चलते हैं। हालांकि दूसरे रूप में देखे तो मीडिया ने स्त्रियों को मानवाधिकारों के प्रति सबसे अधिक सजग किया है। पूर्व में घरेलू हिंसा जैसी अनेक घटनाएँ प्रकाश में ही नहीं आ पाती थी परन्तु आज स्त्रियाँ उनसे त्रस्त ना होकर सीधे प्रकाश में ले आती है।  इन घटनाओं को मीडिया तक पहुँचाने में मीडिया की सकारात्मक भूमिका रही है। परन्तु आज मीडिया अपनी भूमिका का अतिक्रमण कर रहा है । वह स्त्री के लिए ऐसे संवेदनहीन शब्दों का प्रयोग करता है जैसे वह कोई वस्तु हो।  अपराध अगर स्त्री से जुड़ा हो तो मीडिया उस घटना के पूरी तरह पीछे पड़ जाता है।  मीडिया स्वयं उन अपराधों को सुलझाने लगता है। यही अतिचेष्टा उस स्त्री के जीवन में त्रासदी ला सकता है जिसका अपराध अभी तय भी नही हुआ है। मीडिया ट्रायल के दौरान स्त्री के निजी जीवन से जुड़े प्रसंग तोड़ मरोड़कर इस तरह प्रस्तुत किए जाते हैं कि अगर वो कभी फिर से सामाय सामाजिक जीवन जीने की सोच भी नहीं पाती। हाल ही में घटित इन्द्राणी प्रकरण इसी का उदाहरण है।
स्त्री की छवि गढ़ने में मीडिया व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखता है। आज बाजारवाद और भूमंडलीकरण स्त्री की देहवादी छवि को गढ़ रहे हैं। आज हमारी हर सुबह एक विज्ञापन से शुरू होती है। टूथपेस्ट से लेकर  रात को लिए जाने बोनविटा तक के विज्ञापनों पर गौर करें तो हर जगह स्त्री उत्पादों का विज्ञापन करती नज़र आएगी। इस भौतिकतावादी संस्कृति ने स्त्री को सर्वाधिक प्रभावित किया है। विज्ञापन करती स्त्री सुंदर होनी चाहिए, उसके शरीर पर अवांछित वसा नहीं होनी चाहिए ये सब ऐसे बिन्दु है जिसने स्त्री जीवन का अर्थशास्त्र ही गड़बड़ा दिया है। आज कोई स्त्री ट्रेफिक पुलिस के रूप में कर्मक्षेत्र को चुन रही है या ऐसे चुनौतिपूर्ण कार्यों को कर रही है जहाँ कोमल देह मिसफिट है तो वहाँ भी क्या ये सौन्दर्य के तय प्रतिमान अपनी भूमिक निभाएँगें। आखिर क्यों मीडिया केवल और केवल अपनी सौन्दर्यवादी घारणाओं के आधार पर स्त्री की छवि गढ़ रहा है। क्यों स्त्री के लिए जीरो फिगर और चिट्टियां कलाइयों जैसी संकल्पना गढ़ी गई है। क्यों हर लड़के के लिए वधू के चयन में आज गोरी,छरहरी और लम्बी लड़की को प्राथमिकता दी जाती है। यह कहना यहाँ ज़रूरी है कि मीडिया ही ये सब छवियाँ ,मिथकों के रूप में गढ़ रहा है। अगर विज्ञापनों से ही इतर भी बात की जाए तो जरा समाचार पढ़ती लड़कियों पर गौर कर लिया जाए। फाउंडेशन से लिपे पुते खुबसूरत चेहरे ही आज इस व्यवसाय की पहली जरूरत बन गए हैं। योग्यता का सिर्फ और सिर्फ एक पैमाना गढ़ ल्या गया है आज सोशल मीडिया युवाओं के लिए एक बड़ा नेटवर्क उपलब्ध करवाता है। परन्तु यहाँ भी स्त्री को छल का सामना करना पड़ता है । कई कई बार तो इतनी अधिक अभद्र और अपमानजनक टिप्पणियाँ देखने को मिलती है कि मानवता ही शर्मसार हो जाती है। चैट इनबॉक्स इतनी अधिक असहजताओं से भरे होते हैं कि वहाँ से हताशा और निराशा ही एक स्त्री को हाथ लगती है। हाल ही में घटा मोनिका लैविंसकी प्रकरण इसका जीता जागता उदाहरण है। इन मंचों पर किसी की निजी बातों में हस्तक्षेप करना कतई अशोभनीय माना जाता है परन्तु यह आभासी दुनिया कई बार निजी दुनिया में इतना अधिक घुसपैठ करने का प्रयास करती है कि व्यक्ति आत्महत्या और अवसाद के कगार पर पहुँच जाता है। हाल ही की बात की जाए तो अभी कई लोग इस बात से सदमे में हैं कि अमृता राय ने शादी क्यों कर ली? और इसके तहत आप अमृता की वाल को देखेंगें तो समझ पाएँगें कि एक स्त्री के लिए ऐसे मुद्दों को झेलना कितना कष्टकारी होता होगा। इस नए ख़तरे का नाम 'साइबर बुलीइंग' है। इसका मतलब है इंटरनेट की दुनिया में किसी व्यक्ति के चरित्र पर हमले करना, उसे प्रताड़ित करना
अगर मीडिया को कर्मक्षेत्र के रूप में चुनने की बात की जाए महिलाओं क यहाँ भी भारी असमानता का सामना करना पड़ता है। उन्हें समान वेतनमान, अनुकूल कार्य स्थिति, मातृत्व अवकाश जैसी अनेक समस्याओं से दो चार होना पड़ता है । कई बार तो उन्हे यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। सौन्दर्य के तय मापदण्ड तो है ही साथ ही पुंसवादी मानसिकता के चलते इस क्षेत्र में डायरेक्टर, सिनेमेटोग्राफर, लेखक, मेकअप आर्टिस्ट के रूप में भी उनका योगदान बहुत कम है। इस समस्या को भी दूर किया जाना आवश्यक है क्योंकि आधी आबादी को अपना जीवन जीने का पूरा पूरा हक है। आज सर्वाधिक आवश्यकता है प्रतिरोध की क्योंकि प्रतिरोध ही परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य रखता है। प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया और सभी मंचों को स्त्री को स्त्री की ही तरह देखने की एक समझ विकसित करनी होगी। स्त्री के उचित समाजीकरण की प्रक्रिया को समझने के प्रयासों के लिए व्यक्ति मात्र को वैचारिक रूप से परिपक्व होना होगा। मानवीय संवेदनाओं को उदात्त बनाना होगा। स्त्री को देह से परे एक मनुष्य मानना होगा। साथ ही  स्त्री को भी अपनी चेतना और सजगता को बढाना होगा ,कुछ और परिपक्व होना होगा। उसे अपनी चुप्पी तोड़नी होगी अगर किसी भी अन्य स्त्री के साथ वो अन्याय होते देखती है तो उसके खिलाफ आवाज उठानी होगी। एकजुट प्रयासों से ही स्त्री मुक्ति के प्रयास संभव होंगें और मीडिया के क्षेत्र में उसे उसकी वास्तविक अस्मिता की प्राप्ति होगी जिसकी वो वाकई हकदार है।
डॉ विमलेश शर्मा@vimleshsharma



Tuesday, December 22, 2015

हिज़्र का रंग रूहानी औऱ रूमानी बाजीराव मस्तानी...

              
मराठा योद्धा बाजीराव औऱ दीवानी मस्तानी के किरदार को जिस भव्यता औऱ सहजता के मिश्रण के साथ संजय लीला भंसाली ने उतारा है शायद ही कोई औऱ उतार पाता। मराठी उपन्यास राव पर आधारित यह फिळ्म इतिहास में कल्पना को कुछ यूँ परोसती है जैसे कि दिसम्बर के महीने की ठंड में घुली धूप । पेशवा के सामने गुहार से शुरू हुआ बाजीराव मस्तानी का प्रथम साक्षात्कार अंत तक उसी उष्णता के साथ फिल्म में  बना रहता है।   प्रेम इस फिल्म की आत्मा है औऱ यह अंत तक हर मन को बाँधे रखता है। बाजीराव वाकई एक बहादुर  योद्धा है, एक  पति हैं, एक समर्पित प्रेमी  है औऱ एक जिम्मेदार पिता भी । इन सबके बावजूद यहाँ जो रूप सर्वथा मुखर है वह है एक प्रेमी का।  एक ऐसा पेशवा जो योद्धा है परन्तु बाहर से सख्त होकर भी ओस की बूँदों को थामना जानता है। हवाओं के रूख को पहचानता है और प्रेम को धर्म , समाज औऱ तमाम मान्यताओं से आगे जाकर देखता है। इतिहास में  हिन्दु पद पादशाही की स्थापना करने वाला यह योद्धा पूरे प्राण प्रण से अपना प्रेम निभाता है , यही बात मन को बहुत अधिक छू जाती है। हर स्त्री को सम्मान देकर वो उस स्त्री के दर्द को भी कही कम करना चाहता है जो सामंतवादी सभ्यता में स्त्री सदियों से भोगती आयी है। यहाँ नायक ने अपनी अदाकारी से इस किरदार को बखूबी निभाया है। चाहे योद्धा हो या फिर हताश राव दोनों ही जगह रणवीर सिंह कुछ अधिक परिपक्व नज़र आते हैं।   बात करते है मस्तानी कि तो वहाँ कभी मरवण याद आती है , कभी हीर तो कभी सोहनी । मन लालायित होता है छत्रसाल औऱ रूहानी बेगम की उस बेटी के बारे में जानने का, इतिहास को खंगालने का जो प्रेम के चलते किसी एक रस्म का सहारा लेकर पूरी ज़िंदगी किसी और के नाम करने का ज़ज्बा रखती हो। वाकई यह फिल्म इतिहास के कई अनछूए पन्नों को फिर पढ़ने पर बाध्य करती है। प्रेम की अतिरंजना भले काल्पनिक हो परन्तु प्रेम का यह उदात्त स्वरूप और यह कहन कि बाजीराव ने मस्तानी से मोहब्बत की है,अय्याशी नहीं उस योद्धा को पूरे नम्बर दे देता है जो शायद वह 41 युद्ध जीतकर भी ना प्राप्त कर पाया हो।  तुझे याद कर लिया आयत की तरह , अब तेरा ज़िक्र होगा इबादत की तरह .. इन्हीं पंक्तियों की तरह मस्तानी को पूरे समय हिज्र के रंग में डूबे हुए दिखाया है।
दरअसल यह जो पात्रों के सीधे मन में उतर जाने का रास्ता है वह उनके पीछे सधे हुए अभिनय का सुझाया हुआ है। कहानी  के तीन प्रमुख किरदारों में रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा है औऱ तीनों ने ही अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। दीपिका कुछ औऱ मंझकर दमदार तरीके से सामने आयी है। यहाँ यह कहना बेहद जंरूरी होगा कि मस्तानी के किरदार के लिए अगर कोई सर्वथा उपयुक्त था तो वह थी मस्तानी दीपिका । गज़ब के आत्मविश्वास से लबरेज़ औऱ प्रेम में आकंठ डूबी मस्तानी के किरदार को जिस सहजता के साथ दीपिका ने निभाया है वह काबिलेतारीफ है। दीपिका की उपस्थिति आश्वस्त करती है कि हिन्दी सिनेमा का भविष्य अभी उज्ज्वल है। बाजीराव की पत्नी की भूमिका में प्रियंका , चंचल , शोख , अल्हड़ नज़र आती है । पेशविन जो सदा उजालों के बीच रहती है परन्तु अपने गुरूर के टूटने पर उन्हीं उजालों को मिटा देना चाहती है और चिर इंतजार को ओढ़े हुए अंततः उसी पर विराम भी स्वंय लगा देती है। 
फ़िल्म में  आँखे पूरे समय दीपिका पर टिकी रहती है जो तमाम रस्मों, रवायतों के परे दीवानी होकर  सिर्फ़ प्रेम करना जानती है। रणवीर हर फिल्म के साथ एक पायदान ऊपर चढ़ते हुए नज़र आते हैं। बाजीराव जो युद्ध क्षेत्र में अजेय है परन्तु प्रेम औऱ परिवार के आगे हार गया है उसे निभाने में वह एक हद तक सफल साबित हुए हैं। 
<i>Bajirao Mastani</i> Movie Review


फ़िल्म के लिए बधाई उस निर्देशक को जो मस्तानी के  ही हाथों मस्तानी की तकदीर लिखवाता है , जो यह बताता है कि प्रेम में देह नहीं आत्मा का मिलन होता है वहाँ रिश्तों के बंधन औऱ मजहब की जंजीरे नहीं होती बल्कि प्रेम दरिया बन दो दिलों के बीच बहता रहता है।फिल्म अनेक  सवाल जेहन में पीछे छोड़ती चलती है कि  स्त्री की पहल जहाँ एक ओर मस्तानी को संवेदनात्मक स्तर पर शीर्ष पर पहुँचा देती है वहीं काशी के बारे में मन सोचता रह जाता है।  यह कदम अगर काशी ने उठाया तो पेशवा की पेशवाई किस तरह से होती ये बातें समय के गह्वर में है और समाज की प्रतिक्रिया तो  हम आप जानते ही हैं. 

पूरी फिल्म में जब दर्शक बाहर निकलता है तो साथ रह जाता है एक तुतलाया ख़ुदा हाफ़िज़ , उन सितारों की टूटन  जो अपनी तमन्नाओं की आरज़ू में खुद बखुद टूट जाते हैं , कुछ पत्तों की सरसराहट, संजीदा संगीत औऱ वक्त बेवक्त की बारिश। फिल्म वाकई उन मनःस्थतियों पर सटीक तंज कसती है जो मजहब की आड़ में  प्रेम को गेरूए की बज़ाय हरा और केसरिया रंगने में विश्वास करते हैं।

Monday, December 21, 2015

ज़रूरी है जड़ो की ओर लौटना...

                     

 जिसने तीन साल पहले मनुष्यता को तार तार किया था , आज वह फिर चर्चा मे है।  एक दहशत आज फिर हर दिल महसूस कर रहा है जो उस रात किसी एक ने महसूस की थी। एक माँ हताश है और रूँधे गले से कह देती है कि क्या यही इंसाफ है , आखिरकार जीत जुर्म की ही हुई औऱ मेरा संघर्ष एकाकी रह गया, हार गया। मूर्धन्य लोग बहस कर रहे हैं,  समाज के पैरोकार चिंतित है, माँग है कानून में बदलाव की औऱ कुछ नए कानूनों के निर्माण की । निर्भया के दुर्दांत अपराधी और उस कथित नाबालिग की रिहाई की ख़बर से सारा देश सकते में है। हर मन में एक गुस्सा है, ऐसे कृत्यों के प्रति आक्रोश है औऱ तीव्रता के चरम पर पहुँची थकी हुई पीड़ा है   । यही कारण है कि रातों रात एक नए कानून की माँग के स्वर भी सुने जा रहे हैं जो ऐसे वाकयों में निर्णायक भूमिका अदा कर सही मायने में न्याय दिलाएगा ! हम में  से ही कई लोग  अपराधी का चेहरा उजागर करने के भी पक्षधर हैं जो उस जघन्य कृत्य के लिए उत्तरदायी  था।  ये  कदम जो सम्भवतः उठा  लिए जाएँगें, कानून भी बन जाएँगे परन्तु ये तमाम जतन क्या उन दबे पाँव आने वाले अपराधों को रोकने में कारगर होंगें जो लगातार घट रहे हैं ,उस वीभत्स दिसम्बर के बाद भी । क्या ये कानून किसी ज्योति को निर्भया बनने से रोक पाएँगें? ये  सभी सवाल जो हमारे समक्ष मुँह बाएं खड़े हैं, वास्तविकता में बहुत चिंतन औऱ ठोस कदम उठाए जाने की माँग करते हैं। इसके समानान्तर जो दूसरी बात है जिसे  पीड़ित औऱ उसका परिवेश  निरन्तर भोगता है, उस दर्द की वाकई  कोई भरपाई नहीं है। वह सिर्फ़ कानून में सुधार का ही आकांक्षी नहीं होता वरन् इंसाफ भी चाहता है जो कि अविलम्ब उसे मिलना ही चाहिए।  आज एक ओर समाज को पहल कर कुत्सित मानसिकता में बदलाव को अहमियत देना होगा तो दूसरी औऱ कठोर कानून भी बनाने होंगें। वास्तविक प्रश्न यह है कि क्या केवल कानून अपराधों की रोकथाम कर सकता है  या समाज को भी अपनी निर्णयात्मक भूमिका में लौटना होगा? आज इन तमाम प्रश्नों पर जो कुत्सित अपराध औऱ सामाजिक विसंगतियों से जुड़े हैं ,केवल न्यायपालिका को ही नहीं वरन् हम सभी को भी मिल बैठकर सोचने की आवश्यकता है।  वास्तविकता में  चोट उस मानसिकता पर की जानी आवश्यक है जो इन घृणित कर्मों के लिए उत्तरदायी हैं। आवश्यक है कि ऐसे ठोस कदम उठाएँ जाएं कि ये घटनाएँ घटित ही ना हो। यहाँ बात एक नाबालिग के अपराध से जुड़ी  है,ज़ाहिर है यही बात सबसे अधिक चिंताजनक है।
आज हालात यह है कि संचार क्रांति औऱ आधुनिकता की बहती उच्छृंखल बयार में हर कोई बहता जा रहा है औऱ बचपन की नन्हीं कौंपले असमय वयस्क हो रही हैं। सही मायने में  आज वयस्कता की अवधारणा ही बदल गयी है। आज हर बचपन अपरिपक्व युवा मानसिकता को लेकर बढ़ रहा है। कहीं वह नशे की लत का शिकार हो रहा है, तो कहीं अपराध में लिप्त है । निश्चय ही ये तथ्य चौंकाएँगें पर यह सत्य है कि  नामी संस्थाओं के आँठवी- नवीं कक्षाओं के कई- कई छात्र आज अनेकानेक नशों के आदी हो चुके हैं। पाश्चात्य संस्कृति के मोह ने  और क्षणिक आनन्द प्राप्ति की चाह ने हर अस्तित्व को मिटाकर रख दिया है। हर तरफ एक उन्माद हावी है जो सिर्फं औऱ सिर्फ आत्मकेन्द्रित है। धैर्य , सहिष्णुता और सम्मान जैसे शब्द आज नवयुवाओं के शब्दकोश से नदारद  हैं। शिक्षा के अतिशय दबाव औऱ उन्मुक्तता ने उन्हें आक्रामक बना दिया है औऱ साथ ही तकनीक ने मुहैया करवाएँ हैं वे तमाम साधन जो इस आक्रामकता और अधैर्य को निरन्तर बढ़ावा दे रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी सोशल मीडिया की गिरफ़्त में है। इन्टरनेट पर उपलब्ध विकृत सामग्री उनके उन असहज भावों को बढ़ावा देते हैं जो कि असामाजिक है। टी.वी. और सोशल मीडिया सिर्फ देह के रिश्तों के इर्द-गिर्द ही कहानियाँ बुनते नज़र आते हैं। स्वस्थ हास-परिहास औऱ नैतिक शिक्षाओं का वहाँ पूर्णतया अभाव है। एकल परिवारों की अवधारणाओं औऱ माता –पिता दोनों के कामकाजी होने के कारण बचपन सिमट गया है। सिमटते बचपन से बेलगाम किशोरावस्था को जीते इस बचपन के अपने तनाव, दबाव व संघर्ष हैँ औऱ अपने-अपने कुरूक्षेत्रों में सिमटा बचपन आज एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त हैं।  वहाँ वे अनुभवी आँखें नहीं है जो उनकी हर ऊँच – नीच पर नज़र रख सकें। नतीजतन प्रकृति और अरण्यों से दूर होती यह पीढ़ी  असंवेदनशील हो रही  है।
 यह बात निःसंदेह भयावह परन्तु सच है कि हम एक निरंकुश औऱ उच्छृंखल समाज की ओर  अनवरत अग्रसर हो रहे हैं। युवा पीढ़ी पर जिस मानवीय और नैतिक अंकुश की वास्तविक दरकार है वह पूर्णतः नदारद है। ऐसी घटनाओं के घटने पर हम बात संस्कृति की करते  हैं पर कहीं ना कहीं  आधुनिकता के दंभ में हम भारतीय संस्कृति को बिसरा बैठे हैं, जिसमें संयम , त्याग औऱ ब्रह्मचर्य जैसे गुण बचपन से ही सिखाए जाते हैं। आज कोई  संस्कृति की बात करता है तो आधुनिकता की रौं में उसे दकियानूसी कहा जाता है परन्तु आज आवश्यकता उसी संस्कृति की तरफ़ लौटने की है। भारतीय संस्कृति बचपन से ही नैतिकता का पाठ सिखाती है। पृथ्वी औऱ संपूर्ण चराचर जगत में कौटूम्बिक अवधारणा को लेकर चलती है। यहाँ स्त्री और पुरूष में भेद नहीं वरन् अर्धनारीश्वर की अवधारणा के दर्शन कराए जाते हैं ,रिश्तों को स्नेह के नीर से सींचा जाता है और ब्रहमचर्य जैसे उदात्त विचारों से जीवन को उर्ध्वगामी बनाने पर जोर दिया गया है। यह सच है कि समाज में  अपराध सदा से रहे हैं परन्तु बढ़ती विवेकहीनता के कारण अब ये निरंकुश हो गए हैं। यही कारण है कि वर्तमान समाज में अनेक विकृतियाँ आ गयी हैं। आज शील और ब्रह्मचर्य जैसे रूपकों का मखौल उड़ाया जाता है परन्तु सही मायने में ये तत्व ही अनेक अपराधों  और विकारों को रोकने में महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। किसी घटना के घटित होने के पश्चात् उस पर चिंतन करने की बज़ाय हमें पूर्व में ही उसके रोकथाम हेतु एक दिशा तय करनी होगी । आज  हम सभी को नायक की भूमिका में आना होगा  जो इस युवा पीढ़ी को  बिखरते हुए देख चिंतित होने के साथ साथ उसका सजगता के साथ मार्गदर्शन भी करें । संयमित आचरण औऱ जीवन शैली  वे दो महत्वपूर्ण तत्व हैं जिनका हमें आज के बचपन और नवयुवापीढ़ी में निवेश करना होगा। सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे एप्स पर आज एक अंकुश की सर्वाधिक आवश्यकता है क्योंकि  मानसिक कुंठाओं  और यौन विकृतियों को यहीं से  बढ़ावा मिल रहा है । ठीक ही कहा गया है कि शक्ति को  उन्हीं हाथों में सौंपना चाहिए जो उसका सही उपयोग कर सके। ये युवा सूचना क्रांति के उपकरणों को महज़ एक मन बहलाव के साधन के रूप में ले रहे हैं। यहाँ उपजा आकर्षण उन्हें यथार्थ से दूर कर रहा है, नैतिकता से भटका रहा है, नतीजतन अपराध बढ़ रहे हैं।
  एक साझा जिम्मेदारी उठाते हुए अब पुरजोर आवश्यकता है वास्तविक घर वापसी की , अपनी जड़ो की ओर लौटने की क्योंकि बात उन असंख्य ज्योतियों की है जो जगमगाना चाहती है , बात हमारे समाज की है जिसकी रूग्णता को दूर किया जाना  आवश्यक है। बात उस विश्वास के पुनर्स्थापन की है जो आज भय में तब्दील हो गया है और सबसे ज़रूरी  बात है अपराधों को घटने से पहले ही रोकने की क्योंकि उसके बाद तो परवर्ती घटनाक्रम केवल और केवल एक बहस और विचारयात्रा का हिस्सा भर  हैं। 

चित्र- google से साभार
@vimleshsharma