Monday, October 17, 2016

मनचलों पर सख़्ती बरतनी ज़रूरी


स्त्री जीवन के अधखुले पन्ने-4


जो जितना दर्द सहता है वो उतना ही चुपचाप दरकता है...पर ये दरकन बेआवाज़ नहीं होती। क्या आपने किसी कोमल कोंपल को कभी मुरझाते हुए देखा है
गर उसे यूँ देखेंगे तो पाएँगें कि हमारी नैतिकता के मापदण्ड कितने मोथरे औऱ एक जटिल प्रमेय भर हैं।  मैंने अनेक बार अपने ही कॉलेज में कई छात्राओं को सहमे हुए और एक अज़नबी खौंफ से तारी होते हुए देखा है। बार-बार पूछने औऱ मनोवैज्ञानिक खुराक देने पर पता चलता है कि वह फिर किसी फ़ब्ती औऱ छेड़छाड़ का शिकार हुई है। अक्सर विक्षिप्त लोग भी आपत्तिजनक हालत में परिसर के इर्द-गिर्द अजीबोगरीब हरकतें करते नज़र आते हैं। लगातार घटती इन घटनाओं को देखकर यह सवाल बार-बार जेहन में आता है कि महाविद्यालय परिसर और शैक्षिक संस्थानों में तो छात्राएँ महफ़ूज़ हैं पर यह शोहदों का हुजूम जो बाहर उमड़ा रहता है उनसॆ बचाने की जिम्मेदार भूमिका आखिर कौन तय करेगा । इस आवारगी औऱ उच्छृंखलता के जमावड़े के आगे अक्सर  प्रशासन हार जाता है। आवारगी करते ये युवक भय मिश्रित एक असहज माहौल का निर्माण करते हैं। अजमेर शहर के राजकीय कन्या महाविद्यालय की ही बात की जाय तो यहाँ लड़कियाँ पढ़ने के लिए सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से अलसुबह चल कर आती हैं।  सहज आत्मीय परिवेश से निकली ये कौंपले कई बार छेड़छाड़ के इन प्रसंगों से औऱ पीछा करती नज़रों से इतनी आहत हो जाती हैं कि वे  नियमित महाविद्यालय आना ही छोड़ देती हैं।  लड़कियों के इन मानसिक तनाव के हालातों पर मीर याद आ जाते हैं कि आखिर इस तरह बज़्म में गुज़र किस तरह की जाय- यूँ भी मुश्किल है वो भी मुश्किल है, सर झुकाए गुज़र करें क्यों कर...
हम भले ही 21वीं सदीं में पहुँचने की बात करते हैं पर स्त्री जीवन और उसका यह रोज़नामचा कुछ औऱ ही बयां करता है। वास्तविक जीवन में आदर्श की कल्पना ही यूटोपिया है औऱ फ़िर स्त्री मन के आदर्श तो रोज़ छलनी होते हैं। यह आदर्श तब टूटता है जब कोई घूर-घूर कर भरोसे की आँख में कंकड़ चुभा जाया करता है।  हमारी लड़कियों का यह टूटा भरोसा फिर से कायम हो, इसके लिए समाज को आगे आना होगा। आग्रह है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसे रोकिए। होता यह है कि हम मूकदर्शक बन कर बस अपनी बारी आने का इंतज़ार कर रहे होते हैं। लड़कियों के पहनावे औऱ उनकी हँसी पर पाबन्दी लगाने के बज़ाय प्रयास उन आँखों की रंगीनी उतारने का होना चाहिए जो बेमतलब किसी को परेशान करने में ही अपने लिजलिजे अहं की तुष्टि करते हैं। लड़कियों के इर्द-गिर्द उड़ते इन मनचलों की नज़रों को ठीक करने के लिए शहर प्रशासन औऱ जन समुदाय को सख्ती बरतनी होगी अन्यथा हमारे  शैक्षिक संस्थानों की बाहरी सड़कें  अप्रिय घटनाओं, उच्छृंखलता औऱ असामाजिक व्यवहार की शरणगाह बन जाएँगी।


Sunday, October 16, 2016

अबोला एकांत

अबोला एकांत

माँ!  यह सूरज निकलता है तो पंछी कितनी खुशी से मौज में उड़ते हैं ना....क्या इससे पहले वो भी सोते रहते हैं अपनी माँ के पास...?
यह हवा देखो...  यह भी उसके निकलते ही कैसी जोर से चलने लगती है...
और.. और.. ये बादल क्यों नहीं रोज ही इन पहाड़ो पर टिके रहते हैं..थोड़ी ही देर में क्यों कहीं दूर चले जाते हैं?
उन दोनों का शगल था रोज सुबह उस पहाड़ी के पीछे के सूरज को निकलते हुए देखना.. और यूँ ही सवाल- जवाब करना...पर आज ध्रुव कुछ उदास था..उसकी निंदासी आँखों की पलके कुछ अधिक भारी थी..
माँ! माँ सुनो ना .. आज स्कूल नहीं जाना..
माँ! आज सच नहीं जाना..
ध्रुव ने बहुत ही मासूमियत से आँचल में दुबकते हुए कहा था...

उसने सहलाते हुए हाथों ने उसका मुँह उठाया और कहा ठीक है नहीं जाना तो हम बिल्कुल नहीं  जाएँगें...आज मैं भी नहीं जा रही पर मेरे शहजादे को बताना होगा कि क्या बात है औऱ क्यों नहीं जाना...
माँ!  मेरे साथ कोई नहीं खेलता...सब को कॉपी चेक कराते वक्त ए वन मिलता औऱ मुझे कुछ भी नहीं...कोई मुझसे बोलता भी नही...माँ! मुझे बहुत अकेला लगता है जैसे कोई भी  मेरे साथ नहीं. औऱ यह सब कहते हुए वे कमल से कोटर डबडबा गए थे..
अरे !अरे!  देखूँ तो ज़रा ये मोती मुझे हथेली बीच सहेजने दो कहीं ढुलक ना जाएं...उसने उस नरम फोहे को गोद में उठाया और नाक से नाक सहलाकर बुगली बुगली वुश किया ..दोनों खिलखिला उठे..उसी खिलखिलाहट के बीच नरम हथेलियों को हथेलियों का ताप देते हुए उसने कहा कि देखों उस सूरज को देख रहे हो ना ..वो अकेले डूबता है और अकेला ही उगता है ..रोज..शिकायत उसे भी होती है पर नींद के आगोश में सोते हुए वो खुद को फिर- फिर समझाता है ...औऱ समेट लेता है सारी ऊर्जा अपने ठंडे पड़े अहसासों की...फिर उग आता है..ये पंछी मचलते हैं उसे देखकर औऱ हवाएं कोई अनजाना सुर छेड़ती है जिसे अब तक गाया न गया हो.. । सूरज और चाँद आकाश के छोर पर तेजी से चमकते हुए भी , सबके बीच जीते हुए भी सबसे अकेले होते हैं....तो इसे यूँ समझो कि जो अलहदा होता है वो  सबसे जुदा होता है ।
 वो कुछ अकेला होता है..क्योंकि वो कुछ अलग सोचता है औऱ यूँ सबके बीच रहता हुआ भी  कुछ टूट जाता है..माँ तो मैं भी क्या सूरज और चाँद सा स्पेशल हूँ...
हाँ तुम वैसे हो...
नहीं माँ! मैं उससे भी स्पेशल हूँ क्योंकि मेरे पास तुम हो..
वो हँस दी थी...ध्रुव ध्यान रखना कि जिंदगी अपने इम्तिहान का परिणाम जारी करते हुए भले तुम्हारा नाम सबसे ऊँचे मुकाम पर ना टैग करे पर कोई ना कोई मुकाम सभी के लिए तय होता है,, इन मुकामों की दौड़ में उलझने के बजाय हर एक दौड़ को दिल से दौड़ने की ख़्वाहिश सदा जीवित रखना...वो तुम्हें भी रस देगी ..ठीक वैसे ही जैसे बारिश की बूँदे हर मन को भीगो देती है...
उसके फिसलते बाल बार बार उसके कोमल गालों पर आ रहे थे और एक बीती याद की याद दिला रहे थे..ध्रुव की आवाज़ उसे फ़िर से वर्तमान में लौटाती थी...
माँ! चुप क्यों हो जाती हो कहते –कहते ..कहो ना मुझे तुम्हारे बोल बहुत भाते हैं...और वो अचानक कह उठी थी ध्रुव तुम ऐसे ही रहना इतने ही मासूम ...कुछ बचा पाओ तो बचा लेना अपना यह भोलापन...अपनी यह मासूमियत औऱ अपनी मानवता...मैं जानती हूँ कई बार अकेला मन निराश हो जाता है पर तुम आस की डोर कभी ना हारना...मैं बाँहें फैलाए सदा सदा तुम्हारा इंतजार करती रहूँगी..दिल के कोने मैं झाँकना औऱ मेरी मुस्कुराहट तुम्हारी उदासी को हर लेगी.. सोचो जरा..हमारे यह अहसास ही जीने की खुराक होती हैं  औऱ हर जिंदगी के अपने मायने होते हैं ..
बातों का सिलसिला तोड़ते हुए उसने उसके शून्य में ताकते चेहरे को हाथ से  अपनी ओर” करते हुए कहा, माँ! पर दुनिया की सबसे अजीब चीजें हमारे साथ ही क्यों होती है..अरे बुद्धु बक्से, बताया तो कि हम स्पेशल हैं...और ध्रुव अजीब जैसा कुछ नहीं हैं बस हर जीवन का अपना एक अलग राग है..हर जीवन के अपने आँसू है औऱ अपनी हँसी...होता यह है कि हम बस उजली हँसी को देख पाते हैं उसके पीछे छिपे आँसूओं की नमी को हम अपनी ईर्ष्या से छिपा देते हैं...
अब तुम गौर करना हर एक के जीवन को अगर यह बात फिर कभी तुम्हारे मन में आए तो...अच्छा देखो, वो प्रेस वाले अंकल का लड़का बुधिया है ना उसे ही देखो तुमसे चार साल ही तो बड़ा है ..माँ नहीं है ना उसके पास जिसे तुम जीवन की पहली ज़रूरत मानते हो..और वो तुम्हारी मंदिर वाली नानी जिसकी नाती श्रुति तुम्हें नकचढ़ी लगती है उसने हाल ही में एक रोड एक्सीडेंट में अपने माता-पिता को खोया है...ध्रुव उससे वो यादें, वो शहर भी छूट गया जहाँ वो किसी शहजादी की तरह पल रही थी...यह तो कुछ दुख भरी मिसालें है बेटू ..जीवन वाकई कठोर होता है, बस हमारे जीने का तरीका उसे आसां बना देता है...और जीतता वही है जो चलता रहता है, लगातार...
चलना जीतने की निशानी है..और यह जो हँसी है ना जिससे तुम्हारे चेहरे पर एक नूर आ जाता है वो होता है जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार...मालूम!  कहीँ नीली चप्पलों को पैर नहीं नसीब होते और कहीं पैरों को वो नीली चप्पलें... जो शिखर पर है वो धराशयी हो सकता है औऱ जो रेत की खाक छान रहा होता है वो सर माथे पर चमक सकता है ...कुछ भी तो स्थायी नही...इसलिए नहीं सोचो कि कोई तुमसे बात नहीं करता...कभी कोई बात खुद ही आगे से कर लो...कभी किसी नम आँख को देखो तो उसे मुस्कुराने की एक छोटी सी वज़ह दे दो... कभी किसी खेल को खुद ही शुरू कर दो ...देखना कारवां बन जाएगा...देर बस शुरू करने की होती है...देर बस खुद से बाहर निकलने की होती है...
ओ माँ आज देर हो गई मैं पौधों को पानी नहीं दे पा रहा आप दे देना...और मेरा टिफिन रख दो सिर्फ पन्द्रह मिनट है मेरे पास..ध्रुव की आँखों में एक चमकीली रोशनी थी....वो टिफिन थमाते हुए उसके चेहरे पर घिर आए बालों को देख रही थी तो कभी खुशी से दमकते चेहरे को..माँ मैं यह खट्टा आम दो एक्सट्रा ले जा रहा हूँ गले में अपनी बाँहे डालते हुए कह रहा था.... किसी की खुशी के लिए.. उसने आँखे बंद करते हुए हामी भर दी थी वह बस उसे देख रही थी औऱ उस की खुशी को जी रही थी...वो गेट से स्कूल बस की औऱ भागते हुए कदमों को दूर तक निहार रही थी...कदम ओझल हो गए थे और उस पगडंडी पर  एक बिन्दू उग आया था... आँखों से भावनाएं सब्र का बाँध तोड़ बिखर गयी थी...लौटती पगडंडी से उसके साथ उतर आया था उसका एकांत जो किसी काँधे  को खोज रहा था..... काँधे उसी के कहे शब्द थे कि जो अलहदा होता है ना वो अक्सर अकेला छूट जाता है.....
पास ही कहीं..दो आँखें बालकनी से एक सूरज को डूबते औऱ एक को उगते जाने कबसे देख रही थी...