Monday, November 27, 2017

साहित्यिक पगडंडियों पर मुखरित अभिशप्त उपस्थितियाँ : थर्ड जेन्डर-हिन्दी कहानियाँ

समाज में मनुष्य की भागीदारी मुख्यतः लैंगिक संरचना के आधार पर ही होती हैसामान्यतः  स्त्री और पुरूष। हमारी सदियों की सामाजिक बुनावट को देखें तो यह लगभग एकतरफा रही है, जिसने एक वर्ग को कुछ विशेषाधिकार दे दिए गए इसी के चलते कभी समाज मातृसत्तात्मक रहा तो कभी पितृसत्तात्मक। या यूँ भी कहा जा सकता है कि इनमें से ही कोईएक वर्ग सदियों से दूसरे वर्ग की मानसिकता को बंधक बनाने का प्रयत्न करता हुआ, समय-समय पर शोषक वर्ग की भूमिका में रहा।  आनुपातिक रूप से पितृसत्तात्मक व्यवस्था अधिक समय, कालों और सभ्यताओं में देखी जाती रही है। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने अहल्या, द्रौपदी औरसीता जैसे अनन्य स्त्री पात्रों की सर्जना की। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने इस दूसरे वर्ग को कुछ सौगातें दी जिनमें आत्मदीनता, अपराधबोध और अधिकारहीनता प्रमुख रहे। पर इन दोनों वर्गों से इतर, यह लैंगिक विभेदीकरण जहाँ सर्वाधिक क्रूर है वह पायदान है तीसरा वर्ग जिसे समाज ने थर्ड जेन्डर, तृतीय लिंग या ट्रांस जेंडर की संज्ञा दी है। एक ऐसा वर्ग जिसके असामान्य जीवन को समाज और अधिक क्रूर बना देता है।यह वर्ग ना तो पूर्णरूपेण स्त्री है ना ही पुरूष। सामाजिक सक्रियता और भागीदारी,विकासात्मक अवसरों की दृष्टि से यह वर्ग पूर्णतया बहिष्कृत या हाशिए पर रहा है। इस वर्ग की संवेदना को समझने की कोशिशों में मानवता अभी कोसों दूर खड़ी रही है, कुछ यूँ कि वे नगण्य हो, अनुपस्थित हो। हमारी संस्कृति और परिवेश में कुछ तीज,त्योहारों, उछावों की हँसी-ठिठोली, तो कहीं नेकाचारों के खौंफ में ही इस खास वर्ग के दर्शन होते हैं।

दरअसल किन्नर या हिजरा कहे जाने वाले वर्ग की अनेक श्रेणियाँ हैं। जो वास्तविक किन्नर हैं, शारीरिक विकृतियों से भयावह रूप से प्रभावित हैं, ग्रस्त है,वह प्रजाति दुर्लभ है , इतने दुर्लभ जैसे कि लाखों में एक। लेकिन शारीरिक भिन्नताओं,असामान्यताओं, आर्थिक असमानताओं के चलते अनेक भ्रांतियाँ आज भी समाज में व्याप्त है । कई मामलों में यह मानसिक दबावों की उपज भी रहा है, जिसके खुलासे मनोविज्ञान अपनी शोध रिपोर्टस् में भी करता है। जैविक व यौनिक विभिन्नता से जूझते इस वर्ग की उपस्थिति के प्रमाण रामायण, महाभारत व संस्कृत के नाटकों में मिलते है, साथ ही मिस्र, बेबीलोन व मोहनजोदड़ों की सभ्यता में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। मुस्लिम साम्राज्य में ख्वाजासरा के रुप में इस वर्ग के सुरक्षाकर्मी के रूप में, हरमों में तैनात किए जाने के अनेक उदाहरणों से इतिहास अटा पड़ा है। कौटिल्य अपने र्थशास्त्र में राजा को नीतिपरक उपदेश देते हुए कहते हैं कि-किसी भी कुशल राजा को लेकर हर वर्ग और सभ्यता में मापदण्ड रहे हैं पर पीड़ा यह है कि यह वर्ग सदा से तिरस्कृत रहा है।

आज समय की बदलती बयार और शिक्षा तथा विज्ञान के हस्तक्षेप के चलते इस वर्ग को सामाजिक स्वीकृति मिलने लगी है ,पर खुलकर नहीं। कहीं बतौर अधिकारी तो कहीं शिक्षाविद् के रूप में सामने आकर यह वर्ग अपने होने के प्रमाण तथा अपने जीवट की प्रस्तुति दे रहा है। साहित्यकार वेदना की नज्ब पर हाथ रख कर उन विषयों को पकड़ता है जो संवेदना को गहरे तक झकझोरते हैं। डॉ. फ़ीरोज खान के सम्पादन में निकला थर्ड जेन्डरः हिन्दी कहानियाँ  ऐसा ही संकलन है जो संवेदना के गहनतम गह्वरों को छूता है। इस ज्वलंत और महत्त्वपूर्ण विषय को  उठाते हुए उन्होंने उन कहानियों को संकलन में स्थान दिया है जो इस वर्ग की समस्याओं, उसके प्रति समाज की धारणाओं और भ्रांतियों को भलिभाँति रेखांकित करती है।संकलन में विषय की माँग के अनुरूप हर स्तर की कहानियाँ है और खास यह है कि कहानियाँ कहानीपन से युक्त हैं। तृतीय लिंग औऱ लैंगिक विकृतियों को लेकर जीने वाले वर्ग के जीवन की कटु सच्चाइयों को उकेरती ये कहानियाँ समाज की बहुस्तरीय और एकांगी सोच को भी अभिव्यक्त करने में सफल हुईं हैं। 

हिजड़ा शब्द दिमाग में आते ही एक अज़ीब छाया आकार लेने लगती है।इस प्रक्रिया में मेरे जेहन में उनसे चुहल करते , छेड़खानी और भद्दे अश्लील टिप्पणी करते लोग सामने आ जाते हैं। बचपन से इस वर्ग को गहरी लाली लगाए और चमक कपड़ों में लिपटे कभी माथे पर आशीष धरते तो कभी गुस्से में गालियां देते हुए ही देखा है। जिज्ञासा और कौतुहल इस वर्ग को लेकर सदा बना रहा जो बाद में अध्ययन से शांत भी हुआ। सिनेमा पर भी कुछ फिल्में मिली जो इस वर्ग की पीड़ा का सजीव चित्रांकन करने में सफल हुई हैं पर साहित्य में इस विषय पर पढ़ना अभी तक इतना विशद रूप से लगभग नहीं ही हुआ था। एक शैक्षिक प्रशिक्षण के दौरान इस वर्ग पर अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिली जिसने मेरे सारे भ्रमों और पूर्वाग्रहों को तोड़ दिया। थर्ड जेन्डर कहानियाँ इसी विषय पर चेतना का अगला पड़ाव साबित हुई। साहित्य में मुझे अब तक किन्नर वर्ग सर्वथा उपेक्षित ही नज़र आ रहा था परन्तु यह संकलन इस कमी को पूरा करता है। काम कम सही पर साहित्य ने इस विषय पर लिखकर अपनी सार्वभौमिकता सिद्ध की है।

यों साहित्य में अनेक धाराएं हैं , अनेक विमर्श हैं , स्वयंभू रचनाकार हैं, वाद-प्रतिवाद है, तमाम बहसें हैं पर असल मुद्दे और चिंताएं, वास्तविक लेखन और सरोकार नदारद है। ऐसे में यह विषय चयन आश्वस्त करता है कि साहित्य और सरोकारों पर बात करना अभी चिंतन के दायरे से पूर्णरूपेण विलोपित नहीं हुआ है। जिन कहानियों का ज़िक्र यहाँ किया जा रहा है वे उस वर्ग के वास्तविक जीवन का प्रतिबिम्ब प्रतीत होती हैं। अनेक कहानियों को पढ़ना तो पीड़ा से गुजरना हैं। इऩ्हें पढ़ते हुए अनेक बैचेनियाँ आपको घर लेंगी, आँखे आँसुओं से सराबोर होंगी और मन विचलित कि जीवन की पगडंडियों पर इतने काँटें भी हो सकते हैं। इन कहानियों में विषयगत समस्याएँ और समाधान तो हैं ही साथ ही लेखकीय दृष्टिकोणऔर वैचारिकी का भी स्थल-स्थल पर परिचय मिलता रहता है। कई कहानियों में यूँ भी हुआ है कि घटनाएँ और पात्र किसी मनोवैज्ञानिक सत्य के निमित्त ही लाए गए हैं। यही कहानियों की ताकत है जो उन्हें वृहत्तर बनाती है। इसीलिए एक आलोचक ने कहा है कि इतिहास में सब कुछ यथार्थ होते हुए भी वह असत्य है, और कथा-साहित्य में सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी वह सत्य है। बकौल प्रेमचंद, साहित्य में कहानी का स्थान इसलिए ऊँचा है कि वह एक क्षण में ही, बिना किसी घुमाव-फिराव के, किसी ना किसी भाव को प्रगट कर देती है और चाहे थोड़ी ही मात्रा में क्यों ना हो, वह हमारे परिचय का , दूसरों में अपने को देखने का, दूसरों के हर्ष या शोक को  अपना बना लेने का क्षेत्र बढ़ा देती है।(प्रेमचंद-कुछ विचार)

बिन्दा महाराज’, शिवप्रसाद सिंह की चर्चित कहानी है जिसमें बड़ी ही कलात्मकता के साथ बिंदा महाराज उर्फ़ बिंदिया के मन की थाह लेने का प्रयास किया गया है। यहाँ बिंदा महाराज के जीवन की समस्याएं तो उकेरी ही गयी हैं पर उसके मनोभावों को प्रकट करने वाले अनेक बिम्ब भी हैं। आँखों की कालिमा पर काली छाया, सूखे होंठों पर पीला प्रकाश, अस्थिर चित्त की डोलती रोशनी की यह लुका-छिपी। यही जीवन है बिंदा महाराज का। प्यार उसकी आतमा की प्यास थी, किंतु परिणामहीन प्रेम को वह समझ नहीं पाता।(बिंदा महाराज-पृ.26) कहानी की ये पंक्तियाँ बिन्दा महाराज के जीवन सत्य और उसके अंतर्विरोध को स्पष्ट कर देते हैं। मुसकान का दुपहरिया के फूल की तरह झुलसकर बिखरना बिम्ब जीवन की जटिलता को भाषा में पकड़ने का आग्रह है। बिन्दा महाराज ताउम्र प्रेम के लिए तरसता है और अंत में उसे प्रेम में छोड़कर चले जाने की पीड़ा से इतना भय लगता है कि वह अकेलापन कमा लेता है। फिर यदि कोई प्रेमिल नज़र उसकी परछाई की ओर भी बढ़ती है तो वह उससे एक खास दूरी बना लेता है,फिर वह चाहे उसका भतीजा करीमा हो या घुरविनवा। उसके जीवन में मुन्ना का आना और बुआ कहकर पुकारना मन की रेती पर बारिशों की फुहार सा था पर उसकी मौत का उसके साथ का असर कहकर कलंकित करना उसे भीतर तक तोड़ जाता है। यही कहानी का वह मार्मिक बिंदु है जहाँ कहानी का कैनवास व्यष्टि से समष्टि तक फैल जाता है। 

कहानी का विराट संदेश कहानी की बुनावट के अनेक स्तरों में छिपा है। कहानी में ना केवल कथानक उसे महत्तवपूर्ण कलात्मकता प्रदान करता है वरन् रचनात्मक संभावना के विविध आयाम भी खोलता है। किन्नर वर्ग की पीड़ा, उसकी संवेदनाओं और समाज के बदलते मिज़ाज और पूर्वाग्रहों की भी कलई कहानीकार अनेक आयामों में खोलता है। भावुक क्षणों की बानगी इतनी अधिक है कि अंत में बिन्दा महाराज की झुलसती हँसी के साथ ही पाठक को एक चुप सी लग जाती है।

प्रकृति के मानवीकरण में डूबी ख़लीक अहमद बूआ, राही मासूम रज़ा की महत्वपूर्ण कहानी है। एक मायने में यह बिंदा महाराज कहानी का मुखर रूप से संवेदनात्मक विस्तार है। बिंदा महाराज जहाँ अपनी नियति और घट रही क्रूरताओं को लेकर मौन का वरण कर लेते हैं वही ख़लीक़ अहमद बुआ मुखर रूप से प्रतिरोध दर्ज़ करती है। ...सुहाग,सुहाग होता है चाहे वह किसी हीजड़े का ही क्यों न हो..(ख़लीक़ अहमद बूआ- पृ.-32)कहानी का वह वाक्य है जो बूआ की संवेदनाओं के महीन रेशों को खोल कर रख देता है। बूआ केवल स्त्रियोचित् व्यवहार ही नहीं वरन् उदार जीवन मूल्यों से भी पगी हुई हैं। रूस्तम खाँ को वे धर्म की सीमाओं को पार कर ,डूबकर एक समर्पिता पत्नी की तरह चाहते थे। उनकी चाहत का आलम यह था कि वे दिन-रात, उठते-बैठते अपनी चूड़ियों की सलामती की दुआ चाहते। यही समर्पण नफ़रत और प्रतिशोध में तब बदल जाता है, जब रूस्तम खाँ बूआ से बेवफ़ाई करते हैं। ठीक यहीं कहानी आदर्श का दामन छोड़ यथार्थ की राह पकड़ लेती है। यथार्थ और मनोविज्ञान की महीन सरणियों को पकड़ रचना स्वीकार और नकार के सिरों पर खतम होती है। मूल्यों के उचान और निचान ना केवल मानवीय संवेदनाओं की परिस्थिति सापेक्ष अस्थिरता को दिखलाते हैं वरन् यह बात भी सिद्ध करते हैं कि संवेदनाओं के ज्वार भाटे में कोई लैंगिक विभेद आड़े नहीं आता। बूआ का अपने प्रेम में तटस्थ और समर्पित व्यक्तित्व पूरी कहानी में समाया हुआ है।कहानी के मुख्य चरित्र  में आया विचलन मनोविज्ञान के आलोक में सहज ही खोजा जा सकता है। गुंफित दृश्य विधान, संवेदनात्मक गहराई और चारित्रिक विकास कहानी की अन्य विशेषताएँ है

बीच के लोग शीर्षक ही कहानी की संवेदना खुल कर ज़ाहिर कर देता है। सलाम बिन रज़ाक इस कहानी में किन्नर वर्ग के ब्याज से प्रशासनिक व्यवस्था पर व्यंग्य कसते हैं। सरकार और प्रशासन किस प्रकार एक हुजूम, एक आंदोलन को रोकने में नाकाम साबित होती है उसकी शाब्दिक बयानगी है बीच के लोगकहानी। कई बारगी हिजड़ा शब्द नाकारगी को लेकर भी आम-बोलचाल में ध्वनित होता रहा है, यहाँ यह अर्थ ही व्यंग्यात्मक रूप से अधिक ध्वनित हो रहा है। कहानी में कहे गए वाक्य, कल संसार  हिजड़ों का होगा, हम से जो टकराएगा, हम जैसा हो जाएगा प्रशासनिक व्यवस्था की टालू नीति पर प्रहार करते है। हुजूम को रोकने के लिए सुरक्षा बल बुलाए जाते हैं, पर महिला व पुरूष दोनों ही फोर्स असफल रहती हैं, दोनों ही अपने-अपने कारण सुझाते हैं। सिपाहीअकर्मण्यतावश उपद्रव को रोकने की बज़ाय कौतूहल और विस्मय भरी दिलचस्पी के साथ दर्शक की भूमिका में अधिक नज़र आते हैं यही बात संभवतः कहानीकार यहाँ अभिव्यक्त करना चाहता है। कमिश्नर से लेकर होम मिनिस्टर तक सब के सब, समाज द्वारा कहे जाने वाले इन बीच के लोगों के हाथ की कठपूतली बन जाते हैं। व्यवस्था का मूक बनकर स्थितियों को हस्तगत होते देखना सुरक्षा और सरकारी नजरिए की पोल खोलता नज़र आता है। इसी बीच स्थिति बिगड़ती है और पुलिस और प्रशासन को कुछ उपद्रवियों की खबर हाथ लगती है और वे उनसे जूझने के विकल्प तलाशते हैं। कहानी कथानक के अंतर्विरोध को संपूर्ण तीव्रता से बयां करने में असमर्थ होती हुई कमजोर ज़रूर साबित होती है पर नाकारा और तमाशबीन प्रशासन पर करारा व्यंग्य बाण छोड़ जाती है। 

दरअसल यथार्थ को बयां करने के लिए कहानीकार को ऐसे अनुभवों को भी कहानियों में लाने की ज़रूरत होती है जो टिपिकल तो नहीं पर दुर्लभ होने के कारण कहानीकार का ध्यान आकृष्ट करते हैं। किन्नर, एस.आर.हरनोट की ऐसी ही कहानी है। कहानीकार हरनोट कहानी में उस जनजातीय जिले किन्नौर का जिक्र करते हैं जिसके निवासी कालान्तर में किन्नर कहलाते थे। यहाँ रहने वाली जनजाति किन्नर या किन्नौरा कहलाती है, जिसे 1956 में भारतीय संविधान की अनुसूची में भी शामिल किया गया। जब से किन्नर शब्द का प्रयोग ‘हिजड़ा समुदाय के लिए होने लगा , किन्नर जनजाति के लिए अस्मिता का संकट उत्पन्न हो गया। किन्नर कहानी इसी अस्मिता के संकट को रेखांकित करती हुई महत्तवपूर्ण कहानी है। यह कहानी थर्ड जेन्डर से इतर युवा प्रेम की कहानी है। बेलीराम और सुमन का प्रेम और युवा मानसिकता की वैचारिक उठापठक कहानी के मूल  में है। दरअसल लेखक वो देखता है जिसे सामान्यतः हर आँख नहीं देख पाती, यही कारण है कि यह कहानी उस वर्ग को लेकर लिखी गई है जो अपनी जाति संज्ञा के साम्य के कारण अस्मिता संकट का सबब बन गई है। बेलीराम किन्नर जिला परिषद् का सदस्य है ।वह अधिकारियों को समझाने का प्रयास करता है कि किन्नरों के साथ क्या कुछ गुजर रहा है।उनके समुदाय पर संकट के बादल हैं। संसकृति और साहित्य का अपमान है। वेदों और पुराणों में वर्णित किन्नर जाति की खिल्ली है। फिर उस संविधान की भी जिसमें इस समुदाय को इसी आधार पर जनजाति का दर्जा मिला है। मीडिया के लोगों की अज्ञानता से किन्नर देश संकट में है।(किन्नर-पृ.-50) बेलीराम अपनी व्यथा और दलीलों को अधिकारियों , न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करता है पर सभी हाँ, हूँ में टालकर अधिकतर उसका मखौल ही उड़ाते हैं। कई लोग तो उसे मशविरा ही दे डालते हैं कि तुम जो यह अपना उपनाम किन्नर लिखते हो इसे हटाकर, नेगी, शेगी लिखा करो, गलत संदेश जाता है। बेलीराम यह समझा-समझा कर थक जाता है कि वह जिस स्थान पर जन्मा है वह सदियों से किन्नर देश कहा जाता है। जहाँ किन्नर, किरात, गंधर्व जैसी पौराणिक जातियां रही हैं। इस उपनाम से उसे अपनी जड़ों से जुड़े होने का अहसास होता है। वह इस अस्मिता संघर्ष के लिए लड़ता है पर हताश हो जाता है। सुकून मिलता है तो तोशिम किम में सुमन के साथ।

कुसुम अंचल की कहानी ई मुर्दन का गाँव डिफेंरटली एबल्ड वर्ग के लिए लिखी गई खूबसूरत कहानी है। खूबसूरत इसलिए कि इसकी कहन शैली सीधे पाठक के मन तक पहुँचती है। वहाँ अतिरिक्त दुराव-छिपाव और कलात्मकता का प्रयास नहीं किया गया है साथ ही इस वर्ग के मनोविज्ञान, उसके हाव-भावों को समझने के लिए परिवेशगत पृष्ठभूमि पर भी विचार किया गया है। दरअसल यह वर्ग बचपन से ही कुछ भिन्न हाव-भावों और शरीर विज्ञान को लेकर बड़ा होता है। उम्र के साथ-साथ शरीर में कुछ बदलाव होने लगते हैं पर समाज, परिवार इसे सहज रूप से नहीं ले पाता। इसका एकमात्र कारण इस वर्ग को लेकर सामाजिकअस्वीकृति का होना है। समाज औऱ परिवार इसे अपनी मान,प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखने लगते हैं और एक जीवन को मुर्दा घोषित कर देते हैं। एक तरफ समाज है, दूसरी तरफ वह वर्ग और उसका समाज जो उस विकृति से पीड़ित शरीर पर अपना हक जताते हैं, दरअसल दोनों ही उसे एक ऐसे जीवन की ओर मोड़ देते हैं जो नरक तुल्य है, जहाँ जीवन नहीं है, बस स्वांग है। इसी स्वांग पर लेखिका ने कहानी के माध्यम से आपत्ति दर्ज़ की है। मुझे लगा, बहुत सारे स्वाँग हैं इस संसार में जो मनुष्य की मनुष्यता को ही नहीं ललकारते- व्यवहारों, राजनीतिक सत्ता, यौन-रवैयों  और रिश्तों की प्रचलित अवधारणाओं को भी चुनौती देते हैं(ई मुर्दन का गाँव-पृ.55)सिद्धार्थ अलिंगी लोगों के बीच जाकर उनकी व्यथा-कथा को सुनता है तो सन्न रह जाता है। कहीं यह वर्ग धार्मिक प्रश्रय लेकर गोपीभाव से स्वयं को तुष्ट करता है तो कहीं ठहरी हुई उदासी और गमगीन सच के साथ पुश्तैनी अड्डों पर। कहानी में बिली के माध्यम से यह भी बताया गया है कि अगर ऐसे बच्चों की सही परवरिश की जाए, उन्हें उनके अलग होने की पहचान के बारे में अतिरिक्त संवेदना देकर अधिक संवेदनशील नहीं बनाया जाए तो वे अपना जीवन बेहद सफल तरीके से जी सकते हैं। पर य़ह समाज अभी बहुत पिछड़ा है औऱ यह वर्ग जिस समाज में जिए जाने को अभिशप्त है, वह भी मुर्दन का गांव है।

संकलन की संझा कहानी किरण सिंह की बेहतरीन कहानी है। मुझे यह कहानी अपने कथ्य, शिल्प , संदेश संभावना, सामाजिक दृष्टि हर नज़रिए से बेहतरीन नज़र आई। कहानी एक पिता की भी है जो अपनी बेटी से अथाह प्रेम करता है पर साथ ही उसकी लैंगिक विकृति को लेकर , जमाने की नज़र का भय भी रखता है। कैसी होगी उस पिता की स्थिति जो सामाजिक दबाव और भय के चलते यह चाहता है कि संझा को प्रेम ना मिलेवह चहारदीवारी में छिपी रहे। वह किसी से ना घुले मिले ,ताकि प्रेम उसके मन में ना उपज पाए और वह किसी को प्रेम दे भी ना पाए,हर तरह से बंजर रहे। उनका मानना था कि संसार के कलुष व्यवहार और बेरूख़ी के बदले यह पीड़ा तो निःसंदेह कम ही होगी।...लेकिन कोई बात नहीं। सतरंगा संसार देख लेने के बाद, आँखों की रोशनी छिन जाए, तो जन्मांध से अधिक पीड़ा होगी।(संझा-पृ.60) संझा को उसके बाऊदी प्रेम और अपनी निगरानी में बड़ा कर रहे थे पर मनुष्य मन में असीम जिज्ञासाएँ होती हैं । बढ़ती संझा को छुपाना मुश्किल होता है औऱ फिर बाऊदी की ढ़लती उम्र उनकी चिंता को बढ़ा देती है। बढ़ती उम्र के चलते बाऊदी से जंगल जड़ी बूटियाँ लेने जाना नहीं हो पाता औऱ आमदनी रूक जाती है। अपने बाऊदी के गिरते स्वास्थ्य को देख उनके पेशे के लिए जड़ी-बूटियाँ जुटाने का निर्णय संझा बाऊदी की तमाम ना-नुकुर के बाद स्वयं लेती है। वह जंगल जाती है औऱ बूटियाँ जुटाती है। अपने हम उम्र वयस्कों को नहाते देखकर एक दिन उसके  सामने उसका भेद भी खुल जाता है। संझा बुझ जाती है पर बाऊदी उसे हौंसला देते हैं। यह हौंसला कहानी में एक संदेश की भाँति उभरता है पर साथ ही एक प्रश्न भी पाठक के जेहन में छोड़ जाता है कि क्या यह संकीर्ण सोच रखने वाला समाज कभी यह संदेश समझ पाएगा? “किस्मत ने एक ज़रूरी अंग हटा कर तुम्हें पैदा किया है, बेटी!...इस पर संझा का कहना कि “जीवन के लिए सबसे ज़रूरी तो आँख हैं। जोगी चाचा अंधे हुए। जरूरी तो हाथ है। बिंदा बुआ का दाहिना हाथ कोहनी से कटा हुआ है। रामाधा भइया तो शुरू से खटिया पर पड़े हैं, रीढ़ की हड्डी बेकार है। बिसम्भर तो पागल है, जनम से बिना दिमाग का।क्या....वो.....वो..आँख,कान,हाथ,पाँव,दिमाग से भी बढ़ कर होता है? (संझा-पृ.65) इस पर बाऊदी का प्रतिकथन संझा के प्रश्न के उत्तर के साथ-साथ समाज की रूग्ण मानसिकता का भी परिचय दे देता है। ..इस धरती के बासिन्दों ने तुम्हारी जाति के लिए हलाहल नरक की व्यवस्था की है। उस नरक के लोग पहाड़ी पर तुम्हारे जन्म के सात साल बाद आकर बस गए हैं। वे लोग कपड़े उठा कर नाचते हैं और भीख माँगते हैं। लोग उन्हें गालियाँ देते हैं, थूकते हैं, उनके मुँह पर दरवाजा बंद कर लेते हैं, उन्हें घेर कर मारते हैं। वे जिस इलाके में बसे हों, वहाँ कोई भी अपराध हो, इन पर ही इलजाम लगता है। वे डरे और जले हुए लोग अपनी बिरादरी बढ़ाना चाहते हैं। तुम्हारे बारे में पता चल गया तो वो लोग तुम्हें छीनने आ जाएँगेंऔर चौगाँव के लोग तुम्हें घर से खींच कर उनके साथ भेज देंगे। (संझा-पृ.65) बाऊदी उसे संसार का सच दिखाते है पर फिर भी संझा को उसी संसार में जाना होता है। उसका बियाह भी होता है, वह पति की जी भर सेवा भी करती है साथ ही साथ पूरे गाँव की भी। पर एक दिन सच उजागर हो ही जाता है और यह कठोर संसार कृतघ्न हो उस पर हँसता है। यूँ गाँव के हर व्यक्ति के कर्मों का लेखा-जोखा, उनकी जन्मकुंडली उसके पास थी पर उसने कभी किसी का सच ज़ाहिर नहीं होने दिया था। पर वे ही गिरे हुए लोग और उसका ससुर ललिता महाराज जब संझा को मारने को आमादा हो जाते हैं, तो वह बिफर पड़ती है। संझा की टूटन से उपजे ये शब्द कहानी को मार्मिकता के चरम पर पहुँचा देते हैं, “ न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ। न तुम्हारे जैसी औरत हूँ। मैं वो हूँ जिसमें पुरूष का पौरूष है और औरत का औऱतपन। तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते, क्योंकि मैं एक ज़रूरत बन चुकी हूँ....अपनी औषधियों में अमरित का सिफत मैंने तप करके हासिल किया है। मैं जहाँ जाऊँगी , मेरी इज़्ज्त होगी। तुम लोग अपनी सोचो । तो मैं चौगाँव से निकलूँ या तुम लोग मुझे खुद बाउदी की गद्दी तक ले चलोगे।(संझा-पृ.79) लेखिका ने संझा को बाऊजी की गद्दी तक पहुँचाकर भले ही न्याय की स्थापना और संझा के आत्मसम्मान की रक्षा कर ली हो पर समाज का सच उसके जन्म से लेकर उसके और उसके बाऊदी द्वारा झेले जाने वाले संघर्षों में साफ दिखाई देता है। क्या कहानी का अंत हमारे समाज की सच्चाई है, लेखक यह अंत लिखकर पाठक को यह सोचने को विवश कर देता है।

वस्तुतः हर कहानी में कहानी का हर किरदार कुछ न कुछ कहता है।  कभी वह स्वयं अपने को बयां करता है तो कभी कहानी के अन्य पात्र उसके बारे में कहते हैं, कहानीकार दोनों ही माध्यमों से तो कभी स्वयं पृष्ठभूमि में उसके बारे में कहता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि चरित्र विपरीत परिस्थितियों में क्या करता है। ठीक यही बात कादंबरी मेहरा की कहानी हिजड़ा में ध्वनित होती है। कहानी की प्रमुख चरित्र राहुल के मौसी की स्कूल की साथी रागिनी इतनी दमदार रूप में उभरती है कि  हर कोई उसके जीवन और भविष्य जानने को लालायित हो जाता है। रागिनी का ह्रदय बचपन से ही कभी नियति तो कभी सौतली माँ के अत्याचारों से व्यथित रहता है। शहर में जीजा उसका शारिरीक शोषण करता है। उसकी व्यथा को लेखिका ने  अन्य चरित्रों के माध्यम से इन पंक्तियों में बखूबी चित्रित किया है-शुरू-शुरू में बहुत रोती थी.....पर अब इसे मज़ा आने लगा है। है नाइसकी जिज्जी नहा-धोकर, इतर पाउडर लगाकर बिस्तर में जाती है औऱ जीजा कोयले की कोठरी में टाट बिछाकर इसको रिझाता है...गोबरचट्टे को कंडों की खुशबू भाती है... (हिजड़ा-पृ.85) …. “यह सब सुनकर उसे अपनी गाय की याद आ गई जिसकी पूँछ के नीचे कीड़े पड़ गए थे और वह दर्द के कारण मक्खियों व पंछियों को उड़ा नहीं पाती थी। उसकी आँखों की मूक वेदना रागिनी की आँखों में उतर आई थी। मुझे दोनों की बेचारगी औऱ छटपटाहट एक जैसी लगी।(हिजड़ा कहानी-पृ.86) दो चरित्रों द्वारा रागिनी के लिए कहे गए ये कथन उसकी मर्मान्तक पीड़ा की सटीक अभिव्यक्ति कर देते हैं। रागिनी अवश परिस्थितियों के चलते हिजड़ा बन जाती है। वह शारीरिक व लैंगिक रूप से स्वस्थ है पर उसकी कद-काठी स्त्रैण नहीं लगता। फिर एक स्त्री के लिए पुरूष वर्ग अधिक क्रूर है। एक अकेली स्त्री को हथियाने का, उस पर अत्याचार करने का कोई मौका पुरूष नहीं छोड़ता। यह तो लाचारगी की बात हुई पर अनेक लोग आजीविका की पूर्ति करने हेतु नकली वेश धारण कर उत्पात मचाते हैं, यह कहानी उस ओर भी इशारा करती है। यह कहानी एक साथ स्त्री और किन्नर वर्ग के जीवन की विडम्बनाओं को प्रस्तुत करती है।

इज्जत के रहबर कहानी डॉ पद्मा शर्मा कृत हिजड़ो की पृष्ठभूमि को लेकर लिखी गई  ऐसी कहानी है जिसमें वे मानवता के पैरोकार के रूप में सामने आते हैं। कहानी में इस वर्ग की पीड़ा, संत्रास और त्रासद स्थितियाँ तो है ही पर साथ ही यह भी दर्शाया गया है कि ,वे अन्याय के खिलाफ भी निर्भीक हो अपनी आवाज़ उठाने से नहीं चूकते जहाँ एक परिवार अपनी बेटी के साथ हुई ज्यादती पर पुलिस रिपोर्ट लिखाने में भी संकोच करता है उस समय सोफिया को अपराधी को ऐसी सजा देने की ठानना जिसे सुनकर कोई बहू-बेटियों की तरफ आँख उठाने की हिम्मत न करे , उनके प्रति गढ़े गए तमाम सामाजिक पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करता है। बल्लू जो इसी वर्ग के साथ रहता है उनकी दरियादली और मानवता के उच्च को देख नतमस्तक हो जाता है। वह समाज को हेय नजरिए से देखते हुए कह उठता है कि संवेदना की गहनता और विरोध करने की हिम्मत तो इस वर्ग में है जो अधूरे कहे जाते हैं, जिनका समाज नाकारा कहकर उपहास उड़ाता है। वास्तविक इज्जत औऱ सम्मान से तो यह तबका जीता है।समाज में रहने वाले गृहस्थों की इज्जत तो मौके-बेमौके उधड़ती रहती है, उतरती रहती है। इज्जत के रहनुमा कहे जाने वाले दरअसल गुण्डों से डरते हैं और अनजाने में रहबर बन जाते हैं, जिसका अंजाम भुगतती हैं उनके घर की बहन-बेटियां।(इज़्ज़त के रहबर-पृ.96)

कुसुम और सुंदरी के किन्नर जीवन को लेकर लिखी गयी कहानी है, कौन तार से बीनी चदरिया। शीर्षक की ही भाँति लेखिका अंजना वर्मा ने कहानी को महीन संवेदनात्मक रेशों से बुनने की पुरज़ोर कोशिश की है। पत्थर दिल दुनिया के लिए सुंदरी का यह कहन, “संवेदनहीनईश्वर ने सब कुछ दिया है। सारे अंग बनाकर भी ईश्वर इन लोगों के भीतर दिल रखना भूल गया है।...(कौन तार से बीनी चदरिया-पृ.101) ंवेदनहीनता की स्थितियों की पराकाष्ठा को प्रस्तुत करता है। सुंदरी का अपने घर से उतना ही लगाव है जितना बचपन में था।  घर के आँगन के पीपल की तरह ही माँ की हँसी और नेह उसके मन को अब भी सरसराता है। वह जानती है कि माँ की मजबूरी ही तो थी, नहीं तो वो कभी दूर नहीं करती। वह जानती है कि एक माँ के लिए ही तो सब संतान बराबर होती है। अपने घर की ही टोह लेने वो सजल नेत्रों से गाँव जाती है। आँगन में पहुँचकर अपने वज़ूद को स्वांग रचते हुए उस घर से रिश्ते होने की बात को छिपा लेती है और माँ को शिवाला आने का संदेश भी आस भरी नज़रों से दे देती है। माँ की वेदना सुंदरी से बिछड़ने की पीड़ा कहानी में अनेक स्थानों पर साफ दिखाई देती है, “तुम्हें इतना रूप दिया भगवान ने, पर उसका माथा खराब हो गया था कि तुझे ऐसा बना दिया। फिर भी जैसी भी थी, रहती मेरे आंगन में। पर सब उठा ले गये मुझसे छल करके। हमेशा इसी डर से दरवाज़ा बंद करके सोती थी। उस दिन तुझे लेकर सोयी तो आँख लग गयी। किवाड़ खुले हुए थे। तभी सब उठा ले गये...दे दिया तुम्हें खोजवा को.......।(कौन तार से बीनी चदरिया-पृ.105) यही समाज का कमजोर और भीरू  पक्ष है जो अनेक कहानियों में ध्वनित हुआ है। ना चाहते हुए भी वर्ग विशेष ऐसे बच्चों को उठा ले जाता है, उनके शरीर कोआमदनी का जरिया बनता है, पर इस प्रक्रिया में कई जिंदगियों खण्डित हो जाती हैं, और उनके घाव ताउम्र रिसते रहते हैं। ललित शर्मा की कहानी रतियावन की चाची भी इसी कथानक और पीड़ा को पार्वती के माध्यम से आगे बढ़ती है। संस्मरणात्मक ढंग से लिखी गयी यह कहानी एक वृहन्नलला की कहानी है, समाज में जिसे हिजड़ा-हिजड़ी या करबा-करबिन के नाम से जाना जाता है। जिसकी स्मृतियों में आज भी उसका बचपन जीवंत है और वह तब तक जीवंत रहता है जब तलक उसकी आँखें मुँद नहीं जाती।

महेन्द्र भीष्म की त्रासदी कहानी अशरीरी और प्लेटोनिक प्रेम को लेकर लिखी गयी है पर सवाल फिर वर्चस्व का आड़े आ जाता है। समाज जब विपरीतलिंगी और समलिंगी प्रेम को ही स्वीकार्यता नहीं देता तो फिर इस तृतीय लिंग के प्रति प्रेम और आकर्षण को स्वीकारना तो बहुत दूर की कौड़ी है। कहानी के ताने-बाने में रति नाम की स्त्री, सुंदरी नामक किन्नर से दिल लगा बैठती है। रति की दो बेटियाँ और एक बेटा है। तमाम दायित्वों का वह कुशलतापूर्वक निर्वहन करती है पर बेटे की सोहबत और उसके प्रति लिए निर्णय उसकी नज़रों में सुंदरी को विरोधी बना देते हैं। एक दिन माँ और सुंदरी को साथ हँसते देख उसका मन क्रोध से भर उठता है और वह सुंदरी को उठाकर पटरियों पर फेंक देता है , रति भी उसके प्रेम प्रण में, रेल के ही सामने आत्मोत्सर्ग कर देती है, और य़ूँ त्रासदी के रूप में एक प्रेमकथा का अंत हो जाता है। यह कहानी खलिक़ अहमद बूआ का ही विस्तार प्रतीत होती है, वहाँ प्रतिशोध की आँच है तो यहाँ आत्मोत्सर्ग की वेदी।

फिलवक्त देश में बात जहाँ बेटी बचाओ अभियान की चल रही है, वहीं इस संदेश को कहानी संग्रह की नेग कहानी में भी प्रेषित किया गया है। लवलेश दत्त इस कहानी में  ऐसे परिवार का चित्रण करते हैं जो दो बेटियों के बाद एक और बेटी के आने से व्यथित हैं।बेटी के जन्म पर माँ को अनगिनत ताने दिए जाते हैं,जैसे कि उसने अक्षम्य अपराध कर दिया हो। लोक-लाज से यह संदेश समाज में प्रेषित किया जाता है कि बेटा हुआ है। खबर से हिजड़े नेग लेने आते हैं , घर वाले नेग देने में असमर्थता ज़ाहिर करते हैं और हिजड़े बेटी होने की असलियत जानकर उसे 500 रूपये का नेग देकर ढ़ेर आशीषें देकर जाते हैं। कहानी का यह अंत परिवार की मानसिकता में बदलाव लाता हुआ दिखाता है। इस वर्ग की दरियादिली औऱ संवेदनशीलता का चरम है श्री कृष्ण सैनी कृत हिजड़ा कहानी। कहानी में रजिया किन्नर व निम्मों में सगी बहनों से अधिक प्रेम है। रजिया इस प्रेम का निर्वाह निम्मो की मौत के बाद उसके पुत्र सुनील को पाल-पोष कर करती है । वह उसे पढ़ाती है और आत्मनिर्भर बनाती है पर उस पर कभी यह ज़ाहिर नहीं होने देती कि इन सबके पीछे वह स्वयं है। इस दुराव, छिपाव के पीछे समाज की क्रूर और दकियानूसी मानसिकता ही थी।आखिर मानसिक रूप से  हिजड़ा हो चुकी दुनिया में वह किस-किस को ज़वाब देगी।(हिजड़ा कहानी,पृ.124) सुनील का प्रशासनिक सेवा में चयन हो जाता है तथा किन्हीं घटनाक्रमों से हिजड़ा समुदाय के स्वार्थी और जबरन धन ऐंठने के तरीके से उसे इस वर्ग से नफरत हो जाती है। हालांकिउसके मन में अपने रहनुमा से मिलने की तीव्र इच्छा भी है। हैडमास्टर साहेब सुनील की मानसिकता में परिवर्तन करते हैं और असलियत से रूबरू करवाते हैं। रजिया के मन में संकोच है पर सुनील अपनी मन की आँखों से रजिया को पहचान लेता है और उसके पैरों से लिपट जाता है। इस प्रकार आत्मविगलन, संघर्ष, अहं के त्याग और रजिया के विराट व्यक्तित्व से यह कहानी वृहत कैनवास पर उतरती हुई प्रतीत होती है।

मानव मनोविज्ञान की पड़ताल करें तो वह दुआ औऱ बद्दुआ से बहुत डरता है शायद इसीलिए समाज ने किन्नर वर्ग के लिए जीवनयापन की अलग व्यवस्था कर दी होगी। यह आम धारणा है कि किन्नर की दुआ की कोई होड़ नहीं और उसकी बद्दुआ का कोई  तोड़ नहीं।  आज अनेक करोड़पति किन्नर है पर उनकी वेदना और समाज में उनके लिए हिकारत की तीव्रता में आज भी कोई कमी नहीं है। किन्नर की देह जीते जीते जी तो, बहिष्कृत और अलगाव से जुड़े अनेक कष्ट भोगती ही है पर सामाजिक कर्मकांड मौत के बाद भी उसकी देह के साथ क्रूर व्यवहार करते हैं। इसी वेदना, पीड़ा औऱ आक्रोश की सशक्त अभिव्यकति हुई है , गरिमा संजय दुबे कृत पन्ना बा’ कहानी में। 

संकल्प कहानी उस सत्य की बयानगी है जिसमें यह बतलाया गया है कि तकनीक ने किन्नर वर्ग के लिए आसान जीवन जीने की राहें खोल दी है। किन्नर समुदाय अनेक प्रकार की कौमों को लेकर चलता है। वस्तुतः यह कौम और स्तरीकरण शारिरीक विकास औऱ भिन्नताओं को लेकर बनती है। विजेन्द्र प्रताप सिंह इस कहानी में इन्हीं तथ्यों का जिक्र करते हैं। माधुरी का जन्म उसके पिता को नागवारा होता है। वह बड़ी एक लड़के की तरह होती है पर उसका शरीर स्त्रैण अधिक होता है। उसके साथ बलात्कार जैसी अमानवीय घटना होने के बाद और गर्भ ठहरने के बाद उसे पता चलता है कि वह एक स्त्री की तरह जीवनयापन कर सकती है। माधुरी उस दिन से इस नारकीय और बहिष्कृत जीवन को त्यागने का संकल्प लेती है। आर्थिक विषमता उसके संकल्प की राह में रोड़ा बनती है परअपनी देह का व्यापार करके, वो इसके लिए धन जुटाती है। अनेक कटु अनुभवों और मर्माहत पीड़ा से गुज़र कर वह अपने संकल्प की पूर्ति में सफल होती है। इस यात्रा में उसे संसार की असारता और मानसिकता का साक्षात्कार होता है। वह उसी देह और स्वरूप में आ जाती है जो समाज की नज़र में केवल औऱ केवल भोग का साधन है। हालांकि उसका संघर्ष स्त्री रूप में परिवर्तित होकर भी समाप्त नहीं होता। पुरूष वर्चस्व और कुत्सित मानसिकता वाले समाज में सैंकड औऱ थर्ड सैक्स की वास्तविक प्रस्थिति और दोयम दर्जे का आकलन और साक्षात्कार यह कहानी करवाती है।

खुश रहो क्लीनिक(चाँद दीपिका’) उस डॉ बेटे की कहानी है जिसे समाज ने किन्नर कहकर त्याग दिया है पर वह अपना जीवन डॉक्टर बनकर समाज-सेवा को समर्पित कर देता है। यह कहानी इस वर्ग की विडम्बना और संघर्ष की कहानी तो है ही पर मानवता के उत्स में समाज के अन्य लैंगिक वर्गों से किन्नर वर्ग को कहीं आगे स्थापित करती कहानी भी है।खुसरो क्लीनीक का नाम खुश रहो क्लिनीक में रूपातंरण भी समाज को सकारात्मकता और कर्मवाद की प्रेरणा देता हुआ नज़र आता है। बचपन से ठुकराए जाने के बाद ऋषि को किन्नर वर्ग हा पढ़ाता लिखाता है, उसकी तमाम आवश्यकताओं का ख्याल ऱखता है। यह कहानियाँ इस बात का भी परिचय देती हैं कि समाज की मानसिकता में बदलाव आ रहा है। ऋषि बड़ा होकर अपने चिकित्सकीय पेशे व हुनर को निम्न वर्ग और समाज सेवा को ही समर्पित कर देता है। अपने अस्पताल में ही एक दिन उसे उस माँ का इलाज करने का मौका मिलता है जिसके लिए वह बचपन में बहुत रोया था। जीवन के कठिनतम मोड़ पर एक माँ की स्मृति ही उसके पास थी जो उसके अंधकारमय जीवन में दिये की भाँति उसे सांत्वना देती थी। कहानी के अंत में उसे उसका परिवार मिल जाता है, पर वह स्वयं उससे दूर हो जाता है। अंत में वह अपनी पहचान समेटते हुए, अपनों से फिर दूर होते हुए, स्वयं को अनाम राहों के प्रति समर्पित कर देता है।

किन्नर(पूनम पाठक) और गलती जो माफ़ नहीं(पारस दासोत ) लघु कहानियाँ है जो क्रमशः मानवता की स्थापना और तीसरे बच्चे की सामाजिक स्वीकार्यता और किन्नर वर्ग की उस पर प्रतिक्रिया को अपने लघु कलेवर में दर्शाती हैं। कहानियाँ सामान्य हैं पर उऩमें व्यक्त व्यंग्य और आक्रोश, सामाजिक विक्षोभ और उसके दोगले व्यवहार की बयानगी हैसंकलन की सभी कहानियाँ विषय विशेष से संबंधित होने के कारणमहत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यह समाज के उस वर्ग को लेकर लिखीं गयीं हैं जिनके प्रति दुराव-छिपाव हैं, कई भ्रांतियाँ हैं, अनगिनत मिथक हैं और अस्वीकार्य भाव है  शारीरिक और भावनात्मक विचलन को झेलते हुए जीना एक चुनौती होता है, वह भी उस समाज के बीच जहाँ संवेदनशून्यता की अधिकता है। यह संग्रह ना केवल किन्नर समुदाय , उस समुदाय के सिद्धान्त , धारणाओं से ही पाठक को अवगत नहीं कराता है वरन् सामाजिक संचेतना और जागृति का काम भी करता है। आम लोग और समाज, इस वर्ग के मनोभावों और पारिवारिक जीवन के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं औऱ इसी के तहत वे शुभ-अशुभ से जुड़ी अनेक धारणाएँ मन में पाल बैठते हैं।  कहानियों में बार-बार यह बतलाने की कोशिश की गई है कि यह शारिरीक कमी अन्य कमियों की तरह ही है, बेहद सामान्य है(संझा) पर समाज उसे अपनी कुत्सित और अधकचरी धारणा के चलते उससे एक विशेष दूरी बना लेता है। यह संग्रह यह भी जागरूक करता है कि हिजरा या हिजड़ा वर्ग की अनेक प्रजातियाँ हैं , अनेक वर्ग है। कहीं स्त्रैण तो कहीं पौरूष की प्रधानता होने के कारण यह विभेदीकरण है। तकनीक की सहायता से , ऑपरेशन के माध्यम से अनेक शारीरिक विकृतियों को दूर भी किया जा सकता है(संकल्प)। यह वर्ग प्राण-प्रण से अपने बनाए रिश्तों को निभाता है (कौन तार से बीनी चदरिया), अपने बचपन के बिछोह और मातृ प्रेम को यह वर्ग बिछोह के कारण सदैव सीने में संजोए रखता है(रतियावन की चाची,खुश रहो क्लीनिक), इंसानियत की जनीबें चढ़ने में यह वर्ग कई वर्गों से कई गुना आगे रहता है (नेग, इज्ज़त के रहबर,किन्नर) तथा प्रेम जैसे कोमल तंतुओं की भी कद्र पूरे समर्पण औऱ कर्तव्य निष्ठा से करता है(ख़लीक़ अहमद बूआ,बिंदा महाराज,त्रासदी) साथ ही जब वह ढृढ़ निश्चय से कुछ ठान लेता है तो अपने ही हाथों अपनी तकदीर बदलने की कुव्वत भी रखता है(ई मुर्दन का गाँव,संकल्प, खुश रहो क्लीनीक)। यह कहानी तृतीय लिंग के साथ साथ सैंकड सैक्स कहे जाने वाले स्त्री वर्ग और उससे जुड़ी समस्याओं, समाज की कूपमंडूकता, संकीर्ण मानसिकता पर भी सलीके से हाथ धरता है। 

संगीत के घरानों में तो गाहे-बगाहे इस वर्ग के दर्शन हो जाते थे परन्तु अन्य ललित कलाओं तथा समाज और साहित्य से यह वर्ग लुप्तप्रायः हो गया था ऐसे में इस संकलन और कहानियों का आना साहित्य की सामाजिक प्रतिबद्धता व सौद्देश्यता स्पष्ट करता है साथ ही इस वर्ग की वास्तविकतासे भी समाज का परिचय करवाता है। जीवन और मृत्यु के पश्चात् घृणित जीवन जीने वाले इस वर्ग के प्रति पूर्वाग्रहों औऱ मिथकों को तोड़ने में यह संकलन निःसंदेह मील का पत्थर साबित होगा।