Wednesday, May 30, 2018

राजनीति से परे!


कोई भी शहर एकाएक आपके भीतर धड़कने लगता है , बस उसे क़रीब से देखने की एक नज़र चाहिए। पक्षी, कलरव, लोग , जगहें , इमारतें सब अपने जैसे ही जान पड़ते हैं। जीवन से जूझते  हुए, लड़ते हुए, जीतते हुए और हारते हुए।निस्पृह भाव से इन्हें देखकर जब अख़बारों , ख़बरों और सोशल मीडिया पर नज़र डालती हूँ तो शहर, परिवेश, देस कुछ नहीं वरन् बहुत कुछ बदला-बदला सा नज़र आता है।

ऑटो चालक, भीड़ से गुज़रते राहगीर, मंदिर में दर्शन करते लोग, यात्री ,अजान को बेहद क़रीब से सुनती आँखें और अपने-अपने दायित्व संभालते लोग ..सब एक से ही नज़र आते हैं। जरा सोचिए हमने कब से उन्हें राजनीतिक संज्ञाओं में बाँटना शुरू कर दिया।

इन हादसों पर मुझे इतिहास याद आता है और यक बयक याद आ जाती हैं पुराणों में वर्णित किरात और आकुलि की कथा जो मन का ,मनु का शोषण करते हैं, उसकी अनधिकृत चेष्टाओं को पोषित करते हैं।

कामायनीकार उसी कथा को दर्शन से आवृत कर हमारे समक्ष रखते हैं। मनु के विनाश का हेतु वहाँ अहंमन्य राक्षसी प्रवृत्तियाँ हैं। ठीक वैसे ही तो जाने कितने किरात और आकुलि हमारे इर्द-गिर्द हैं , उन्हें पहचानने भर की देरी में हम सभ्यता और संस्कृति के विनाश के रूपक गढ़ देते हैं।

आनंद , परिवेश के साथ समरसता प्राप्ति के प्रयासों में है, राजनीति में तो नहीं , क़तई नही!

#राजनीति_से_परे

~विमलेश_शर्मा
~विमलेश_शर्मा

चारदीवारी का सुख!!!

जानते तो हम सभी हैं बस कर नहीं पाते हैं..या सिर्फ़ सलाह भर दे देते हैं..और यूँ बस हो गई अपने-अपने कर्तव्य की इति श्री..पालना!???

हम श्वास ले पा रहें हैं, जल पी रहे हैं  क्योंकि कभी हमारे पुरखों ने हमारे लिए पौधे रोपें, बाग़-बग़ीचे और ताल बनाए। किसी झील या छाँव को देखती हूँ तो उन हाथों को सौ बार नमन करती हूँ...उस विचार को प्रणाम करती हूँ जो लोक-हित के लिए किसी ज़ेहन में कौंधा होगा।

कुछ देर ही सही  हमें अपनी भूमिका पर नज़र डालनी चाहिए..अपने दैनन्दिन क्रियाकलाप पर , शायद समझ आ जाएगा कि हम क्या कर रहे हैं।

यह ख़ुशख़बर तो नहीं कि मेरे पड़ोसी जोधपुर और जयपुर प्रदूषण के मामले में नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। मेरा मानना है ,मेरे (?) शहर को भी उसी सूची में होना चाहिए क्योंकि यह भी ज़रा भी कम तो नहीं सड़कों, झीलों को दूषित करने में।

प्लास्टिक, डिटर्जेंट, धूम,सिर्फ़ और सिर्फ़ दोहन प्राकृतिक प्रदेयों का...लगभग शोषण की हद तक दोहन..इसका अंजाम सोचती हूँ तो सिहर जाती हूँ। हवा और पानी के लिए प्यूरीफायर लग गए..मोबाइल एयर प्यूरिफायर भी जल्द हमारी नाक पर होंगे ही किसी अलम् की ही तरह..यही तो चाहते हैं हम।

जानती हूँ विकल्प नहीं है हमारे पास। हमारी जनसंख्या , हमारी असीमित आवश्यकताएँ ..बहुत समस्याएँ हैं पर हर हाथ सोच ले तो क्या संभव नहीं फिर।

हम यहीं तक सोच बैठे है ..चारदीवारी  का सुख ....चारदीवारी के भीतर!

सब्ज़ी अलग-अलग थैली में ही पैक होनी चाहिए..कचरा गाड़ी में नहीं तुरंत सड़क पर ही जाना चाहिए, ढेर सारे कीटनाशक के साथ ही पौंछा लगना चाहिए और एसी सदैव चालू ही रहना चाहिए। कितने उदार हैं ना हम ..हमें सैर के लिए हरियल जगहें चाहिए पर उन्हें सौग़ात में हम हमारा अवशिष्ट ज़रूर सौंप आएँगे। पर्वत, नदी, झील सब जगह प्लास्टिक का अथाह पारावार। नदियाँ वाकई हमारे ही दिए कैमिकल के फ़ैन उगल रही हैं...!

क्यों यही चाहते थे ना हम आप??????

#चारदीवारी_का_सुख

Saturday, May 26, 2018

प्रेम में उदारता के समीकरण

बस चल रही थी और साथ ही कुछ सुबकियाँ।
पहले नज़रअंदाज़ किया पर उपेक्षा मारक होती है यह बात भी जानती हूँ। मेरे सोचने के बीच वह लगातार  रोती जा रही थी । अब तक इतने आँसू बह चुके थे कि उससे तीन वक़्त के भोजन के लिए नमक सहेज लिया जा सकता था।यह तीन वक़्त के नमक की अपनी दृष्टिकूट गणित से ध्यान हटा उसे पूछा तो किसी निठुर चाँद की बात सामने आई।  उसके आँसू पोछते  हुए मैंने कहा देखो यह जो चाँद है ना इसकी प्रकृति में ही दोष है।

कैसे ...??वह रूलाई के साथ बोली तो मैंने कहा सुनो दो चकोर की एक कहानी...

एक
चकोर ने एक दिन चाँद से कहा
तुम अब मुझे अजनबी से लगते हो?

मैं इन दिनों  देखता हूँ कि एक और चकोर भी तुम्हें मुझ जैसे ही देखता है और तुम भी ठीक वैसे। मैंने तुम दोनों की बातें सुनी और स्वयं को कहीं दूर ठिठके पाया। तुम्हारे नेह को भी टटोला वो वहाँ था बस नहीं था तो मेरा कुछ । वो रिक्ति जो उन क्षणों में , मेरी तुम्हारे मन में अनुपस्थिति  की बनी वो अब मेरे साथ है। उसे साथ ले कर मैंने एक रेखा खींच दी है और जो तुम्हारा था वहीं रख दिया है कुछ आशीषों के साथ ताकि बना रहे तुम्हारा नेह।

यह रिक्ति कचोटती है। यह रिक्ति मारक है। यह बताती है कि जगत् का दृष्टिकोण उपयोगितावादी होता है।प्रेम में उदारता के समीकरण बहुत कष्टकारी होते हैं प्रिय!

मुझे मालूम है तुम्हे किसी छुअन में मेरा एहसास नहीं हुआ होगा, ना ही मेरे दर्द की कोई टीस सुनाई दी होगी...उस अंक में तुम्हें मेरे उस हरे एहसास का आभास नहीं हुआ होगा। नहीं ही हुआ होगा...

वह सोचता रहा ...कि चकोर ना हो तो चाँद की क्या बिसात ! पर चकोर और चाँद का यह अंतर ही प्रकृति और पुरुष का अंतर है। उफ़्फ़ कितने छलावे हैं यहाँ। वो चकोर जो रहा चाँद के साथ भाग्यवान् था और जो छूट गया वो ...उसकी कहानी तो हम सभी जानते ही हैं...शब्द नहीं व्यक्त कर सकते उस पीडा को, वो अव्यक्त है।

लड़की का सर मेरे काँधे पर था...जानती हूँ प्रेम के अपने लक्षण और उदाहरण होतें हैं पर ...!
इस टूटन के दिलासे के लिए शब्द उसी लड़की के थे जो चकोर को उधार दे दिए थे पर उधार की छाँव तो सदा कड़वी ही होती है..यह कौन समझाए और किसे??

#प्रेम_गली_अति_साँकरी
-विमलेश शर्मा


कै़द और रिहाइयाँ!

रिहाइयाँ आसान कब हुई हैं....ज़िन्दगी क़तरा -क़तरा बह जाती है और ज़मी रह जाती हैं कुछ बिनबुलायी स्मृतियाँ... और एक अंतहीन इंतज़ार ।

ठीक वहीं ठहरे होते हैं कुछ चेहरे जिनसे कोई नाता न होकर भी कुछ बेहद आत्मीयता का रिश्ता बन जाता है।ठीक वैसे ही जैसे कुछ अजनबियों से हम  बहुत निश्छल मुस्कराहटें बेबात साझा कर लिया करते हैं।

हम कहाँ , किस तरह और किस क़ैद में स्वयं घिर जाते हैं पता ही नहीं चलता। यही कारण रहा होगा कि इन्द्रियों का संयत प्रयोग करने की सलाह तथागतों द्वारा दी गई होंगी।

ऐसा ही एक दु:ख घर ले आई हूँ। सात बरस के लगभग की उम्र , सायकिल पर दो दूध की डोलकी थामे वह खुश बच्चा हवा में अपनी देहगंध घोलता हुआ मुझे लगभग छूकर आगे बढ़ा है। कुछ दूर आगे वह एक घर पर रूक कर भीतर दूध देने गया है। मेरे साथ उसकी सायकिल कुछ देर ठहर गई है। हवा का एक तेज झोंका उसकी सायकिल को गिराने और दूध से अरमानों को बहाने की कोशिश करता है। दौड़ कर की गई मेरी कोशिशों के बावजूद मैं कोई  राहत नहीं जुटा पाती हूँ। वह भीतर से लौटता है और कुछ  हताश शब्द बुदबुदाता है ।
उनमें से यही सुनाई देते हैं कि यह कैसे हो गया ..मैं इतना ही कह पाती हूँ कि हवा तेज़ थी ..यह नहीं कह पाती कि मैंने कोशिश की थी। उसे शायद पिता या कि माँ की डाँट का भय रहा होगा।

वो लौट गया है पर एक भय और उदासी मेरे साथ रह गई है।

जीवन में ऐसे ही तो हम कितनी घटनाओं , उदासी या कि खुश लम्हों के साक्षी बन जाते हैं, जिनसे मुक्त होना ताउम्र संभव नहीं होता।

#क़ैदऔरिहाइयाँ

Saturday, May 19, 2018

प्रेम गली अति साँकरी!

रात आस का भी रूपक है तो बिछोह का भी!

शीतलता का भी तो दाह का भी। इसीलिए इसे विरह की जाई कहा गया..विरह से उत्पन्न ..अभाव की आत्मजा...अभाव  इसीलिए शीतल होने के बावजूद दाह..दाघ

घाम के ना होते हुए भी ताप!

मन पर याद की एक अमिट छाप होती है। वह कौंध होती है ..तीव्रतम अनुभूति। जहाँ मेधा नहीं मन जीत जाता है। अमिट इतनी कि साल बीत जाते हैं ...उम्र बीत जाती है पर साथ बना रहता है । क्षणांश का साथ भी जन्म भर साथ रहता है इसीलिए तो एकान्त भी निर्दोष बने रहते हैं। ठीक तभी कोई सीता अपने पावित्र्य में कुंदन बन जाती है और कोई  राम कुंदन को ही सिया मान बैठता है।

याद का साथ महत्त्वपूर्ण होता है...साथ रहें तो इस तरह कि धड़कन।ये क्षण ही ऊर्जा देते हैं ..वे तब भी याद अलगनी पर टंगे रहते हैं जब बिछोह हो जाता है...जब प्रिय दूर होकर और पास आ जाता है ।

कोशिश करना कि छोटी से छोटी याद को भी किसी प्रिय शब्द की तरह सहेज सको अपनी प्रिय डायरी में ..इस सूत्र वाक्य के संदर्भ में कि  प्रेम में क्षण महत्त्व रखते हैं उम्र नहीं । वे उसी तरह ज़िंदा रहते हैं जिस तरह डायरी में दर्ज इबारतें एक उम्र के बाद जीवित हो जाती हैं।यहाँ भाव महत्त्व रखते हैं , धन नहीं । यहाँ संज्ञाएँ भी बड़ी हो जाती हैं और पूरे-पूरे वाक्य अर्थहीन, इसलिए किसी को पुकारो तो कुँआरी संज्ञा से, वहाँ घालमेल , चातुरी और जोड़तोड़ नही चल पाता ...लाख बार ज़बरन शुरू कर ख़त्म कर देने पर भी नहीं !

प्रेम करो तो जन्मों में विश्वास रखना, प्रेम करो तो पाणिग्रहण संस्कार की तरह ऊष्मा सहेजना ताउम्र। प्रेम करना तो पढ़ना उसे किसी अनिवार्य विषय की तरह , विकल्पों के बीच पढ़ोगे तो वह रीत जाएगा, बीत जाएगा।

प्रेम में जीता मन बौराया होता है...ताउम्र प्रेम में पगा ।वह चाहता है कि बीती हुई बातों को दोहराया जाए, उन्हें फिर से  जिया जाए। शायद इसीलिए कोई सोती हुई आँखों से जागकर रात के काजल को  जलाता है और झूठ से भी अधिक स्याह रात को , चाँद की बिन्दी  वाली रात की तरह मनाता है...!

#प्रेम_गली_अति_साँकरी

~विमलेश शर्मा