निज भाषा उन्नति
अहै सब उन्नति को मूल !
किसी भी प्रदेश की भाषा उसकी सांस्कृतिक धरोहर की पहचान होती है। उस भाषा में
अनेक संस्कार, अपनापन और भाव
रचे-बसे होते है। निःसंदेह मातृभाषा, मायड़ भाषा दिल के करीब होती है । म्हारो मरुधर देश अर्थात् राजस्थान
शताब्दियों से अपनी विशिष्ट पहचान बनाये हुए है। अरावली पर्वतमाला और विषम
स्थलाकृति ने इस प्रदेश की 5000 वर्ष पुरानी सभ्यता और संस्कृति को एक धरोहर की
भांति संभाल कर रखा है । यहाँ के लोग ,लोक भाषा ,संस्कृति,
लोक नृत्य, लोक चित्रकला सभी में सजीवता ,माधुर्यता एवं अपनेपन के दर्शन होते है । राजस्थानी भाषा
जिसके लिए कहा गया है कि यह हर चार कोस पर बदल जाती है परन्तु इस वैविध्य में भी
एक अनूठे ऐक्य के दर्शन इस भाषा में होते हैं। इसी विशिष्टता के चलते धोरों की इस
पावन धरती की भाषा राजस्थानी ने केंद्र सरकार को भी इसे विशिष्ट दर्जा प्रदान करने
को बाध्य कर दिया है ।
यह धरती वीर और भक्ति रस से सराबोर है। यहाँ एक और मीरां,रसखान ,दादू जैसे भक्त हुए हैं वही समकालीन साहित्य में कन्हैयालाल जी सेठिया ,केसरी सिंह जी बारहठ ,सूर्यमल्ल जी मिश्रण ,विजयदान जी देथा, श्री नन्द भारद्वाज तथा श्री चन्द्र प्रकाश देवल जैसे अतिविशिष्ट साहित्यकार
हुए हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं से राजस्थानी भाषा को सम्रद्ध किया है और अनवरत
अपनी लेखनी से इस भाषा को सहेजने के लिए अनेक फुलवारियों को अपनी लेखनी से सींच
रहे हैं। यह धरती वीरोचित भावनाओं से समृद्ध धरती है ,यह धरती है ढोला मारू के माधुर्य पूर्ण प्रेम की धरती
इसीलिए यहाँ का जनमात्र कण कण सूं गूंजे जय जय राजस्थान और प्रेंम के साझा स्वर
उच्चारित करता है l लहरिया की ही
भांति राजस्थानी भाषा विविध गुणों एवं रंगों को अपने विस्तृत कलेवर में समेटे हुए
है जिसमें कही मेवाड़ी की धूम है तो कहीं ढूँढाड़ी की l यहाँ की भाषा का आकर्षण ही है कि ‘केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देस’ लोकगीत आज राष्ट्रीय ही नहीं वरन
अंतर्राष्ट्रीय फलक पर छाया हुआ है जिसे सुनकर रोम रोम पुलकित हो उठता है। यहाँ की
भाषा में वो शक्ति है जो मृत्यु को भी एक उत्सव की तरह मानने को बाध्य करती है ।
यहाँ माताएँ बचपन से ही अपनी संतानों को "ईला न देणी आपणी हालरिया हुलरायै
" जैसे गीत लोरी की तरह सुनाती हे ,तथा राष्ट्र को श्रेस्ठ पुत्र (संतान) रत्न प्रदान करती है, निः संदेह यह यहाँ की भाषा की महानता का ही
प्रमाण है कि इसका माधुर्य समूचे प्रदेश को एकता के सूत्र में बाँधने का सामर्थ्य
रखता है। भारतीय संस्कृति की अनेक सात्विक विशेषताओं को राजस्थानी भाषा अपनी
कुक्षि में संजोये हुए है । परन्तु आज यही भाषा अपनी वास्तविक पहचान को प्राप्त
करने के लिए तरस रही है। किसी अंचल की विशेषता उसकी भाषा ही होती है इस संदर्भ में
कवि कन्हैयालाल सेठिया की ये पंक्तियां आज सही मालूम होती है- खाली धड़ री कद हुवै,
चेहरे बिन पिछाण, राजस्थानी रै बिनां,क्यां रो राजस्थान। सच ही राजस्थानी के बिना राजस्थान की क्या पहचान है । इस
संदर्भ में गौर किया जाए तो संवैधानिक मान्यता इस भाषा के विस्तार को ही नया फलक
प्रदान नहीं करेगी वरन् पर्यटन को भी खासा प्रभावित करेगी। पर्यटन से इतर एक
महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में इस भाषा का
प्रयोग अगर किया जाए तो मनोवेज्ञानिक रूप से यह जरूर ही प्रभावी कदम होगा क्योंकि
वही भाषा बच्चा जल्दी सीखता है जो दिल के करीब होती है। इसी क्रम में राजस्थानी को
संवेधानिक मान्यता दिलाने के प्रयास वर्षों से निरन्तर जारी है जिसे अब विजय
प्राप्त होनी चाहिए । राजस्थानी लोगों एवं भाषा ने अपने व्यापारिक कौशल व
माधुर्यता के बल पर भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के
हर कोने में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई है। गौरतलब है कि एक तरफ जहाँ राजस्थानी भाषा
संविधान की आँठवीं अनुसूची में स्थान पाने के लिए संघर्षरत है वहीं दूसरी ओर
अमेरिका ने 2011 में ही व्हाइट हाऊस के प्रेसिडेंसियल अपॉइंटमेंटस की प्रक्रिया
में पहली बार इस भाषा को अंतराष्ट्रीय भाषाओँ की सूची में शामिल किया है। निःसंदेह
इस सार्थक पहल से इस भाषा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली है। अगर मायड़
भाषा को मान्यता प्राप्त होती है तो इस भाषा के साहित्य को न केवल संरक्षण के अनेक
प्रयास होंगे वरन् इस भाषा का श्रेष्ठ साहित्य भी जन जन के लिए सुलभ होगा। आज जब
युवा पीढ़ी अपनी ज़ड़ों से दूर हो रही है तब यह भाषा संस्कारों के सहेजन में
महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। राजस्थानियों के लिए मायड़ भाषा, भावनाओं को समझने का सबसे सशक्त माध्यम है।
राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता मिलनी ही चाहिए। मातृभाषा में शुरुआती पढ़ाई के साथ
ही राजस्थानी, हिन्दी और
अंग्रेजी की त्रिस्तरीय शिक्षण व्यवस्था को भी लागू करने की जरूरत है जिससे यह
ऐतिहासिक धरोहर हमारे भविष्य निर्माताओं के भी सामने आए। रोजगार के नवीन अवसर,
सांस्कृतिक एकता, अक्षुण्णता और मनोवेज्ञानिक सबलता प्रदान करने एवं भाषाई
शोध में गुणवत्ता प्रदान करने के लिए इस भाषा को मान्यता प्राप्त होना अत्यन्त
महत्वपूर्ण है जिससे ही सही मायने में इस भाषा के विकास मे आ रही समस्त बाधाएं दूर
होंगी। कहा भी गया है “निज भाषा उन्नति
अहै सब उन्नति को मूल ,बिन निज भाषा
ज्ञान के मिटै ना हिय को शूल।”
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