Wednesday, April 29, 2020

जीवन कितना कुछ हमसे छीन लेता है...







कोई था !
कोई है ! 
ये ‘था’ और ‘है’ काल का भान कराते कितने क्रूर पद हैं । कोई लौट जाता है अनंत में ... उसे जिसे देखते हुए उसकी सराहना में आँखें ख़ुश हो जाया करती थी । पर था/ थे, ‘नहीं रहे’, जैसे पद सुनकर डूबा हुआ मन और डूबता है । इस डूब में चमकीले जामुन के रंग की वो चिड़िया गुलमोहर पर यकायक उसके अलग स्वर से चहकती है , मानो खिड़की खटखटा कर कह रही हो , जीवन है अभी...चलना है अभी; और यों एक डूब से वो उबार लेती है। 
हम में से अधिकतर दूसरों के काँधों पर सुख खोजते हैं ; कुछ किरदारों/भूमिकाओं में जाने कितने सपने जीते हैं और कोई जो मन को भाता है , इस जीवन की वास्तविकता से परिचय करवाता है तो बस वक़्त को ताकते रह जाते हैं । इरफ़ान का जाना एक ऐसी ही बेचैनी उत्पन्न करता है।इरफ़ान शब्द यों तमीज़ और विवेक का पर्याय पर सिने पटल पर भी वे अपने सजीव अभिनय से अपने इस नाम को बड़ी सादगी से सार्थक करते जान पड़ते हैं।
इरफ़ान से जुड़ें कई किरदार हैं कई कहानियाँ यों , जिनका ज़िक्र करते-करते शब्द कम पड़ जाए और उसका जादू फिर भी लिखना बाक़ी रह जाए पर दो पर अभी बात करूँगी फिर भी। बीते दिनों लंच बॉक्स और अंग्रेज़ी मीडियम देखी। लंच बॉक्स की चिट्ठियाँ और उनके शब्द ज़ेहन में तैरते हैं , एक स्मित चेहरे पर उतरती है और एक मशीनी ज़िंदगी एकाएक खिल उठती है; यह सब शायद संजीदा अभिनय से ही संभव हो पाया । और इसी के चलते अक़सर निर्णय नहीं कर पाती कि किरदारों को केन्द्र में लिखकर फ़िल्म बुनी जाती है या किरदार कहानी के अनुरूप खुद को ढालते हैं। 
अंग्रेज़ी मीडियम की कहानी में दम नहीं होने के बावजूद इरफ़ान हमेशा की तरह दिल जीतते ही हैं । कितने किरदार हैं जिनसे वो बने रहेंगे हमारे बीच सदा पर जीवन कभी-कभी इतना कठिन क्यों होता है । 
इरफ़ान हर साँचें में पूरे उतरते नज़र आते हैं , जैसे कि कोई ख़ामी कहीं रही ही ना हो ; बीतकर , रीतकर भी कोई इतना पूरा ।
इस मतलबी और बाज़ारू दुनिया में इतना नैसर्गिक , सहज , जुझारू, जीवट कोई हो तो अपनी ओर खींचता ही है। प्रेम, जीवन और निष्ठा के मामले में भी इरफ़ान बहुत अलग मुक़ाम पर नज़र आते हैं।   एक इंसान सच्चा भी हो, सहज भी हो और जीवन को एक प्रयोगशाला की तरह देखने जज़्बा भी रखता हो और अपने लोटने पर अपना एक हिस्सा सभी के मन में छोड़ जाता हो तो यह उसके जीवन की उपलब्धि ही कही जाएगी।

कुछ ख़बरों पर यक़ीन करने का मन नहीं होता। आज की यह ख़बर ऐसी ही थी...

तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था ।(निदा)


इरफ़ान का यों अचानक जाना वाक़ई दु:खद है!

Monday, April 6, 2020

सहेजन

“इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे ।”
(नीरज)

यहाँ इस महफ़िल का आलम भी  यों ही है; एक वीराना-एक सन्नाटा । तसवीरों पर क़सीदे और कहीं तंज की धार पर तर्क। ऐसे में लगता है प्रेम कहीं कोने में दुबके हुआ खड़ा है ; एक संशय जो हर ओर पसरा है।  विचारों के मकड़जाल में हर कोई अपने से ही उलझा है। अलग दिखने की होड़ और प्रवृत्ति जैसे  नेह के सेतुबंधों को तोड़ रही है।
जिनका दिन है उन्हीं के शब्दों में यह बात बार-बार लबों पर है कि -
“आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं “

आस और अदब का दीप यों तो नहीं बुझना था।

नेह की बात कीजिए, प्रतिबद्धता की बात कीजिए। हमारी सबसे बड़ी कमी यही है ‘प्रतिबद्धता से मुँह मोड़ना’, जिसकी बात-परसाई भी बार-बार अनेक लेखों में करते हैं।

सोचिए ज़रा हम अवसरों की टोह लेते हैं क्या ? कई चीजें कई दीवारों पर देखी कहीं बंद तालों में कहीं खुली । कहीं समय-विशेष में कही गई, कहीं अलग-थलग करती हुई। मौक़े तलाशने से क्षणिक सफल हुआ जाता है; यह खुशी वैसी ही है जैसे कोई उथली किताब लिखकर उसका प्रचार कर खुश हो लिया जाए; बल्कि असलियत तो पाठक से पहले स्वयं उस लेखक को पता होती है।

तटस्थता इस समय की बड़ी चुनौतियों में से एक है ...नहीं सुनाइए किसी तटस्थ को यह पंक्ति बार-बार कि जो तटस्थ है समय लिखेगा , उसका भी अपराध। मानवीय बनिए।  जो बन सके जन-जन के लिए कीजिए । जो ज्ञान , जो सीख एक जीवन को आगे बढ़ा सके ; उतना भर ही सही...पर कीजिए ।

सारी दुनिया को कोसकर एक अलग दुनिया नहीं बनाई जा सकती...हाँ,अकेले चलकर भी इसकी ख़ूबसूरती में योग ज़रूर दिया जा सकता है।

यह लिखना शायद खुद को ही सँभालना ...पर यह भी ज़रूरी लगता है ।