पितृवध-आशुतोष भारद्वाज
विधा-आलोचना
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन
डॉ.विमलेश शर्मा
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पितृ-वध युवा-आलोचक आशुतोष भारद्वाज की पहली आलोचना पुस्तक है जो अपनी भाषा और दृष्टि-नाविन्य के चलते प्रकाश में आई है। ‘पितृ-वध’ यह संज्ञा जिस शाब्दिक अर्थ को ध्वनित करती है वह है, पिता का वध या अन्यार्थ में पितरों या पूर्वजों का वध। जब इस शीर्षक के आलोक में एक पाठक आशुतोष भारद्वाज की इस आलोचना पुस्तक को पहले-पहल उठाता है तो जुगुप्सा के साथ चौंक उठता है कि पितरों का वध आखिर क्यों कर? इसका ज़वाब आशुतोष पुस्तक की भूमिका में स्वयं देते हैं कि, “एक सजग रचनाकार को अकसर बहुत ज़ल्द यह बोध हो जाता है कि जिन पूर्वजों को वह अर्ध्य देता आया है,जिनका पितृ-ऋण वह अदा करना चाहता है, जिनके शब्द उनकी सर्जना को रोशनी देते आए हैं उन्होंने दरअसल उसकी चेतना को अपनी गिरफ़्त में ले रखा है, उनका स्वर उसकी कृतियों को चुप दिशा देता चलता है। इसके बाद उस पूर्वज से मुक्ति पाने का संघर्ष शुरू होता है, जिसकी परिणति एक अन्य बोध में होती है कि उस पूर्वज, दरअसल उसके प्रेत का वध अपने काग़ज़ पर किये बग़ैर इस लेखक को मुक्ति नहीं मिलेगी। लेकिन किसी लेखक के लिए यह स्वीकार करना आसान नहीं है उसका रचना-कर्म उसके पितामह की शव-साधना है, या हो जाना चाहता है, क्योंकि यह वध मुक्ति का साधन हो या न हो...आख़िर मुक्ति का समूचा प्रत्यय एक विराट् मायाजाल है, लेकिन यह मनुष्य को असहनीय अपराध-बोध में डूबा सकता है।” दरअसल पितृवध में मुक्ति की कामना उन सर्जकीय संस्कारों से है जिनके आगे उसकी चेतना नतमस्तक हो गई है, जिसके आगे उसका विकास असंभव-सा जान पड़ता है, पितृ-वध का अर्थ उस शव-साधना से मुक्ति-कामना है।
आलोचना कर्म किसी कृति के सम्यक् मूल्यांकन से इतर इस कृति का पुनःपाठ भी करता है और इस दृष्टि से आशुतोष भारद्वाज इस रचना-कर्म में टैगोर, निर्मल वर्मा, अनन्तमूर्ति,अरुंधति रॉय सरीखे उपन्यासकारों, मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी की कविताओं और साथ ही कृष्ण बलदेव वैद और कृष्णा सोबती की कहानियों की एक नई परख और पहचान करते हुए नज़र आते हैं। उनकी निगाह लेखक के सर्जन के जादुई मोहपाश में नहीं बँधती वरन् वे उनकी साहित्यिक यात्रा के उचान-निचान को उनके जीवन की ओट, अनुभवों और परिवेशगत हलचल के सान्निध्य में देखते हैं।
दरअसल पितृवध एक निरी आलोचनात्मक कृति नहीं बल्कि इसे पढ़ते हुए यात्रावृत्त, संस्मरण, साक्षात्कार और डायरी सभी विधाओं का आस्वादन पाठक कर लेता है । इस पुस्तक मेंआलोचक के भीतर का लेखक भी कितनी ही ज़गह मुखर हो उठा है जहाँ वह अनजाने में ही अपने निज, अनुभव और पीडा को सामने लाकर रख देता है। लेखक यहाँ एक ओर तो आलोचक की भूमिका में आख्यायक की संभावनाओं को टटोलता है तो वहीं दूसरी ओर अपने ही लेखकीय कर्म से तुलना भी कर बैठता है, यही वो प्रस्थान बिंदु है जहाँ आशुतोष अपनी बात पर आ जाते हैं कि आलोचकीय कर्म कोरी शव-साधना नहीं है। इसीलिए वे अज्ञेय और उनकी कृतियों पर बात करते समय लेखक से उनके लेखन में आए मेरापन की स्वीकारोक्ति पर सवाल करते हैं कि, “ अपनी रचना को पाठक के सम्मुख रखने से पहले अज्ञेय को आख़िर क्यों ज़रूरत पड़ती है अपने बचाव की? वे क्यों हमें बतलाना चाहते हैं कि उन्हें, उनकी कृति को किस तरह पढ़ा जाए किस तरह न पढ़ा जाए? उन्हें अपने पाठक, उसकी समझ पर भरोसा क्यों नहीं?” दरअसल आशुतोष इन सवालों से किसी एक लेखक से प्रश्न नहीं पूछते वरन् हर सर्जक से उसके ‘उसकेपन’ के बावत् सवाल करते हैं। किसी रचना का आख्यायकीय स्वर कैसा हो, लेखकीय निबीड़ एकांत की परतें किस तरह कृति में खुल पड़ती हैं, लेखक का रचनात्मक स्व किस प्रकार और किस निगाह से सृष्टि को देखता है, वह कौनसा ठिया है जहाँ लेखक अपने पाठक को इतनी भी मोहलत नहीं देता कि वह उसके रचाव को अपनी इच्छानुसार देख सके; पितृ-वध इन सभी गत्यवरोधों और अन्तर्विरोधों की पड़चाल करती हुई चलती है और साथ ही यह बताती भी है कि आलोचकीय कर्म में कहाँ पर पोली ज़मीन से बचकर चलने की ज़रूरत होती है और ठीक वहाँ जहाँ लेखक सब्जबाग दिखाना चाह रहा है वहाँ किसी ग्रंथि की महीन दरारें भी उपस्थित हो सकती हैं।
‘निर्मल आये थे’, एक डायरी का अंश है जिसमें आलोचक का लेखक और उसका हृदय मुखर है। लेखक की जिज्ञासाएँ कई बिन्दुओं पर सार्वजनीकृत हो जाती है, जैसे- ‘मेरे साथ ऐसा होता है कि अपना लिखा बहुत ज़ल्दी ही ख़राब लगने लगता है, क्या आपके साथ भी ऐसा होता है।’ ये सवाल पाठक-लेखक-आलोचक त्रिकोण को परस्पर जोड़ते हुए नज़र आते हैं।
कृष्ण-बलदेव वैद से संवाद कथात्मकता की महीन गाँठों को खोलने की कोशिश तो करती ही है , साथ ही उसके बुनावट के पक्षों को भी रोचक और प्रगल्भ तरीके से सामने लेकर आती है। अज्ञेय और मुक्तिबोध पर आशुतोष अपनी परिष्कृत भाषा व सुलझी हुई पर कोरी आलोचकीय समझ से सवाल करते हैं तो पुस्तक के उत्तरार्ध में संवाद और डायरी में दर्ज़ इबारतों को कथात्मक कलेवर में सामने लाने का प्रयास करते हैं।
डायरी की इन्ही शृंखलाबद्ध कड़ियों में लेखक स्वयं कई स्थानों पर मुखर होकर सामने आता है। उसके दर्शन-इतिहास- साहित्य की समझ भी शब्दों में उतरती नज़र आती है, जैसे ये कथन- ‘किताब चुपचाप नष्ट हो जाती है’, ‘किसी अजनबी शहर में आया यात्री सहसा निष्कवच और निरीह हो जाता है’, ‘हरेक चेहरे के अपने होंठ होते हैं , किन्हीं होठों के लेकिन अपने चेहरे भी होते हैं’, ‘अगर कहानी स्मृति को आख्यान में ढालने का गल्प है, तो संस्मरण बिखरी स्मृतियों को आख्यान न दे पाने का गल्प है।’
ऐसे कितने ही सूक्त कथन है जो लेखक के लेखकीय व्यक्तित्व को गढने का प्रमाण स्वयं दे देते हैं। पितृवध एक प्रौढ कृति है जो आलोचना के आत्महंता और घोर प्रंशसनीय युग में उसे नई राह दिखाने का काम तो करती ही है, साथ ही एक पाठक और नव लेखक को नई दिशा भी प्रदान करती है कि किसी कृति को पूर्वाग्रहों और गढ़े-गढ़ाए साँचों से दूर नितांत मौलिक नज़रिये से परखने की दीठ ही किसी कृति का समग्र और वास्तविकमूल्यांकन कर सकती है।