Friday, September 22, 2023

दाम्पत्य की टूटन और एकाकी भावजगत् का सूक्ष्म विश्लेषण-ढलती शाम के लंबे साये

 















डॉ.विमलेश शर्मा

सहायक आचार्य,हिन्दी

राजकीय कन्या महाविद्यालय,अजमेर

vimlesh27@gmail.com

 

कोई भी उपन्यास जीवन के सभी रूपों, आयामों, घटनाओं और उसमें निहित संवेदनाओं के महीन तंतुओं को रेखांकित करने की चेष्टा करता है, इस रेखांकन में हर लेखक अपनी रुचि के अनुसार विषय चयन करता है, भाव-पल्लवन करता है और अपनी विशिष्ट शैली में उसे एक शरीर प्रदान करता है।उपन्यास में कथानक आधार तत्त्व है, जिसका चुनाव लेखक या तो समाज को केंद्र में रखकर करता है या फिर वह व्यक्ति केंद्रित होता है, जिसकी बुनावट में या तो परिवेश की सजीवता होती है या मनोविज्ञान के महीन रेशों की कसावट । यही कारण है कि उपन्यास और उनकी शैलियाँ विविधवर्णी होती हैं। हम एक तरफ़ प्रेमचंद के सामाजिक उपन्यासों को पाते हैं तो दूसरी ओर अज्ञेय के व्यक्तिवादी उपन्यासों को , एक ओर वृन्दावन लाल वर्मा इतिहास के गह्वरों से कथानक खींच कर लाते हैं तो दूसरी र काशीनाथ सिंह मिथकों की पुनर्सर्जना करते हैं । दरअसल उपन्यास का मिज़ाज और तेवर समय, परिवेश और लेखकीय चेतना से प्रभावित होते हैं। 

 

ढलती शाम के लम्बे साये, गोपाल माथुर का तीसरा उपन्यास है। जो वाणी से हाल ही में प्रकाशित हुआ है। गोपाल माथुर अपनी कहानियों और उपन्यासों में व्यक्ति मन के  एकान्त की व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं । उनके पात्र अपने एकान्त में अपने अतीत और मन की गाँठों को खोलने का प्रयत्न करते हैं और इन्हीं बिन्दुओं पर हम उस आदमी की शिनाख़्त करते हैं जो एक इकाई है, जिसकी उधेड़बुन हर मन में एक जैसी है । जो अपनी परिस्थितियों में कभी बेचैन, विचलित होता है  तो कभी स्थिर दृश्य-सा अविचल बैठा रहता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, यह एक सामान्य-सा कथन जो हम बचपन से मानविकी की किताबों में पढ़ते रहते हैं इसके गूढ निहितार्थ हैं।  मनुष्य अपने मनोनुकूल अपने समाज का निर्धारण करता है। कभी वह समाज दोस्ती के दायरों में सिमटा होता है, कभी परिवार तो कभी जीवन साथी तक ही । व्यक्ति के उस समाज में जब ठेस लगती है तो वह सन्नाटों को बुनने लगता है और एक दिन वो उन्हें बुनते-बुनते थक जाता है।  ढलती शाम के लम्बे साये का कथानक इसी त्रासदी पर आधारित है।

 

उपन्यास के प्रारम्भ में ही उपन्यास का नायक अपने अनुभव इस तरह बयां करता है- नीरव जंगल में सन्नाटों ने बना लिए हैं घर/ परिन्दों के खाली रैन बसेरेउनकी प्रतीक्षा में थक कर हो चुके हैं निढ़ालहवा के बदन से रिस रहे हैं घाव और जंगल के सभी जीवमृतात्मा से भटक रहे हैं।  अभिनव अपनी एक लेखकीय पहचान बनाना चाहता है और उस लेखकीय पहचान बनाने में उसका दाम्पत्य , उसका परिवार उससे दूर हो जाता है। उसकी सनक भी अज़ीब थी ।  वह एक कंपनी के मैनेजर के पद पर कार्यरत है और चूँकि उसके पास उसके पिता की छोड़ी हुआ बहुत सी चल-अचल सम्पति है इसलिए वह अपने सपने को पूरा करने के लिए नौकरी से कार्यमुक्ति ले लेता है। क्षिप्रा उसके इस फैसले से अवाक् रह जाती है और इस निर्णय को अपनी ज़िम्मेदारी से भागना कहती है। क्षिप्रा के सामने उसका और उसके बेटे पंकज का भविष्य है, जिसकी चिंता के आगे उसे अभिनव का यह निर्णय गैरज़िम्मेदाराना लगता है। अभिनव और क्षिप्रा की रोज़ की नोक-झोंक उनके रिश्ते में दूरी ला देती है। यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं मुझे अपनी पुश्तैनी जायदाद का अच्छा खासा गुरूर था। ...वह जब भी मेरे नाकारा होने का ताना देती, मैं तो कहता मैं तो सोने का चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुआ हूँ। ...वह मेरे तर्क को एक ही झटके में ख़ारिज़ कर दिया करती कि बैठ- बैठे खाओ तो कुबेर का ख़जाना भी ख़त्म हो जाता है।... (ढलती शाम के लम्बे साये- पृ.21)

 

उपन्यास की नायिका क्षिप्रा एक व्यावहारिक समझ रखने वाली युवती है । वह सुनिश्चित भविष्य चाहती थी इसीलिए अभिनव के निर्णय का विरोध करती है । क्षिप्रा के आर्थिक स्वावलंबन ने रिश्ते मे समझौते की जगह दूरी को चुना, यदि यह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। सलाहियतों की जगह जब तर्क लेने लगें तो रिश्ते का नुकसान होना तय है। क्षिप्रा और अभिनव अपने- अपने जीवन को सार्थकता देने की ज़िद में अलग हो जाते हैं।  एक अरसे तक एकाकी जीवन जीने के बाद दोनों का छ्ब्बीस बरस बाद आमना-सामना होता है।   पर दुविधा, अनिश्चय, आकर्षण और अनिर्णय के मिले-जुले तागों से बुनी यह स्थिति दोनों के लिए ही दुखदायी होती है । इस स्थिति का लेखक ने अमूर्त चित्रण किया है। दुविधा में डूबी हुई मनःस्थिति भी अज़ीब होती है। अनिर्णय के क्षणों में आप इधर से उधर और उधर से इधर डोलते रहते हैं। अतीत, वर्तमान, भविष्य और फिर भविष्य, वर्तमान और अतीत।...परिस्थितियाँ अपना खेल खेलती रहती है और आप उसकी जकड़न से ख़ुद को मुक्त नहीं कर सकते।(पृ. 55)

 

उपन्यास एकाकी जीवन की विडम्बनाओं के साथ-साथ पुनर्विवाह से जुड़ी वैचारिकी और सामाजिक बाध्यताओं को भी सामने रखता है। अभिनव एक लम्बे अरसे के बाद अपने परिवार को पाने को लौटता है पर जिस तरह समुद्र की लहरें अनर्गल चीजों को बाह फेंक देती है ठीक वैसा ही वह महसूस करता है। उसका परिवार थोड़ा सा भी खिसक कर उसे जगह देने को तैयार नहीं होता है। दूसरी ओर असंवाद के क्षणों में क्षिप्रा बार-बार यह सोचती है कि क्या अभिनव ने विवाह कर लिया होगा। हालाँकि क्षिप्रा दिवांग से भावनात्मक स्तर पर जुड़ती है पर जल्दी ही उसके निर्णय से अपनी इस लगाव को छिपा भी लेती है और इस तरह अपने जीवन को लेकर वह किसी भी प्रकार का निर्णय लेने में   स्वयं को असहाय पाती है। अकेले हो जाने पर पुरुष का पुनर्विवाह कर लेना  एक सामान्य-सी घटना होती है, पर स्त्री के लिए नहीं। उसके साथ बच्चे जुड़े होते हैं, उनका आने वाला कल जुड़ा होता है। स्त्री के लिए पुनर्विवाह करना एक सहज प्रक्रिया नहीं होती है, विशेषकर यदि वह माँ भी हो। उससे पहले उसे अन्तर्द्वन्द्वों से गुज़रना। पड़ता है, विशेषकर मानसिक उलझनों से। (पृ. 110) उपन्यास उस सच  को भी बार-बार अनेक दलीलों से सामने लाने का प्रयत्न करता है कि किसी के लिए भी उम्र भर अकेले जीते चले जाना आसान नहीं होता, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री । एक ओर जहाँ उत्तरदायित्व का भाव यह साहचर्य देता है तो दूसरी ओर एक अदृश्य सुरक्षा-बोध भी रिश्ते को मजबूती देता है। मनौवैज्ञानिक स्तर पर यह अलगाव दोनो ही ओर गहरी टूटन देता है। 

 

उपन्यास बहुत बारीकी से रिश्ते में अलगाव की परिस्थतियों, मनःस्थितियों और अलगाव पश्चात् की उधेड़बुन। और कश्मकश को शब्द-दर-शब्द सामने लाता है। उपन्यास में घटना-क्रम नहीं है बल्कि परत-दर-परत विचार हैं , भाव-जगत् का धुंधलता है, उस भाव-जगत् का जहाँ से आगे की कोई राह नहीं सूझती। उपन्यास में पूर्वदीप्ति शैली का भी प्रयोग है और स्वयं लेखक की स्वीकारोक्ति है कि, “मैंने इसे रिवर्स क्लाइमेक्स शैली में लिखने की कोशिश की है, जो उत्तरोत्तर सघन से विरल होती  जाती है । यह प्रयोग सफल भी जान पड़ता है क्योंकि लेखक जिस 26 वर्ष के अंतराल के पहले और बाद के कथानक को मनःस्थिति के रंगों से लिख रहा है उसके लिए पात्रों का परिचय देती हुई यह आपबीती शैली ही इस कथानक के साथ न्याय कर सकती थी। इस उपन्यास में सिर्फ पात्र हैं और उनका मनोजगत् , यहाँ न प्रकृति मिलेगी न ही परिवेश। इन्हीं बिन्दुओं से हम लेखक के पूर्व लेखकीय क्रम को भिन्न कर सकते हैं। 

 

उपन्यास का रचाव इस दृष्टि से भी ख़ूबसूरत है कि उसका अंत, अंत नहीं होकर एक शुरूआत है, एक आशा की किरण है । छब्बीस बरस के बाद टूटा दाम्पत्य फिर से हरियाता है लेकिन दाम्पत्य की ज़मीन पर नहीं , भाविक ज़मीन पर जहाँ एक कोशिश है दोनों ही मनों की , कि जो अच्छा हो उसे सहेज लिया जाए जहाँ बातों के लिए  अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी। जहाँ न साथ जीने की कोई संभावना बची हो और ना ही उस रिश्ते के बग़ैर जीने की कोई चाहना हो।  उपन्यास में दो ही चजें उपन्यास का तत्त्व हैं- एक भाषा का कलात्मक रचाव और दूसरी स्मृतियों और अनुभूतियों का कोलाज़। उपन्यास में संवाद हैं जो कि अधिकतर क्षिप्रा और अभिनव के ही हैं या कि पंकज और क्षिप्रा के या पंकज और अभिनव के पर जो सबसे ज्यादा है वो है अन्तर्द्वन्द्व के संवाद । इन संवादों को एकालाप भी कह सकते हैं पर ये संवाद ही उपन्यास के गझिन भाव-जगत् को विस्तार प्रदान करते हैं।

 

उपन्यास का शीर्षक उस एकाकी जीवन की यंत्रणा से उपजा  है जहाँ जीवन एक साहचर्य की कामना करता है, जहाँ एक साथ मुकम्मल हो यह जीने के लिए बहुत ज़रूरी हो जाता है। दो व्यक्तियों का मिलना ए संसार की सृष्टि करता है और अलग होनो पूरे संसार से उन्हें काट कर रख देता है। उपन्यास इसी भाव बिन्दू पर आद्युपान्त चलता रहता है। उपन्यास अनिर्णय की स्थिति से प्रारम्भ होता है जो अलगाव को जन्म देती है और अंत भी एक अनिर्णय की  स्थिति पर पाता है, जहाँ रिश्ते से अलग होने का भय ज़रूर है पर एक दूसरे को समझे जाने की पूर्णता है। उपन्यास एक नई शैली में लिखे जाने के जोख़िम को लेकर तो चलता ही है साथ ही दाम्पत्य के टूटन जैसे सामान्य से विषय को भाव-जगत् के धरातल पर लिखे जाने के प्रयास को लेकर   भी सशंकित रहता है। परन्तु ये दोनों ही प्रयोग पात्रों की मनःस्थिति और कथानक के साथ न्याय करते नज़र आते हैं। उपन्यास पढ़ने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि इस उपन्यास को बस इसी तरह से लिखा जा सकता था । उपन्यास में जहाँ-तहाँ संस्मरण और डायरी शैली भी अपना स्थान पा गईं हैं। अभिनव और क्षिप्रा के चरित्रों को लेखक ने संवादों के माध्यम से तो बखूबी खोला ही है वरन् उनकी मनःस्थितियों को भी स्मृतियों और अनुभूतियों के सघन संवादों से सामने लाने का प्रयास किया है।

 

उपन्यास दो एकाकी जीवनयात्राओं की विडम्बनाओं की गाथा है इसलिए जहाँ-तहाँ सूत्रात्मक शैली और दर्शन का अतिरेक लग सकता है  ;परन्तु अपने कलेवर में यह औपन्यासिक सर्जना एक पूर्ण उपक्रम नज़र आती है।

Wednesday, September 13, 2023

हिन्दी की भाषिक सम्पदा और साहित्यिक अवदान


 

भाषा का प्रयोक्ता हर व्यक्ति होता है लेकिन लेखक सामाजिक सम्पदा के रूप में एक ज़िम्मेदारी के साथ भाषा का प्रयोग और प्रसार करता है। लेखक एवं पाठक दोनों ही साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के भी साक्षी बनते हैं।  भाषा एवं उसका साहित्य किसी भी समाज, उसकी प्रगति, उसके प्रश्नांकन, उसकी बेचैनी और समय को दर्ज़ करता है। यही वो माध्यम है जो समय को बदलने की भी कुव्वत रखता है और कई बार समय के बरक्स प्रतिसमय भी रचता है। तकनीक, प्रतिस्पर्धा और लगभग अराजक हो चुके समय में जब हर तरफ कृत्रिम विद्वत्ता का बोलबाला है, ऐसे में सहज और सजग साहित्य की रचना किसी सात्त्विक यज्ञ से कम नहीं है, पर प्रश्न फिर उठता है कि क्या इस अधीर समय में धैर्यवान साहित्य की रचना हो रही है ? अशोक वाजपेयी कभी-कभार में इस पर। पूरी आश्वस्ति के साथ कहते हैं किसाहित्य सारे झूठों से घिरे रहकर  भी यथासंभव सच कहने, सच पर अड़े रहने और अलोकप्रिय हो जाने, अकेले और निहत्थे पड़ जाने तक का जोख़िम उठा रहा है। भाषा जब जनसंपर्क का और लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों की साक्षी की भूमिका में है तो उसके साहित्य को भी यह ज़िम्मेदारी तो उठानी ही पड़ेगी, इसलिएवरिष्ठ कवि की साहित्य से यह अपेक्षा ज़रूरी जान पड़ती है।

 

भारत और फिज़ी क राजभाषा और विश्वभाषाओं की श्रेणी में शुमार हिन्दी अपनी बोलियों और उपबोलियों से एक विशाल शब्दकोश का निर्माण करती है।  लोकोक्तियाँ और मुहावरे इसकी आर्थी व्यंजना को प्रभावशाली बनाते हैं तो अरबी-फ़ारसी और तत्सम शब्दों का सम्मिश्रण इसे अद्भुत सर्वसमावेशी कलेवर प्रदान करता है। इसकी देवनागरी लिपिइसे भाषायी पहचान और स्थायीत्व प्रदान करती है तो वही जनसंपर्क में इसकी महती भूमिका के कारण इसके प्रयोक्ता इसे राष्ट्रभाषा की पहचान दिलाने की ज़द्दोज़हद में भी शामिल नज़र आते हैं । हिन्दी का साहित्य पाठक को मानवीय और लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ के साथ-साथ प्रश्नवाचकता एवं सहमति-असहमति के विवेक का ज्ञान भी प्रदान करता है। खुसरो,कबीर, सूर, तुलसी,मीरा, जायसी के पदों से लेकर भारतेन्दु, सरस्वती और आधुनिक पत्रिकाओं तक का सफर इसका गवाह स्वयं है। लघु पत्रिका आंदोलन की बात की जाए या अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्यिक उपक्रमों की तो गंभीर साहित्य का रचाव यह स्वयं बताता है कि उसकी पाठकों के बीच कितनी आवाजाही है, कितनी लोकप्रियता है और वह मानसिक खुराक के लिए कितना ज़रूरी भी है। कबीर वाणी का पुनःपाठ हो यामीरा की साहित्यिक उपस्थिति हो या पद्मावत के प्रतीकात्मक कथानक की सत्यता, सभी विषयों को ही आलोचक एवं अध्येता विविध शोध-प्रविधियों से नयी भंगिमाओं के साथ सामने ला रहे हैं। शोध की ये नवीन दृष्टियाँ समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी नयी अवधारणाओं और स्थापनाओं को सामने लाने का भी अभिनव प्रयास है। साहित्य की यह गतिशीलता शोध की नयी संभावनाओं और विधात्मक प्रयोगों के आग्रह को दर्शाती है। कथेतर विधा का विकास भी साहित्य की इसी गतिशीलता का ही प्रमाण है। 

 

आज क भागदौड़ और प्रतिस्पर्धा के समय में हर भाषा के साथ ही हिन्दी भाषा भी प्रयोग के अतिरिक्त नवाचारों की माँग रखती है और यह कार्य अकादमिक संस्थाओं की ज़िम्मेदारी के द्वारा ही फलीभूत भी हो सकता है। भाषा की ही तरह उसका साहित्य भी उसके अध्ययन-मनन की माँग रखता है अतएव किसी भी भाषा के सौन्दर्य और उसकी चारुता में अभिवृद्धि के लिए शाब्दिक सम्पदा का अधिकाधिक उपयोग और नए तथा शब्दों के पर्यायवाची रूपों का आग्रह, भाषा की सामासिकता तथा अन्य देशज रूपों का अधिकाधिक प्रयोग भाषा को संवर्धित एवं उसे अक्षुण्ण रख सकता है तथा उसके साहित्यिक वितान को भी वैश्विक पहचान दिलाने में महनीय भूमिका अदा कर सकता है।

Saturday, July 15, 2023

मुखर मौन की अनथक संवादी यात्रा

 




 

 बातचीत

वरिष्ठ साहित्यकार श्री गोपाल माथुर से 

विमलेश शर्मा की 

 

सितम्बर, 1949 को जन्मे गोपाल माथुर भारतीय साहित्यिक फलक में एक बड़ा नाम हैं। वे अनेक विधाओं में लिखते हैं और समसामयिक विषयों और रचनाओं पर पैनी नज़र भी रखते हैं। उनकी अनेक कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, अनुवाद और संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी ख़ूबी है कि वे संजीदा लेखक होने से पहले एक गंभीर पाठक हैं। संवेदनशील मन के धनी गोपाल माथुर को भाविक मन का तारल्य भाता है, और यही रंग उनकी रचनाओं में भी मुखर है।  विजयदान देथा के सान्निध्य में उन्होंने कहानियों की बुनावट को जाना- समझा है और निर्मल वर्मा के पाठक के तौर पर वे जीवन के एकांत को शाब्दिक अर्थवत्ता  प्रदान करना बख़ूबी जानते हैं। प्रकृति उनके जीवन का राग और प्रारम्भिक जीवनानुभवों का संस्कार है। गोपाल माथुर को उनके संग-साथ के लोग दादा कहकर बुलाते हैं। जो सौम्यता और सहजता उनके व्यक्तित्व में है, वह ही उनके लेखन में भी उतरकर आई है। रचना लिखने के बाद प्रकाशन की अवधि और उसके पश्चात् पाठक के हाथ में रचना के आने की प्रक्रिया तक का समय, दादा के लिए एक परीक्षार्थी के मन-सा भयाकुल होता है; मानो कोई बालमन अपना परिणाम जानने के लिए पाठक का मुँह एकटक ताक रहा हो। निःसंदेह यह सहजता, स्वयं को लगातर तराशने की ज़िद और विनम्रता ही एक लेखक को बड़ा बनाती है। गोपाल माथुर अपनी शैली और विषय के साथ प्रयोग के नाविन्य के लिए जाने जाते हैं। शब्द- प्रयोग में वे बेजोड़ हैं और कथ्य को नज़ाकत के साथ बाना पहनाने में सिद्ध-हस्त, यह वैशिष्ट्य ही उन्हें लेखकों की भीड़ में अलग भी खड़ा करता है। उनके विषय अनूठे हैं और मन के बियाबान और संवेदनाओं की खोह में चुपचाप उतरते हैं। किसी मन के एकांत की परतों को जानना हो तो गोपाल माथुर के लिखे को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता है। 

            उनकी रचनाओं में‘तुम ( काव्य संग्रह,2009), लौटता नहीं कोई (उपन्यास,2010), आस है कि छूटती नहीं  (नाटक,2010),’बीच में कहीं (कहानियाँ,2011), लम्बे दिन की यात्राः रात में (अंग्रेजी नाटक का हिन्दी अनुवाद,2012), , धुँधले अतीत की आहटें (उपन्यास,2016), जहाँ ईश्वर नहीं था(कहानी संग्रह,2020), ढलती शाम के लम्बे साये (उपन्यास, 2022), और उदास मौसम का गीत (उपन्यास, 2023) प्रमुख हैं। उनकी  कहानियाँ, लेख एवं संस्मरण प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हो रहे हैं। इस रचाव की ख़ूबी है कि यह पाठक के मौन से संवाद करता है, लेखक का अबोलापन शब्दों के माध्यम से पाठक में घुलता है और पाठक उस रचना से एकाकार हो जाता है। इन रचनाओं में कहीं झरती शाख का दुःख है तो  कहीं ढलती शाम का अकेलापन , गोया कोई उदास मन को सलीके से तरतीब दे रहा हो। एक मुखर मौन इन रचनाओं की ख़ूबी है ।गोपाल माथुर की रचनाएँ जीवन को तथाताभाव से देखती हैं, इसलिए काल्पनिक नहीं होकर, यथार्थ के निकट हैंऔर रचनाओं का यही रूप और जीवट को फिर-फिर उरेहने का दर्शन ही पाठक की संवेदना को प्रभावी रूप से स्पर्श करता है। जीवन की घटनाओं की अंतर्ध्वनि, अनुपस्थित को उपस्थित (वातावरण-विधान) करने की रीति, समकालीन संदर्भों की विवेचना, गोपाल माथुर की रचनाओं  की पीठिका है । इन विषिष्टताओं से परे लेखक में किसी विलक्षण को रचने का दंभ नहीं है, उनकी रचनाएँ उनके जीवट का पर्याय है और लेखन की निरन्तरता उनकी सतत साधना।

... उनके इस जीवट और शब्दों की अनवरत साधना को बारम्बार प्रणाम!

 साक्षात्कार-


विमलेश शर्मा- राजस्थान साहित्य अकादमी के विशिष्ट साहित्यकार सम्मान’ के लिए बहुत बधाई। पुरस्कार स्वीकार्यता का सुख देते हैं, आप इसे पाकर कैसा महसूस कर रहे हैं ?

गोपाल माथुर- इसमें कोई संदेह नहीं कि जब आपके काम की सराहना की जाती है और उसे सार्वजनिक पहचान मिलती है तो लेखक को भला ही महसूस होता है। मैं अपवाद नहीं हूँ. लेखक होने से पहले एक सामान्य व्यक्ति हूँ और उन्हीं की तरह सामान्य भावनाओं से संचालित भी होता हूँ। मैं भी खुश हूँ। मेरी ख़ुशी का एक अतिरिक्त कारण यह भी है कि इस सम्मान के लिए न तो मैंने अपनी कोई किताब भेजी थी और न ही अकादमी को निवेदन किया था। मुझे यह सम्मान देना अकादमी का अपना निर्णय हैजिसके लिए मैं अकादमी का आभारी हूँ।


विमलेश शर्मा- आपका जन्म माउन्ट आबू में हुआ है। क्या बचपन की स्मृतियाँ आपके लेखन को प्रभावित करती हैं, उन दिनों के बारे में कुछ बताइए।

गोपाल माथुर- जब इस दुनिया में आँख खुलीस्वयं को पहाड़ों से घिरा पाया। लगातार बरसते बादलकोहराऊँची नीची सड़केंअर्बुदा देवी के मंदिर से आती घन्टियों की आवाज़ेंनक्की लेक की बोटिंगगुरूशिखर की दुर्गम चढ़ाई...ये कुछ ऐसे चित्र हैंजो मन के एक कोने में स्थाई रूप से बस गए हैं। घर से स्कूल बहुत दूर था और पिता के ऑफिस की जीप हम बच्चों को स्कूल तक छोड़ने और लेने आया जाया करती थी। माँ वहीं एक क्रिश्चियन स्कूल में संगीत सिखाया करती थीं। वहीं मैंने पहली बार चर्चसिमिट्री और गले में क्रोस पहने हुए सफेद कपड़ों में फादर को देखा था। कुछ थाजो मेरे बाल मन को गहरे छू गया था। वह अनूठा अहसास आज भी हॉन्ट करता है। तब नहीं जानता था कि आने वाले कल में ये सब मेरी कहानियों में प्रतीक बनकर उभरेंगे। कहीं पढ़ा था कि आपको अपना बचपन पहाड़ों पर नहीं गुजारना चाहिए. वे फिर उम्र भर आपका पीछा नहीं छोड़ते। मेरे साथ भी ठीक यही घटित हुआ। मेरे लेखन में प्रकृति बार बार चली आती है।


अपने स्कूली दिनों में मैंने पहली बार ईदगाह” कहानी पढ़ीजो उन दिनों कोर्स में हुआ करती थी। कहानी ने मेरे बाल मन पर गहरा असर डाला था और कई दिनों तक मैं उसके आसन्न प्रभाव में यहाँ वहाँ भटकता रहा। माँ अपने स्कूल से बच्चों की पत्रिकाएँ ले आतीं और मैं उन्हें चाट डालता था। इतना ही नहींअपने से बड़े बच्चों के हिन्दी गद्य पद्य संग्रह भी मैंने पढ़ डाले थे। उनमें से ही एक थी - पंच परमेश्वर,इस कहानी ने मुझे हिलाकर रख दिया था। कहानियाँ पढ़ने का बीज मैंने वहीं स्वयं में रोपित किया था। आने वाले वर्षों में मैंने इस बीज को पल्लवित और पुष्पित होते देखा। तेरह वर्ष की वय होने तक मैं आबू में ही रहा। 

विमलेश शर्मा- लगातार सृजन का सुख उठाने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। आप लगातार लिख रहे हैंआपकी कहानियाँउपन्यास प्रकाशित हो रहे हैं। अपनी लेखन यात्रा को आप किस तरह देखते हैं ?

गोपाल माथुर- एक रचनाकार का पैशन ही उसकी प्राणवायु होता है। इसे आप मेरा जुनून ही समझिए जो लगातार मुझे रचते रहने के लिए बाध्य करता रहता है। यह जुनून मुझमें कैसे आ बैठाइसे समझने के लिए एक बार फिर पीछे अतीत में जाना होगा। राजस्थान विश्वविद्यालय में अपने स्नात्कोत्तर अघ्ययन के दौरान वर्ष 1972-74 के दिनों में मैंने साहित्य पढ़ना शुरू कियाजो देखते ही देखते कब पैशन में बदल गयामुझे पता ही नहीं चला. देर रात तक वहाँ की लाइब्रेरी में किताबें पढ़ते हुए समय व्यतीत होने लगा था. उन्हीं दिनों चैखवगोर्कीसैम्युअल बैकेटहरमन हैस्सेवर्जीनिया वुल्फकामूकाफ़्कायान ओत्चेनाशेक आदि विश्व प्रसिद्ध लेखकों को ही नहीं; अज्ञेयटैगोरमोहन राकेशऊषा प्रियम्वदाअश्ककृष्ण चन्दरमंटोअमृता प्रीतम आदि देशज लेखकों की किताबों से भी परिचय हुआ। पर सबसे ऊपर थे रामकुमार और निर्मल वर्मा। कालान्तर में ये दोनों मेरे आदर्श बने। बड़े लेखकों में यह कूव्वत होती है कि वे अपने लेखन से मन की अनसुलझी गाँठें खोल देते हैं और आपको उस सच के सामना करने का साहस देते हैंजो आपको परेशान कर रहा होता है. इन दोनों ने यही किया। जब भी मैं अपरिचित और अँधेरी तंग गलियों से गुजरने लगता हूँये मुझे हमेशा उस स्थान पर ले जाते हैंजहाँ लेखन का उजाला मेरे स्वागत में खड़ा होता है.... पर यह बहुत बाद की घटना है। 
सच तो यह है कि तब मेरे मन में किंचित मात्र भी यह ख्याल नहीं आया था कि मुझे भी लिखना चाहिएहालांकि प्रेम और प्रकृति पर कुछ कविताएँ अवश्य लिखी थींजो 35 साल बाद वर्ष 2009 में तुम” शीर्षक से प्रकाशित भी हुईं। यह मेरी पहली किताब थीकिन्तु शीघ्र मुझे अहसास हुआ कि मैं स्वयं को कविताओं में ठीक ढंग से अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ...फिर एक दिन मैंने स्वयं को गद्य से अपने हाथ मिलाते पाया...और एक बार निर्णय ले लेने के बादबहुत से अन्तर्द्वंद्व स्वतः ही समाप्त हो गए। बसतभी से कहानियाँ और उपन्यास लिख रहा हूँ। लगभग बारह साल पहले इस यात्रा की शुरूआत हुई थी और आज भी अनवरत जारी है।


विमलेश शर्मा- आपकी रचनाओं में मन के भाव आकार पाते हैं। संवादपात्र अपने भीतर के दुःख की बाँह पकड़ डूबते-उतरते हैं। वहाँ घटनाक्रम या परिवेश उतना हावी नहीं होता। यह आपके लेखन की तासीर है या विशेष शैली आप इस बुनावट को किस तरह देखते हैं ?

गोपाल माथुर- कहानी केवल तेजी से बदलते घटनाक्रम का नाम नहीं है। घटना कहानी में केवल एक फैक्टर होती है। जब किसी घटना को संवेदना का जामा पहनाया जाता हैकलात्मक शिल्प में उसे व्यक्त किया जाता हैविषय को सलीके से ट्रीट किया जाता हैशब्दों और पंक्तियों के बीच खाली स्पेस को ध्वनित किया जाता हैतब जाकर एक कहानी बनती है। इतना ही नहींकहानी संवादबिम्बटैक्सचरनिर्वाह और अपने कहन से भी कही जाती है। दुःख कहानी का वह धागा होता हैजिसके आसरे कहानी का केन्द्र बिंदु उदघाटित होता है। अतः एक लेखक को सलीके से दुःख कहना आना चाहिए। मैंने भी अपनी कहानियों में इन बातों का ध्यान रखकर उन्हें लिखने का प्रयास किया है। मेरे लिए कहानी में घटना के स्थान पर पात्रों के मन में चल रहे अन्तर्द्वंद्व अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। इसे तासीर नहींशैली कहना अधिक उपयुक्त होगा। और अब तो लिखते लिखते यह शैली मेरी पहचान बन गई है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे अधिकतर कहानियों के लिए कथ्य के पास नहीं जाना पड़ताबल्कि वे स्वयं मेरे सामने प्रकट हुए... सड़क पर चलते समय लगाजैसे किसी ने पीछे से पुकारा होया किसी युवक को झील पर अकेले चुपचाप खड़े देखकरया किसी शाम आकाश में बदलते रंगों को देखकरया किसी वृद्ध दंपति को बगीचे में धीरे-धीरे घूमते हुए देखकर एक कौंध सी महसूस होती है। वह कौंध मुझे पकड़ लेती है और मेरे जागने-सोने में शामिल हो जाती है...इनके अतिरिक्त कोई अधूरा संकेतदूर कहीं पुराना बजता कोई गीतकुछ ध्वनियाँकुछ गंधकोई धुन...ऐसी ही अनेक संवेदनाएँ कहानी के जन्म का कारण बनती हैं। अधिकतर ये संवेदनाएँ किसी न किसी स्मृति से जुड़ी होती हैं या किसी रिसते घाव से या फिर किसी छूटे हुए स्पर्श से. कहानी में कोई न कोई टीसता घाव अवश्य होता हैजो कहानी लिखने का सबब बनता है।



विमलेश शर्मा- आपकी रचनाओं के कथानक गंभीर होते हैं और शीर्षक उनकी लघु व्याख्या सरीखे। रचनाओं का कथ्य बेहद सादा होता है और घटनाओं का बाहुल्य उसे बोझिल नहीं बनाता । आपके कथानक चुनने की रीति और पात्रों के इस निर्मिति संसार से हमारा परिचय करवाइए।

गोपाल माथुर-कथानकों का गंभीर होना शायद मेरी अपनी वृत्ति से जुड़ा हो। चाहे लेखक हों या पाठकवे अपने मनानुसार विषय प्राप्त कर ही लेते हैं। मैं भी अलग नहीं हूँ। कहानी की थीम अपनी झलक दिखाकर अदृश्य नहीं होतीहृदय के किसी कोने में अपना घर बनाकर रहने लगती है और किन्ही असावधान क्षणों में वह मुझे पकड़ भी लेती है। मैं तब तक बेचैन रहता हूँजब तक कि वह अनुभव शब्दों में अभिव्यक्त नहीं हो जाता। यह अभिव्यक्ति ही कहानी होती है। एक बार कहानी की थीम सुनिश्चित होने के बाद उसका परिवेशपात्रशैलीटैक्सचर आदि स्वमेव कपड़े पहनकर उपस्थिति होने लगते हैं. कहानी कहाँ घटित होगीपात्र क्या संवाद बोलेंगे आदि प्रश्न अपने आप ही तय होते चलते हैं। पात्र अपना संसार खुद गढ़ते हैं। मेरे लिए यह एक सहज प्रक्रिया हैजिसमें कहानी बहते झरने सी स्वयं को लिखवाती चलती है। मेरा मानना है कि कहानी का स्वयं चलकर लेखक के पास आना किसी चमत्कार से कम नहीं है। रही बात शीर्षकों कीतो मैं बताना चाहूँगा कि मुझे व्यक्तिशः काव्यात्मक शीर्षक अच्छे लगते हैं। उनमें एक लय होती हैएक गति होती हैजो कहानी के मूल स्वरूप के समानान्तर प्रतीत होते हैं।


विमलेश शर्मा- आपके लेखन का शिल्प पाठकों को सम्मोहित करता है। क्या आप अपना लेखन पाठकों को केन्द्र में रखकर करते हैं ?

गोपाल माथुर- शायद ही कोई ऐसा लेखक होजो पाठकों को केन्द्र में रखकर अपना रचनाकर्म करता हो ! लेखक प्रायः अपनी अनुभूतियों से संचालित होते है। जिन अहसासों को उसने अपने एकांत क्षणों में खोजा थाकेवल वही लेखन के केन्द्र में होते हैं। लिखते हुए लेखक एक दूसरी दुनिया का वासी बन जाता हैएक एलियनजो यहाँ होते हुए भी उपस्थित नहीं होता. यह कुछ कुछ ऐसा होता हैजैसे वह चन्दामामा की कहानी पढ़ते हुए सहसा गायब’ हो गया होकिसी दूसरे लोक में चला गया हो।

 
और यदि पाठक मेरी लेखन शिल्प के कारण सम्मोहित महसूस करते हैंतो मैं इसे एक बड़ी उपलब्धि कहूँगा। पाठक को सम्मोहित कर पाना एक चमत्कार सा है। मेरी यह शैली अनायास ही मेरे पास नहीं आ गई। इसके पार्श्व में सालों पढ़ने का तज़ुर्बा जुड़ा हुआ है।

विमलेश शर्मा- हिन्दी को उसकी बोलियाँ समृद्ध करती हैंउर्दू आपको तहज़ीब और अन्दाज़-ए-बयां सिखाती हैतो मातृभाषा संवेदनाओं को पोषित करती है. यह एक दौर का दृश्य रहा है. क्या आज दृश्य बदल रहा है मौज़ूदा दौर की साहित्यिकी और उसके भाषिक सरोकारों पर आपका क्या कहना है ?

गोपाल माथुर- भाषा बदलते लोक और समय के प्रवाह का विषय है। प्रत्येक कालखण्ड में वह अपना नया स्वरूप लेकर आती है। यह नया स्वरूप किसी फैक्ट्री में नहीं बनाया जाताअपितु स्वयं लोक इसे गढ़ता है। यह एक टाइम प्रोसेस है। हिन्दी भी समय द्वारा गढ़ी गई एक ऐसी ही भाषा है। इसका कोई लोक कभी रहा ही नहीं। यह अनेक भाषाओं की शाब्दिक संपदासंस्कारित अनुभवों और विभिन्न डायलेक्ट्स के समिश्रण का परिणाम है। लेकिन आज हिन्दी को जिस प्रकार पूरे देश में अपना लिया गया हैवह विस्मित कर देता है। दूसरी बात यह भी है कि हमारे यहाँ जो लोक भाषाएँ प्रचलन में रही हैंउन पर आक्रांताओं का गहरा प्रभाव पड़ा हैजिसके चलते हमारी भाषा में उर्दूफारसीअंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं के शब्द और संस्कार जुड़ते चले गए। हर पन्द्रह कोस पर बोली बदल लेने वाले इस देश में शुद्ध हिन्दी का लोक मानस में बचे रहना संभव ही नहीं रहा है। आज जो हिन्दी प्रचलन में हैवह अनेक शब्दावलियों और भाषानुभवों से उपजी है। ऐसे में हिन्दी की शुद्धता के विषय में बात करने का क्या अर्थ रह जाता है !


लेकिन एक लेखक के लिए उसकी मातृभाषा विशेष अर्थ रखती हैक्योंकि अनुभवों की सशक्त अभिव्यक्ति केवल मातृभाषा में ही संभव हो सकती है। वह संवाद भी मातृभाषा में ही करता है और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि वह सपने भी मातृभाषा में ही देखता है। भाषा संस्कार देती हैजिन्हें लेखक अपनी रचनाओं में उंडेलता है। अपनी भाषा के साथ रहनाअपनी बोली में संवाद करना एक बहुत बड़ा सुख होता है। यह अलग बात है कि हम इस सुख को भूले रहते हैं। लेखक से यह सुख कोई भी छीन नहीं सकता...कहीं पढ़ा था कि एक लेखक को यह जानकर गहरा आश्चर्य हुआ ताउम्र वह अपनी ही भाषा में बात करता रहा ! हालांकि इसमें आश्चर्य की कोई विशेष बात नहीं है। कहना न होगा कि लेखक की अपनी मातृभाषा ही वह द्वार होती हैजिसके उस पार संवेदनाओं का महासमुद्र उसके सामने खुलता है।

विमलेश शर्मा- आपने कविताकहानी और उपन्यास तीनों विधाओं में लिखा है, अनुवाद भी किया है। इनके रचाव पर आप कुछ कहिए।

गोपाल माथुर- कविताओं के विषय में आप बात न करेंतो ही ठीक होगा। अधिकतर लेखक अपने लेखन की शुरूआत कविता से ही करते हैं। मैं भी अपवाद नहीं हूँ. लेकिन अपने पहले कविता संग्रह तुम” के प्रकाशन के तुरंत बाद मेरा कविता से मोहभंग हो गया था। या यूँ कहिएकि मैं स्वयं को पहचान गया था कि कविता मेरे बस की विधा नहीं है। अपनी ही कविताओं से गुजरते हुए हर बार मुझे लगता थाकुछ कहा जाना थापर कहने से छूट गया है। कोई एक शब्दएक बिंबएक संवेदना लिखे जाने से रह गई हैजो इन कविताओं को मुकम्मल कर सकती थी। इसी अन्तर्द्वंद्व ने मुझे गद्य का हाथ थामने का हौंसला दिया।
कहानियाँ यूँ ही नहीं कही जातीं। जब तक कोई सूक्ष्म संवेदनाकोई अहसास स्वयं मेरे अन्तर्मन पर दस्तक नहीं देतामैं लिखना शुरू नहीं कर पाता हूँ. वे पात्रों के रूप में भी हो सकते हैं और सघन अनुभव के रूप में भी। कभी-कभी शाम के समय अपने घर की छत पर खड़े सुरमई रंगों को निहारते हुए कुछ स्मृतियाँ दस्तक देने लगती हैंतो कभी झील के किनारे खड़ा अकेला व्यक्ति अपने समूचे अनकहे दुःख के साथ मुझमें आ बसता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि तब मैं तुरंत लिखना शुरू कर देता हूँ। लिखने से पहले मुझे अपने पात्रों के साथ दोस्ती करनी पड़ती है। उनसे एकाकार होने के बाद ही कुछ लिख पाना संभव हो पाता है। और यदि एक बार लेखन का प्रवाह स्थपित हो गयातो फिर अपने अंत पर पहुँच कर ही थमता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरी अधिकतर रचनाओं का अंत क्या होगायह मैं लेखन के शुरू में नहीं जान पाया था। कहानियाँ अपने को लिखवाती चलती हैंजैसे कलम मैंने नहींउन्होंने पकड़ रखी हो...कहानी या उपन्यास के पूरा हो जाने के बाद एक लम्बे अरसे तक मैं उसे देखता नहीं। फिर इम्प्रोवाईजेशन के समय स्वमेव ही पता चलता रहता है कि कहाँ-कहाँ और कितनी सुधार की गुंजाइश है।यह एक खेल की तरह हैजिसे मेरे पात्र मुझसे प्रायः खेला करते हैं।
माउन्ट आबू में जन्म लेने के कारण प्रकृति मेरी नस-नस में बसी हुई है। आबू की स्मृतियाँ ठीक वैसी हैंजैसे कोई बच्चा सबकी आँख बचाकर इकट्ठी की कुछ तितलियाँ अलमारी में बिछे कागज के नीचे छिपा देता है। कालांतर में माउन्ट आबू छूट गयाबचपन पीछे रह गयाबरसती बारिशें पीछे छूट गईंपुराने दोस्त आज पता नहीं कहाँ चले गएलेकिन पहाड़ों पर रहने की सांद्र अनुभूतियाँ आज भी बनी हुई हैं। ये अनुभूतियाँ बार-बार मेरी कहानियों में सहज भाव सी चली आती हैंमानो अपने लिखे जाने की माँग कर रही हों. मेरा उनसे बच पाना मुश्किल है। मुझे उनका ऋण तो चुकाना ही होगा।

कहना यह चाह रहा हूँ कि एक लेखक को सतर्कतापूर्वक अपने अनुभवोंदुश्चिन्ताओं और सपनों को सबसे छुपाकर रखने चाहिएँ. फिर वे अपने आप आपकी कहानियों में चले आएँगे।

विमलेश शर्माः किसी उपन्यास या कहानी को प्रभावी बनाने के लिए एक लेखक किस टेक्नीक को अपना सकता है ?आप अपने उपन्यासों और कहानियों में नयी प्रविधियों और तकनीक का प्रयोग करते हैं। क्या यह जोख़िम पाठकीय संतुष्टि में परिणत हो पाता है कृपया अपने अनुभव साझा करें।

गोपाल माथुर: यह लेखक की अपनी विश्लेषण दक्षता और निजी पसंद पर निर्भर करता है। एक कहानी बिना संवादों के भी कही जा सकती है और संवादों के साथ भी। अनेक लेखक कथा कहते हुए बिम्बों, रूपकों, उपमाओं आदि का प्रयोग कर उसे काव्यात्मक बनाना पसंद करते हैं, जबकि कुछ अन्य सीधे सीधे अपनी कहानी लिखते हैं। स्मृति की डोर पकड़ कर भी कथा कही जा सकती है, तो मौन की भी। कहानी का फलक भी कथ्य के अनुसार छोटा बड़ा हो सकता है। कहानी का सहज संप्रेषित होना एक बड़ा गुण होता है। कहानी को प्रभावी बनाने के लिए कोई बना बनाया प्रोटो टाइप फॉर्मूला उपलब्ध नहीं है।


एक लेखक को प्रविधियों और तकनीकी दृष्टियों से जागरूक होना आवश्यक होता है। मैं भी रहा हूँ। यह जागरूकता निरंतर पढ़ने से आती है। नए प्रयोगों का जोखिम उठाते ही मैं अपने बने बनाए खांचे से बाहर आ जाता हूँजहाँ खुली हवा हैसुकून है और जहाँ दम घुटने का खतरा न के बराबर है। लेकिन मैं ऐसा एक सीमा तक ही कर पाता हूँक्योंकि ऐसा करते ही मुझे अपने लेखन के उस कम्फर्टेबल जॉन बाहर आना होता हैजो मुझे और मेरे पाठकों के लिए सुविधाजनक है. उसे बींधकर नितांत नए जॉन में अवतरित होना अनेक शंकाओं भरा होता है. लेकिन खतरा उठाने से बचना स्वयं को किसी दूसरे खतरे में डालने जैसा होता है. विविध प्रयोग मुझे कूपमंडूक होने से बचाए रखते हैं. मेरी स्मृति में नहीं कि कभी किसी पाठक ने प्रयोगों पर आपत्ति जताई हो ! 


विमलेश शर्मा: मैं आपके भीतर के पाठक से रूबरू होना चाहती हूँ। आपने बहुत पढ़ा है और आज भी एक उम्दा पाठक हैं। साहित्य के कल और आज को आप किस तरह देखते हैं।
गोपाल माथुर:मैं पहले भी कह चुका हूँ कि एक लेखक को चाहिए कि वह लगातार पाठन से जुड़ा रहे। किताबें पाठक को धनवान बनाती हैं। मैं वर्ष 1972 से लगातार देश विदेश के सभी बड़े लेखकों को पढ़ता रहा हूँजबकि लगता है कि अभी बहुत कुछ पढ़ना शेष है। मेरी अपनी पहली किताब वर्ष 2009 में प्रकाशित हुई। पढ़ने और छपने के बीच इस लम्बे अन्तराल ने कुछ न कुछ तो मुझे रिच किया ही होगा ! एक समय थाजब कुछेक लघु पत्रिकाओं के अतिरिक्त सारिकाधर्मयुगसाप्ताहिक हिन्दुस्तानदिनमान जैसी अनेक पत्रिकाएँ घर घर आया करती थीं। लोग उनकी उत्सुकता से प्रतीक्षा किया करते थे और आ जाने पर उसकी अंतिम बूँद तक निचोड़ ड़ालते थे। पर आहिस्ता आहिस्ता समय बदला और पत्र पत्रिकाएँ बंद होनी शुरू हो गई। इससे पठनीयता में कमी आई। जो समय पत्रिकाओं को दिया जाता थावह सिनेमामॉल और सेंसेक्स को दिया जाने लगा।

 लेकिन साहित्य अब भी अपनी जगह यथावत बनाए हुए है। मुख्य धारा की पत्रिकाएँ बंद होने के बाद छोटी पत्रिकाएँ प्रचुर मात्रा में छपने लगीं। यह न्यू ओरिएन्टेशन का ट्रान्जीशनल काल था। फिर फेसबुकसोशल मीडिया और इन्टरनेट क्रांति ने दस्तक दीजिसने पाठकों की ही नहींलेखकों को भी अभिव्यक्ति के नए और सहज माध्यम उपलब्ध कराए। किताबें पहले से कहीं ज्यादा प्रकाशित होने लगीं तथा ऑन लाइन डिलीवरी के कारण किताबें विपुल मात्रा में खरीदी भी जाने लगीं। बीते हुए कल का साहित्यिक परिदृश्य आज नए परिवेश में ढल चुका है.
आज कहानी का सेनेरियो काफी बदल चुका है। कथा शिल्पकहन और ट्रीटमेन्ट में भी असाधारण बदलाव आया है. नए नए विषयों पर कहानियाँ लिखी जा रही हैं। गद्य लेखन का काव्यात्मक होना एक आम घटना हो चुकी है। यात्रा संस्मरणशब्द चित्रस्मृतियाँडायरियाँ आदि अनेक पक्षों पर लेखन प्रचुर मात्रा में किया जा रहा है. यह एक संतोषजनक स्थिति है।  

विमलेश शर्मा: आपकी रचनाओं में पहाड़ ही नहींसमुद्रचर्चसिमिट्रियाँएकांतमौन आदि भी बार बार चले आते हैं। जैसा कि आपने ऊपर बताया यह नॉस्टेल्जिया ही है या कोई अन्य खास वजह ?

गोपाल माथुर: कुछ बिम्बकुछ प्रतीककुछ संवेदनाएँ आपको हमेशा पकड़े रहती हैं। इन्हें ढूँढ़ने कहीं बाहर नहीं जाना होता। ये मन के एकांत कोनों में अपना स्थाई घर बनाकर रहने लगती हैं और जब तब कूदकर बाहर आ जाती है. ऐसे में अपनी रचना में इनसे बच पाना संभव नहीं होता. मेरे लिए ये नैसर्गिक स्त्रोत हैं...एकांत का सुनहरा प्रतिफल. 
लेकिन मौन की बात सबसे अलग है। एक कहानी में मौन सबसे अधिक मुखर होता है। वह जो भाषा बोलता हैउसके शब्द किसी शब्दकोश में नहीं होते,और आश्चर्य की बात तो यह है कि लेखक ही नहींपाठक भी मौन की भाषा पढ़ना जानता है। और यदि नहीं जानतातो उसे जानना चाहिए। क्योंकि कहानी अनकहे को कहे जाने की अद्भुत विधा है. 

विमलेश शर्मा: साहित्य पर सोशल मीडिया के प्रभाव और उसके तात्कालिकता के संदर्भों के विषय में आप क्या सोचते हैं कहीं यह हमारी आक्रमकता और आत्ममुग्धता को बढ़ावा देने वाला माध्यम तो नहीं बनता जा रहा ?

गोपाल माथुर: प्रत्येक माध्यम के अपने फायदे और ख़तरे होते हैं। सालों पहलेजब नेट नहीं थातब एक लेखक के लिए स्वयं का लिखा प्रकाशित कराना बड़ी बात हुआ करता थी। उसे सम्पादकों के रिजेक्शन्स झेलने पड़ते थे। अनेक प्रयासों के बाद उसे कहीं जगह मिल पाती थी. लेकिन आज दृश्य बदल चुका है। जिसका मन करेवही अपना लिखा पोस्ट करने के लिए स्वतन्त्र हैजो तुरंत लाखों पाठकों तक पहुँच भी जाता है। यह किसी रहस्यलोक में होने जैसा हैजहाँ पलक झपकते ही कुछ भी संभव हो सकता है। इन्टरनेट का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि आज लेखकों को प्रकाशित होने के लिए अनेक प्लेटफॉर्म्स उपलब्ध हो गए हैं। अब उन्हें छपने के लिए उन्हें सम्पादकों का मोहताज नहीं होना पड़ता। इसमें कोई शक नहीं कि इस ओपन प्रिन्टिंग स्पेस की सुविधा से लेखन का स्तर बुरी तरह प्रभावित हुआ है,जिसने अनेक स्यूडो लेखकों को जन्म दे दिया है। स्तरहीन साहित्य पर भी लोग उन्हें शानदारबेहतरीनउच्च स्तरीय आदि विशेषणों से नवाजने लगते हैं. अपने स्तरीय होने का भ्रम उनमें आत्ममुग्धता को जन्म देने लगता है।

लेकिन सारे लेखकों को एक ही डंडे से नहीं हाँका जा सकता। आज भी सुरुचिपूर्ण साहित्य गढ़ने वाले लेखकों की कोई कमी नहीं है। बल्कि विगत वर्षों में अच्छे लेखकों की संख्या में बहुस्तरीय इजाफा हुआ है। वे पत्र पत्रिकाओं के अतिरिक्त सोशल मीडिया पर भी लिखना पसंद करते हैं। ऐसे में जब कोई बेहतरीन कविता या कहानी आँखों के सामने से गुजरती हैतो मन अच्छे साहित्य के प्रति आश्वस्त हो जाता है।



विमलेश शर्मा: आपने बहुत कुछ लिखा है. अब आप किस विषय पर लिखना चाहते हैं ?
गोपाल माथुर: मैं विषय तय करके नहीं लिखता,लिख सकता ही नहीं। जब तक मन में घन्टी नहीं बजतीकोई विषय स्वयं ही दस्तक नहीं दे देताएक पंक्ति भी लिख पाना मुश्किल होता है। मैं हड़बड़ी में नहीं हूँ। हालांकि जीवन का पन्ना भर गया हैकेवल अंतिम कुछ पंक्तियाँ शेष बची हैंपर मैं दो कानों के बीच से लिखने वाला व्यक्ति नहीं हूँ. मेरा लेखन मेरी जेब के नीचे से उपजता है। कम ही लिख पाता हूँ। देखते हैंकभी तो कोई अहसास दस्तक देगा !
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इधर विविध विषयों पर मेरी कुछ कहानियाँ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित अवश्य हुई हैं। ये विगत दो वर्षों में लिखी कहानियाँ हैंजो अब पत्रिकाओं में स्थान पा रही हैं।



विमलेश शर्मा: आपके लिए लिखना क्या है 

गोपाल माथुर: बिज्जी मुझसे कहा करते थे कि तूने बहुत देर से लिखना शुरू किया हैइसलिए अब जल्दी जल्दी और खूब सारा लिख। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका। मेरे लिए शीघ्रता से लिखना कभी भी संभव नहीं रहा है। बिज्जीमुझे इसके लिए क्षमा करना। कहानी हो या उपन्याससब अपना समय माँगते हैं और मैं उन्हें यथोचित समय देना पसंद करता हूँ। लिखना मेरे लिए टाइम पास नहीं है और न ही यह कोई शगल है, यह जीने का एक तरीका है। जैसे जीवन में हमारे कई दोस्त होते हैंपरिचित होते हैंरिश्तेदार होते हैंउसी तरह मेरे पास लेखन है। देखा जाए तो लेखन मेरा सबसे करीबी दोस्त हैजिसे अपने भेद सौंपकर मैं निश्चिंत हो जाता हूँ। मन की अनेक उलझनेंअन्तर्द्वन्द्व और खामोशी लेखन में ही अपनी अभिव्यक्ति पाती है। किसी किसी शाम सड़क पर चले जा रहे अकेले वृद्ध को देखकर मन में कैसा कैसा होने लगता हैपेड़ के पत्तों से झरती चाँदनी कविता-सी गढ़ती महसूस होती हैकिसी घर के दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षारत महिला की उदास आँखें हॉंन्ट करने लगती हैं। इन आधे अधूरे संकेतों को देखकर लगता है कि किसी अदृश्य छाया ने मुझे अपने दायरे में क़ैद कर लिया है। यह वह दायरा होता हैजिसकी चाबी लेखन के सन्दूक में बंद होती है...और फिर मैं स्वयं को लिखने के अपरिमित प्रवाह में झौंक देता हूँ। तब लिखना मुक्ति का कारण बन जाता हैस्वयं से मुक्ति का नहींबल्कि उन सूत्रों से मुक्ति काजो पिछले लम्बे समय से मुझे विचलित किये होते हैं।


विमलेश शर्मा: आपने इतना कुछ रचा है जिनमें कहानियाँउपन्यासस्मृति चित्रसंस्मरण आदि बहुत सी विधाएँ सन्निहित हैं. आप किस रचना को अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मानते हैं ?

गोपाल माथुर: एक लेखक के लिए अपनी लिखी अनेक रचनाओं में से किसी एक पर अँगुली रख पाना बहुत कठिन काम होता है। बहुधा मैंने महसूस किया है कि एक कहानी का सच दूसरी से जुड़ा होता है। जब पहली कहानी की स्पेस अपनी बात मुकम्मल तरीके से कहने का अवसर नहीं देतीतो उसे दूसरी या तीसरी कहानी में कहना पड़ता है। इन अर्थों में सब रचनाएँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खोकर एक दूसरे की पूरक बन जाती हैं। ऐसे में किसी एक रचना को सर्वश्रेष्ठ बता पाना असंभव हो जाता है. वैसे भी अभी मेरा लेखन समाप्त नहीं हुआ है. हो सकता है आने वाले समय में मैं अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाऊँ !

 विमलेश शर्मा-  साहित्य और राजनीति के सह-संबंध या परस्पर प्राभाविकता के सिद्धान्त को आप किस तरह देखते हैं?

गोपाल माथुर- बतौर पाठक मैं यह समझता हूँ कि कोई भी रचना अपने समय का ही पुनराख्यान है। लेखक अपने अनुभवों के माध्यम से समय को और उसके विधान को ही शब्द प्रदान करता है। राजनीति राष्ट्र को संचालित करती है अतः परिवेशगम्य होने के कारण समाज और व्यक्ति भी उसके दायरे में आता है। मेरा मानना है कि राजनीति को साहित्य से प्रभावित होना चाहिए न कि साहित्यकार को राजनीति से। साहित्य राजनीति को दृष्टि देने वाला हो, समत्व का आग्रही हो, वैचारिक और भावनात्मक दृष्टि से समृद्ध करता हो और महत्त्वपूर्ण विमर्श केंद्रित हो, तो प्रेरक और उत्प्रेरक स्वयंमेव हो जाता है।


विमलेश शर्मा : आप अपने लेखकीय अनुभवों के आधार पर नए रचनाकारों को क्या सुझाव देना चाहेंगे। 

गोपाल माथुर :मैं इतना बड़ा साहित्यकार नहीं हूँ कि कुछ ओथेन्टिक वक्तव्य दे सकूँ। लेकिन अपने कच्चे पक्के अनुभवों की डोर पकड़ कर दो एक शब्द अवश्य कहना चाहूँगा। युवा पीढ़ी को चाहिए कि खूब पढ़े। पढ़कर ही उन्हें पता चलेगा कि कैसे लिखा जाता है। लगातार पठन से उनका शिल्प और शैली संबन्धी ज्ञान बढ़ेगानए मुहावरे सामने आएँगे और उसकी दृष्टि विकसित होगी। नए लेखकों को लिखने के बाद छपवाने या फेसबुक पर पोस्ट करने की उतावली नहीं दिखानी चाहिए। कम से कम पन्द्रह दिन उसे आलमारी में बंद कर दें। फिर जब वे कहानी को निकाल कर एक पाठक की तरह पुनः पढ़ें। उन्हें अपने आप पता चल जाएगा कि कहानी कहाँ कहाँ इम्प्रोवाईजेशन की माँग कर रही है। साथ ही अपने लिखे के प्रति आत्ममुग्धता कतई न पालें। अपने लिखे को काटना भी आना भी चाहिए। यह तभी संभव हो पाएगाजब उनमें अपने लिखे कमजोर अंशों को परखना आ लाएगा। आलोचकों को अपना सच्चा हमदर्द समझेंक्योंकि प्रशंसा करने वाले अधिकतर चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं। कबीर यूँ ही नहीं कह गए कि निन्दक नियरे राखिये...।


विमलेश शर्मा - यदि आप लेखक नहीं होते तो क्या होते ?

गोपाल माथुर : जैसा कि अभी मैंने स्वीकार किया हैमैं पढ़ते पढ़ते लेखक बना हूँ. यदि लेखक नहीं होतातो अवश्य एक सजग पाठक के रूप में ही जाना जाता और जाना जाना पसंद करता। 



000