Wednesday, August 19, 2020

मन के घाव मरहम मन का

 जीवन का हर बीतता, रीतता, गुज़रता  हुआ पल जीवन की सच्चाई है। कई दृश्य इन पलों में जुड़ते जाते हैं। कुछ चाहे तो कुछ अनचाहे पर ...पल की नियति यही कि उसे बस गुज़र जाना होता है। कभी ये तुषार पात से कृषण नष्ट कर जाते हैं तो कभी अनचाहे ही गोद भर जाते हैं।


जीते हुए , चलते हुए यही जाना कि सात्त्विक सत्ताएँ कर्म की गुत्थियाँ सुलझाती हैं। कभी मन डूबने लगे और एकाएक कोई कहकहा कहकशाँ सा कानों में गूँज जाए तो उसे तुम तक पहुँचाने वाले को धन्यवाद कहना उसे देर तक निहारना , मौन आभार व्यक्त करना। 


जीवन जी लिया जाना तुम्हारा सच है , एकमात्र सच और इस सच को केवल तुम्हीं जान सकते हो। पतझड़ का शोक और वसंत के उल्लास को तुम्हीं ने जी भर जिया है । जीवन की पीडा को अकेले ही सहा है सो कभी कोई आत्मीय कहे कि मेरे न होने पर ऐसा कैसे करोगे तो कहना मुस्कुराते हुए कि तुम सदा साथ रहोगे मेरे , मेरे इस विश्वास की ही तरह। 


किसी मंदिर जाती वृद्धा से पूछो आस्था के मानी क्या होते हैं , किसी मकतब में बैठे उस अबोध से पूछो जो क़ुरान की आयतों को मौलवी के गोल होते ओंठों में पढ़ने की कोशिश करता है , दुनिया उतनी ही सरल है जितने हमारे भाव और उथली उतनी ही जितना हमारा मन। 


ठीक ही कहा है कि ऊर्जा का अनियंत्रित प्रवाह वजू को तोड़ देता है, इबादत में ख़लल पैदा करता है। सो बहने दो सकारात्मकता का सोता अपने भीतर । दंभ, झूठ , अहंमन्यता और पक्षपात जैसे शब्दों को जहाँ देखों वहीं छोड़ दो एक सद्भावना के साथ कि तुम्हारी क्रूरता कहीं तुम पर ही हावी न हो जाए , प्रार्थना तुम्हारे लिए कि तुम पर सात्त्विक अनुग्रह बरसे । निंदा से बच गए तो तर गए सो ठूँठपन  ठूँठ मन को ही मुबारक़। 


कबीर इसीलिए तो कह गए कि -

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

 कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे यदा-कदा दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीडा होती है । हरिऔध ने भी इन्हीं भावों के साथ ‘एक तिनका’ कविता लिखी।


 आज इतना ही कहना कि -


समाज आत्मीय जन से नहीं 

आत्मीय मन से बनता है

इससे कम और ज़्यादा 

कुछ नही समाज

न ही मानी कुछ ओर 

इस गोल दुनिया के


यहाँ दृश्य ज़ल्दी ही 

बदल जाया करते हैं


सुबह ...घनेरी शाम में 

और उदास शाम पूरबी उजास में!


काल के दिन वर्तुल अयन पर घूमते हैं

जाने कब वे 

उसी घुमाव पर 

लाकर तुम्हें खड़ा कर दे 

जहाँ तुम कल इठलाते हुए खड़े थे

और ठीक वहीं कोई मूक मन लिए 

सहमा बैठा था


सो नतशिर रहना 

नतमन रहना 

जीतना मन कालुष्य को

बनना आत्मीय 

बनना सहज,जीतना स्व को

और रहना 


अविजित!!


विमलेश शर्मा

#मन_के_घाव_मरहम_मन_का