Saturday, December 7, 2019

गफ़लत में मन था और जीने की एक ज़िद!

समय से मुठभेड़ करना सबसे मुश्किल होता है।

समय किस तरह जज़्बातों पर एक चुप रखता है ; व्यवस्था किस प्रकार कोमल भावों को लीलती है ; इसे भोग कर ही महसूस किया जा सकता है।

ठीक योंही हर रोज़ एक सुबह होती है ...रात की ज़ख़्मी चादर पर।

सो तो ख़ून के धब्बे तपन से भस्म हुए ही थे पर ज़ेहन पर  कुछ जम गया था ; मुझे उसकी  चोट की याद आ गई थी । किंकर्तव्यविमूढ स्थिति में तहस-नहस मन था ... सतत चल रही कुछ ख़बरें , क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं से हलकान साँसें जो मेरे जीवित होने का प्रमाण थी । ठंडी  हुई चाय का एक कप था और शहरयार के बोल आँखों के सामने तैर रहे थे कि - “सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है...!"

दिन बढ़ रहा था और मन ठहरा ।

कार्यस्थल पर लड़कियों के हाथों में मोबाइल है ; कुछ चहक रही हैं ; मैं उनकी ही स्क्रीन पर उभरे चेहरे के खोखलेपन को भाँप लेती हूँ...मन और डूब जाता है।  कुछ पढ़ने में रुचि रखने वाली लड़कियाँ हैं जिन्हें देख राहत महसूस होती है कि समाज वाक़ई आगे ब़ढ़ेगा।

लोग हैं यहाँ ...हैं कई शख़्सियतें ...कोई अपनी ठसक में है ; कोई अपने ग़ुरूर में तो कोई  नौकरी के कष्टों की फ़ेहरिस्त बुन रहा तो कोई यह ही बता रहा कि सबसे अधिक कष्ट तो मेरे ही हिस्से आए।

‘भी’ की तरह यह ‘ही’ भी क्रूर है।

मेरी सहकर्मी मुझसे संवाद करती है और मैं भी व्यवस्था का हिस्सा बन तुनक कर ज़वाब देती हूँ । वह अपनी ठसक के साथ लौट गई है ; उसका विचलन मेरा विचलन बन गया है । तबसे एक सोच तारी है कि अपराध-बोध और आत्मा को कचोटते ये रेंगते प्रकरण वज़ूद का हिस्सा बनते जा रहे हैं।

कुछ महिलाएँ हैं  जिनका व्यवहार अप्रत्याशित है...कभी गुडपगी तो नीमचढ़ी ; दोनों के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करती हूँ पर थोड़े समय बाद दोनों के ही व्यक्तित्व का परस्पर विलोम मुझे निरुत्तर कर देता है।

रात तारी है ...मन सोच रहा है आसमाँ में तारे होंगे ही ...वे तब भी रहे होंगे ना उस रात ...मन सोचता है और गहरी श्वास की फिर एक चादर ओढ़ लेता है।

आने वाली सुबहों का सूरज स्याह है। अख़बार में एक हैदराबाद उन्नाव बन उतरता है ; संस्थानों में समरसता के मेले सजते हैं ; गोलियों से कुछ लोग मारे जाते हैं । न्याय -अन्याय का हल्ला मचता है ; मैं ज़मीन को तो कभी आसमाँ को निहारती हूँ। न्याय -अन्याय , क़ानून, प्रतिबद्धता, ज़वाबदेही शब्दों के अर्थ टटोलती हूँ...प्रकृति को समझने की चेष्टा करती हूँ पर चश्में पर कुहासा उतर आया है।

मेरी पीठ पर अब भी कुछ अवांछित नज़रें हैं; कानों में अब भी कुछ फब्तियाँ !

क्रूरता शाश्वत है; मन का एक कोना सिसकता है!

हँसी के ठहाके थे...नारेबाज़ियों के क्रमिक स्वर !

ये लोग समर्थक भी थे तो उनमें शामिल विरोधी भी थे...

टी.वी. चल रहा था ...चैनल बदले जा रहे थे और स्क्रीन पर फिर एक बलात्कार जारी था!

Saturday, September 14, 2019

चप्पा_चप्पा_चरखा_चले

कुछ बातें सौंधी मिट्टी सी आपको खींचती है , सीला कर जाती हैं और मन का भीतरी कोना एकाएक महका जाती हैं ।अदीबों की इस क़ारीगरी को किसी ने चारागरी कहा तो किसी ने कीमिया कह कर उसे पारलौकिक सिद्ध करने का प्रयास तक कर दिया ।

जाने कितने ऐसे गीत हैं जो मन को गुदगुदाते हैं ; ठीक उस निष्ठुर की तरह जो गर सामने बैठा हो तो ना आप उसे देख पाएँ और ना ही वो आपको; पर योंही चुप मन एक मन से पीठ सटाए जाने कितनी बातें कर जाता है ; चुपचाप!

भीड़ में एकाएक किसी स्मृति से  गालों पर ललाई फूट पड़े और दूसरी ओर अनेक आँखें प्रश्नों के साथ टिक जाए तो ; दोनों का सामना फिर प्रशासनिक सवाल-ज़वाबों से कम नहीं होता जान पड़ता । और फिर तैर जाता है “औनी-पौनी यारियाँ तेरी बौनी-बौनी बेरियोँ तले” सा कोई अफ़साना ।

जीवन जीने के कितने साज-ओ-सामान हैं ; पागल प्रेमी इस के स्वाद को बख़ूबी जानते हैं सो सुलग-सुलग कर जीते हैं ; यह सुलगन चंद मुलाक़ातों की भेंट चढ़ सकती है पर कोई सहेज कर रखता है पवित्र स्मृतियों को उम्र भर के लिए ; उसी सीली माचिस की डिबिया में बारूद के साथ।

माचिस फ़िल्म में गुलज़ार के बोलों से सजा और हरिहरन और सुरेश वाडकर का गाया गीत है -“चप्पा चप्पा चरखा चले”।गीत के बोल जाने कितने कोमल एहसासों को समेटे हुए हैं कि काश्मीर के शीत में भी भावनाओं का ताप सुलगाने की कुव्वत रखता है।

गोरी चटखारे जो कटोरी से खिलाती थी ....कच्ची मुँडेर के तले की जाने कितनी बातें हर मन के चूल्हे को जलाती है...

चुन्नी लेकर सोती थी कमाल लगती थी ...ज्यों स्मृति में कोई शरारत छिपी हो ; कोई अक्स अपनी शोख़ी के साथ ठोढी को थपक दे रहा हो , कोई ओट से चुप झाँक सब देख रहा हो ;  तैर जाता है ।

यारियों और बौनी बेरियों  का यह गीत जाने कितनी महीन रेखाएँ दो हथेलियों पर खींच जाता है; चार आँखों के मिलने की बात को आम कर जाता है ; कितनी अनुपस्थियों को अबीर गुलाल-सा गालों पर सजा जाता है ।

वाकई प्रेम चरखे का सूत तो हर चप्पे पर यों ही  कतता दिखाई देता है ।

#lyriscwelove
#चप्पा_चप्पा_चरखा_चले
विमलेश शर्मा

Thursday, August 22, 2019

ऋणानुबंध



#ऋणानुबंध 

अवचेतन मन और सचेष्ट प्रज्ञा का यह 
                ‘ऋणार्ण ‘
उन सभी के नाम जो जीना जानते हैं !

भाव्यं तेनैव नान्यथा!
————————

चेहरों की दुनिया 
चेहरों पर चेहरों की दुनिया
और इस दुनिया की अय्यारी है कि 
यह दिखकर ओझल हो जाती है
और ओझल होकर भी बनी रहती है 
साक्षात्! 

यह भ्रम शाश्वत् 
जैसे जन्मों के बीच अटा जीवन 
 या कि एक दु:खद स्वप्न 
जिसकी प्यास हलक में अटकी रहे 
आँख खुलने के बाद भी 
और आँसू अटका रहे कोर पर 
स्मृति के विस्मृत हो जाने  तक ! 

इन चेहरों का अट्टहास भयभीत करता है 
पर मन का एक कोना 
अविराम जपता है 
‘अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः’

तब्दीलियाँ, परिवर्तन , विचलन 
यों परस्पर पर्याय हैं 
सभी  सृष्टि संचालन हेतु 
मूलत: अपरिहार्य हैं 

एक ने इन्हें देख आत्मसात् किया 
अपने विचार-भुवन के
ऊँचे दरज़े में दाख़िला देते हुए
जमकर शास्त्रार्थ किया 

दूसरा किसी विषयान्तर की ही तरह 
खोल बदल निरपेक्ष होने का दावा करते हुए
स्व के सापेक्ष रहा 

सापेक्षिक वृत्तियों की पुनरावृत्तियों में 
अपने व्यक्तित्व  के एवज़ में 
उसने सुरक्षित कर लिए 
कुछ वर्ष , पुरस्कार 
महज़ एक मुहावरे
‘बुद्धं शरणं गच्छामि’
की ओट लेकर 

जबकि इस पदानुबंध का अंकन 
किसी पूत दार्शनिक शिलालेख पर उत्कीर्ण था !

एक ज़गह  ध्वस्त पारिस्थितिकी का 
निष्काम वैभव था 
स्तब्धता थी 
और थी अपनत्व की 
निष्पाप ऊष्मा !

और दूसरी ओर 
क्लीवत्व से समादृत अट्टहास !

सत्त्व दोनों ओर था पर किंचित् सापेक्ष ....किंचित् निरपेक्ष !

विमलेश शर्मा

पुस्तक इस लिंक पर उपलब्ध है -

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Tuesday, August 13, 2019

स्वस्ति-पुष्प

भोर के उगने का एक सलीक़ा है !
फूल के खिलने में समूचे तंत्र का योगदान है!
हवा के , नदियों के बहने का भी एक रहस्य है; गति है; निश्चित यति है।

हम सभी  जानते हैं इस सरल-से दिखने वाले गूढ सत्य को ।

पर फिर इस उगने और खिलने पर ही क्यों कर यहाँ-वहाँ  प्रश्न-चिह्न लगा दिए जाते हैं!

प्रश्नों के सघन मेघ मानस-पटल पर हैं पर सत्त्व का संबल भी मौन ही सही पर थामे है। हो यों भी रहा कि नितांत अकेली दृष्टि भी जब विकल होकर आसमां को ताकती है तो  वह हँसकर आशीष देता जान पड़ता  है कि अभी राह पथरीली तुम्हें माँझने के लिए ही खड़ी  है ।

परिपक्वता के स्वस्ति -पुष्प संभवत:  इन राहों पर ही खिला करते रहे होंगे ।

आत्मा की तानें किसी वीतरागी के समक्ष ही नत होती हैं। वे मूक होती हैं उतनी मुखर नहीं। यात्रा करते-करते इतना तो जान लिया कि सब कुछ गति में है तो यात्रा सही ही चल रही है; कुछ अवरोध आ रहे हैं तो साधना फलित हो रही।

अध्यात्म के परदों से ऐसे ही संदेश सतत सुनाई देते रहते हैं।

यह टेक ही  मन में अनायास एक स्वस्तिपुष्प उगा देती है।

#समर्पण
#स्वस्ति_पुष्प
विमलेश शर्मा

Tuesday, April 30, 2019

Avengers Endgame

हाँ तो Avengers Endgame की बात कर रहे हैं हम यहाँ जिसे देखना मेरे लिए काफ़ी Adventurous था...इसे देखने से  पहले इतनी हिदायतें दी गई कि मुझे याद नहीं कभी माँ होते हुए मैंने पुत्तर जी को उतनी दी होंगी ।हम भी हमारे इयर प्लग्स को लेकर आपातकालीन परिस्थितियों से निबटने को तैयार पर ..............

बेटे को बड़ा होते देखते हुए दो बातों को इस तरह जाना कि कॉमिक पढ़ने वाले बच्चे या तो मार्वल फ़ैन होते हैं या डी.सी(डिटेक्टिव कॉमिक्स) फ़ैन । दरअसल ये दोनों ही कॉमिक कंपनियाँ हैं जो जासूसी और रोमांच पैदा करने वाले कथानकों की सर्जना करते हैं ।इस हेतु वे अतिमानवीय किरदार /नायकों की सर्जना करते हैं ; जो बाल और नवयुवाओं को ख़ासा लुभाते हैं । यह यों मान और जान  लीजिए कि डिटेक्टिव यूनिवर्स के सुपरहीरो सुपरमैन,बेटमैन , एक्वामैन, वंडरवुमेन हैं तो मार्वल के नायक आयरन मैन, कैप्टन अमेरिका, थॉर, हल्क, ब्लैक पैंथर आदि ...इत्यादि ।

मार्वल के सुपरहीरो की सर्जना लेखक स्टेन ली ने की है ; इन किरदारों को लेकर लिखे गए ये कॉमिक्स ख़ासा चर्चित रहे हैं ...अभी भी हैं  । मेरी जैसी माँओं ने स्टेन ली के इन नायकों को खूब छिपाया है और सर पकड़ा है जब अलमारी , स्टडी टेबल,पुस्तकों पर जब -तब इन्हें प्रकट होते देखा है।

बहरहाल #Avengers_Endgame मार्वल स्टूडियो की 22 वीं सुपरहीरो फ़िल्म है; जिसकी शुरूआत Iron Man के साथ 2008 में होती है। इसके बाद की फ़िल्म -शृंखला में विभिन्न अतिमानवीय नायकों को सिनेपटल पर कहानी-दर-कहानी उतारा गया है । इनमें Hulk , Thor, Iron Man 2,Captain America, Guardians of the galaxies,Spider man , Avengers Infinity War लोकप्रिय रहीं । Avengers Endgame का इंतज़ार जिस बेसब्री से युवा होते बालक कर रहे थे ये उनके संरक्षक ही समझ सकते हैं और यों इन किरदारों और फ़िल्म के रोचक होने का अंदाज़ा भी सहज ही लगाया जा सकता है।

फ़िल्म पर बात करने से पहले इस शृंखला की पहली फ़िल्म और इस शृंखला की स्थापन कड़ी मार्वल के बारे में जानना ज़रूरी है । मार्वल का प्रारम्भ 1939 में टाइमली कॉमिक्स के रूप में हुआ , 1998 में इसी नाम से मार्वल एंटरटेनमेंट कंपनी का प्रारम्भ हुआ और 2005 में मार्वल स्टूडियो का प्रारम्भ हुआ । कंपनी ने मेरिल लिंच के साथ साथ कई अहम क़रार कर मार्वल स्टूडियो का प्रारम्भ किया ;जिनमें मार्वल के 10 कॉमिक पात्रों के अधिकार भी गिरवी रखना शामिल था । चकित करने वाली बात यहाँ यह है कि पहली फ़िल्म का किरदार आयरन मैन इन दस पात्रों में शामिल नहीं था लिहाज़ा मार्वल के सामने इस फ़िल्म के लिए धन जुटाना एक बड़ी समस्या रही। मार्वल के मालिकों ने अपनी संपत्ति गिरवी रख कर इस फ़िल्म के  लिए येन-केन-प्रकारेण धन जुटाया ।

आयरन मैन फ़िल्म के नायक राबर्ट डाउनी जूनियर के लिए भी यह फ़िल्म बहुत महत्त्वपूर्ण थी ; क्योंकि डाउनी उस समय जीवन के झंझावातों से जूझ रहे थे।डाउनी ड्रग्स और अन्य अनैतिक कृत्यों के चलते अवसाद में थे और जीवन की उठापठक को झेल रहे थे। यही कारण है कि इस फ़िल्म की सफलता मार्वल के साथ-साथ स्वयं आयरन मैन के लिए भी महत्त्वपूर्ण थी। सुखद रहा कि तमाम संघर्षों के बाद फ़िल्म आई और वह इस अपरिहार्य सफलता को स्टूडियो तक पहुँचाने में कामयाब रही।

कितना व्यापार और मुनाफ़ा हुआ इसके आँकड़े अन्तर्जाल पर मौजूद हैं पर इस सफलता के बाद डिज़्नी ने मार्वल का अधिग्रहण कर लिया। डिज्नी अमेरिका की मल्टीमेशनल मास मीडिया कंपनी है जिसके उत्पादनों से सिनेपटल और हम-आप भली-भाँति वाक़िफ़ है।

लब्बोलुआब और चेतावनी यह है कि Avengers Endgame यदि आप पूर्वपीठिका को जानकर देखने जाते हैं तो कुछ आसान हो जाती है ;नहीं तो सिरे जोड़ने में आप साथ बैठे साथी को परेशान कर उसके क्रोध का शिकार भी हो सकते हैं।

इस फ़िल्म में धरा को और विभिन्न ग्रहों को बचाने के प्रयास हैं ; कुछ बेहद ज़रूरी चिंताएँ हैं । ये चिंताएँ काल्पनिक प्रतिनायकों द्वारा रची गई हैं जिनमें थानोस Thanos प्रमुख है। Thanos को आलोचकों ने Necessary Evil ;अनिवार्य शत्रु  की संज्ञा दी है । थानोस आधी दुनिया और बसाहटों को सिर्फ़ इसलिए मिटा देना चाहता है कि संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा/ प्रतिद्वन्द्विता समाप्त हो । कि मानवीय संघर्ष समाप्त हो ;वह  दुनिया को अपने ही तरीक़े से चलाना चाहता है और अपने उत्तराधिकारी को जहां की मिल्कियत सौंपना चाहता है  ।इस साज़िश में उसकी चाहना में उसके साथ उसकी एक पूरी सेना है जो उसकी इस  नकारात्मक परियोजना पर काम भी  करती है ताकि प्रतिद्वंद्विता न हो , संघर्ष न हो ।हालाँकि इस रोक का ,मानवीय संहार का अपना मनोविज्ञान है ।दूसरी तरफ़ सच्चाई और अच्छाई की प्रतीक एवेंजर्स की टोली है जो इस दुनिया को बचाना चाहती है ;जो रिक्तियों को लेकर चिंतित है ;जो उस भरावन को लाना चाहती  है जो बीत चुकी है , जो मानवीय उपस्थितियों को हरा करना चाहती है और  जो ताबूतों पर अफ़सोस करती है।

फ़िल्म में अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् की ही तर्ज़ पर स्व से ऊपर उठने की बात कही गई है । Thanos और एवेंजर्स के बीच के संघर्ष के इस  कथानक में अनेक रोचक कथाएँ हैं ,बिछड़ने की त्रासदी है ; अमरत्व और चिरयुवा रहने की सहूलियत को त्याग देने का जज़्बा है , मानव के सकारात्मकता के चरम पर पहुँच कर ईश्वरीय शक्ति प्राप्त करने का हौंसला  ( थोर के हैमर प्रसंग)  है और सुकून देता यह वाक्य भी है कि “Iron man has a heart”; हालाँकि इन सभी सूत्रों की अपनी अंतर्कथाएँ हैं जो फ़िल्म को देखने पर ही समझी जा सकती है ।

फि़लवक्त इसकी रोचकता के सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त  है कि आप अगर हिंदी सिनेमा और कलात्मक सिनेमा के दर्शक हैं और फिर भी अगर ज़बरन इस फ़िल्म को देखने जाएँ तो आप इसे पूरा देखने पर एक तसल्ली और रोमांच ज़रूर महसूस करेंगे। बाकि तो सिनेपटल स्वयं गवाही दे ही रहे हैं कि जोश कैसा है ।

#फिल्मीबातें
#Avengers_Endgame
Directed by -Anthony and Joe Russo
written by -Christopher Markus and Stephen McFeely 

विमलेश शर्मा
चित्र -गूगल

Post credit- @ Aayush Bharadwaj

Saturday, March 30, 2019

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल !


किसी भी प्रदेश की भाषा उसकी सांस्कृतिक धरोहर की पहचान होती है। उस भाषा में अनेक संस्कारअपनापन और भाव रचे-बसे होते है। इन सभी उदात्त गुणों के कारण ही  मातृभाषामायड़ भाषा दिल के करीब होती है । म्हारो मरुधर देस अर्थात् राजस्थान शताब्दियों से अपनी विशिष्ट पहचान बनाए हुए है। अरावली पर्वतमाला और विषम स्थलाकृति ने इस प्रदेश की 5000 वर्ष पुरानी सभ्यता और संस्कृति को एक धरोहर की भाँति संभाल कर रखा है । यहाँ के लोग ,लोक भाषा ,संस्कृतिलोक नृत्यलोक चित्रकला सभी में ;सजीवता ,माधुर्य एवं अपनेपन के दर्शन होते हैं।

 राजस्थानी भाषा जिसके लिए कहा गया है कि यह हर चार कोस पर बदल जाती है ;परन्तु इस वैविध्य में भी एक अनूठे ऐक्य के दर्शन इस भाषा में होते हैं। यह धरती वीर और भक्ति रस से सराबोर है। यहाँ एक ओर मीरा,रसखान ,दादू जैसे भक्त हुए हैं ;वही समकालीन साहित्य में कन्हैयालाल जी सेठिया ,केसरी सिंह जी बारहठ ,सूर्यमल्ल जी मीसण ,विजयदान जी देथाश्री नन्द भारद्वाज तथा श्री चन्द्र प्रकाश देवल जैसे अतिविशिष्ट साहित्यकार हुए हैं ;जिन्होंने अपनी रचनाओं से राजस्थानी भाषा को समृद्ध किया है और अनवरत सर्जनरत भी हैं।

यह धरती वीरोचित् भावनाओं से समृद्ध धरती है ,यह धरती है ढोला मारू के माधुर्य पूर्ण प्रेम की धरती इसीलिए यहाँ का जनमात्र कण कण सूं गूँजे जय जय राजस्थान और प्रेम के साझा स्वर उच्चारित करता है लहरिया की ही भाँति राजस्थानी भाषा विविध गुणों एवं रंगों को अपने विस्तृत कलेवर में समेटे हुए है ;जिसमें कही मेवाड़ी की धूम है तो कहीं ढूँढाड़ी की यहाँ की भाषा का आकर्षण ही है कि केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देस’ लोकगीत आज राष्ट्रीय ही नहीं वरन् राष्ट्रीय  फलक पर भी छाया हुआ है जिसे सुनकर रोम रोम पुलकित हो उठता है। 

यहाँ की भाषा में वो शक्ति है जो मृत्यु को भी एक उत्सव की तरह मानने को बाध्य करती है । यहाँ माताएँ बचपन से ही अपनी संतानों को "ईला न देणी आपणी हालरिया हुलरायै " जैसे गीत लोरी की तरह सुनाती हे ,तथा राष्ट्र को श्रेस्ठ पुत्र (संतान) रत्न प्रदान करती हैनिः संदेह यह यहाँ की भाषा की महत्ता  का ही प्रमाण है कि इसका माधुर्य समूचे प्रदेश को एकता के सूत्र में बाँधने का सामर्थ्य रखता है। भारतीय संस्कृति की अनेक सात्विक विशेषताओं को राजस्थानी भाषा अपनी कुक्षि में संजोये हुए है । परन्तु आज यही भाषा अपनी वास्तविक पहचान को प्राप्त करने के लिए तरस रही है। किसी अंचल की विशेषता उसकी भाषा ही होती है इस संदर्भ में कवि कन्हैयालाल सेठिया की ये पंक्तियां आज सही मालूम होती है- खाली धड़ री कद हुवैचेहरे बिन पिछाणराजस्थानी रै बिनां,क्यां रो राजस्थान। सच ही राजस्थानी के बिना राजस्थान की क्या पहचान है । इस संदर्भ में गौर किया जाए तो संवैधानिक मान्यता इस भाषा के विस्तार को ही नया फलक प्रदान नहीं करेगी वरन् पर्यटन को भी खासा प्रभावित करेगी। 

पर्यटन से इतर एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में इस भाषा का प्रयोग अगर किया जाए तो मनोवेज्ञानिक रूप से यह जरूर ही प्रभावी कदम होगा क्योंकि वही भाषा बच्चा जल्दी सीखता है जो दिल के क़रीब होती है। इसी क्रम में राजस्थानी को संवेधानिक मान्यता दिलाने के प्रयास वर्षों से निरन्तर जारी है जिसे अब विजय प्राप्त होनी चाहिए । राजस्थानी लोगों एवं भाषा ने अपने व्यापारिक कौशल व माधुर्य के बल पर भारत ही नहींबल्कि दुनिया के हर कोने में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई है। गौरतलब है कि एक तरफ जहाँ राजस्थानी भाषा संविधान की आँठवीं अनुसूची में स्थान पाने के लिए संघर्षरत है वहीं दूसरी ओर अमेरिका ने 2011 में ही व्हाइट हाऊस के प्रेसिडेंसियल अपॉइंटमेंटस की प्रक्रिया में पहली बार इस भाषा को अंतराष्ट्रीय भाषाओँ की सूची में भी शामिल किया था। निःसंदेह इस सार्थक पहल से इस भाषा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली है। अगर मायड़ भाषा को मान्यता प्राप्त होती है तो इस भाषा के साहित्य को न केवल संरक्षण के अनेक प्रयास होंगे वरन् इस भाषा का श्रेष्ठ साहित्य भी जन जन के लिए सुलभ होगा।

 आज जब युवा पीढ़ी अपनी ज़ड़ों से दूर हो रही है तब यह भाषा संस्कारों के सहेजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। राजस्थानियों के लिए मायड़ भाषाभावनाओं को समझने का सबसे सशक्त माध्यम है। मातृभाषा में शुरुआती पढ़ाई के साथ ही राजस्थानीहिन्दी और अंग्रेजी की त्रिस्तरीय शिक्षण व्यवस्था को भी लागू करने की ज़रूरत है जिससे यह ऐतिहासिक धरोहर हमारे भविष्य निर्माताओं के भी सामने आए। रोजगार के नवीन अवसरसांस्कृतिक एकताअक्षुण्णता और मनोवैज्ञानिक सबलता प्रदान करने एवं भाषाई शोध में गुणवत्ता प्रदान करने के लिए इस भाषा को मान्यता प्राप्त होना अत्यन्त आवश्यक  है जिससे ही सही मायने में इस भाषा के विकास मे आ रही समस्त बाधाएँ दूर होंगी। 

कहा भी गया है निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ,बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै ना हिय को शूल।

Friday, March 8, 2019

औरत हूँ मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूँ
इक सच के तहफुज्ज के लिए लड़ी हूँ।

फ़रहत ज़ाहिद जब यह ग़ज़ल लिखते हैं तो मानो स्त्री-संघर्ष के हज़ार वर्षों के संघर्ष को आवाज़ दे देते हैं। स्त्री को शक्त करने में जो अनेक कारण हमने देखें हैं उनमें वर्चस्व की राजनीति;जिसमें सम्पत्ति और सत्ता जैसे पक्ष प्रमुख रहे हैं, ही सामने आए हैं। हम देखते हैं कि सत्ता का यह संघर्ष इतना प्रचंड रहा है कि इनके चलते स्त्री को डायन तक करार दे दिया गया है;परन्तु इन बंदिशों के इतर एक तसवीर और भी है जिसे देखें तो स्त्रीवाद की लड़ाई,अपने हक़ूक के लिए किए गए संघर्ष में विजय पाती नज़र आती है और वह है सामाजिक स्तर पर आर्थिक बराबरी । स्त्री आज न्यायिक, शिक्षा, प्रशासनिक, सैन्य और राजनीति सभी क्षेत्रों को अपनी कर्मस्थली बना रही है , हालांकि शक्ति के उच्च स्तरों यथा विश्वविद्यालय के कुलपति स्तर और राजनीति के सत्तासीन पदों पर अब भी महिलाओं की उपस्थिति कम ही है ;परन्तु यह परिदृश्य भी ज़ल्द बदलेगा ऐसी आशान्विति है।   

स्त्री और समाज को उसकी समता की लड़ाई में जिस पक्ष पर बात करनी है वह है उस पर लैंगिक-प्रशिक्षण की थोपी गई सीख और संघर्ष, जिसमें उसके उठने-बैठने-पहनने-खाने सरीखे तमाम क्रियाकलाप पुरुषसत्ता की हदबंदियों में हैं। इन हदबंदियों को तोड़ने में शिक्षा और सकारात्मक सोच एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकती है। बहुत कुछ हो रहा है और बहुत कुछ होना बाकि है। बहुतेरे संविधान संशोधन हुए हैं, क़ानून और नियम बनाए गए हैं, अध्यादेश लाए गए हैं, पर सामाजिक-सोच और नज़रिया क्या हम वाकई बदल पाए हैं, यह सोचना होगा। सोचना होगा कि क्या स्त्री के प्रति सम्मान भाव समाज में पैदा हो पाया है। दुखद है पर कहना होगा कि अभी भी कुत्सित और संकीर्ण विचारधाराएँ उसे उसके मानवीय अधिकारों से वंचित कर रही है। इस सोच को बदलने के लिए समझदार और मानवीय सोच से लबरेज़ वैचारिक और समरसतावादीबौद्धिकी की आवश्यकता है । बात वैश्विक परिप्रेक्ष्य में की जाए या कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री की स्थिति कमोबेश एक-सी ही है। अतः स्त्री को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए, समता और समानता के लिए प्रयास तो सतत करने होंगे साथ ही स्वयं स्त्री को भी यह जानना होगा कि स्त्रीवाद की लड़ाई में वह कहीं छद्म स्त्रीवाद को तो नहीं अपना रही है;कहीं वह अपने बरअक्स स्वयं ही एक और विपक्ष तो नहीं गढ़ रही है।
स्त्री के नैसर्गिक गुण उसकी कमतरी नहीं वरन् सामर्थ्य है ।वह त्यागमयी, दयामयी, क्षेममयी है तो वह धीरा भी है। य अतिरिक्त गुण जो कि रिक्तता क़तई नहीं है नवपीढ़ी को याद दिलाते रहने होंगे अन्यथा नए जमाने की स्त्री  स्वातंत्र्य का परचम उठाए एक ऐसे उच्छृंखल वर्ग का संकुल बन जाएगी जो पितृसत्ता के क्रूर पक्ष का तो अक्स होगी ही साथ ही देह की जकड़न में बँधी गैर-ज़िम्मेदार नस्ल का भी प्रतिनिधित्व करेगी।

Saturday, January 26, 2019

हे मातृभूमि तू प्राणों से भी बढ़कर है...मणिकर्णिका

मातृभूमि के दीवाने इस अनूठी भारत -भूमि पर कम नहीं वरन् बहुतेरे हैं  ; जो इसी धरा पर जब-तब मणि की तरह दैदीप्यमान होते रहे  और अपने रक्त का क़तरा-क़तरा मातृभूमि को सौंप इसी में रम गए। इन्हीं मणियों में एक मणि दीपती है मणिकर्णिका की तरह। मणिकर्णिका उर्फ़ मनु ; जिसे हम झाँसी की रानी की तरह जानते हैं । वह किरदार जो 1857 की क्रांति, जातीय अभिमान , स्वाभिमान और मातृभूमि के प्रेम में आकंठ सराबोर है। बिठुर के पेशवा के यहाँ पली - बढ़ी मणि अपने आत्मबल में अनूठी है।

मणि इस फ़िल्म में यह संदेश देती है कि स्त्री को सशक्त करने की ज़रूरत नहीं वह स्वयं  शक्ति से प्रदीप्त है; और इसी का वैषम्य जब देखती है तो कई ज़गह सामंती और वर्चस्ववादी ताक़तों से  लड़ती भी नजर आती है।  देवर सदाशिव राव का एक कथन कि मैं औरत के समक्ष सिर नहीं झुकाता , राजमाता का मनु को रसोई और ललित कलाओं में ध्यान देने जैसी चंद-सी दिखने वाली बातों के पीछे संकुचित और एकांगी मानसिकता की गहरी खाइयाँ हैं ; जो समय के गुज़रने के बाद भी यथावत् है को मणिकार्णिका में गाहे-बगाहे अनेक प्रसंगों से उकेरा गया है ।

बिठूर के पेशवा की परेशानियाँ , नाना साहेब के उत्तराधिकार के प्रश्न , पेशवा होने के अधिकार से वंचित मातहत, ब्रिटिश कम्पनी की स्वार्थ-द्वेषपूर्ण नीतियाँ  और मातृभूमि से नि:स्वार्थ प्रेम मणिकार्णिका के कथानक का आधार है।

झाँसी की जिस धरती पर पचास वर्षों से सहज स्वतंत्रता का सूरज विकसित नहीं हु्आ मणि वहाँ ताज़े हवा के झोंके की तरह आती है
।अमिताभ बच्चन के वॉइस ओवर के साथ इस ऐतिहासिक  चरित्र गाथा की कहानी का प्रारंभ होता है और बमुश्किल फ़िल्म के तीसरे -चौथे दृश्य में ही दर्शक मणि से मिल लेता है।

यहाँ यह महत्त्वपूर्ण है कि कंगना इस फ़िल्म में अभिनय तो कर ही रही है पर इस फ़िल्म को निर्देशित भी कर रही हैं  पर मेरा मन कंगना में मनु को खोजता रहा और इस खोज में वह उस झाँसी की रानी तक पहुँच जाता है  जिसे ह्यू रोज अपनी आत्मकथा में 1857 के  स्वतंत्रता संग्राम में मर्दानी रानी कहकर पुकारता है।

रजवाड़ों के सबसे धनी राज्य झाँसी की गद्दी पर लक्ष्मी का बैठना अंग्रेज़ों के आँखों की किरकिरी है और फ़िल्म का हर दृश्य ऐसे सभी घटनाक्रमों को सिलसिलेवार दृश्य-दर-दृश्य दर्ज़ करता चलता है।
मनु से रानी और रानी ले मनु तक का सफ़र फ़िल्म सहजता से पूर्ण कर लेती है।लक्ष्मी और झलकारी जैसी वीरांगनाओं की अलमस्ती और स्वतंत्रता के सिंदूर की चाहना से तिलकित उनका ओजस्नी भाल मूल किरदारों का ही ओज है जो फ़िल्म को दर्शक के हृदय तक पहुँचाने का माद्दा रखता है।

पात्रों और अभिनय की दृष्टि से यह फ़िल्म सशक्त है पर और बेहतर हो सकती थी, यह भी सच है। फ़िल्म में तथ्यों की कमी खलती है,ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और शोध की आँख से इसे देखने पर भी यह फ़िल्म कमतर लगती है पर सिनेमा के निर्माता स्वयं इन पक्षों पर ये  कहकर पल्ला झाड़ते हैं कि कोरा इतिहास परोसना सिनेमा का ध्येय नहीं है। प्रसून जोशी के संवाद लिखने में भी कुछ कसर दिखी है  तो वहीं कुछ दृश्यों के फ़िल्मांकन में भी कहीं-कहीं कुछ कमी सी दिखाई देती है जो संभवत: भव्यता के अतिशय तक नहीं पहुँचने के कारण ही है । भंसाली के दृश्यों की तरह यहाँ वह अतिरेक नहीं है पर इतिहास इसी अतिरेक में कभी-कभी जगमगाता भी है। इसका एक अन्य कारण इस पटकथा और एपिक में प्रेम प्रधान घटनाक्रमों का अभाव रहना भी है।

मस्तानी जैसा जादू रचने में मणि असफल रही है ; हाँ !यह कहने में कोई गुरेज़ भी नहीं।

#मणिकर्णिका
एक वचन एक बाण

सरसरी_नज़र