Thursday, March 18, 2021

भाषिक मानकों और सामाजिक सरोकारों की चुनौती झेलता इलेक्ट्रॉनिक मीडिया

 

 

परिवेश और वातावरण मनुष्य को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। वस्तुतः बदलाव मनुष्य को एक नए मनुष्य में बदलने की एक सतत प्रक्रिया है और चेतना के स्तर पर बदलाव की इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मीडिया है। मीडिया मनुष्य की चेतना को खाद देता है उसे पोषित करता है और सामाजिक चेतना को अग्रगामी बनाता है। आज मीडिया का विस्तार हो रहा है । वह आधुनिकतावाद और बाज़ारवाद से जूझ रहा है ,उसे अपने आपको हर पल नया रखना है ,संभवतः इन्हीं चुनौतियों के चलते उसे अनेक समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है। पैड न्यूज, विज्ञापन और टी.आर. पी. के बढ़ते जंगल में आज वो अपनी विश्वसनीयता खो बैठा है। सामाजिक सरोकारों का सजग प्रहरी आज बदलती कार्यशैली में जन सरोकारों से बहुत दूर हो गया है। आज मीडिया के प्रति जनता का विश्वास निरंतर  खोता जा रहा है । प्रिंट मीडिया आज अपनी साख अब भी बरकरार रखे हुए हैं परन्तु अगर इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बात की जाए तो वहाँ खबरों के चयन से लेकर प्रस्तुतिकरण तक अनेक प्रकार की गिरावट देखने को मिलती है। कभी कभी तो किसी खबर का इतना अधिक दोहन किया जाता है कि उस खबर की सम्वेदनशीलता ही समाप्त हो जाती है। मीडिया सामाजिक सरोकारों और जन संवेदनाओँ का सच्चा पहरूआ है। आज भी कई पत्रकार, टी.वी.पत्रकार और संपादक युवा पीढी के आदर्श हैं;परन्तु उनके भ्रम तब टूट जाते हैं जब वो इन्हें केवल प्रदर्शन और बाजारीकरण की होड़ में ऐसी ख़बरों को प्रदर्शित करते देखते हैं जिनका सामाजिक सरोकारों और जागरूकता से कोई लेना देना नहीं हैं। कई बार तो ख़बरे अन्य किसी ग्रह के प्राणी को लेकर बनाई जाती है या फिर ऐसी विषयवस्तु को लेकर होती है जो हास्यास्पद हो। अगर उसे  पूरा देखा भी जाए तो नतीजा सिफर ही रहता है, वे दर्शकीय चेतना को किसी तरह प्रभावित नहीं करती । कई बार ख़बरों पर होने वाली चर्चाएँ भी तर्कहीन होती हैं । कई बार तो विषय पर प्रकाश डालने हेतु बुलाए जाने वाले विशेषज्ञ और वक्ता ही विषय से भटकते हुए और निजी आक्षेप लगाते हुए नजर आते हैं।  लोकतांत्रिक व्यवस्था के इस चौथे स्तंभ ने यों तो आज बहुत विकास कर लिया है परन्तु सार्थक सम्वाद के स्तर पर वो कहीं पिछड़ गया है। इसीलिए मीडिया की कार्यप्रणाली और सांख पर सवाल उठने लग गए हैं। अगर बीते वर्ष का ही उदाहरण ले तो इस वर्ष को एक स्मारक स्तम्भ की संज्ञा दी जा सकती है , पूरे वर्ष इतना कुछ घटा कि उसे लेकर एक सार्थक संवाद की आवश्यकता थी। जहाँ यह वर्ष एक और वैचारिक बदलाव का समय था वहीं दूसरी और उस समय विश्व औऱ देश के मानचित्र पर अनेक घटनाएँ घटित हो रही थी जो कि झकझोकने वाली थी और इस समय आवश्यकता एक प्रतिबद्ध मीडिया की थी जो कि हमारा ध्यान उन सरोकारों की ओर ले जाए जिन पर विमर्श की सर्वाधिक आवश्यकता है। परन्तु मीडिया हताश करता है और हर उस मुद्दे की तरफ भागता दिखता है जो उसे केवल औऱ केवल व्यावसायिक लाभ प्रदान करे।

 

भाषा का मनमाना प्रयोग कर पत्रकारिता आज अपने विकसनशील तत्त्वों और भाषिक प्रतिबद्धता से दूर हट रही है। पत्रकार संपादक चलताऊ भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। अनेक शब्दों का वर्तनीगत ग़लत प्रयोग आज समाचार पत्रों में आम हो गया है। जनसंचार के माध्यमों ने यदि  इस ओर अपनी ज़वाबदेही सुनिश्चित  नहीं की तो भाषा को एक बड़े अहित का सामना करना पड़ सकता है।

 

 आज बदलती जीवन शैली और जटिलता के वातावरण में अनेक विसंगतियाँ उपज रही हैं ,अनेक अपराध घटित हो रहे हैं। ऐसे में अगर इलेक्ट्रानिक मीडिया सतर्क होकर उन पहलूओँ को उजागर करें जिससे समाज इस माध्यम से उन अपराधों के प्रति और उनके पीछे रही मानसिकता को समझ सके तो क्या यह एक सार्थक पहल नहीं होगी। अनेक सवाल है, सवाल यह भी है कि आज तकनीक में जो बदलाव आ रहे हैं क्या वह भी मीडिया को प्रभावित कर रहे हैं और इस कारण मीडिया को अपना अस्तित्व बचाए रखने एवं खुद को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने हेतु अनेक बदलाव करने आवश्यक है। मीडिया यानि वह माध्यम जिसका आम जनता अनुसरण करती है और इस अनुसरण का कारण है कि मीडिया लोगों के सोचने के तरीके को प्रभावित करता है। 1922 में पहली बार वाल्टर लिपमैन ने अखबार में काम करने  के अपने अनुभव के आधार पर यह कहा कि मास मीडिया छवियों के सहारे लोगों की राय बनाता है। यह बात सत्य है कि मीडिया जनता की चेतना को प्रभावित करता है और दृश्य श्रव्य साधन इसे और अधिक प्रभावी बनाते हैं। यही कारण है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया सामाजिक जागरूकता हेतु अधिक जवाबदेह है परन्तु अब समय आ गया है कि मीडिया को अपनी प्राथमिकताएँ तय करनी होंगी। बेबाक तरीके से अपनी सहमतियाँ और असहमतियाँ प्रस्तुत करनी होंगी और यह जानना होगा कि उनका दर्शक अब समझदार हो गया है अब वह ऐसी खबरों पर रूकने की बजाय स्वस्थ हास्य चैनल्स पर ठहरना ज्यादा पसंद करता है। आज सर्वाधिक आवश्यकता है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ऊर्जस्वित विचारों का दोहन करे अपने मूलभूत सिद्धांतों और मूल्यों पर चले और सामाजिक दायित्वों का निर्वाह कर सजग प्रहरी की भूमिका का निर्वहन करे। अगर मीडिया सिंहासन और जनताजन सरोकारों और घोषणाओं में एक सामंजस्य बैठा लेवस्तुनिष्ठता एवं निर्वेयक्तिकताको अपना ले तो समाज के क्षेत्र में एक सच्चा प्रतिनिधि बन कर उभर सकता है। आज आवश्यकता है ऐसी पत्रकारिता की जो दोतरफा संवाद करने कामाध्यम बनेंजागरूकता और बौद्धिकता के साथ संवेदनशीलता रखे  और साथ ही आम ज़िंदगी से जुड़ने का सामर्थ्य भी रखे तभी लोकतंत्र का यह चौथा परन्तु मजबूत और ज़रूरी स्तम्भ सही मायने में सच्चा सामाजिक पहरेदार साबित होगा।

 

Sunday, March 7, 2021

जीते जी एक रचनाकार का मिथक बन जाना- फणीश्वरनाथ रेणु


 

फणीश्वरनाथ रेणु (1921-1977) भाषाई ताज़गी, लोक संपृक्ति और जीवन की साखियों से उपजे रूपायन को लेकर साहित्य में पदार्पित होते हैं। अपने अनूठे रचानकर्म के बल पर रेणु अपने जीवन काल में ही मिथक बन गए। उनके द्वारा लिखे गए उपन्यास,कहानियाँ, रिपोर्ताज, वैचारिक-स्तंभ, एक रचनाकार के कोरे जीवनानुभव नहीं हैं वरन् हमारे साहित्य के ऐतिहासिक और संग्रहणीय दस्तावेज़ भी हैं। बकौल डॉ.नामवर सिंहविचार जिस प्रकार प्राप्त होता है, उसी प्रकार अभिव्यक्त भी होता है। यदि वह पुस्तकों से प्राप्त होता है, तो पुस्तकीय ढंग से प्रकट होता है, यदि वह जनारण्य से दूर एकान्त कमरे में आराम-कुर्सी के चिंतन से प्राप्त होता है, तो रचना में भी एकान्त और वैयक्तिक चिंतन का रूप लेता है, और यदि वह जीवन के संघर्षों में कुछ न्यौछावर करने से प्राप्त होता है, तो उसी गर्मी,उसी ताज़गी, उसी सजीवता, उसी सक्रियता तथा उसी मूर्तिमत्ता के साथ रूपायित होता है। साहित्य में इसी रूपायन का महत्त्व है , जो रेणु के कथा-साहित्य में ललित, रससिक्त और प्राणवंत भाषा और कथानक की सजीवता और लोकरंग लेकर जीवंत होता है। प्रेमचंद के पश्चात् हिन्दी साहित्य में एक विशेष तरह के आभिजात्य और संभ्रांत लेखन का वर्चस्व दिखाई देता है, इस भीड़ में रेणु एक नए मुहावरे की तरह उभर कर सामने आते हैं। व्यक्तित्व अकसर कृतित्व में प्रतिबिम्बित होता है, ऐसा ही रेणु के रचाव में भी देखा जा सकता है। पतनशीलता की पराकाष्ठा को देखकर उन्होंने कहा है, अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता रहा हूँ कि यह कब ख़त्म हो।(दिनमान, 28 अप्रैल,1974) आंचलिकता की रंगभूमि पर रेणु के रचनाकर्म की भावभूमि को देखें , जिसके लिए रेणु को जाना जाता है तो आज़ादी के बाद का वह गाँव है जिसका कच्चापन टूटकर बिखर रहा है, वहाँ की हवाओं में लोकगीतों के स्थान पर फिल्मी गीत हैं, सामूहिकता  में दरारें हैं और एक गाँव में एक पंचायत नहीं , बल्कि हर जाति, समुदाय की अपनी पंचायत और उस पंचायत के लिए अपनी एक पंचलाइट  ज़ादी के बादगाँव शहरों की ओर पलायन कर रहे थे और जो गाँव निःशेष रह गया वहाँ भी शहरी संस्कृति काबिज़ हो गई । उनकी रसप्रियविघटन के क्षणउच्चाटनभित्तिचित्र की मयूरी’, इन्हीं विसंगतियों से उपजी कहानियाँ हैं। 

 

काव्य के भाव-तत्त्वों में नाद, झमक और यति-गति को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, यह रेणु के यहाँ जीवंत होते दिखाई देते हैं। मैला आँचल हो , परती-परिकथा हो (उपन्यास), विदापत-नाच (रिपोर्ताज) हो, मारे गए गुलफ़ाम हो या कि डायन कोसी (रिपोर्ताज) सभी में उनके कथ्य और भाषा एक ऐन्द्रिक नाद का सर्जन करते  दिखाई देते हैं। रेणु ने अपने जीवन में अनेक राजनीतिक और सामाजिक विकृतियों का साक्षात्कार किया है। उन्ही विद्रूपताओं को संवेद्य करते वे कोसी पर बन रहे पुल को सर्वहारा की हड्डियों के पुल की संज्ञा दे देते हैं तो 1966 में बिहार और उड़ीसा के अकाल पर, 1975 में पटना की बाढ़ पर रिपोर्ताज लिखकर और दलित-सर्वहारा की पीडा दिखाकर वास्तविक भारत-दर्शन करवाने से भी नहीं चूकते हैं। तमाम सामाजिक रुग्णताओं के प्रतिबिम्बन के बावज़ूद रेणु के मन में आशा और विश्वास के स्वर हैं, जिन्हें वे नए सवेरे की आशा में तो  रूपायित करते ही हैं साथ ही उस तेज और चमक को अपनी भाषा से भी रचनाओं में बिखेरते हैं।

 

धर्म, मज़हब और जाति के खाँचों में बँटा मानव रेणु की कहानियों में मुक्तिकामी दिखाई पड़ता है। वह राजनितिक कुचक्रों और पूँजीपति वर्ग की कारगुजारियों से आहत होता है। वस्तुतः यही वे संवेदनाएँ हैं जो उनकी रचनाओं को विश्वसनीयता और सम्पन्नता प्रदान करती है और संभवतः यही रेणु का वर्गविहीन भारत है जिसकी आस उनकी हर रचना में मुखर रूप से अभिव्यक्त होती दिखाई देती है।