Monday, June 15, 2020

खुशियाँ अंतस् की प्रतिध्वनियाँ हैं!







खुशियाँ अंतस् की प्रतिध्वनियाँ हैं!!!


जीवन कोमल प्रार्थनाओं के फलीभूत होने सा ही होता है -पवित्र, निर्मल और पूर्णतया सात्त्विक। हम सभी स्वजीवन की पगडंडियों पर अजान यात्राओं के राही हैं। इस यात्रा में कुछ ऐसा है जो हम जैसा ही है, जो हमें आकर्षित करता है, जो हमें राह दिखा कर कुछ देर जीवन को पुलक से भर जाता है, जो हमें हमारी आत्मा के अंश जैसा ही लगता है; सर्वथा अनुकूल ।  आध्यात्मिक व्याकरण की ऐसी अनुभूतियाँ जीवन से जुड़ने पर ही महसूस की जा सकती हैं। जीवन की किसी साँझ में जाने कौन अजान आशीष धरते हाथों से एक दिया किसी चौखट पर जला जाता है और हम उसे आसमानी आशीष की मुस्कराहट मान किसी बुत को पूजने लगते हैं। प्रकृति का हर उपादान ऐसे ही चमत्कारों और जाने कितनी कीमिया और रहस्यों से ही तो भरा है।

प्रकृति के पोर-पोर में छिपा है जीवन का संदेश

फुनगियों पर चमकती शाम की आखिरी धूप हो या हवा के थपेडें में किसी शाख से विलग होता हुआ कोई दल; वह हर आँख को जीने का कोई संदेश देकर जाता है। यह निर्भर उस आँख पर करता है कि वह उस संदेश को कितना देख पा रहा है , या कितना जी पा रहा है। निर्मल वर्मा कहते हैं कि-‘ इस दुनिया में कितनी दुनियाएँ खाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग ग़लत ज़गह पर रहकर सारी ज़िन्दगी गँवा देते हैं।’ सुखी रहने के लिए इन जगहों का ही सही चुनाव करना भर होता है। जीवन एक सतत यात्रा है और इस यात्रा में  जाने कितने वक्फों में, बारिश की  बूँदों की ही तरह माथे  पर कोमल नेह बरसता रहता है।यह कई बार उस पागल प्रेमी की ही तरह होता है जो लाख उपेक्षा करने के बाद भी अपनी थाप भर से जीवन में रस घोल देने को आमादा हो जाता है। बस तुम्हें बनना होता है तो समर्पिता पृथ्वी कि आकाश तुम पर बेसाख्ता टूट पड़े।



यहाँ सत्य कुछ भी नहीं

जीवन में शाश्वत कुछ भी नहीं फिर भविष्य के अजाने खौंफ से जेबे भारी करने का कोई नतीजा है भी नहीं। दूसरी ओर जो बीत गई सो बात गई ठीक ही कहा गया है। अतीत को पीठ पर लादे चलने का भी कोई औचित्य नहीं । अतीत व्याघात तो दे सकता है पर मार्गदर्शक नहीं हो सकता। वह करणीय, अकरणीय का बोध तो करा सकता है पर नई राहों का पता नहीं बता सकता। यहाँ तो जीने का सलीका यही है कि जितनी चवन्नियाँ बर्फ के गोलों पर खर्च कर दिए जाए वो ईश्वर की  याद में फेरे गए मनकों की ही तरह जीवन का हासिल है। मनुष्य का हृदय इस जगत् की सबसे पवित्र वस्तु है। यहाँ खिलने वाले फूल कोमल और इतने नाजुक होते हैं कि छूने भर से उनकी रंगत बदल जाती है , इसलिए कोशिश करना की वे सहज भाव से खिलते रहें। उन्हें परम्पराओं की खाद देना और सभ्यताओं का सलीका कि वे आदिम भले बनें रहें पर आदमी की ही तर्ज़ पर। इन फूलों को खिलने देना कि यह खिलना ही प्रकृति का सबसे खूबसूरत राग है ।

प्रकृति के छंद सहज पुलक के निर्माता हैं

जाने कौनसा छंद प्रकृति सहेजती है कि जब वह माथे पर बरसता है, तो हर आँख हँस देती है। यह हँसी, पुलक उस रात के दर्द को भी लील जाती है जब चाँद फूल-फूल झरने के बज़ाय बादलों की ओट में छिप कर रोया था। जीवन की घटनाओं को सहेजना सायास नहीं होता वे अपने कौतुहल या दर्द के अतिरेक से स्वयं आकार ले लेती हैं अपने भीतर। और सुरक्षित रहती हैं ठीक वैसे ही जैसे माँ की कोख में कोई बालक। अनुकूल अवसर आने पर आप उस नरम फोहे के अहसास को महसूस कर सकते हैं। परन्तु घटनाओं से चिपके रहकर थम जाना जीवन से विमुख होना है।

प्रकृति का संतुलन बेजोड़ है

प्रकृति का हर उपादान अपने नर्तन से जीवन नाविन्य और सातत्य का एक नया संदेश देता जान पड़ता है। फिर अगर कोई जन्म और फिर मृत्यु को ही जीवन का अंतिम सत्य मान ले तो, उस जीव सा मूर्ख और नासमझ तो कोई और होगा ही नहीं। मृत्यु से पूर्व जीवन में अजीवन का हस्तक्षेप प्रकृति की सकारात्मक वृत्ति में धुर विरोधी अवधारणा है। दरअसल जीवन में जो करीब है वो हमें दिखाई नहीं देता और जो साँसों में शामिल है उसका पता भी नहीं चलता। यही इस जीवन की विडम्बना है। जो दूर है, अप्रस्तुत है वो मनुष्य को आकर्षित करता है। जो कल्पित है वह उसे चमत्कार से भर देता है पर जो करीब है वो कल-कल बहता रहस्य , मन के गह्वरों में छिपा है। जो अगर खोज लिया जाए तो कबीर की उलटबाँसियाँ सच साबित हो जाएगी नहीं तो ‘ताका जल कोई हंसा पीवै बिरला आदि बिचारी की ही तर्ज़ पर’ जीवन की भूलभूलैया में इंसान कहीं खो जाएगा।

खुशियाँ अंतस् की अन्तर्ध्वनियाँ हैं

खुशियों की खोज में हर व्यक्ति बाहर की यात्रा करता रहता है। नतीजतन वह रिक्त हो जाता है। इस रिक्तता को भरने के लिए खुद का ही योग करना पड़ता है। जीवन के गणित के सूत्र वाकई अद्भुत है, यहाँ के दुःख रहस्यों की चाबियाँ हैं जो जीवन जीने के नज़रिए में कुछ न कुछ नया जोड़ देते हैं। जगत् की रीति कहती है कि विषम का योग किया जाए तो यहाँ चमत्कारी परिणाम देखने को मिलते हैं । यहाँ दुःख आत्मा का श्रृंगार है तो प्रेम हरसिंगार का नाजुक फूल।इसी धरा पर स्याह रात की आदिम गंध जाने कौनसी चमकीली सुबहों के तार छिपाए रहती है कि पृथ्वी के सीने पर प्रातः एक धूप का फूल चुपचाप खिल उठता है। सर्जन मौन होता है , विध्वंस शोर करता है। सर्जन वेदनाओं की अनन्य सीमाओं को लाँघता है पर तीक्ष्ण वेदनाएँ ही जीवन में अनुभवों के मोती जोड़ती है । जीवन का ऐसा पाठ सिखाती हैं जिसका अभ्यास सौ जीवन जीने पर भी नसीब नहीं होता । सच है यह! यकीन नहीं होता तो किसी बच्चे की कोमल आँखों में झाँकिए ईश्वर मुस्कुराता हुआ मिलेगा। ठीक उसी तरह जैसे मानों कोई कच्ची प्रार्थना सहज ही सुन ली गई हो। यहाँ ईश्वर को खोजने निकलोगे तो कुछ ज़िंदा अक्स सहसा उभरते हुए मिलेंगे और हज़ारों बरसों के तजुर्बात पानियों पर तिरते। अजब है यह जीवन-दर्शन पर संशय कपाट अनावृत्त करने पर ही है यहाँ वास्तविक जीवन सिद्धि !

 लिखा गया था अहा ज़िंदगी के लिए कभी!

विमलेश शर्मा

Tuesday, June 2, 2020

एक मतवाली रानी थी ...बस यही उसकी कहानी थी!






यह बात वैसी ही है जैसे बारिश बीत जाने पर बात बारिश की पर बारिश कहाँ बीत पाती है वह तो स्मृति में दर्ज हो जाती है किसी अनुस्मृति की तरह ...और कोई उससे मुक्त होना चाहे तो भी कैसे और भला क्यों कर !

ऐसी ही बात एक फ़िल्म की जिस पर बेवज़ह बवाल हुआ और ख़ासी आलोचना भी । यों मन नकारात्मक आलोचना पर कान नहीं धरता पर राजस्थान के चटख रंग , राठौड़ा री आन ( ओ म्हानै राठौड़ा री बोली प्यारी लागे म्हारी  माँ), घेर घूमेर घाघरा और घूमर मन के बहुत पास बजता है तो देखनी तो थी ही सो आज मुझ तक पहुँची यह भी।

कुछ तो लोक का असर है कि ये रजवाड़े खींचते हैं अपनी ओर और कुछ समय को मानती हूँ कि हर चीज का आप तक पहुँचने का एक वक़्त होता है सो आज ‘पद्मावती’ पहुँची मुझ तक। वह पद्मावती जिसे इतिहासकार कल्पना भी मानते हैं पर वह कल्पना नहीं मोहक व्यक्तित्व की स्वामिनी और प्रेम - निष्ठा में पगी एक रानी थी । धन -स्त्री और सत्ता प्रसार इतिहास के हर उन्मादी राजा के लिए केन्द्र में रहे हैं , यहाँ भी हैं।

घणी घणी खम्मा...ये ही शब्द राग में तिरते रहते हैं जब पद्मावत का पहले-पहल दृश्य-मंच आँखों पर बिछने लगता है , तब जब यह फ़िल्म अपना और अपने किरदारों का वास्तविक परिचय दे रही होती है।

फ़िल्म के प्रारम्भ में ही लोक समृद्ध लगता है ...लोक तो होता ही समृद्ध है पर कलाकार या सहृदय उससे स्वयं को कितना भर पाता है यह महत्त्वपूर्ण होता है ।दीवारों पर लोक उरेहन और पार्श्व में बजता मद्धम लोक संगीत ...तो शुरुआत अच्छी रही । आप यों कह सकते हैं कि भव्यता की पदचाप सुनाती हुई-सी।

पहला ही दृश्य जलालुद्दीन ख़िलजी का और फिर सनकी अलाउद्दीन का ...इतिहास की थोड़ी बहुत समझ रखने वालों को ये किरदार अपनी अदाकारी से बहुत अधिक समृद्ध कर देता है। मंगोल फ़तह करना, अपने ही चाचा जलालुद्दीन को मौत के घाट उतारकर तख़्ता पलट करना , इतात खान को मौत के घाट उतारना और उसकी स्त्री- लम्पटता को चरम पर दिखाते जाने कितने वीभत्स  दृश्य हैं जिन्हें रणवीर ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है । रणवीर सिंह को देखकर लगता है कि सफलता के लिए बस मेहनत की ज़रूरत होती है, और कुछ नहीं ...हालाँकि यह इस समय की एकपक्षीय सच्चाई पर उसे देखकर इस बात पर यक़ीन होता है ।

तख़्ता-पलट जैसी क्रूरताओं के लिए कहा गया है कि यह सल्तनत का दस्तूर है , सच ही तो है कि सत्ता पर एक सनक सवार होती है और यह सनक स्वकेन्द्रित हो जाए तो फिर जनता के लिए जीना मुश्किल हो जाता है ।
मेहरुन्निसा के साथ ज़्यादती अलाउद्दीन की सनक का पता स्वयं देती है, चित्तौड़गढ़ के क़िले के बाहर हताश और विद्रोह करती अपनी सेना को ढाढ़स बँधाता अलाउद्दीन और फिर सकारात्मक परिणाम पाकर वज़ीर को आँख का इशारा करता अलाउद्दीन कितनी बातें प्रकारांतर से कह जाता है ...दृश्यों में इसी प्रकार तो अर्थ -स्फीतियाँ होती हैं और यही मन पर अंकित रह जाती हैं ।

मलिक काफ़ूर की बात की जानी चाहिए कुछ...एक गुलाम जिसे अपनी ग़ुलामी का एहसास नहीं है जो अलाउद्दीन से प्रेम करता है ...दैहिक प्रेम और यही कारण है कि वह उसके आस-पास किसी स्त्री की मौजूदगी को स्वीकार नहीं कर पाता है। वह प्रेम करता है ;परन्तु किसी राजा की एकाधिक रानियों की ही तरह उसमें भी सौतिया-डाह है जो अनेक स्तरों पर उद्घाटित हुआ है।

मेहरून्निसा का प्रेम से पीडा तक का सफ़र हरमों की दबी सच्चाइयाँ हैं जहाँ मल्लिका -ए -जहाँ को महारानी पद्मावती  का इस्तक़बाल करना भी एक मजबूरी बन जाता है ।

“उसूल इंसानों के लिए होते हैं जानवरों के लिए नहीं”, कहन अलाउद्दीन की क्रूरताओं के लिए सच ही जान पड़ता है ।

दूसरी ओर पद्मावती जिसे साहित्य की विद्यार्थी होने के नाते जायसी के रचे में ख़ूब पढ़ा है ; उसकी नागमणी का विरह-वर्णन तो समूचे मरुभूमि को डूबो देने का सामर्थ्य रखता है पर यहाँ वह नागमति अनुपस्थित है पर पद्मावती का सौन्दर्य मैंने जायसी के शब्दों से ही देखा है-

“वह पदमिनि चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी ॥
कुंदन कनक ताहि नहिं बासा । वह सुगंध जस कँवल बिगासा ॥”

रतनसेन और पद्मावती का प्रेम सच्चा, तरल और समर्पित है वहीं पहली रानी नागमति को जीवन से विरक्त दिखाने के पीछे रजवाड़ों में एकपत्नीव्रत का अभाव होने की पीड़ा को ही अधिक उद्घाटित करता है।  रत्नसेन को उसी तरह चित्रित किया गया है जिस तरह एक बलशाली राजा के समक्ष सभी युक्तियों से जूझते हुए दिखाया जाना चाहिए ।

राघव-चेतन का विद्रोह तनिक अतिरंजना लिए है जो अंत तक बना रहता है और मेवाड़ के होम होने का कारक बनता है । पर यह भी संदेश देता हुआ कि राग यमन कभी चंदन की ख़ुशबू देता है तो कभी ग़ुलामी की दुर्गंध भी...चयन हमारा ही होता है।




पटकथा के मूल में स्पष्ट संदेश है कि, ‘सौन्दर्य घातक नहीं था/ होता वरन् उसकी ओर उठने वाली कुदृष्टि घातक थी/ होती है।’ पर यह लोक बार-बार अपने हर कुकृत्य से यह सिद्ध करता है कि दोष रूप का होता है , स्त्री-देह का होता है उस पर उठने वाली आँख का नहीं। जाने क्यों ये शब्द स्वयं निकले जब रानी आठ सौ दासियों के वेश में सेना को लेकर चल पड़ती है कि,”स्त्री को कम मत आँकों जब वो चुप हो जाती है तो प्रकृति उसका साथ देती है।” हाँ! आप चाहें तो इसे मेरी स्त्री-दृष्टि कह सकते हैं ।

गोरा और बादल जैसे कर्तव्यनिष्ठ और जाँबाज़ साथी हो तो चित्तौड़ अभेद्य हो ही जाता है । उनके ही साथ उनकी माँए जो इला ने देणी आपणी जैसी घुट्टी उन्हें हिंडोले में हर श्वास के साथ देती है । पद्मावती के दिल्ली जाने न जाने पर विरोधाभास मिलते हैं पर सात-सौ (फ़िल्म में आठ सौ) डोले और उनमें स्त्री-वेश में वीर जाने की बात को कितने ही इतिहास-ग्रंथों में मिलती है। इस संदर्भ में नरेन्द्र मिश्र जी की गोरा-बादल कविता ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए, इतिहास पर ऐसा प्रभावी लिखा कम मिलता है-

“गोरा बादल के अंतस में जगी जोत की रेखा
मातृ भूमि चित्तौड़दुर्ग को फिर जी भरकर देखा
कर अंतिम प्रणाम चढ़े घोड़ो पर सुभट अभिमानी
देश भक्ति की निकल पड़े लिखने वो अमर कहानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी “
(नरेन्द्र मिश्र)

“खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार...”, कहानी में खुसरो हैं और उनकी कविताई के ज़रिए अलाउद्दीन अपने हाथ में प्रेम की लकीर खोजता दिखाई देता है ।

कहानी मैं धार तलवार की है ...राजपूतों की आन है और प्राण-पण से ख़ुद को बनाए रखने की ज़िद  जिस पर बवाल मचना समझ से परे है। क्या एक रानी का नृत्य आपत्ति का केंद्र था तो सामंती दृष्टि में तब और अब कितना अंतर आया है , समझा जा सकता है ।

और फिर राजस्थान का पहला साका होता है । क्रंदन , बलिदान और पीडा की तीव्र लपटों में झुलसता मेवाड़ बचा रह जाता है और उसी के बीच जीतकर भी हारा हुआ  सिंकदर द्वितीय (सानी) ।

अंततः गिद्ध-दृष्टि मँडराती रह जाती है और सोना तप कर कुंदन बन जाता है। हाथों की छाप आत्मा पर अमिट छाप बन जाती है ।जो बच जाता है वह बस प्रेम 💓

बात मेरी और चित्र गूगल से साभार

विमलेश शर्मा