लेख-अंश
फणीश्वरनाथ रेणु(1921-1977) भाषाई ताज़गी, लोक संपृक्ति और जीवन की साखियों से उपजे रूपायन को लेकर साहित्य में पदार्पित होते हैं। अपने अनूठे रचानकर्म के बल पर ‘रेणु’ अपनेजीवन काल में ही मिथक बन गए। उनके द्वारा लिखे गए उपन्यास, कहानियाँ, रिपोर्ताज, वैचारिक-स्तंभ आदि महज़ एक रचनाकार के कोरे जीवनानुभव नहीं हैं वरन् हमारे साहित्य के ऐतिहासिक और संग्रहणीय दस्तावेज़ भी हैं। बकौल डॉ.नामवर सिंह, “विचार जिस प्रकार प्राप्त होता है, उसी प्रकार अभिव्यक्त भी होता है। यदि वह पुस्तकों से प्राप्त होता है, तो पुस्तकीय ढंग से प्रकट होता है। यदि वह जनारण्य से दूर एकान्त कमरे में आराम-कुर्सी के चिंतन से प्राप्त होता है, तो रचना में भी एकान्त और वैयक्तिक चिंतन का रूप लेता है, और यदि वह जीवन के संघर्षों में कुछ न्योछावर करने से प्राप्त होता है, तो उसी गर्मी,उसी ताज़गी, उसी सजीवता, उसी सक्रियता तथा उसी मूर्तिमत्ता के साथ रूपायित होता है।”साहित्य में इसी रूपायन का महत्त्व है, जो रेणु के कथा-साहित्य में ललित, रससिक्त और प्राणवंत भाषा और कथानक की सजीवता और लोकरंग लेकर जीवंत होता है। प्रेमचंद के पश्चात् हिन्दी साहित्य में एक विशेष तरह के आभिजात्य और संभ्रांत लेखन का वर्चस्व दिखाई देता है, इस भीड़ में रेणु एक नए मुहावरे की तरह उभर कर सामने आते हैं। व्यक्तित्व अकसर कृतित्व में प्रतिबिम्बित होता है, ऐसा ही रेणु के रचाव में भी देखा जा सकता है। पतनशीलता की पराकाष्ठा को देखकर उन्होंने कहा है, “अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता रहा हूँ कि यह कब ख़त्म हो।”1आंचलिकता की रंगभूमि पर रेणु के रचनाकर्म की भावभूमि को देखें, जिसके लिए रेणु को जाना जाता है तो उनके रचाव में आज़ादी के बाद का वह गाँव है जिसका कच्चापन टूटकर बिखर रहा है, जिस गाँव की हवाओं में लोकगीतों के स्थान पर फिल्मी गीत हैं, सामूहिकता में दरारें हैं और एक गाँव में एक पंचायत नहीं, बल्कि हर जाति, समुदाय की अपनी पंचायत है और हर उस पंचायत के लिए अपनी एक ‘पंचलाइट’ है। आज़ादी के बादगाँव शहरों की ओर पलायन कर रहे थे और जो गाँव निःशेष रह गया वहाँ भी शहरी संस्कृति काबिज़ हो गई। उनकी ‘रसप्रिया’, ‘विघटन के क्षण’, ‘उच्चाटन’, ‘भित्तिचित्र की मयूरी’, इन्हीं विसंगतियों से उपजी कहानियाँ हैं। पर इससे इतर रेणु की कहानियों में अनेक अन्य रंग भी दिखाई देते हैं जिनका अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि रेणु को आंचलिकता के दायरे में बाँध कर उनका मूल्यांकन करना न केवल अपरिपक्व दृष्टि की सूचना देता है वरन् अध्येता के अध्ययन पर भी प्रश्नचिह्न लगा देता है।
रेणु की कलम में अनेक रंग है और हिन्दी भाषा उनकी ऋणी है क्योंकि लोक रंग के हों या दैनन्दिन जीवन से संबंधित उन्होंने एक विपुल शब्द-संपदा हिन्दी को सौंपी है। रेणु की संवेदनाओं को समझने-पकड़नेऔर उन्हें कल्पना का सहारा ले शब्दों में ढालने का प्रातिभ अनूठा है।“नितांत ज़मीन की ख़ुशबू से रचे शब्दों को खड़ी बोली के फ्रेम में रखकर उन्होंने ऐसे प्रस्तुत किया कि वे उनके पाठकों की स्मृति में हमेशा-हमेशा के लिए जड़े रह गए। उनके लेखन का अधिकांश इस अर्थ में बार-बार पठनीय है। दूसरे जिस कारण से रेणु को लौट-लौटकर पढ़ना ज़रूरी हो जाता है, वह है उनकी संवेदना और उसे शब्दों में चित्रित करने की उनकी कला। वे भारतीय लोकजीवन और जनसाधारण के अस्तित्व के लिए निर्णायक अस्तित्व रखनेवाली भावधाराओं को तकरीबन जादुई ढंग से पकड़ते हैं और उतनी ही कुशलता से उसे पाठक के सामने प्रस्तुत कर देते हैं।”2
रेणु की सर्जन यात्रा के प्रारंभ को देखें तो उन्होंने अपने, “साहित्यिक जीवन का प्रारंभ सन् 1940 के आस-पास कविताओं से किया था और वे कविताएँ पूर्णिया नगर से उस समय निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहतीं थीं।”3 रेणु की पहली कहानी ‘बटबाबा’1944 में साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ (कलकत्ता) में छपी थी।रचनाकाल की दृष्टि से देखें तो रेणु की कहानियां ‘मैला आंचल’ (1954) के प्रकाशन के दस वर्ष पहले हीदर्जन भर कहानियाँ प्रकाशित हो गई थीं। “1953 मेंउनकी दो कहानियाँ‘टौन्टी नैन का खेल’ और ‘वंडरफुल स्टूडियो’ प्रकाशित हुईं। पर इन कहानियों में रेणु की उल्लेखनीयता देश के एक पिछड़े हुए क्षेत्र के आंचलिक स्वरूप का सूक्ष्म विवरणों से युक्त चित्रण मात्र है।‘रसप्रिया’(1955) रेणु की पहली कहानी है,जिसने उन्हें एकबारगी हिन्दी के श्रेष्ठ कहानीकारों की पंक्ति में बिठा दिया।दूसरे ही वर्ष(1956) प्रकाशित ‘तीसरी कसम’ ने तो कहानीकार के रूप में रेणु की अमिट पहचान भी पक्की कर दी। इसके बाद रेणु की ‘लाल पान की बेगम’, ‘ठेस’, ‘तीन बिन्दियाँ’, ‘पंचलाइट’, ‘सिरपंचमी का सगुन’, ‘तीर्थोदक’, ‘नित्यलीला’, ‘नेपथ्य का अभिनेता’, कपड़घर (1957-60) आदि एक दर्जन से ऊपर कहानियाँ और ‘ठुमरी’ नामक कहानी संग्रह (1959)प्रकाशित हुआ।... ठुमरी की भूमिका में रेणु ने इसमें संकलित सभी कथाओं का अंतर मार्ग एक ही बताया था उन्होंने अपने को ठुमरी का कथा गायक बताते हुए कहा है कि जिस प्रकार गीत के अंतर मार्ग विंग बीच-बीच में विभिन्न स्वरों के प्रयोग से वैचित्र्य और कारुकार्य संपादित होता है। एक स्वर को लेकर विभिन्न स्वरूप से उसकी संगति दिखलाकर ही किसी राग के रूप को प्रकाशित किया जाता है। उसी प्रकार इस संग्रह की एकाधिक कथाओं में एक ही विशेष मुहूर्त को विभिन्न परिवेश में रखकर रूपायित किया गया है।”4
इस प्रकार नयी कहानी से पूर्व पाँचवे दशक में उनकी कई कहानियाँ प्रकाशित हुई। पर ये कहानियाँ मैला आँचल और परती परिकथा के शिल्प से आगे की कहानियाँ थीं। इन कहानियों में उनकी परिवेश को देखने की समझ, समसामयिक प्रवृत्तियों को पकड़ने की परिपक्व दृष्टि देखी जा सकती है।नयी कहानी के दौर को केवल महानगरीय परिवेश की कहानी समझना या संभ्रात वर्ग और नवमानव की कहानी समझना उसके फलक को सीमित करना है। दरअसल नई कहानी अनेक कथाधाराओं का समुच्चय है, जिसमें विषयवस्तु, परिस्थितियों, परिवेश, दृष्टि, प्रतिबद्धताओं का वैविध्य है। यह कोई वाद नहीं है, कोई धारा नहीं है,वरन् सर्जन का प्रगतिशील रुझान है। “वस्तुतः नई कहानी कोई विशेष प्रवृत्ति न होकर एक आंदोलन है जिसके अंतर्गत विभिन्न प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं । नई कहानी के साथ ग्रामीण अंचलों की कहानियाँ लिखने वाले रेणु,मार्कण्डेय,शिवप्रसाद सिंह भी जुड़े हैं और लोकल के रूप में लंदन,पेरिस, न्यूयॉर्क आदि को अपनाने वाले निर्मल वर्मा,उषा प्रियंवदा और विजय चौहान जैसे लेखक भी। भारतीय कस्बों, नगरों और महानगरों की कहानियाँ लिखने वाले कमलेश्वर, अमरकान्त, मोहन राकेश, विष्णु साहनी, राजेंद्र यादव तो इसके साथ है ही। जितनी विविधता नई कहानी में कथ्य की दृष्टि से मिलती है प्राय: उतनी ही शिल्प के रूप में भी दृष्टिगोचर होती है। जहाँ छोटे-छोटे अनुभव खंडों से बुना निर्मल वर्मा की कहानियों का टेक्सचर मिलता है, वहीं अनगढ़ता का आभास तथा ‘मर्दाना लय’ काएहसास देने वाली ज़नाना कहानीकार कृष्णा सोबती की शिल्प-चेतना और भाषा भी मिलती है।”5 स्पष्ट है नई कहानी विषय की दृष्टि से बहुलतावादी वैविध्य लेकर चलती है। वहाँ आत्मपीड़न की व्यथा तो है ही साथ ही सामाजिक उत्पीड़न और विसंगतियाँ भी। नया कहानीकार इसी वैविध्य को एक साथ अनेक स्तरों पर एक साथ लाने का प्रयास करता दिखाई देता है। डॉ नामवर सिंह इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “वस्तुतः आज का कहानीकार समाज में स्वयं इतनापीड़ित है कि वह अपने समानधर्मी लोगों के बीच अपनी पीड़ा बाँटने के लिए कुछ अपनी और कुछ उनकी कहने के लिए विवश है।”6 रेणु एक तरफ कहानी की परम्परा का निर्वहन करते हुए अपनी विशिष्ट मानवीय संवेदना से प्रेमचंद के उत्तराधिकारी कहे जाते हैं, जो उनकी रिक्थ को सहेजता है, तो दूसरी ओर वे आज़ाद भारत और आधुनिकीकरण की बयार की तासीर भी क़रीब से पकड़ते हैं, यद्यपि आनुपातिक दृष्टि से वे कहानियाँ कम हैं और शिल्प की दृष्टि से साधारण।
रेणु का दूसरा कहानी-संग्रह ‘आदिम रात्रि की महक’ 1967 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। “'अगिनखोर’ रेणु का तीसरा कथा-संग्रह है जो सन् 1974 में संभावना प्रकाशन, हापुड़ से छपा।”7 इन तीन कथा संग्रहों के अतिरिक्त रेणु के कुछ अन्य कहानी-संग्रह भी मिलते हैं।इनमें सबसे पहला स्वयं रेणु द्वारा संपादित ‘हाथ का जस’(1962)कथा-संग्रह है जिसमें रेणु के साथ हिमांशु श्रीवास्तव और रणधीर सिन्हाकी कहानियाँसंकलित है। राजेन्द्र यादव संपादित ‘नए कहानीकार’ पुस्तक-माला के अंतर्गत 1964 में ‘फणीश्वरनाथ रेणु : श्रेष्ठ कहानियाँ’शीर्षक से छपा। इसके पश्चात् राजपाल एंड संज़से 1974 में ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ शीर्षक से रेणु की नौ कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ।
बचपन से ही विद्रोही तेवर रखने वाले इस क्रांतिदूत ने अपने लेखन का कारवाँ कविता से प्रारंभ किया और फिर कहानी, रिपोर्ताज औरउपन्यास के क्षेत्र में कदम रखा, परन्तु मृत्यु से ऐन पहले इमरजेंसी पर अपनी कविता लिखते हुए वे आपातकाल का विरोध करते हुए आज़ादीके हक में खड़े होते हैं। रेणु के लिए आज़ादी के व्यापक मायने हैं। बकौल रेणु “मैंने आज़ादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नहीं लड़ी थी। अन्याय औऱ भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता हूँ कि यह कब खत्म हो। अपने सपनों को साकार करने के लिए जन संघर्ष में सक्रिय हो गया हूँ।”8