Friday, September 22, 2023

दाम्पत्य की टूटन और एकाकी भावजगत् का सूक्ष्म विश्लेषण-ढलती शाम के लंबे साये

 















डॉ.विमलेश शर्मा

सहायक आचार्य,हिन्दी

राजकीय कन्या महाविद्यालय,अजमेर

vimlesh27@gmail.com

 

कोई भी उपन्यास जीवन के सभी रूपों, आयामों, घटनाओं और उसमें निहित संवेदनाओं के महीन तंतुओं को रेखांकित करने की चेष्टा करता है, इस रेखांकन में हर लेखक अपनी रुचि के अनुसार विषय चयन करता है, भाव-पल्लवन करता है और अपनी विशिष्ट शैली में उसे एक शरीर प्रदान करता है।उपन्यास में कथानक आधार तत्त्व है, जिसका चुनाव लेखक या तो समाज को केंद्र में रखकर करता है या फिर वह व्यक्ति केंद्रित होता है, जिसकी बुनावट में या तो परिवेश की सजीवता होती है या मनोविज्ञान के महीन रेशों की कसावट । यही कारण है कि उपन्यास और उनकी शैलियाँ विविधवर्णी होती हैं। हम एक तरफ़ प्रेमचंद के सामाजिक उपन्यासों को पाते हैं तो दूसरी ओर अज्ञेय के व्यक्तिवादी उपन्यासों को , एक ओर वृन्दावन लाल वर्मा इतिहास के गह्वरों से कथानक खींच कर लाते हैं तो दूसरी र काशीनाथ सिंह मिथकों की पुनर्सर्जना करते हैं । दरअसल उपन्यास का मिज़ाज और तेवर समय, परिवेश और लेखकीय चेतना से प्रभावित होते हैं। 

 

ढलती शाम के लम्बे साये, गोपाल माथुर का तीसरा उपन्यास है। जो वाणी से हाल ही में प्रकाशित हुआ है। गोपाल माथुर अपनी कहानियों और उपन्यासों में व्यक्ति मन के  एकान्त की व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं । उनके पात्र अपने एकान्त में अपने अतीत और मन की गाँठों को खोलने का प्रयत्न करते हैं और इन्हीं बिन्दुओं पर हम उस आदमी की शिनाख़्त करते हैं जो एक इकाई है, जिसकी उधेड़बुन हर मन में एक जैसी है । जो अपनी परिस्थितियों में कभी बेचैन, विचलित होता है  तो कभी स्थिर दृश्य-सा अविचल बैठा रहता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, यह एक सामान्य-सा कथन जो हम बचपन से मानविकी की किताबों में पढ़ते रहते हैं इसके गूढ निहितार्थ हैं।  मनुष्य अपने मनोनुकूल अपने समाज का निर्धारण करता है। कभी वह समाज दोस्ती के दायरों में सिमटा होता है, कभी परिवार तो कभी जीवन साथी तक ही । व्यक्ति के उस समाज में जब ठेस लगती है तो वह सन्नाटों को बुनने लगता है और एक दिन वो उन्हें बुनते-बुनते थक जाता है।  ढलती शाम के लम्बे साये का कथानक इसी त्रासदी पर आधारित है।

 

उपन्यास के प्रारम्भ में ही उपन्यास का नायक अपने अनुभव इस तरह बयां करता है- नीरव जंगल में सन्नाटों ने बना लिए हैं घर/ परिन्दों के खाली रैन बसेरेउनकी प्रतीक्षा में थक कर हो चुके हैं निढ़ालहवा के बदन से रिस रहे हैं घाव और जंगल के सभी जीवमृतात्मा से भटक रहे हैं।  अभिनव अपनी एक लेखकीय पहचान बनाना चाहता है और उस लेखकीय पहचान बनाने में उसका दाम्पत्य , उसका परिवार उससे दूर हो जाता है। उसकी सनक भी अज़ीब थी ।  वह एक कंपनी के मैनेजर के पद पर कार्यरत है और चूँकि उसके पास उसके पिता की छोड़ी हुआ बहुत सी चल-अचल सम्पति है इसलिए वह अपने सपने को पूरा करने के लिए नौकरी से कार्यमुक्ति ले लेता है। क्षिप्रा उसके इस फैसले से अवाक् रह जाती है और इस निर्णय को अपनी ज़िम्मेदारी से भागना कहती है। क्षिप्रा के सामने उसका और उसके बेटे पंकज का भविष्य है, जिसकी चिंता के आगे उसे अभिनव का यह निर्णय गैरज़िम्मेदाराना लगता है। अभिनव और क्षिप्रा की रोज़ की नोक-झोंक उनके रिश्ते में दूरी ला देती है। यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं मुझे अपनी पुश्तैनी जायदाद का अच्छा खासा गुरूर था। ...वह जब भी मेरे नाकारा होने का ताना देती, मैं तो कहता मैं तो सोने का चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुआ हूँ। ...वह मेरे तर्क को एक ही झटके में ख़ारिज़ कर दिया करती कि बैठ- बैठे खाओ तो कुबेर का ख़जाना भी ख़त्म हो जाता है।... (ढलती शाम के लम्बे साये- पृ.21)

 

उपन्यास की नायिका क्षिप्रा एक व्यावहारिक समझ रखने वाली युवती है । वह सुनिश्चित भविष्य चाहती थी इसीलिए अभिनव के निर्णय का विरोध करती है । क्षिप्रा के आर्थिक स्वावलंबन ने रिश्ते मे समझौते की जगह दूरी को चुना, यदि यह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। सलाहियतों की जगह जब तर्क लेने लगें तो रिश्ते का नुकसान होना तय है। क्षिप्रा और अभिनव अपने- अपने जीवन को सार्थकता देने की ज़िद में अलग हो जाते हैं।  एक अरसे तक एकाकी जीवन जीने के बाद दोनों का छ्ब्बीस बरस बाद आमना-सामना होता है।   पर दुविधा, अनिश्चय, आकर्षण और अनिर्णय के मिले-जुले तागों से बुनी यह स्थिति दोनों के लिए ही दुखदायी होती है । इस स्थिति का लेखक ने अमूर्त चित्रण किया है। दुविधा में डूबी हुई मनःस्थिति भी अज़ीब होती है। अनिर्णय के क्षणों में आप इधर से उधर और उधर से इधर डोलते रहते हैं। अतीत, वर्तमान, भविष्य और फिर भविष्य, वर्तमान और अतीत।...परिस्थितियाँ अपना खेल खेलती रहती है और आप उसकी जकड़न से ख़ुद को मुक्त नहीं कर सकते।(पृ. 55)

 

उपन्यास एकाकी जीवन की विडम्बनाओं के साथ-साथ पुनर्विवाह से जुड़ी वैचारिकी और सामाजिक बाध्यताओं को भी सामने रखता है। अभिनव एक लम्बे अरसे के बाद अपने परिवार को पाने को लौटता है पर जिस तरह समुद्र की लहरें अनर्गल चीजों को बाह फेंक देती है ठीक वैसा ही वह महसूस करता है। उसका परिवार थोड़ा सा भी खिसक कर उसे जगह देने को तैयार नहीं होता है। दूसरी ओर असंवाद के क्षणों में क्षिप्रा बार-बार यह सोचती है कि क्या अभिनव ने विवाह कर लिया होगा। हालाँकि क्षिप्रा दिवांग से भावनात्मक स्तर पर जुड़ती है पर जल्दी ही उसके निर्णय से अपनी इस लगाव को छिपा भी लेती है और इस तरह अपने जीवन को लेकर वह किसी भी प्रकार का निर्णय लेने में   स्वयं को असहाय पाती है। अकेले हो जाने पर पुरुष का पुनर्विवाह कर लेना  एक सामान्य-सी घटना होती है, पर स्त्री के लिए नहीं। उसके साथ बच्चे जुड़े होते हैं, उनका आने वाला कल जुड़ा होता है। स्त्री के लिए पुनर्विवाह करना एक सहज प्रक्रिया नहीं होती है, विशेषकर यदि वह माँ भी हो। उससे पहले उसे अन्तर्द्वन्द्वों से गुज़रना। पड़ता है, विशेषकर मानसिक उलझनों से। (पृ. 110) उपन्यास उस सच  को भी बार-बार अनेक दलीलों से सामने लाने का प्रयत्न करता है कि किसी के लिए भी उम्र भर अकेले जीते चले जाना आसान नहीं होता, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री । एक ओर जहाँ उत्तरदायित्व का भाव यह साहचर्य देता है तो दूसरी ओर एक अदृश्य सुरक्षा-बोध भी रिश्ते को मजबूती देता है। मनौवैज्ञानिक स्तर पर यह अलगाव दोनो ही ओर गहरी टूटन देता है। 

 

उपन्यास बहुत बारीकी से रिश्ते में अलगाव की परिस्थतियों, मनःस्थितियों और अलगाव पश्चात् की उधेड़बुन। और कश्मकश को शब्द-दर-शब्द सामने लाता है। उपन्यास में घटना-क्रम नहीं है बल्कि परत-दर-परत विचार हैं , भाव-जगत् का धुंधलता है, उस भाव-जगत् का जहाँ से आगे की कोई राह नहीं सूझती। उपन्यास में पूर्वदीप्ति शैली का भी प्रयोग है और स्वयं लेखक की स्वीकारोक्ति है कि, “मैंने इसे रिवर्स क्लाइमेक्स शैली में लिखने की कोशिश की है, जो उत्तरोत्तर सघन से विरल होती  जाती है । यह प्रयोग सफल भी जान पड़ता है क्योंकि लेखक जिस 26 वर्ष के अंतराल के पहले और बाद के कथानक को मनःस्थिति के रंगों से लिख रहा है उसके लिए पात्रों का परिचय देती हुई यह आपबीती शैली ही इस कथानक के साथ न्याय कर सकती थी। इस उपन्यास में सिर्फ पात्र हैं और उनका मनोजगत् , यहाँ न प्रकृति मिलेगी न ही परिवेश। इन्हीं बिन्दुओं से हम लेखक के पूर्व लेखकीय क्रम को भिन्न कर सकते हैं। 

 

उपन्यास का रचाव इस दृष्टि से भी ख़ूबसूरत है कि उसका अंत, अंत नहीं होकर एक शुरूआत है, एक आशा की किरण है । छब्बीस बरस के बाद टूटा दाम्पत्य फिर से हरियाता है लेकिन दाम्पत्य की ज़मीन पर नहीं , भाविक ज़मीन पर जहाँ एक कोशिश है दोनों ही मनों की , कि जो अच्छा हो उसे सहेज लिया जाए जहाँ बातों के लिए  अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी। जहाँ न साथ जीने की कोई संभावना बची हो और ना ही उस रिश्ते के बग़ैर जीने की कोई चाहना हो।  उपन्यास में दो ही चजें उपन्यास का तत्त्व हैं- एक भाषा का कलात्मक रचाव और दूसरी स्मृतियों और अनुभूतियों का कोलाज़। उपन्यास में संवाद हैं जो कि अधिकतर क्षिप्रा और अभिनव के ही हैं या कि पंकज और क्षिप्रा के या पंकज और अभिनव के पर जो सबसे ज्यादा है वो है अन्तर्द्वन्द्व के संवाद । इन संवादों को एकालाप भी कह सकते हैं पर ये संवाद ही उपन्यास के गझिन भाव-जगत् को विस्तार प्रदान करते हैं।

 

उपन्यास का शीर्षक उस एकाकी जीवन की यंत्रणा से उपजा  है जहाँ जीवन एक साहचर्य की कामना करता है, जहाँ एक साथ मुकम्मल हो यह जीने के लिए बहुत ज़रूरी हो जाता है। दो व्यक्तियों का मिलना ए संसार की सृष्टि करता है और अलग होनो पूरे संसार से उन्हें काट कर रख देता है। उपन्यास इसी भाव बिन्दू पर आद्युपान्त चलता रहता है। उपन्यास अनिर्णय की स्थिति से प्रारम्भ होता है जो अलगाव को जन्म देती है और अंत भी एक अनिर्णय की  स्थिति पर पाता है, जहाँ रिश्ते से अलग होने का भय ज़रूर है पर एक दूसरे को समझे जाने की पूर्णता है। उपन्यास एक नई शैली में लिखे जाने के जोख़िम को लेकर तो चलता ही है साथ ही दाम्पत्य के टूटन जैसे सामान्य से विषय को भाव-जगत् के धरातल पर लिखे जाने के प्रयास को लेकर   भी सशंकित रहता है। परन्तु ये दोनों ही प्रयोग पात्रों की मनःस्थिति और कथानक के साथ न्याय करते नज़र आते हैं। उपन्यास पढ़ने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि इस उपन्यास को बस इसी तरह से लिखा जा सकता था । उपन्यास में जहाँ-तहाँ संस्मरण और डायरी शैली भी अपना स्थान पा गईं हैं। अभिनव और क्षिप्रा के चरित्रों को लेखक ने संवादों के माध्यम से तो बखूबी खोला ही है वरन् उनकी मनःस्थितियों को भी स्मृतियों और अनुभूतियों के सघन संवादों से सामने लाने का प्रयास किया है।

 

उपन्यास दो एकाकी जीवनयात्राओं की विडम्बनाओं की गाथा है इसलिए जहाँ-तहाँ सूत्रात्मक शैली और दर्शन का अतिरेक लग सकता है  ;परन्तु अपने कलेवर में यह औपन्यासिक सर्जना एक पूर्ण उपक्रम नज़र आती है।

Wednesday, September 13, 2023

हिन्दी की भाषिक सम्पदा और साहित्यिक अवदान


 

भाषा का प्रयोक्ता हर व्यक्ति होता है लेकिन लेखक सामाजिक सम्पदा के रूप में एक ज़िम्मेदारी के साथ भाषा का प्रयोग और प्रसार करता है। लेखक एवं पाठक दोनों ही साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के भी साक्षी बनते हैं।  भाषा एवं उसका साहित्य किसी भी समाज, उसकी प्रगति, उसके प्रश्नांकन, उसकी बेचैनी और समय को दर्ज़ करता है। यही वो माध्यम है जो समय को बदलने की भी कुव्वत रखता है और कई बार समय के बरक्स प्रतिसमय भी रचता है। तकनीक, प्रतिस्पर्धा और लगभग अराजक हो चुके समय में जब हर तरफ कृत्रिम विद्वत्ता का बोलबाला है, ऐसे में सहज और सजग साहित्य की रचना किसी सात्त्विक यज्ञ से कम नहीं है, पर प्रश्न फिर उठता है कि क्या इस अधीर समय में धैर्यवान साहित्य की रचना हो रही है ? अशोक वाजपेयी कभी-कभार में इस पर। पूरी आश्वस्ति के साथ कहते हैं किसाहित्य सारे झूठों से घिरे रहकर  भी यथासंभव सच कहने, सच पर अड़े रहने और अलोकप्रिय हो जाने, अकेले और निहत्थे पड़ जाने तक का जोख़िम उठा रहा है। भाषा जब जनसंपर्क का और लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों की साक्षी की भूमिका में है तो उसके साहित्य को भी यह ज़िम्मेदारी तो उठानी ही पड़ेगी, इसलिएवरिष्ठ कवि की साहित्य से यह अपेक्षा ज़रूरी जान पड़ती है।

 

भारत और फिज़ी क राजभाषा और विश्वभाषाओं की श्रेणी में शुमार हिन्दी अपनी बोलियों और उपबोलियों से एक विशाल शब्दकोश का निर्माण करती है।  लोकोक्तियाँ और मुहावरे इसकी आर्थी व्यंजना को प्रभावशाली बनाते हैं तो अरबी-फ़ारसी और तत्सम शब्दों का सम्मिश्रण इसे अद्भुत सर्वसमावेशी कलेवर प्रदान करता है। इसकी देवनागरी लिपिइसे भाषायी पहचान और स्थायीत्व प्रदान करती है तो वही जनसंपर्क में इसकी महती भूमिका के कारण इसके प्रयोक्ता इसे राष्ट्रभाषा की पहचान दिलाने की ज़द्दोज़हद में भी शामिल नज़र आते हैं । हिन्दी का साहित्य पाठक को मानवीय और लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ के साथ-साथ प्रश्नवाचकता एवं सहमति-असहमति के विवेक का ज्ञान भी प्रदान करता है। खुसरो,कबीर, सूर, तुलसी,मीरा, जायसी के पदों से लेकर भारतेन्दु, सरस्वती और आधुनिक पत्रिकाओं तक का सफर इसका गवाह स्वयं है। लघु पत्रिका आंदोलन की बात की जाए या अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्यिक उपक्रमों की तो गंभीर साहित्य का रचाव यह स्वयं बताता है कि उसकी पाठकों के बीच कितनी आवाजाही है, कितनी लोकप्रियता है और वह मानसिक खुराक के लिए कितना ज़रूरी भी है। कबीर वाणी का पुनःपाठ हो यामीरा की साहित्यिक उपस्थिति हो या पद्मावत के प्रतीकात्मक कथानक की सत्यता, सभी विषयों को ही आलोचक एवं अध्येता विविध शोध-प्रविधियों से नयी भंगिमाओं के साथ सामने ला रहे हैं। शोध की ये नवीन दृष्टियाँ समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी नयी अवधारणाओं और स्थापनाओं को सामने लाने का भी अभिनव प्रयास है। साहित्य की यह गतिशीलता शोध की नयी संभावनाओं और विधात्मक प्रयोगों के आग्रह को दर्शाती है। कथेतर विधा का विकास भी साहित्य की इसी गतिशीलता का ही प्रमाण है। 

 

आज क भागदौड़ और प्रतिस्पर्धा के समय में हर भाषा के साथ ही हिन्दी भाषा भी प्रयोग के अतिरिक्त नवाचारों की माँग रखती है और यह कार्य अकादमिक संस्थाओं की ज़िम्मेदारी के द्वारा ही फलीभूत भी हो सकता है। भाषा की ही तरह उसका साहित्य भी उसके अध्ययन-मनन की माँग रखता है अतएव किसी भी भाषा के सौन्दर्य और उसकी चारुता में अभिवृद्धि के लिए शाब्दिक सम्पदा का अधिकाधिक उपयोग और नए तथा शब्दों के पर्यायवाची रूपों का आग्रह, भाषा की सामासिकता तथा अन्य देशज रूपों का अधिकाधिक प्रयोग भाषा को संवर्धित एवं उसे अक्षुण्ण रख सकता है तथा उसके साहित्यिक वितान को भी वैश्विक पहचान दिलाने में महनीय भूमिका अदा कर सकता है।