Monday, May 4, 2020

इक थप्पड़ के बहाने !


                                               


बातें बहुत-सी होती हैं ...किताबों में , कहानियों में और यों ही फ़िल्मों की कहानियों में भी ...पर बात असल में हो कितनी पाती है ।
जो नहीं देखना चाहती थी इतना सुन-सुन कर वह मैंने भी देखी ...थप्पड़!
नि:संदेह करारा नहीं था उतना...पर विमर्श के अतिवाद पर पहुँचते हुए हम दर्शक यह क्यों भूल जाते हैं कि यह केवल अमू की कहानी नहीं है ...उस अमू की जिसका जीवन में कोई ख़्वाब नहीं था और जिसने विवाहोपरान्त सिर्फ़ और सिर्फ़ एक अच्छी समर्पित पत्नी बनना चाहा था वरन् यह उस जैसी बहुतेरी लड़कियों की कहानी है , जो हर वर्ग में मौजूद हैं । 
यह जानना ज़रूरी है कि कुछ ज़ख़्म संघर्षशील बनाते हैं ! 
इस फ़िल्म में हर स्त्री किरदार स्त्री जीवन की त्रासदी लेकर आता है ...यद्यपि बहुत से झोल , बहुत जगह यह भी मन में आता है कि इससे कई-कई गुना अधिक घरेलू हिंसा तो स्त्रियाँ सहन कर रही हैं , तो यहाँ क्यों एक सशक्त-सी दिखने वाली महिला अशक्त, असहाय और परिस्थतियों के आगे घुटने टेकती नज़र आती है । 
एक-एक संवाद सवाल करता जान पड़ता है ख़ामोशी से पर यह सुनने के लिए भोक्ता की टीस की ज़रूरत होगी । ना यह कहकर इस कथानक को बेहतरीन नहीं बता रही । सिर्फ़ यह कहना है कि बहुत से सवाल हैं ...बहुत सारे जो इस पितृसत्ता पर चोट करने का प्रयास करते हैं ...पर चोट क्या वाक़ई हो पाती है , इस तरह का सिनेमा देखकर भी समाज इस कुंद छवि से बाहर आ पाता है ...? बहस इस पर होनी चाहिए पर नहीं वह यह क्यों नहीं कर पाई इस पर सुई ठहर जाती है । 
नहीं होता विरोध करना आसान और जिस तरह उसे बचपन से संस्कार दिए जाते वहाँ तो हर लड़की का अंत समाज कुछ ओर ही देखना चाहता सो लड़ते -लड़ते कभी तो उम्र गुजर जाती है । 
फ़िल्म में सुनीता का चित्रांकन देखा आपने असली नायिका वह है , जो भिड़ती है , जीतती है पर क्या वह वाक़ई जीत पाती है ? वकील का चरित्र निभाती नायिका स्वयं की शर्तों पर जीने का असल मानी सीखती है पर तब जब वह अमू का केस लड़ती है और साथ ही कई सवाल भी पीछे छोड़ देती है कि क्या अलगाव के बाद वह उस एक ठप्पे के साथ जी पाएगी । 
कभी इस ठप्पे के बारे में सोचा है आपने ? लोगों के प्रश्नचिह्नों को रोज महसूस किया है , क्या स्त्री होने के नाते ही उसे उस दृष्टि से देखने का प्रयास किया है ...नहीं बल्कि आप उसे देखकर असुरक्षित होने लगती हैं ...ठीक यहीं उसका हमवर्ग पितृसत्ता में शामिल हो जाता है । 
बात समाज की कुंद सोच पर प्रहार करने की होती है , बात उन प्रश्निल निगाहों पर रोक की होनी चाहिए, बात उस जीवन में ...उसकी हँसी में विषाद को नहीं खोजे जाने की होनी चाहिए पर बात यह नहीं होती । 
हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ आज भी कई स्टेट्स और तसवीरें तालें में जबरन बंद रहती हैं ...उनके तथाकथित उन रिश्तों के कारण ।पर नहीं बात उन पर नहीं ही होगी। 
इतना भर सोचती हूँ कि थप्पड़ भले ही बहुत असरकारी नहीं , ठीक है पर बहुत -से ज़रूरी सवाल तो छोड़ती ही है चाहे उतने प्रभावी न बन पड़े हों । 
विनर्श की ही आड़ में देखना है और तुलना ही करनी है तो छपाक से बेहतर फ़िल्म है थप्पड़। 
अनुगूँज सुनाई तो देती है कम-अज-कम।
कम ही सही पर इस समाज के लिए इतनी ही डोज़ ज़रूरी और काफ़ी क्योंकि यह तो इसे भी झेलने का माद्दा नहीं रखता ।
विमलेश शर्मा
#इक_थप्पड़_के_बहाने


Sunday, May 3, 2020

राम कथा सुन्दर करतारी!






रामायण और महाभारत में कथानक को लेकर अनेक विमर्श खड़े हुए हैं और कई प्रसंगों में जबरन खड़े कर दिए गए हैं , सत्य है; परन्तु विमर्श की दिशा ठीक होनी चाहिए , चिंतन शोधपरक होना चाहिए अन्यथा कुपाठ  तो हर धार्मिक और मिथकीय कृति का होता ही रहा है।

कोई ठीक-ठीक इन लौकिक काव्यों का मनन करे तो सारे प्रमेय स्वत: ही हल होते दिखाई देते हैं... ये महाकाव्य सतर्क और सचेत होकर लिखे गए हैं...कई स्थलों पर तो स्वयं रचयिता नायक/ पात्रों से यह कहलवाता है कि नहीं इस कहे को यों , ठीक यों ही देखा जाना चाहिए ; और किसी अतिरंजना पर किसी वरिष्ठ, कभी किसी मित्र तो कभी किसी परिवारजन के माध्यम से सचेत भी करते हैं कि  मानवीय धर्म सर्वोपरि है ।

रामायण में हर संवाद , हर विमर्श (चिंतन) एक अन्तर्कथा को लिए है । रामायण की घटनाओं में सर्वाधिक प्रश्न सीता परित्याग पर खड़े हुए हैं और फिर जिस तरह राम उत्तररामायण में महानायकत्व के पूर्ण शशि से तनिक घटते नज़र आते हैं ; वहाँ यह संशय गहरा जाता है। यद्यपि इसी घटत को लेकर और नाना उपेक्षाओं को लेकर साहित्य को नवीन आयाम भी मिले।

सीता पुनि बोली (उपन्यास), साकेत (काव्य) रामकथा पर आधृत ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं; जहाँ क्रमश:परम्परागत मूक सीता को आधुनिक मन की प्रश्निल मन:स्थिति की वाणी और उर्मिला , कैकयी को केन्द्र में लाने के प्रयास किए गए हैं ।

वस्तुत: रामायण   के प्रतिनिधि पात्रों की पीडा मूक है ; उन पर दायित्व और मर्यादा का भार भारी जिसे निर्वहन करते वे अतिमानवीय / दैवीय हो जाते हैं और वाल्मीकि जैसे स्थिर और त्रिकालदर्शी सीता की शपथ और पुन: परीक्षा पर विचलित । सीता के बाद जीवन के  उत्तरार्द्ध में  लक्ष्मण  परित्याग भी  विह्वल करता है। सरयू में राम-लखन और अयोध्यावासियों का विषाद से मुक्त होने के लिए स्वयं को समाप्त करना भी विचलित करता है; परन्तु महानायक को साकेत धाम पहुँचाने के लिए विषाद से मुक्ति का यह मार्ग सटीक जान पड़ता है।

भक्ति निर्मल करती है इसीलिए त्याग , शील  और मधुरा भक्ति भावों से ओतप्रोत रामकथा मन को धीर देती है , सबल बनाती है , आत्मबल प्रदान करती है तो अश्रुजल के प्रवहन से आत्मा को परिष्कृत भी करती है ।

यहाँ मानवीय गुणों की सीख देते कई स्थल हैं जिनसे नव युवमन इस विपद में अवश्य लाभान्वित हुआ होगा।


चित्र- राजा रवि वर्मा ( साभार-गूगल)