Monday, June 30, 2014

वैश्विक तपन का ब़ढता दायरा और झुलसती जिंदगी

                  
निरन्तर बढता तापमान और आग उगलता सूरज इन दिनों हमारी चिंता और चर्चा का एकमात्र विषय है। इस तन झुलसाती तपन और गरमी के कारण ग्लोबल वार्मिंगशब्द से भी हम सभी  परिचित हैं। गाहे बगाहे इस शब्द पर चर्चा भी कर लेते हैं परन्तु इसे अपने स्तर  पर काबू करने की बात आते ही हम हाथ खींच लेते हैं इसी की परिणति है कि आज हम वैश्विक तपन के भयानक खतरों को झेल रहे हैं। वैश्विक तपन का अर्थ है हमारे वातावरण में अनपेक्षित बदलाव होना औऱ उसका संतुलन बिगड़ना। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि, विज्ञान और तकनीक के बढते प्रभाव, उपभोक्तावादी संस्कृति और प्रकृति के अनियन्त्रित दोहन पर्यावरण को असंतुलित बना रहे हैं। प्रकृति का सदियों से अपना एक संतुलन है यही कारण है कि प्रकृति के हर उपादान में प्रत्येक वांछनीय अवांछनीय तत्व की उतनी तय मात्रा है जितनी सृष्टि के नैरन्तर्य के लिए आवश्यक है । पूर्व में प्रकृति के प्रति मनुष्य की सहिष्णुतावादी दृष्टि थी यही कारण है कि उसकी धूप गुनगुनी हुआ करती थी और ऋतुएँ सतरंगी। इसी कारण धरती भी कुदरत की इस मेहर से अपने माथे धानी चूनर ओढ इठलाती थी। आज स्थितियां इसके उलट हैं। विगत चार दशक इस परिवर्तन के साक्षी रहे हैं और विकास की चाह में हमने पृथ्वी की आबोहवा बदल दी है।
  हम हमारी पृथ्वी की बात करें तो पृथ्वी सर्वाधिक विविधता एवं सुंदरता को अपने भीतर समेटे हुए सौरमंडल का एकमात्र ग्रह है जिस पर जीवन है। इस सुंदर ग्रह पर कहीं पर्वतमालाएं हैं तो कहीं सदानीरा बहती नदियां। कहीं गहरी घाटियां और दर्रें हैं तो कहीं धोरों से अटे रेगिस्तान। कहीं कल कल बहते झरने हैं तो कहीं सुदूर फैले रेगिस्तान। यह तो बात हुई पृथ्वी की भौगोलिक विविधता की और इसी क्रम में इसके मौसम की बात की जाए तो अपने अक्ष पर 23.5 डिग्री झुके होने के कारण इसके हर हिस्से पर सूर्य की रोशनी एक समान नही पड़  पाती औऱ  मौसम बदलते रहते हैं। इसी कारण कहीं  भीषण गर्मी है तो कहीं शरद के गुनगुने दिन ,कहीं वर्षा है तो कहीं पूस सा जाड़ा । वस्तुतः यही विविधता जलवायु कहलाती है जिसके कारण पृथ्वी पर कहीं हरियाली लहलहाती है तो कहीं भयानक सूखा नज़र आता है। यह तो हुई नैसर्गिक और प्रकृति प्रदत्त तंत्र की बात परन्तु वर्तमान में पृथ्वी की आबोहवा गड़बड़ा गई है। पहले ऋतु चक्र अपनी नियत गति से चला करता था। समय पर ही वसन्त की फगुनाई और शरद की शीतल बयार चला करती थी जिसे भाँप कर किसान खेती करते थे और पशु पक्षी अपना जीवन चक्र पूरा करते थे अब यह संबंध गड़बड़ा गया है। ऋतुएँ समय पर नहीं आ रही हैं ,कभी बिना मौसम ही बरसात हो रही है तो कहीं आँधी ,तुफान और ओलावृष्टि से जनजीवन अस्त व्यस्त हो रहा है। केदारनाथ की आपदा का ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने है। ये सब देखने पर यही प्रश्न हमारे सामने उभर कर आते है कि ऐसे विकट हालात पूर्व में तो नहीं थे अब क्यों ?  पृथ्वी की जलवायु क्यों इतनी तेजी से बदल रही है ? आखिर क्यों इसकी आबोहवा और मौसम अनप्रिडीक्टीबल हो गए हैं। वैज्ञानिकों औऱ विशेषज्ञों का इस संदर्भ में कहना है कि पृथ्वी का तापमान गड़बड़ा गया है और यह सब विकास की अंधी बयार में बहने से हुआ है।
    प्रकृति मनुष्य की सहचरी है परन्तु मनुष्य ने उसका मनचाहा उपभोग कर उस पर शासन करना शुरू कर दिया है। हमने विकास की मूषक दौड़ में हरे भरे जंगलों को काटकर कंक्रीट के जंगल उगा दिए हैं। अगर विगत दशकों की बात की जाए तो पिछले तीन दशक पर्यावरण की दृष्टि से घोर उपेक्षा के रहे हैं। प्रत्येक राष्ट्र ने खुद को सबसे आगे खड़ा करने की चाह में पर्यावरण का जमकर शोषण किया है। यदि मनुष्य प्रकृति का दोहन करता तो आज ये स्थितिय़ाँ हमारे सामने नहीं होती क्योंकि दोहन में पोषण की भावना निहित होती है। परन्तु हम अपने स्वार्थों के कारण प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे हैं। यही कारण है कि हम  आज अनेक प्राकृतिक आपदाओँ के रूपों में विनाश की आहटें सुन रहे हैं।
       संयुक्त राष्ट्र द्वारा जलवायु परिवर्तन पर गठित अन्तर सरकारी समिति (आई. पी. सी.सी ) ने अपनी हालिया रिपोर्ट में वैश्विक तपन के बढने पर अपनी चिंता जाहिर की है। इस रिपोर्ट के अनुसार  पिछले दशक अर्थात् 2000 से 2010 में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी से बढा है।  इनमें कार्बन डाइ ऑक्साइड ,मेथेन, क्लोरो फ्लोरो कार्बन ,नाइट्रस ऑक्साइड व अन्य रसायन प्रमुख हैं। दरअसल ये गैसें ही वैश्विक तपन को बढाकर पृथ्वी की आबोहवा बदल रही है। तापमान बढने से कृषि पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है और नतीजतन उपज घट रही है। अगर स्थितियां नहीं बदली और सब कुछ इसी रफ्तार से चलता रहा तो वैश्विक तपन से ग्लेशियर पिघल जाएगें और नदियों में बाढ आ जाएगी । समुद्रों के किनारे बसे शहर डूब जाएगें। कहीं फेनिल कहीं सुनामी तो कहीं केदारनाथ से हालात पैदा हो जाएगें और जलवायु परिवर्तन के इस विकराल चक्र के सामने सभी राष्ट्र असहाय होंगे। हालांकि प्रकृति विकसित और विकासशील के मापदण्ड लेकर अपनी आपदाएं तय नहीं करती परन्तु इस रिपोर्ट में स्पष्टतया उल्लेख है कि एशिया विशेषकर दक्षिण एशिया इस गड़बड़ी से सर्वाधिक प्रभावित होंगें। इससे स्पष्ट है कि विश्व की एक तिहाई आबादी अर्थात् भारत और चीन के लिए यह खतरे की घंटी है।
 हमारे पुरखों ने हमें बाग दिए ,हरी भरी धरती ,स्वच्छ हवा और कलकल बहते झरनों की सौगात दी ताकि हम प्रकृति के सान्निध्य में फले फूलें और विकास को प्राप्त करें। परन्तु हमारा ध्यान केवल विकास पर केन्द्रित हो गया और हमने हमारी वास्तविक जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लिया है । हम प्रकृति के प्रति बेपरवाह होकर उसे चुपचाप उपेक्षा से नष्ट होने दे रहे हैं। भौतिकतावाद और विकास की अंधी दौड़ में हम वनों को काट रहे हैं और समुद्रों में दीवारें खड़ी करने की दुःस्साहस कर रहे हैं। हमने इस विकास में कितना कुछ खोया है यह किसी भी नगर और महानगर में विगत 25 वर्षों में आए पर्यावरणिक बदलावों के आकलन से भाँप सकते हैं। इन दिनों हम जिस भीषण गर्मी और बढते तापमान को झेल रहे हैं वह वस्तुतः हमारी अतिभौतिकतावादी दृष्टि और उससे उपजी लालसा के अंतहीन रेगिस्तान का  अक्स ही है। हम वातानुकूलित दफ्तरों और घरों में बैठकर विकास के सोपानों पर चढ सकते हैं , कारों में घूमकर और अनियन्त्रित उपभोग करके अपना स्टेटस बढा सकते हैं परन्तु  परिवेश के प्रति उपेक्षा भरी दृष्टि रख हम आने वाली पीढी को विनाश के मुहाने पर खड़ा कर रहे हैं।

   इस बढती तपन से बचाव के लिए हमें सामूहिक स्तर पर प्रयास करने होंगें। कार्बन डाइ ऑक्साइड औऱ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर कड़ाई से नियन्त्रण करना होगा। अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखना होगा पर्य़ावरण के प्रति जो हमारी सनातन  पूजनीय दृष्टि रही है उसे पुनर्जीवित करना होगा औऱ पृथु की ही तरह प्रकृति का फिऱ से दोहन करना होगा । प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का भाव त्यागकर सखाभाव अपनाना होगा तभी हम भावी पीढी को प्रकृति की सुखकारी शीतल गोद प्रदान कर सकेगें।

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