कहने को हम 21 वीं सदी में जी रहे हैं,
विज्ञान और तकनीक के नए पायदान चढ़ रहे हैं, डिजीटल इंडिया और स्मार्ट सिटी में जी
रहे हैं पर अभी भी कई-कई जमीनी समस्याएँ यथावत् है। जब ध्यान बुनियादी समस्याओं पर जाता है तो
विकास के ये सारे पायदान धुँधले नज़र आने लगते हैं। इन्हीं समस्याओँ में आज जिन
समस्याओँ से आम जन सर्वाधिक जूझ रहा है वे हैं मातृत्व और शिशु सुरक्षा। आज भारत
में हर आठ मिनट में एक प्रसूता स्त्री की प्रसव के दौरान मृत्यु हो जाती है । अभी
भी ग्रामीण इलाके बुनियादी सुरक्षाओं के लिए तरस रहे हैं। सर्दरात में कोई प्रसूता
अब भी पीड़ा के मारे कराहती रहती है औऱ उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता।
सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र सुने पड़े रहते हैं और एक आम जन उसके बुनियादी
अधिकारों की प्राप्ति की बाँट जोहता रहता है।
यह प्रदेश के किसी एक माधोराजपुरा की घटना का जिक्र नहीं है , वरन् गाहे बगाहे ऐसी अनेक
घटनाएँ सुनने को मिलती है जहाँ कभी चिकित्सक दोषी पाए जाते हैं तो कहीं मूलभूत
सुविधाओं के अभाव में, किसी नन्हें के माथे पर से माँ का आँचल उठ जाता है तो किसी
की गोद सूनी हो जाती है। चिंता का विषय यह है कि तमाम विकास के प्रस्ताव बनाए जाने
के बाद भी ऐसी घटनाएँ अनवरत घटती रहती है। दावा किया जाता है कि नवजात शिशुओं व प्रसुताओं के लिए प्राथमिक
स्वास्थ्य केन्द्रों पर उपचार की निःशुल्क सेवाएँ और प्रशिक्षित कार्मिक उपलब्ध हैं पर अनेक उदाहरण इन खामियों को स्वयं
ही उजागर कर देते हैं।
राजस्थान
की बात की जाए तो यहाँ मातृ और शिशु मृत्युदर के आँकड़ों में कमी लाने के प्रयास किए जा रहे हैं परन्तु अभी भी अनेक समस्याएं इन प्रयासों पर सवालिया निशान लगाती
नज़र आती है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में भारत का मातृ , नवजात शिशु एवं शिशु मृत्यु के मामले में बेहद खराब
प्रदर्शन है। हालांकि पिछले दशक के मुकाबले शिशु मृत्यु दर एवं मातृ मृत्यु अनुपात
में गिरावट ज़रुर दर्ज की गई है। आँकड़ो पर नजर डाले तो वर्ष 1990 में शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 जीवित
शिशुओं पर 83 दर्ज की गई थी वहीं वर्ष 2011 में यह आंकड़े प्रति 1000 जीवित
शिशु पर 44 दर्ज की गई है। मातृ मृत्यु दर भी वर्ष 1990 में प्रति 100,000 जीवित
जन्मों पर 570 दर्ज की गई थी जबकि वर्ष 2007-2009 में यह घट कर 212 दर्ज
की गई है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अन्य ब्रिक्स देशों की तुलना
में दोनों संकेतक अब भी काफी अधिक हैं। इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी खास रिपोर्ट
में बताया है कि किस प्रकार अन्य ब्रिक्स देशों की तुलना में भारत का स्वास्थ्य
देखभाल व्यय सबसे कम है। सीएचसी में चिकित्सकों की कमी, सीएचसी
में बाल रोग विशेषज्ञों की कमी, सीएचसी में रेडियोग्राफर की कमी, इन
आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष स्वास्थ्य उपचार कराना
कठिन है । यही कारण है कि महंगे निजी अस्पतालों की ओर लोगों की संख्या अधिक बढ़
रही है औऱ आम व्यक्ति मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा है। राजस्थान में ये तमाम स्थितियाँ औऱ भयावह नज़र आती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश
में शिशु मृत्यु दर 47 शिशु प्रति 1000 है
औऱ मातृ मृत्यु दर में भी प्रति एक
लाख पर 244 के साथ यह देश में तीसरे स्थान पर है।
प्रदेश में अनेक प्राथमिक
स्वास्थ्य केन्द्र संचालित है परन्तु वहाँ पर अधिकारी और कर्मचारियों दोनों का ही
अभाव है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण
मंत्रालय द्वारा जारी ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी गाँवों के साथ ही अगर बड़े बड़े
शहरों की ही बात की जाए तो वे भी सामान्य सुविधाओं से जूझते नज़र आते हैं। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी ग्रामीण
स्वास्थ्य सांख्यिकी-2015 के अनुसार, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में विशेष चिकित्सा
पेशेवरों की 83 फीसदी तक कमी है। इसी के साथ कई शहरों के बड़े
अस्पतालों में गहन इकाईयों में काम में ली जाने वाली मशीनें खराब हैं तो कहीँ वे
सफाई व्यवस्था जैसी प्राथमिक समस्याओँ से जूझ रहे हैं। टायलेट्स की सफाई का तो यह
आलम होता है कि इनका प्रयोग कर किसी को भी असानी से संक्रमण हो जाए। ये तमाम बातें
वास्तविक धरातल पर बुनियादी सच को बयां करती हैं और इनकी चपेट में जो वर्ग आता है
वह है इस समाज का सबसे संवेदनशील कहे जाने वाला स्त्री व शिशु वर्ग , जिसे सुरक्षा
की सर्वाधिक दरकार है। आज स्मार्ट सिटी
जहाँ स्वच्छता व मशीनों के खराब होने की समस्याओं से तो कस्बे उन्हीं केन्द्रों पर
ताले पड़े होने की समस्याओं से जूझ रहे हैं। गौरतलब है कि पूर्व में प्रशिक्षित
दाईयाँ होती थी जो ये काम बड़ी ही कुशलता से कर लेती थी परन्तु आज शहरों और गाँवो
दोनों ही जगह ऐसे प्रशिक्षित हुनर कम ही दिखाई देते हैं। कभी किसी कानून की आड़
में तो कभी जागरूकता की दुहाई देकर इस तंत्र को लगभग समाप्त ही कर दिया गया है।
ऐसे में वास्तविक जिम्मेदारी आ पड़ती है सरकारी तंत्र पर जो कि अभी भी अनेक
अव्यवस्थाओं से जूझ रहा है। स्वास्थ्य सेवाएँ किसी भी समाज की मुख्य धुरी है औऱ
प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहला प्रयास
होना चाहिए उन साँसों को बचाने का जो नवजीवन की आस में अभी- अभी अपनी आँखें खोल रहा
हो।
मातृत्व और किसी शिशु का
जन्म एक यात्रा का हिस्सा है । जिसमें दोनों ही अनेक कष्टों से गुजरकर नवजीवन के
लिए जन्म लेते हैं। इस प्रक्रिया में आई एक छोटी सी चूक भी जीवन को मृत्यु में
तब्दील करने के लिए काफी है। सेव द चिल्ड्रन की एक रिपोर्ट के अनुसार महिला प्रसव
सेवा मे भारत का 80 विकासशील देशों में 76 वाँ स्थान है। इन के पीछे अनेक कारण है
अगर राजस्थान के संदर्भ में ही बात करें तो अनेक माताएँ आज भी प्रसव के लिए घर से
अस्पताल पहुँचने के बीच ही दम तोड़ देती हैं।
प्रसव में होने वाली जटिलताओँ की अनभिज्ञता, आवागमन के साधनों का अभाव और
एक हॉस्पीटल से दूसरे में रैफर कर दिया जाना इन कारणों में सर्वोपरि है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की
रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र,राजस्थान और गुजरात की मातृत्व प्राप्त करने वाली
आधी से अधिक महिलाएँ रक्तअल्पता से जूझ रही हैं औऱ केवल 8% महिलाएँ ऐसी हैं जो गर्भावस्था के दौरान ली जाने वाली ज़रूरी
दवाओं का सेवन करती हो साथ ही 30% महिलाएँ
ऐसी भी है जौ गंभीर संक्रमण और अत्यधिक रक्तस्राव के कारण घर पर ही दम तोड़ देती
है। राजस्थान में 15 से 25 वर्ग की आयु का स्त्री वर्ग ही सर्वाधिक
रक्तअल्पता से ग्रस्त है। कुपोषण की शिकार ये बालिकाएँ ही अपरिपक्व मातृत्व
को प्राप्त करती हैं। यहाँ के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के हालात ये है कि अगर
कोई गर्भस्थ माता समय रहते अस्पताल पहुँच भी जाए तो भी उसके और उसके शिशु
के जीवन की सुरक्षा की कोई जवाबदेही नहीं है। यह हम नहीं कहते वरन् केंद्रीय
स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी की गई नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट खुद कहती है
कि देश की स्वास्थ्य सेवाएँ मरणासन्न हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति
दस हजार की आबादी पर, 50 बिस्तर और 25 चिकित्सक उपलब्ध होने चाहिए परन्तु यहाँ उपलब्ध
है महज नौ बिस्तर औऱ 7 चिकित्सक । ये स्थितियाँ
वाकई चिंताजनक है क्योंकि इनका खामियाजा उस आमवर्ग को भुगतना पड़ता है
जिसका यह बुनियादी अधिकार है। हमें और
सरकारी तंत्र को यह समझना होगा कि मातृत्व और शिशु सुरक्षा हमारी प्राथमिक आवश्यकताएं
हैं। अगर गर्भस्थ महिला को उचित मार्गदर्शन प्रदान किया जाए तो इनमें से 90
प्रतिशत जानें बचायी जा सकती हैं। इस वर्ग को बेहतर और समुचित स्वास्थ्य सुविधाएं सही समय पर उपलब्ध करवाने
के लिए हम कटिबद्ध हो जाए तो हम हम उस आधी
आबादी और भविष्य को सहेज सकते हैं जो कि इस देश के विकास का केन्द्रीय आधार है।
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