अच्छा प्रयास है पिंक... ना सुनने का अादी नहीं है ना ये समाज, मालूम है हमें यह बात, सो नया कुछ नहीं है, पर ज़रूरी है ये बातें यूँ कहना,बताना भी ...
वो निर्णायक होंगे आपकी झिझक को हथियार बनाएंगें... आपके जीवन के कमजोर पडे़ पक्षों को इतनी कोमलता से सहलाएंगे कि वो जख़्म फ़िर से हरे हो जाएंगे। स्त्री जीवन की त्रासदी को देख, सुन, महसूस कर मन इतना त्रस्त और हलकान हो चुका है कि इस फिल्म के प्रसंग,घटनाक्रम प्रभावान्विति में सफल नहीं हो पाए पर इसे देखकर जेहन में घुमड़ रहे सभी सवालों ने फिर से फन उठाकर कलम उठाने पर मज़बूर कर दिया।
कामकाजी महिलाओं के लिए समाज के तथाकथित रूग्ण वर्ग की कुत्सित और दकियानूसी सोच जो फिल्म में बतलायी गयी है, ठीक ही बतलायी है। परम्परावादी और स्त्री को अपने कदमों की धूल समझने वाले उस वर्ग के लिए स्त्री आज भी पिंक ही है, वे उसके मानवीय मनोभावों को बाज़ारू घोषित करने की पूरी कोशिश करेंगे और उस कोशिश में कामयाब भी होते हैं।
कितना अच्छा होता कि त्रास झेलती उन लड़कियों के साथ उनका परिवेश भी खड़ा होता... उन लड़कियों को रिश्तों में ही सबसे अधिक छल का सामना ना करना पड़ता, फलक को उसके कार्यस्थल पर अपने सहकर्मियों से कुछ परिपक्व सहेजन मिली होती.। मैं सोचती हूँ, डूबती हूँ और फ़िर जीवन में लौटती हूँ कि यह जीवन है परियों का सजीला देश नहीं।
काश! पुरूष रिश्ते निभाने में स्त्रियों जैसे ही कुछ साहसी और एकनिष्ठ हो पाते और स्त्रियां उनके वर्ग के संघर्ष की कुछ साझेदार बन पाती तो सांस लेने के लिए शायद कुछ और ताज़ी हवा बीमार और थके फेफड़ों को मिल सकती है, पर काश तो काश ही होता है ...
फिल्म का संदेश कि, ना में अगर -मगर की गुंजाइश नहीं होती ठीक है और समाज को भी अब यह बात समझ ही लेनी चाहिए।
स्त्रियों की यौनिकता पर, उसके स्टेटस पर, उसके निर्णयों पर सवाल उठाने और मुंह बिचकाने वाले लोगों के लिए तथा जो स्त्री को स्वतंत्र होते हुए, पंख पसार उड़ते हुए देखने से कुढ़ते हैं उनके लिए ऐसी फिल्मों का निर्माण होता रहना चाहिए... बाकि यह फिल्म ना कहने की हिम्मत के लिए ज़रूर देखी जानी चाहिए क्योंकि मध्यवर्गीय वर्ग आज भी इस ना पर अपनी भृकुटी वक्र कर लेता है...
#रोजनामचा
#स्त्री_जीवन_के_अधखुले_पन्ने_3
वो निर्णायक होंगे आपकी झिझक को हथियार बनाएंगें... आपके जीवन के कमजोर पडे़ पक्षों को इतनी कोमलता से सहलाएंगे कि वो जख़्म फ़िर से हरे हो जाएंगे। स्त्री जीवन की त्रासदी को देख, सुन, महसूस कर मन इतना त्रस्त और हलकान हो चुका है कि इस फिल्म के प्रसंग,घटनाक्रम प्रभावान्विति में सफल नहीं हो पाए पर इसे देखकर जेहन में घुमड़ रहे सभी सवालों ने फिर से फन उठाकर कलम उठाने पर मज़बूर कर दिया।
कामकाजी महिलाओं के लिए समाज के तथाकथित रूग्ण वर्ग की कुत्सित और दकियानूसी सोच जो फिल्म में बतलायी गयी है, ठीक ही बतलायी है। परम्परावादी और स्त्री को अपने कदमों की धूल समझने वाले उस वर्ग के लिए स्त्री आज भी पिंक ही है, वे उसके मानवीय मनोभावों को बाज़ारू घोषित करने की पूरी कोशिश करेंगे और उस कोशिश में कामयाब भी होते हैं।
कितना अच्छा होता कि त्रास झेलती उन लड़कियों के साथ उनका परिवेश भी खड़ा होता... उन लड़कियों को रिश्तों में ही सबसे अधिक छल का सामना ना करना पड़ता, फलक को उसके कार्यस्थल पर अपने सहकर्मियों से कुछ परिपक्व सहेजन मिली होती.। मैं सोचती हूँ, डूबती हूँ और फ़िर जीवन में लौटती हूँ कि यह जीवन है परियों का सजीला देश नहीं।
काश! पुरूष रिश्ते निभाने में स्त्रियों जैसे ही कुछ साहसी और एकनिष्ठ हो पाते और स्त्रियां उनके वर्ग के संघर्ष की कुछ साझेदार बन पाती तो सांस लेने के लिए शायद कुछ और ताज़ी हवा बीमार और थके फेफड़ों को मिल सकती है, पर काश तो काश ही होता है ...
फिल्म का संदेश कि, ना में अगर -मगर की गुंजाइश नहीं होती ठीक है और समाज को भी अब यह बात समझ ही लेनी चाहिए।
स्त्रियों की यौनिकता पर, उसके स्टेटस पर, उसके निर्णयों पर सवाल उठाने और मुंह बिचकाने वाले लोगों के लिए तथा जो स्त्री को स्वतंत्र होते हुए, पंख पसार उड़ते हुए देखने से कुढ़ते हैं उनके लिए ऐसी फिल्मों का निर्माण होता रहना चाहिए... बाकि यह फिल्म ना कहने की हिम्मत के लिए ज़रूर देखी जानी चाहिए क्योंकि मध्यवर्गीय वर्ग आज भी इस ना पर अपनी भृकुटी वक्र कर लेता है...
#रोजनामचा
#स्त्री_जीवन_के_अधखुले_पन्ने_3
No comments:
Post a Comment