‘उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में,फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते’...बशीर
बद्र साहब बहुत खूब फरमाते हैं परन्तु हमारे नवयुवा और बचपन का दामन थामे किशोर
जिस हवा में सांस ले रहे हैं वह बहुत अधिक संक्रमित है। सांस्कृतिक प्रदूषण की
बयार तथा कुछ असामाजिक तत्वों के चलते हमारे किशोर मानवीय संसाधन तथा शिक्षा की
शरणस्थलियाँ आज नशे की जद में है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में केंद्र से कहा है कि
स्कूली बच्चों में बढ़ती नशे औऱ शराब की
लत पर रोक लगाने के लिए छह महीने के भीतर राष्ट्रीय कार्ययोजना पेश करे। यह
निर्देश नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी के गैर सरकारी संगठन बचपन बचाओ
आंदोलन की ओऱ से वर्ष 2014 में दायर की गई जनहित याचिका पर दिए गए हैं। ऩ्यायालय
ने कहा कि एक बार लत लग जाने के बाद बच्चों को नशे का तस्कर बनने के लिए
प्रोत्साहित किया जाता है और यूँ बचपन बंधक बन जाता है। भारत में वर्तमान में तकरीबन 43 करोड़ बच्चे हैं, ये बच्चे देश की
आबादी का एक तिहाई तथा दुनिया का बीस
फीसदी है। यह चिंता का विषय है कि देश का भविष्य कहे जाने वाली इन नन्हीं कौंपलों
का बचपन अनेक खतरों से घिरा हुआ है। यौन शोषण, ड्रग्स का सेवन, भिक्षावृत्ति ,
बालश्रम , इलेक्ट्रानिक गैजेट्स औऱ साइबर क्राइम जैसी अनगिनत समस्याओं से आज का
बचपन घिरा हुआ है। इनमें ड्रग्स का दानव ऐसा है जो इस नस्ल का पूरा जीवन ही तबाह
कर बैठता है। कई-कई घटनाएँ इस तरह की
सामने आ चुकी हैं कि स्कूलों में बच्चे नशे के आदी हो जाते हैं। स्कूली बच्चे कहीं
हुक्का पीते नज़र आते हैं तो कहीं चरस और गांजे की लत के शिकार होते नज़र आते हैं।
कई स्थितियों में उन्हें स्कूल से घर छोड़ने वाले ड्राइवर भी इसमें लिप्त पाये
जाते हैं। ये बच्चों को नशे का आदी कर उनसे तस्करी तक करवाते हैं। स्वार्थ की हदों
पर जीते ये रैकेट्स ऐसे बच्चों से अपनी आर्थिक क्षुधा शांत करते हैं। चरस, अफीम
ऐसे नशे हैं जो व्यक्ति को मानसिक गुलाम बना देते हैं। ये नशे प्रारंभ में उत्साह
और आकर्षण पैदा करते हैं परन्तु बाद में ये पूरी दिनचर्या, ऊर्जा औऱ उत्साह को लील
जाते हैं। बचपन बहुत मासूम होता है और किशोरावस्था दबाव,तूफान और संघर्ष का चरम।
शिक्षा के दबाव, प्रतिस्पर्धा की आँच औऱ बेहतर प्रदर्शन के दबाव को झेलता हुआ बचपन
भावनात्मक रूप से बेहद कमज़ोर होता है।
ऐसे में दबाव औऱ एकाकीपन के अंधेरों में भटकते ये नवयुवा
स्वयं को अनेक बंधनों से मुक्त करने के आकांक्षी होते हैं। इसी मुक्ति की चाह में
वे भटक जाते हैं। यह भटकन उन्हें मुक्त करने की बज़ाय उच्छृंखल कर देती है। ड्रग्स उन्हें भावनात्मक रूप से औऱ कमज़ोर
कर देते हैं तथा अपराधबोध औऱ कार्यों
का परिणाम उनके मन में भय पैदा करता है। वे घर लौटना चाहकर भी नहीं लौट पाते हैं
और यूँ वे भावनात्मक रूप से टूट जाते हैं। अनेक रौंगटे खड़े करने वाले किस्से है
जिनसे पता चलता है कि सही मार्गदर्शन के अभाव में यह टूटन अक्सर जीवन ही लील जाती
है। नशे की इस प्रकार की लत उन बच्चों को हिंसक बना देती है औऱ इस प्रकार उनका भावनात्मक स्वास्थ्य प्रभावित
होता है।
बाल औऱ किशोर जीवन में
नशे की लत की यह समस्या वैश्विक है। एक सर्वेक्षण के
अनुसार दक्षिण एशिया में भारत मादक पदार्थों का सबसे बड़ा बाजार बनता जा रहा है।वर्ष
2009-11 में 1.4 अरब डॉलर
के ड्रग का कारोबार अकेले भारत में हुआ । यह तथ्य इस बात को
उजागर करता है कि भारत मादक द्रव्यों के उपभोग का एक बड़ा बाज़ार है। एक अन्य सर्वे
के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 20 मिलियन बच्चें तम्बाकू
का सेवन करते हैं और वहीं प्रतिदिन तम्बाकू का सेवन करने वाले बच्चों की संख्या 55000
है। यह आंकड़ा चौंकाता है क्योंकि अमेरिका जैसे आधुनिक औऱ मुक्त जीवनशैली का गढ़
कहे जाने वाले देश में प्रतिदिन का यह आंकड़ा 3000 तक का ही है। केंद्र सरकार के
ही मंत्रालय के नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे की 2005-06 की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश
भर में 15 से 18 साल की उम्र के क़रीब 12.5 करोड़ बच्चों में से 4 करोड़ बच्चों को
तंबाकू, शराब या किसी ड्रग्स की आदत लगी हुई है। सर्वे
के मुताबिक़ 28.6 फ़ीसदी लड़के जबकि 5 फ़ीसदी लड़कियां किसी न किसी नशे के शिकार
हैं। बच्चों में नशे की पहुंच को रोकने के लिये दाख़िल जनहित याचिका पर कोर्ट ने
नेशनल पॉलिसी ऑफ़ ड्रग्स डिमांड रिडक्शन पॉलिसी 6 महीने के भीतर बनाने को कहा है। चाइल्डलाइन
इंडिया फाउण्डेशन की मणिपुर के बच्चों पर तैयार की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार
पूर्वी राज्यों के अधिकांश बच्चे स्पैस्मो प्रोक्सीवॉन नामक ड्रग का सेवन करते हैं
जिसमे हेरोइन की अधिक मात्रा होती है। इस ड्रग का सेवन वे इंजेक्शन्स के माध्यम से
करते हैं औऱ सुईयों का इस तरह बेतरतीब आदान-प्रदान वहाँ एड्स के फैलने का एक
प्रमुख कारण है। नशा न केवल एक जीवन को बर्बाद करता है वरन् उसके इर्द-गिर्द के
सामाजिक ताने-बाने को भी संक्रमित कर देता है। लड़कियों के साथ छेड़छाड़ औऱ बच्चों
में बढ़ता हिंसात्मक व्यवहार भी इसी की देन है। जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 के तहत
ऐसे कार्यों में लिप्त बच्चों को विशेष देखरेख की ज़रूरत होती है अतः ऐसी व्यवस्था
है कि उन्हें सुधार गृहों में भेजकर फिर से जीवन से जोड़ा जाय। ऩशे का यह अफीम,
जीवन के उल्लास को धुंधला कर देता है। बचपन नासमझ होता है और किशोर मन अनेकानेक
भावनात्मक फिसलनों से गुजरता है, ऐसे में उसे सहेजने की जिम्मेदारी पूरी तरह समाज
और सामाजिक , सांस्कृतिक परिवेश की बनती है।
यह सराहनीय है कि स्कूली
बच्चों को मादक पदार्थों की लत और इसके दुष्प्रभाव के बारे में जागरूक करने के लिए
सुप्रीम कोर्ट ने पाठ्यक्रम पर भी पुनर्विचार करने की सलाह दी है। यह सही भी है कि बच्चों को राह दिखाने की
जिम्मेदारी न्यायपालिका से अधिक परिवार और समाज की है। नैतिक शिक्षा अगर बचपन से
ही सही तरीके से प्रदान की जाए तो नयी पौध संबल , धैर्य औऱ जिजीविषा का रसायन चख
सकती है। नैतिक शिक्षा का यह पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी केवल विद्यालयों की नहीं है
वरन् परिवार, शिक्षक और समाज सभी को इस के निर्वहन के लिए एक साथ आगे आना होगा।
हमारी सामाजिक व्यवस्था, परिवार , शैक्षिक संस्थान और प्रशासन अगर सजग नेतृत्व की
भूमिका में सामने आते हैं तो हमारी नयी पौध अनेक रोगों से मुक्त होकर देश के विकास
में महत्वपूर्ण मानवीय संसाधनों की भूमिका
निभा सकती है। हम यह तो बड़ी आसानी से कह देते हैं कि-चुप-चाप बैठे रहते हैं कुछ बोलते नहीं, बच्चे बिगड़ गए हैं बहुत देख-भाल से परन्तु उनके मन की
बात जानने से वंचित रह जाते है। अगर इस नवयुवा मन की थाह ले ली जाय़ और उसे एक
आत्मीय संबल प्रदान किया जाय तो स्थितियाँ वाकई सुखद हो सकती है।
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