Monday, April 6, 2020

सहेजन

“इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे ।”
(नीरज)

यहाँ इस महफ़िल का आलम भी  यों ही है; एक वीराना-एक सन्नाटा । तसवीरों पर क़सीदे और कहीं तंज की धार पर तर्क। ऐसे में लगता है प्रेम कहीं कोने में दुबके हुआ खड़ा है ; एक संशय जो हर ओर पसरा है।  विचारों के मकड़जाल में हर कोई अपने से ही उलझा है। अलग दिखने की होड़ और प्रवृत्ति जैसे  नेह के सेतुबंधों को तोड़ रही है।
जिनका दिन है उन्हीं के शब्दों में यह बात बार-बार लबों पर है कि -
“आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं “

आस और अदब का दीप यों तो नहीं बुझना था।

नेह की बात कीजिए, प्रतिबद्धता की बात कीजिए। हमारी सबसे बड़ी कमी यही है ‘प्रतिबद्धता से मुँह मोड़ना’, जिसकी बात-परसाई भी बार-बार अनेक लेखों में करते हैं।

सोचिए ज़रा हम अवसरों की टोह लेते हैं क्या ? कई चीजें कई दीवारों पर देखी कहीं बंद तालों में कहीं खुली । कहीं समय-विशेष में कही गई, कहीं अलग-थलग करती हुई। मौक़े तलाशने से क्षणिक सफल हुआ जाता है; यह खुशी वैसी ही है जैसे कोई उथली किताब लिखकर उसका प्रचार कर खुश हो लिया जाए; बल्कि असलियत तो पाठक से पहले स्वयं उस लेखक को पता होती है।

तटस्थता इस समय की बड़ी चुनौतियों में से एक है ...नहीं सुनाइए किसी तटस्थ को यह पंक्ति बार-बार कि जो तटस्थ है समय लिखेगा , उसका भी अपराध। मानवीय बनिए।  जो बन सके जन-जन के लिए कीजिए । जो ज्ञान , जो सीख एक जीवन को आगे बढ़ा सके ; उतना भर ही सही...पर कीजिए ।

सारी दुनिया को कोसकर एक अलग दुनिया नहीं बनाई जा सकती...हाँ,अकेले चलकर भी इसकी ख़ूबसूरती में योग ज़रूर दिया जा सकता है।

यह लिखना शायद खुद को ही सँभालना ...पर यह भी ज़रूरी लगता है ।

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