अभिव्यक्ति पर
लगाम कितनी ज़रूरी
आज जब लगातार अभिव्यक्ति पर हमले हो रहे हों उस समय सोशल मीडिया पर
अभिव्यक्ति की आजादी का निर्णय कितना सही है यह निश्चय ही समय तय करेगा पर स्वस्थ
और जागरूक आलोचना के लिए निश्चय ही यह सुखद संकेत है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 66
ए को रद्द किया जाना इस संदर्भ में एक सार्थक पहल है अर्थात् अब सोशल मीडिया चाहे
वह फेसबुक हो या ट्वीटर वहाँ किसी टिप्पणी को लेकर सीधी गिरफ्तारी नहीं हो सकती। लेकिन
इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि वहाँ किसी भी तरह की मानहानि और अनर्गल वार्तालाप को
अब छूट मिल गई है। देश की सुरक्षा, विदेशी संबंधों, नैतिकता और जीवन मूल्यों पर की
जाने वाली विवेकहीन और गैरजिम्मेदार टिप्पणियों पर न्यायालय अभी भी तटस्थ है। अगर
देखा जाए तो कई मामलों में रोक जरूरी भी थी क्योंकि वहाँ ऐसे अनेक तत्व हैं जो
सामाजिक दृष्टि से खतरनाक है, जो सिर्फ बवाल खड़ा करने के उद्देश्य से ही लिखते
हैं , स्त्री विरोधी मानसिकता लेकर उन्हें नाना प्रकारों से उत्पीड़ीत करते हैं।
उन पर रोक होनी चाहिए क्योंकि निजी हमले किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किए जा
सकते। इस आजादी का यह अर्थ कतई नहीं लगाना चाहिए कि अभिव्यक्ति की जिम्मेदारी अब
समाप्त हो गई है। अभिव्यक्ति संजीदा होनी चाहिए क्योंकि उसके सामाजिक सरोकार हैं।वस्तुतः
जिस अभिव्यक्ति के हनन की हम बात करते हैं उसके दोषी हम सभी हैं। अगर लेखक कँवल
भारती के संदर्भ में ही बात की जाए तो उन्होंने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की थी जिससे
उन्हें तो धार्मिक उन्माद फैलाने का दोषी माना जाए पर उन्हें व्यक्ति विशेष से
संबंधित होने के कारण जेल जाना पड़ा। यहाँ यह बात स्पष्ट होना जरूरी है कि रोक
अभिव्यक्ति पर लगाई गई थी या उस अभिव्यक्ति के किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित होने
के कारणों पर । ऐसा ही मामला 11 वीं कक्षा के उस छात्र का भी था जिसने वयक्तिविशेष
को लेकर टिप्पणी की थी । निःसंदेह इन संदर्भों में यह निर्णय स्वागत योग्य है पर
आम मानस अभी भी अड़ा है कि नियम सभी के लिए समान होने चाहिए फिर चाहे वह आम आदमी
हो, नेता हो या फिर अपराधी क्योंकि केवल एकपक्षीय रोक सदा प्रतिरोध को जन्म देती
है। नेताओं के वे विवादित बयान भी प्रतिबंधित होने चाहिए जो वे विवेकहीनता का
परिचय देते हुए अक्सर सरेआम उगल देते हैं। बहरहाल इस संदर्भ में अभिव्यक्ति की
आजादी के मायने इतने ही हैं कि विचार अभिव्यक्त हों पर पूरी जिम्मेदारी के साथ हों
क्योंकि विचार सामाजिक बदलाव में महती भूमिका अदा करतें हैं। अभिव्यक्ति की पुरजोर
दस्तक आज भी उन तमाम किवाड़ों पर जरूरी है जो सामाजिक बराबरी की तमाम संभावनाओं को
रोके हुए हैं ऐसे में यह फैसला भय को कम करता है और आशान्वित करता है कि एक जिम्मेदार
अभिव्यक्ति बेरोक बयां हो सकती है चाहे उसके परिणाम अधिक महनीय नहीं हो। इस संदर्भ
में रघुवीर सहाय याद आते हैं---
"कुछ होगा कुछ होगा ,अगर मैं बोलूंगा /
और कुछ हो न हो ,मेरे भीतर का एक
कायर तो टूटेगा ...
"कुछ होगा कुछ होगा ,अगर मैं बोलूंगा /
और कुछ हो न हो ,मेरे भीतर का एक
कायर तो टूटेगा ...
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