Monday, July 20, 2020

ज़रूरी_ ग़ैरज़रूरी

एक दूजे का हाथ थामे चलना महत्त्वपूर्ण होता है ...स्पर्धा, प्रतिस्पर्धा कितनी तो नकारात्मक ऊर्जा वाले शब्द हैं ...इन्हीं की ओट में जाने कितनी ऊर्वराओं  ने दम तोड़ दिया जाने कितनी आवाज़ों ने मौन साध लिया और जाने कितने होश और जज़्बों से पगे अरमानों की राह में ये ही शब्द और नकारात्मक उत्प्रेरक से आ खड़े हुए ।

पर हमें इनके प्रयोग का शऊर नहीं ही आया।

हम यह सब भलीभाँति जानते हैं पर जब आस-पास घटते देखते हैं तो नहीं बोल पाते हैं ;प्रतिरोध नहीं कर पाते हैं ...’प्रति’ उपसर्ग यहाँ भी जुड़ा पर इसके जुड़ने के ज़रूरी प्रत्यय को हम ग़ैरज़रूरी बना देते हैं ।

दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए योग्यताओं का सम्मान ज़रूरी है , नवीन और ऊर्वरा का स्वागत ज़रूरी है , ज़रूरी है उतनी ही जड़ों और बड़ों की सहेजन भी , ज़रूरी हैं बेख़ौफ़ साये भी उन दरख़्तों के जो बस छाँव देना जानते हैं , जो थामना -सुधारना-आशीषना जानते हैं ...पर उफ़्फ़ कितने ‘पर’ हैं यहाँ!

भली-सी बातें लगती है न ये सब ...पर बस उपमान ही बनकर रह जाती हैं ।

बात इतनी-सी ही तो है...

“दुनिया सुन्दर हमीं से है
असुन्दर भी हमीं से ही! “

#यह_दुनिया_ग़र_मिल_भी_जाए_तो_क्या_है

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