Sunday, April 16, 2023

इंसानी बस्तियों में ख़ुदाई की तलाश



* डॉ.विमलेश शर्मा


लेखक अपनी लेखनी से ब्रह्माँड सिरजता है और उस लिखे से वह ज़र्रे-ज़र्रे की सूचना देता है, उसकी मुख़बिरी करता है, वह उसके घाव और ख़ूबसूरती को देखता है और देखता है उसकी रवानगी भी और यही सब यदि महसूस ही करना हो तो नासिरा शर्मा जी के लिखे में सहज ही महसूस किया जा सकता है। वे कहती हैं कि- "इंसान के अंदर पलती जिजीविषा मुझे सर्जन के स्तर पर बाँधती है और जीने की यही छटपटाहट मुझे लिखने की प्रेरणा देती है।"


नासिरा जी के लेखन की ठोस ज़मीन की शुरूआत ईरान के सामाजिक-साँस्कृतिक परिवेश को क़रीब से जानने-समझने और वहाँ की क्राँति से होती है। वह पत्रकारिता, शोध और कथा-साहित्य तीनों विधाओं में ईरान और उसकी समस्याओं पर लिखती हैं। इस प्रकार नासिरा जी साहित्य की अनेक विधाओं के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों और विश्व-राजनीति से संदर्भित समकालीन प्रश्नों पर भी प्रभूत लेखन करती हैं। जब वे धर्म पर बात करती हैं तो कहती हैं मानवता सबसे बड़ा धर्म है, और यदि दुनियावी धर्मों की बात करती हैं तो अपने लिखे से यह संदेश देती हैं कि धर्म को खत्म करने की ज़रूरत नहीं है वरन् खिलाफ़त उसकी संकीर्णताओं पर होनी चाहिए तो ऐसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों और संस्कारों को लेकर वे लिखती हैं। नासिरा जी कहती हैं- “मैं मुसलमान हूँ, पति हिंदू। मोहब्बत हिंदी से जबकि मादरी ज़बान उर्दू है। पढ़ाई फ़ारसी (परशियन) में की है।”  नासिरा जी के लिखे में गाँव हैं, उसकी संस्कृति है, शहर है, शहरों में इलाहाबाद और लखनऊ है तो बंबई भी । सारतः वहाँ ग्रामीण, कस्बाई और महानगरीय परिवेश में जीता-दौड़ता-भागता अपने जीवन को क़रीब से देखता इंसान है। ...और यह इंसान कभी औरत की शक्ल में उतरता है, कभी आदमी का चेहरा लेकर उपस्थित होता है, कहने के लिए वहाँ किसी एक विषय के लिए आरक्षण नहीं है, वहाँ बहुत सारे विषय हैं और बहुत सारी वाज़िब चिंताएँ। वे अपने लिखे से यह सवाल करती हैं कि जब इंसानियत शर्मसार हो रही हो तो लेखक का क्या दायित्व होता है।


अगर नासिरा जी के संपूर्ण साहित्य का सामाजिक चेतना के आलोक में मूल्याँकन करें तो उनका लेखन नारी चेतना  के ठोस धरातल का निर्माण करता हुआ (ठीकरे की मँगनी), कामकाजी महिलाओं की दोहरी समस्याओँ  एवं दाम्पत्य जीवन में उससे उपजी विसंगतियों पर लेखनी चलाता हुआ (शाल्मली), स्त्री के मूल अधिकारों पर विमर्श करता हुआ (बहिश्ते ज़हरा ), देश विभाजन की त्रासदी में करवट लेते साँस्कृतिक मूल्यों पर चिंता जताता हुआ (ज़िंदा मुहावरे) , जीवन की ज़द्दोजहद में रिश्तों की जमीन तलाशने का प्रयास करता हुआ (पारिजात), 'आधी आबादी' का अपने अधिकारों के प्रति जागृति हेतु आह्वान (खुदा की वापसी) करता नज़र आता है। वस्तुतः नासिरा शर्मा के कथा साहित्य के कथानक  मानवीय संबंधों की स्थापना की कशमकश में रत हैं। धर्म के नाम पर आज अनेक भ्रम पैदा हो रहे हैं, उनका ‘इंसानी नस्ल’ कहानी संग्रह एक व्यापक दृष्टिकोण को रखता हुआ और धार्मिक संकीर्णताओं पर प्रहार करता हुआ नज़र आता है। हिंदू- मुसलमान दोनों संस्कृतियों के सामंजस्य की भी अनेक मनोरम झाँकियाँ प्रस्तुत कर लेखिका उस साँप्रदायिक सौहार्द्र को कायम रखने का संदेश देती है जो भारतीय संस्कृति के मूल में निहित है। गंगा-जमुनी संस्कृति की नींव पर अपने पारिवारिक जीवन का रचाव करने वाली लेखिका के लिए इस साझी संस्कृति के जीवंत चित्र उकेरना कोरी औपचारिकता का निर्वाह मात्र नहीं है। उनका ‘अक्षयवट’ उपन्यास इसी दृष्टि से बेजोड़ कृति है। इलाहाबाद में धार्मिक समन्वय से उपज़ी भारतीय संस्कृति के चित्र उन्होंने इस उपन्यास में जगह-जगह उकेरे हैं।

‘विजयादशमी’ का पर्व पूरे भारत में मनाया जाता है मगर जो एकता इलाहाबाद में दिखाई देती है, वह कहीं और नहीं।’(अक्षयव़ट उपन्यास- नासिरा शर्मा,पृ.18).  वस्तुतः जीवन का एकाकीपन इन्हीं उत्सवों में टूटता है और थकान उतारने का बहाना देता है। दोनों ही संप्रदाय शहर के इस हँसमुख चेहरे को देख मगन हो उठते हैं। (अक्षयवट) समन्वय से उपजी इसी साझी संस्कृति का चित्र खींचती हुई लेखिका अपने संस्मरण ‘ज़ाय़ज़ा तीसरी आँख से सरहद पार का’ में लिखती हैं कि- "अपने देश के नक्शे को देखने पर जो सच्चाई सामने आती है उनमें से एक है उत्तरप्रदेश में गंगा-जमुनी तहज़ीब का दोआबा, जो दो संस्कृतियों के सारे सौंदर्यबोध के साथ हमें देखने को मिलता है और यह नशा जब  और गहरा हो जाता है तो आसिफ उद्दोला में बदल जाता है।" (ज़ाय़ज़ा तीसरी आँख से सरहद पार का, राष्ट्र और मुसलमान लेख,पृ.171) यहीं इसी यात्रावृत्त में वे आगे सम्मोहन शीर्षक लेख के अंतर्गत एक ईरानी के उस वाक्य को उद्धृत करती है जिसमें वह कहता है- ’कल मैं एक हिंदुस्तानी से मिला था ,बड़ा मुसलमान आदमी था।" (वही.पृ.208)  यह विस्तार कोरी सोच का नहीं है बल्कि उस सम्मोहन परक प्रभाव का भी है जो ईरान और भारत के बीच उपस्थित है और जिसकी कसौटी हमारी साझी सभ्यता, संस्कृति एवं एशियाई मिट्टी है जो तमाम संप्रदायों एवं धर्मों से ज्यादा पुरानी, गहरी और उपजाऊ है।  


नासिरा जी के लिखे को देखें तो छुटपन से उनका लेखन के प्रति आकर्षण शुरू हो जाता है। उनके पास संवेदना से लबरेज़ हृदय है और तर्क और मननशील दिमाग़ भी।वे लोककथाएँ लिखती हैं और विभिन्न देशों के मिथकीय संबंधों में सहसंबंध खोज रोचक क़िस्से लेकर आती हैं। यहाँ नासिरा जी के लेखन में विशुद्ध क़िस्सागोई नज़र आती हैं। जैसे-जैसे नासिरा जी का लेखन समसामयिक मुद्दों की ओर मुड़ता है वो कुछ मुखर और अधिक ज़िम्मेदारी से भरा नज़र आता है। यदि समीक्षक की दृष्टि  किस्सागोई को बाधक मानते हैं और नासिरा जी के कथा साहित्य को जब हम इस दृष्टि से इस कसौटी पर कसते हैं तो वे खरी उतरती हैं , वहाँ  गहन अन्वेषण हैं, सूचनाएँ हैं, इतिहास है, आत्मान्वेषण है और विष-वैविध्य का आग्रह है। उनकी कहानियों का लोकतंत्र बहुलतावादी है। वहाँ विभिन्न वर्ग हैं, विविध समस्याएँ हैं और हर जीवन की बेचैनी है,  उनका लिखा एक जाग और चौंक का समन्वय है। वे बताना चाहती हैं कि इंसान जब जागता है तो वह बहुत ख़ूबसूरत लगता है और उसकी ज़िंदगी का सच किसी भी विचारधारा को पीछे छोड़ देने की क्षमता रखता है। वे इंसानी रिश्तों की रफूग़र हैं; चिंताओं और बेचैनी को मथना जानती हैं, शब्दों की पारखी हैं; विभिन्न भाषाओं के शब्दों से छनकर आती रोशनी की तासीर  को पहचानती हैं और उसका प्रयोग करके आनंदित भी होती हैं। नि:संदेह यह एकपरिपक्व, बौद्धिक और प्रतिबद्ध लेखक की बड़ी ख़ूबी है जिससे बतौर लेखक नासिरा जी की एक मुकम्मल शख़्सियत तैयार होती है।

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