सुधीजन के हितार्थ-परसाई के सरोकारी व्यंग्यों के निहितार्थ
हरिशंकर परसाई का साहित्य संसार विस्तृत है और व्यंग्य के क्षेत्र में वेसर्वस्वीकृति के साथ अप्रतिम हैं। हिन्दी साहित्य में व्यंग्य को वाग्विलाससे हटाकर गहन और प्रभावी विधा के रूप में स्थापित करने में उनकामहनीय योगदान है। परसाई के व्यंग्य, निबंध और साहित्य किस हद तक प्रासंगिक बने हुए हैं,यह उनके साहित्य को पढ़ने तथा भारतीय समाज औरराजनीति के हर दौर के परिदृश्य को देखकर सहज ही समझा जा सकता है। उनका व्यंग्य, उनका कहन किसी एक शिल्प में बँधा नहीं है। वे अपनीअभिव्यक्ति में मुखर हैं, वैचारिकी में तटस्थ हैं और उनके सर्जन में सुखदभविष्य के संधान की विविध दिशाएँ हैं। वे लेखक विरले ही होते हैं, जोअपने रचाव द्वारा दूसरा जीवन पाते हैं,और इसीलिए कालजयी कहलातेहैं, परसाई का लेखन उसी श्रेणी का है ;क्योंकि उनके लेखन का वर्तमानदीर्घजीवी है, और पाठक को एक नयी समझ और दीठ देने वाला है;प्रश्नांकित और साथ ही आश्वस्ति प्रदान करने वाला है। हमारे समाज और परिवेश की यह अटल विडम्बना रही है कि सत्य सदैव अपदस्थ होता हैऔर आम जीवन में लाचारियों -वर्जनाओं और असंतोष की अनगिनत परतों का स्थायी निवास है। साथ ही तात्कालिकता के बढ़ते ख़तरों नेसहजता को कृत्रिम और संघर्ष को सघन बना दिया है। विडम्बना यह हैकि इन सब को हमने मुदित मन से स्वीकार कर लिया है। परसाई अपनेलिखे में आम आदमी की इसी ‘चक्करघिन्नी’ और ‘शुतरमुर्गी’मानसिकता पर खुला संवाद करते हैं।
‘तब की बात ओर थी’, ‘भूत के पाँव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’, ‘पगडंडियों का ज़माना’, ‘सदाचार का ताबीज़’, ‘वैष्णव की फिसलन’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘माटी कहे कुम्हार से’ , ‘शिकायत मुझे भी है’, ‘और अंत में’, ‘हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं’, ‘अपनी-अपनी बीमारी’, ‘प्रेमचंद के फटे जूते’, ‘काग भगोड़ा’, ‘आवारा भीड़ के ख़तरे’, ‘ऐसा भीसोचा जाता है’, ‘तुलसीदास चंदन घिसै’, उनके प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं।वैसे उनके व्यंग्य और पैनी दृष्टि का व्याप उनके कहानी संग्रहों औरउपन्यासों में भी स्पष्ट देखा जा सकता है, जो बार-बार यह सोचने परमज़बूर करता है कि, व्यंग्य शैली है या विधा । ‘हँसते हैं रोते हैं’, ‘जैसेउनके दिन फिरे’, ‘भोलाराम का जीव’, उनके कहानी संग्रह हैं ; तो रानीनागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल उपन्यास हैं और‘तिरछी रेखाएँ’ संग्रह में उनके लिखे संस्मरण हैं। दरअसल इन सभीविधाओं में परसाई की व्यंग्य शैली आत्मस्थ है, उनकी भाषा-शैली मेंदादी-नानी के कथा-कहन का अपनापा है। वे शब्दों को चतुराई से पिरोकर कान उमेठने की शैली में और पाठ की परिणति पर पाठक को विचारोंऔर प्रश्नों के घटाटोप में छोड़कर चल देने में, सिद्धहस्त हैं। परसाईबहुश्रुत हैं, प्रचंड अध्येता हैं और बारीक समझ के धनी हैं । उनके व्यंग्य कीभाषा के विषय में यदि यह कहा जाए कि वे कबीर की ही तरह भाषा केडिक्टेटर हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । उनके व्यंग्य अपनी प्राभाविकताकी दृष्टि से आक्रामक, मिज़ाज की दृष्टि से वैचारिक होकर भी अपनीशैली में प्रभावी और सहज हैं । चेतना सम्पन्न दृष्टि के धनी परसाई केव्यंग्यों में करुणा और मानवीय संवेदना है, जो पाठक को सोचने परमज़बूर कर देती है। राजनीति जो हर दौर में अपनी प्रतिबद्धता में कमज़ोरदिखाई देती रही है, उस पर वे परिपक्व रचनाकार की तरह आम आदमी केहक़ूक में प्रहार करते हैं। गौरतलब है कि कथा-तत्त्व में लिपटे, बतकही कीशैली में पिरोये ये व्यंग्य कोरे आक्षेप की तरह या अवसरवादी नहीं नज़रआते वरन् पाठक को वर्तमान जीवन की विसंगतियों-अन्तर्विरोधों के बहुतसे पक्षों से रूबरू कराने की चेतना से सराबोर करने की अतिरिक्त योग्यतारखते हैं। वे हर आम और ख़ास को हर साल और हर बात पर यहसोचने पर मज़बूर करते हैं कि साल-भर में कितने बढ़े या उस बात का क्यापरिणाम होगा । वे लिखते हैं- “हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैंसोचना हूँ, कि साल भर में कितना बढ़े । न सोचूँ तो भी काम चलेगा, बल्किज़्यादा आराम से चलेगा । सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं औरस्वस्थ हैं, वे धन्य हैं।”1 दरअसल वे हनुमान की अपनी शक्ति-विस्मृति कीही तरह हर आम को उसके अधिकार और कर्तव्यों की याद दिलाना चाहतेहैं जो ग़लत का प्रतिकार करना भूल गया है। बकौल परसाई- “भुखमरीऔर भ्रष्टाचार हमारी राष्ट्रीय एकता के सबसे ताक़तवर तत्त्व बन गए हैं।धर्म, संस्कृति दर्शन कमज़ोर पड़ गए हैं।”2
शायद सजग साहित्याकार के पास वो दीठ होती है, जो आने वाले समयको भाप लेती है । परसाई आदमी को एक पूर्ण इकाई के रूप में देखने केआकांक्षी हैं, वे भीड़ और झुंड को लोकतंत्र का पर्याय नहीं मानते हैं।सरकारी व्यवस्था और प्रशासन अकसर अवसर, ज़रूरत, विचारधारा, पूर्वाग्रह या दबाव के चलते अपने ही नागरिकों के प्रति निर्मम हो जाती है ।अवसरवादी तमाम विसंगतियों को दरकिनार कर प्रभाव को प्रणाम करतेहुए सत्ता की शरण में पहुँच जाते हैं; परन्तु परसाई ‘श्रद्धेय’ होने से घबरातेहैं । परसाई फ़ासीवाद के बहुत से रूपों और उसके आसन्न ख़तरों सेपरिचित हैं, इसीलिए वे जनता में प्रतिरोध का साहस पैदा करने का प्रयासकरते हैं । “और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा । श्रद्धा पुराने अख़बार कीतरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया है।इतिहास में शायद किसी भी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीननहीं किया गया होगा।” एक दूसरे के शील हनन करने वाले औरउतावलेपन के शाश्वत घोर राजनीतिक दौर में वे श्रद्धालुओं की भीड़ सेकहना चाहते हैं- “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है।मारो एक लात और क्रान्तिकारी बन जाओ।”3
व्यंग्य की कैफ़ियत – ‘कौन तार से बीनी चदरिया’
व्यंग्य गहन तभी होता है जब वह गुणवत्ता की दृष्टि से उत्कृष्ट हो। यहश्रेष्ठता उसे सामाजिक सरोकारों और सामूहिक चेतना पर पड़ने वालेप्रभावों से मिलती है। समाज जितनी तेज़ी से बदल रहा है उतनी ही तेज़ी सेवह अपना वास्तविक मिज़ाज़ और संवेदना भी खो रहा है। इस समाज को इसके व्यस्ततम समय में अनेक विकृतियाँ मिली हैं। असुरक्षाबोध, यांत्रिकता, एकाकीपन, द्वेष, ईर्ष्या, हिंसा आदि से जूझते समाज को कोरेशब्द नहीं उत्साहित करते वरन् उनका सटीक और ज़रूरी, पड़्यौ कलेजाछेक सरीखा, लेखन असर डालता है। परसाई का व्यंग्य लेखन विसंगतियोंऔर विद्रूपताओं को समर्थता से उद्घाटित करता है। व्यंग्य एक समझदार, सुशिक्षित और सुलझे हुए मस्तिष्क की उपज है । यह विधा प्रत्युत्पन्नमति, वैचारिक सजगता और चुटीलेपन की सामूहिक प्रस्तुति है। परसाई इन विचारों को व्यवहार की आँख से देखते हैं, इसीलिए उनका लेखन अधिकविश्वसनीय हो जाता है।
परसाई के व्यंग्य-जलधि में गोते लगाने से पहले व्यंग्य का पारिभाषिकज्ञान हमारे आचार्यों से ले लेना ज़रूरी-सा जान पड़ता है- आचार्यहज़ारीप्रसाद द्विवेदी का मानना है कि, ‘व्यंग्य वह है, जहाँ कहने वालाअधरोष्ठ में हँस रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठा हो और फिर भीकहने वाले को ज़वाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना होजाता है।’ वहीं परसाई कहते हैं, “ज़िंदगी बहुत जटिल चीज़ है। इसमेंख़ालिस हँसना या ख़ालिस रोना-जैसी चीज़ नहीं होती। बहुत सी हास्यरचनाओं में करुणा की अन्तर्धारा होती है।”4 परसाई व्यंग्य को एकसोद्देश्य कर्म मानते हुए लिखते हैं, “व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियो-मिथ्याचारों और पाखंडों कापर्दाफाश करता है।”5 शरद जोशी व्यक्ति के जीवट को व्यंग्य का पर्यायमानते हैं । इसी क्रम में शरद जोशी का मानना है कि , “सेंस ऑफ ह्यूमर हीअन्याय, अत्याचार और निराशा के विरुद्ध होने से व्यंग में अभिव्यक्त होताहै ।”6 लेखक की यह जाग प्रहारात्मक हो तभी सार्थक होती है । इसी कोलक्षित करते हुए नरेन्द्र कोहली लिखते हैं, “कुछ अनुचित, अन्यायपूर्णअथवा ग़लत होते देखकर जो आक्रोश जागता है, वह यदि काम में परिणतहो सकता है तो अपनी असहायता में वक्र होकर जब अपनी तथा दूसरों कीपीड़ा पर हँसने लगता है तो वह विकट व्यंग्य होता है, पाठक के मन कोचुभाता, सहलाता नहीं, कोड़े लगाता है, अतः सार्थक और सशक्त व्यंग्यकहलाता है।”7 इन सभी विचारों से जो बात स्पष्ट होती है वह यह है किव्यंग्य में यथार्थ की धार होती है, वह कहीं चिंतक की भूमिका में होता है तोकहीं चीरफाड़ कर मवाद निकालते चिकित्सक की भूमिका में, विनोदजन्य उपहास का आश्रय लेकर वह तनिक सदाशय ज़रूर नज़रआता है; परन्तु घाव नावक के तीर की ही तरह करता है। वह कलेवर मेंकथात्मक-संस्मरणात्मक-निबंधात्मक हो सकता है; परन्तु परिणाम मेंआलोचनात्मक और समीक्षात्मक ही होता है। व्यंग्य जनहित में जारी होताहै इसलिए बहुजन हिताय का पक्षधर होता है। “स्वातंत्र्योत्तर परिवेश कीविशिष्ट परिस्थितियों, दोगलेपन की संगठनात्मक संस्कृति ने जब ऐसामाहौल निर्मित किया जिसमें तमाम प्रचलित मान्यता है, और पूर्व स्वीकृतधारणाएँ धराशायी होने लगीं तो साहित्यकार जैसे संवेदनशील व्यक्तियोंको एक विशेष अनुभूति हुई। उस विशेष अनुभूति की विशेष अभिव्यक्तिही साहित्यिक व्यंग्य है।”8
व्यंग्य का कार्य मूलतः आलोचनात्मक है इसलिए इसमें शब्दों का बहुत हीनपा-तुला और संवेदनशीलता के साथ प्रयोग करना होता है और हास्य मेंआक्षेप का कटु स्वर दबाना होता है। व्यंग्य का प्रयोग केवल अभिधा केसहारे संभव नहीं है। शब्दों का बहुआयामी प्रयोग व्यंग्य में धार पैदा करताहै। व्यंग्य विधा है या शैली इसके बारे में आलोचकों और विद्वानों केअलग-अलग मत हैं। यदि व्यंग्य विधा है तो इसके समर्थन में लक्ष्मीकांतवैष्णव लिखते हैं कि, “ व्यंगकार का साध्य होता है प्रहार, जो वह इसविधा के माध्यम से करता है। इसलिए व्यंग्यकार द्वारा लिखी गई कहानी(या अन्य साहित्य विधा) को लोग कहानी न कहकर ‘व्यंग्य’ कहते हैं, नाटक को नाटक न कहकर व्यंग्य कहते हैं।”9 यदि व्यंग्य को शैली कहें तोवह अनेक रूपबंधों में आवाजाही कर सकता है। व्यंग्य वृत्तान्त हो सकता है(गुलीवर ट्रेवल्स) तो कहानी, उपन्यासिका और संस्मरण भी । स्पष्ट है,व्यंग्य एक स्वतंत्र गद्य विधा है जो शैली या विधागत दोनों ही रूप मेंअभिव्यक्त होने का सामर्थ्य रखती है। अपने दोनों ही रूपों में यह यथार्थ, सौद्देश्यपरक एवं वैचारिक रूप में अभिव्यक्त होता है। बौद्धिकता, सजगताऔर वैचारिकता न केवल जाग्रत समाज की अनिवार्य आवश्यकता है वरन्लेखक की भी। लेखक की व्यंग्यीय प्रतिक्रिया हास्य की तरह तात्कालिकहोते हुए भी क्षणिक नहीं होती, प्रत्युत् शाश्वत और स्थायी होती है।परसाई अपने जीवनीपरक आत्मकथ्य में बार-बार एक तटस्थआलोचक की तरह आत्मालोचन करते हैं। उनकी मर्मभेदी और सजगलेखनी ने अपनी कमियों को भी बारंबार उभारा है। वे इन कमियों से आमआदमी को जोड़ते हैं, और इस तरह उनके नितांत निजी प्रसंग भीसाधारणीकृत हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर, परसाई निर्भीक होकर अपनेबेटिकट यात्रा करने के संदर्भ में कहते हैं-“एक विद्या मुझे और आ गई थी- बिना टिकट सफर करना. जबलपुर से इटारसी, टिमरनी, खंडवा, इंदौर, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं, मैं बिना टिकट बेखटकेगाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गई थीं। पकड़ा जाता तोअच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम सेमुसीबत बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते-लेट्स हेल्प दि पुअरबॉय।”10
परसाई के व्यंग्य का गुरुत्व और सरोकारी संसार-
हर विधा और साहित्यकार का अपना गुरुत्व है । जहाँ से कुछ सीख मिले, जहाँ ज्ञान और चेतना संप्रेषित हो और पाठक को झकझोर दे तो कृतिस्वतः ही सफल हो जाती है। परसाई कहते हैं साहित्य व्यक्तिगत औरसामाजिक जीवन की आलोचना होता है, और जीवन की आलोचना केलिए उन्होंने सर्वोत्तम तरीका व्यंग्य को ही समझा, और चूँकि वोप्रभावशाली होता है इसीलिए परसाई व्यंग्य को चुनते है। अपनेराजनीतिक व्यंग्यों में परसाई एक सजग और प्रवंचना से पीड़ित नागरिककी भूमिका में दिखाई देते हैं । जो भ्रष्टाचार की बात तो सत्यनारायण कीकथा की तरह सुनता रहता है; परन्तु उससे बचने के लिए अपने गले मेंसदाचार का ताबीज़ पहन लेता है । सबको सम्मति दे भगवान कहता हुआऔर लोग भ्रष्ट हैं यह कहने का तर्क ख़ारिज करते हुए भ्रष्टाचार कीनैतिकता के पक्ष में ही मत रखता है । प्रसंगवश परसाई की ‘सदाचारका ताबीज’ जो कि मूलतः कहानी के रूप में है, आर्थिक सुरक्षा के अभावमें आमजन के भ्रष्टाचार की ओर बढते कदमों की ओर संकेत करती है। परसाई इस कहानी और अपने अन्य व्यंग्यों में यह संकेत करते हैं किव्यवस्था में परिवर्तन और भ्रष्टाचार का खात्मा किए बग़ैर और कर्मचारियों को आर्थिक सुरक्षा दिए बिना,कोरे भाषणों, सर्कुलरों, उपदेशों, सदाचार समितियों के गठन और निगरानी आयोग के द्वारा कोई भी कर्मचारी सदाचारी नहीं होगा। परसाई के व्यंग्य बुर्जुआ समाज में व्याप्तमूल्यगत संक्रमण- विक्रय और स्खलन की स्थिति में नैतिक और सार्थकहस्तक्षेप करते हैं।
परसाई के ‘जैसे उनके दिन फिरे’, (1963) संग्रह में उन्नीस कथाएँ संगृहीतहैं। इनके विषय में रवीन्द्र कालिया लिखते हैं कि-“ये मात्र हास्य-कहानियाँनहीं हैं, यों हँसीं इन्हे पढ़ते-पढ़ते अवश्य आ जाएगी, पर पीछे जो मन मेंबचेगा, वह गुदगुदी नहीं, चुभन होगी। मनोरंजन प्रासंगिक नहीं है, वहलेखन का उद्देश्य नहीं है ; वरन् उद्देश्य है- युग का, समाजका, उसकी बहुविध विसंगतियों, अंतर्विरोधों, विकृतियों और मिथ्याचारोंका उद्घाटन। परसाई जी की इन कहानियों में हँसी से बढ़कर जीवन कीतीखी आलोचना है।”11इन कहानियों की कथावस्तु और शैली, लोक कथाशैली में प्रारंभ होती है । इनके कथानक, योग्य राजा के गुणों (जैसे उनके दिन फिरे), भारतीय भाषाओं में हो रहे शोध कार्यों जिनका उपजीव्यअनुमान है (इति श्री रिसर्चाय), भेड़ें और भेड़ियों के प्रतीकों के माध्यम से लोकतंत्रीय व्यवस्था में सुरक्षा और अधिकार की आश्वस्ति औरअकर्मण्यवादी निष्क्रियता तथा भेडियों और उनकी जयकार करने वालेसियारों में सत्ता-परिवर्तन का भय (भेड़ें और भेड़िया), व्यवस्था को लीलतेभ्रष्टाचारी घुन (सुदामा के चावल), समर्पण और संपन्नता के बीच आकर्षण की चाहना ( मेनका का तपोभंग),किराए के मकान तंत्र औरसाधारण व्यक्ति की निरीह आर्थिक स्थिति (त्रिशंकु बेचारा), शिक्षणसंस्थानों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल,( बैताल की छब्बीसवींकथा),हित साधने हेतु व्यक्तियों के साथ संबंधो का उपयोगितापरक दृष्टिकोण (बैताल की सत्ताईसवीं कथा), संन्यासी का राग-विराग(राग-विराग) , परोपकारी हातिम की क़िस्सेबाजी (वे सुख से नहीं रहे), भविष्य के दृश्य में हमारे पूर्वजों की कल्पना (आमरण-अनशन) जैसेविषयों पर आरुढ होकर रोचक अवसान तक पहुँचकर लोक कथाओं कीउस अंतिम पंक्ति के सूत्र वाक्य पर समाप्त होती है कि ,‘जैसा उनकेसाथ हुआ वैसा किसी ओर के साथ न हो,’ या कि ‘जैसे उनके दिन फिरे, सबके दिन फिरे’, आदि-इत्यादि ।
‘पगडंडियों का ज़माना’, (1966) में परसाई ने शिक्षा के क्षेत्र में सिफारिशों या कि प्रभाव से प्रवेश लेने की रणनीति, पेपर आउट औरपरीक्षा में नंबर बढ़वाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर धारधार व्यंग्य किया है, जोआज के परिवेश पर भी सटीक है। लेखक ने मेहनत, नैतिकता और ईमानदारी के आम रास्ते पर चलने की प्रवृत्ति के कमज़ोर पड़ने और सिफ़ारिश , नकल और बेईमानी के शॉर्टकट( पगडंडियों ) के प्रतिबढ़ते रुझान पर चिंता व्यक्त की है। संग्रह के अन्य निबंधों में ‘प्रजावादी- समाजवादी’, ‘चावल से हीरे तक’ , ‘बेचारा भला आदमी’, ‘आँगन में बैंगन’ तथा ‘अन्न की मौत’, जैसे रोचक निबंध हैं । यहाँ पर भी लेखककी चिंता में भीड़ के खतरे हैं,उसका मनोविज्ञान है;कि ‘सबके साथ होनेमें विशिष्टता मारी जाती है।’ (हम, वे और भीड़)। संग्रह के सभी निबंधचाहे वह ‘प्राइवेट कॉलेज का घोषणा-पत्र’ हो या ‘ग्रीटिंग कार्ड और राशनकार्ड’, सभी इसी इंगित और आज की वास्तविकता पर चलते हैं कि सभीएक हड़बड़ी और ज़ल्दी में हैं, किसी को अब सिद्धान्तों, मूल्यों और सदाचार में रूचि नहीं रह गई है।
परसाई विषय वैविध्य के साथ-साथ शैलीगत नाविन्य के भी आग्रही रहें हैं।जाति और वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करते हुए साथ ही व्यंग्य को हाशिए पररखे जाने के विधान को रेखांकित करते हुए वे सम्पादक के नाम पत्र केरूप में, ‘और अंत में’(1968) संग्रह लिखते हैं। “साहित्यिक पत्रिकाएँ ब्राह्मण होती हैं, व्यंग्य शूद्र वर्ण का माना गया है। उसने कभी ब्राह्मण कोनहीं छुआ।”12 परसाई का कहना है कि, ‘और अंत में’, शीर्षक के तले उन्होंने ये पत्र संपादक को लिखे थे, लेकिन इनमें मुख्यतः साहित्यिक और साधारणतः सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों की गतिविधियों पर व्यंग्य हैं ,विचारों का फैलाव है, इसीलिए वे आशान्वित हैं कि यह संकलन पाठकों को सदाचारी बनाने, सुधीजन का हाज़मा ठीक करने और उनके दिमागको तरावट देने में कारगर होगा। परसाई उन लेखकों में शामिल हैं, जिनकामन वर्तमान व्यवस्था फिर चाहे वह राजनीतिक हो या सामाजिक को लेकर विक्षुब्ध है । निबंधकार या व्यंग्यकार होने के नाते ही नहीं वरन् एकसामान्य नागरिक की हैसियत और ज़िम्मेदारी के तहत भी वे निरन्तर इसचिंता को रेखांकित करते रहे हैं । एक ‘क्षण-साधक’, ‘पारिश्रमिकाभिलाषी’, ‘नव आंचलिक’, आदि संज्ञाओं से स्वयं कोनवाज़ते हुए वे साहित्यिक-सामाजिक उठा-पठक और तमाम तरह की ईर्ष्याओं, हृदयगत सिकुड़नों पर तिलमिला देने वाले विचार, अनेकानेक प्रसंगों का ब्यौरा देते हुए रखते हैं ।
परसाई के व्यंग्यों में विवादास्पद मृत्यु की कामना करना, सत्य साधकमण्डल का सदस्य बनना, सहानुभूति के रंग में रंगना और मौका मिलते हीअपनी सहानुभूति में बहादुरी का रंग घोल देना जैसे विषयों का प्रयोग,व्यष्टिगत और समष्टिगत वैचारिक आपात् काल के सूचक हैं। इसीलिएपरसाई शिकायत करते हैं। ‘शिकायत मुझे भी है’(1970)