Thursday, January 12, 2023

काव्य गुण

 काव्य गुण: काव्य के सौंदर्य एवं अभिव्यंजना शक्ति को बढ़ाने वाले तत्त्वों को काव्य गुण कहा जाता है। काव्य क्षेत्र में इनका उपयोग दोषाभाव एवं काव्य के शोभावर्धक धर्म दो अर्थों में किया जाता है। काव्य के दो गुण है- १) विधायक तत्व २) विधातक। ऐसे तत्व जो काव्य के विधान में उसके परिपोषक में सहायक होते हैं उसे काव्य गुण कहते हैं गुणों का वर्णन सभी आचार्यों ने किया है। इसकी परम्परा भी काव्य शास्त्र के इतिहास से ही संबंधित है।

अर्थ:

  • काव्य गुण का तात्पर्य है दोषों का अभाव, शोभाकारक या आकर्षक धर्म।
  • काव्य के गुणों की विवेचना सबसे पहले भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में की थी।
  • काव्य गुणों का ‘प्रतिष्ठापक’ आचार्य वामन माने जाते है।

काव्य गुणों की परिभाषाएँ:

भरतमुनि के शंब्दो में- ‘दोषों का विपर्यय’ ही गुण माना है।’

“एत एव विपर्यस्तता गुण: काव्येषु  कीर्तितः।”

अथार्त दोषों का अभाव गुण है, तथा ये काव्य की कीर्ति और सौन्दर्य को  बढ़ाने वाले होते हैं।

वामन के शब्दों में- “काव्यं शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः।”

अथार्त काव्य की  शोभा करने वाले तत्त्व ही गुण हैं।

मम्मट के शब्दों में- “ये रस्यांगिनो धर्मः शौर्यादया इवात्मन:”

उत्कर्ष हेतस्तवे स्यु: अचल स्थितियों गुणाः।”

अथार्त गुण रस से अनिवार्य अंग है, जो उसका उत्कर्ष करने वाले हैं- जैसे शौर्य आदि आत्मा का उत्कर्ष करते हैं। वे ही गुण कहलाते हैं।

काव्य गुणों की संख्या: 

भरतमुनि ने काव्य गुणों की संख्या दस मानी है- 

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“श्लेषः  प्रसादः समता समाधि माधुर्य ओजः पद सौकुमार्यम्

अर्थस्यव्यक्तिरुदारता च कांतिश्य गुण काव्यस्य दशैवे।”

हिन्दी: श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, पद सुकुमारता, अर्थ की अभ्व्यक्ति, कांति और उदारता ये दस गुण हैं।

आचार्य दण्डी- काव्य गुणों की संख्या दस (10) माने हैं।

आचार्य वामन- काव्य गुणों की संख्या बीस (20) माने हैं।

भोज ने मूलतः काव्य गुणों की संख्या चौबीस (24) माने हैं। भेद और उपभेद सहित उन्होंने बहत्तर (72) काव्य गुण माने हैं।

कुंतक ने काव्य गुण दो माने हैं  ‘औचित्य’ और ‘सौभाग्य’

आनंदवर्धन ने चित्त की तीन अवस्थाओं, द्रुति, दीप्ति तथा व्यापकत्व के आधार पर काव्य गुणों की संख्या तीन माने हैं – माधुर्य, ओज और प्रसाद।

मम्मट ने भरतमुनि के दस काव्य गुणों का खंडन कर आनंदवर्धन के तीन गुणों को ही मान्यता दिया है 

देव ने भरतमुनि के दस काव्य गुणों को स्वीकार करते हुए ‘अनुप्रास’ और ‘यमक’ को जोड़कर काव्य गुणों की संख्या बारह (12) माने हैं।

भारतीय काव्य शास्त्र में सर्वसम्मति से आनंदवर्धन और मम्मट के द्वारा प्रतिपादित 3 काव्य गुणों को ही (माधुर्य, ओज और प्रसाद) स्वीकार किया है।

  1. माधुर्य काव्य गुण:

परिभाषा- हृदय को आनंद और उल्लास से द्रवित करनेवाली कोमल कांत पदावली से युक्त रचना में माधुर्य काव्यगुण होता है।

मम्मट के अनुसार-

“आह्लादकत्वं माधुर्य शृंगारे द्रुतिकारणंम्

करुणे विप्रलंभे तच्छान्ते चाति शयान्वितम्।”

अथार्त चित् की द्रुति अहलाद विशेष का नाम माधुर्य गुण है इसमें इनके द्वारा श्रृंगार, शांत व करुण रसों में विशेष आनंद की अनुभूति होती है।”

चिंतामणि के शब्दों में-

“जो संयोग शृंगार में सिखाद दबावै चित्त

सो माधुर्य बखानिये यहीई तत्व कवित्त।”

भिखारीदास के शब्दों में-

“अनुस्वार बरन जुत सबै वर्ग,

अक्सर जामै मृदु परै सो माधुर्य निसर्ग।”

  • भरतमुनि ने माधुर्य का अर्थ ‘श्रुति मधुरता’ माना है।
  • दंडी ने माधुर्य गुण का अर्थ ‘रसमयता’ माना है।
  • वामन ने माधुर्य गुण का अर्थ ‘उक्तिवैचित्र्य’ माना है।
  • मम्मट ने माधुर्य गुण का अर्थ ‘आह्लादकता’ माना है।

माधुर्य गुण के व्यंजक / लक्षण: 

डॉ० देवेन्द्रनाथ शर्मा ने माधुर्य गुण के निम्नलिखित लक्षण माने हैं।

  • ‘ट’ वर्ग को छोड़कर सभी वर्गाक्षर को माना है। 
  • संयुकाक्षरों का अभाव (क्ष, त्र) अभाव होना चाहिए।
  • सामासिकता का अभाव होना चाहिए।

माधुर्य गुण के अन्य लक्षण:

  • ‘द्वित’ वर्ण नहीं आनी चाहिए। (कुत्ता, सच्चा, कच्चा)
  • रेफ युक्त वर्ण नहीं आनी चाहिए। (धर्म, कर्म, शर्म)
  • महाप्राण ध्वनियां नहीं आनी चाहिए। ( ह, ध, भ, थ)

माधुर्य गुण के उदाहरण:

“कंकन किंकिनि नुपुर धुनि सुनि, कहत लखन सन राम हृदय गुनी।

मानहूँ मदन दुंदुभी दीन्हि, मनसा विस्व विजय कर कीन्हि।।”

“बतरस लालच लाल की मुरली धरि लुकाय।

सौंह करै भौंहनि हँसै देन कहें नटि जाय।।”

  • ओज काव्य गुण:

ओज का अर्थ होता है तेज, प्रताप, जोश, आवेग दीप्ती आदि।

परिभाषा: जिस काव्य को पढ़ने या सुनने से पाठक या श्रोता के मन में ओज, तेज, उत्साह, साहस, पौरुष, वीरता आदि की भावना उत्पन्न हो जाए वहाँ ओज काव्य गुण होता है।

दंडी के अनुसार- समास की अधिकता से ओज गुण उत्पन्न होता है।

वामन के अनुसार- अक्षर विन्यास के संश्लिष्ट व संयुक्ताक्षरों के प्रयोग से ओज गुण की उत्पति होती है।

ओज गुण के लक्षण:

  • ‘ट’ की अधिकता होनी चाहिए।
  • ‘रेफ’ संयुक्त, व द्वित वर्णों की अधिकता होनी चाहिए।
  • सामासिक पद लम्बा होना चाहिए।
  • महाप्राण ध्वनियों की अधिकता होनी चाहिए।

ओज गुण के संबंध में विद्वानों के कथन: 

मम्मट के शब्दों में-

“दिप्त्यात्मविस्मृते वीर रसः स्थिति।

वीभत्स, रौद्र रस्योस्तयाधिक्य क्रमेण चा।।”

भिखारीदास के शब्दों में-

“उद्धत अक्षर जहाँ परै स क ट मिलि जाई।

ताहि ओज गुण कहत है, जे प्रवीण कविराई।।”

उदाहरण: चिक्करहि दिग्गज डोल मही, अहि लोल सागर खर भरे।

  मन हरक सम गंधर्व सुर-मुनि नाग किन्नर दुःख टरै।।”

उदहारण: भए क्रुद्ध युद्ध विरुद्ध रघुपति त्रोण सायक कसमसे।

कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि मनुजाद  सब मारुत ग्रसे।।”

  • प्रसाद काव्य गुण: 

प्रसाद का अर्थ है- प्रसन्नता, विकसित होना, खिलजाना आदि। काव्य को पढ़कर या सुनकर सहृदय का चित्त प्रसन्न हो जाता है, मन खिल जाता है उसे प्रसाद काव्य गुण कहते हैं।

परिभाषा:

भरतमुनि के अनुसार- जिसमे स्वच्छता, सहजता, सरल ग्राह्यता हो तथा काव्य को सुनते ही अर्थ का ज्ञान हो जाए उसे प्रसाद गुण कहते हैं।

देवेन्द्रनाथ शर्मा के शब्दों में- “जिस गुण से युक्त रचना बिना प्रयास किए ही हृदय में समा जाए, उसे प्रसाद गुण कहते हैं।

दंडी के शब्दों में- “प्रसिद्ध अर्थ में शब्द का ऐसा प्रयोग, जिसे सुनते ही सब समझ में आ जाए वह प्रसाद गुण कहलाता है।”

मम्मट के शब्दों में-

“शुष्केन्धनाग्निवत स्वच्छ जलवत सहसैव य:।

व्याप्तनोत्यत प्रसदौडसौ सर्वत्र विहित स्थिति:।।”

चिंतामणि के शब्दों में-

“सुखें ईंधन आग ज्यों स्वच्छ नीर की रीति।

झलकै अच्छर अर्थ जो सो प्रसाद गुण नीति।।”

भिखारीदास के शब्दों में-

“मन रोचक अक्षर परै सो है सिथिल सरीर।

गुण प्रसाद जल सूक्ति ज्यों प्रगटे अर्थ गंभीर।।”

उदाहरण:

“सुख-दुःख के मधुर मिलन से, यह जीवन हो परिपूरन।

फिर घन में ओझल हो शशि, फिर ओझल से ओझल हो घन।।”

  • अर्थ की स्पष्टता प्रसाद गुण की प्रमिख विशेषता है।
  • भावों के अनुसार इसमें कोमल तथा कठोर सब तरह के वर्णों का प्रयोग किया जा सकता है।
  • प्रसाद काव्य गुण माधुर्य काव्य गुण और ओज काव्य गुण के बीच की स्थिति होती है।
  • ‘प्रसाद गुण’ सभी रसों के उत्कर्ष में सहायक हो सकता है।

Thursday, December 15, 2022

रसखान

 

रसखान 






सवैये- 

मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।

यहाँ पर रसखान ने ब्रज के प्रति अपनी श्रद्धा का वर्णन किया है।वे कहते हैं कि  चाहे मनुष्य का शरीर हो या पशु का; हर हाल में ब्रज में ही निवास करने की उनकी इच्छा है। यदि मनुष्य हों तो गोकुल के ग्वालों के रूप में बसना चाहिए। यदि पशु हों तो नंद की गायों के साथ चरना चाहिए। यदि पत्थर हों तो उस गोवर्धन पहाड़ पर होना चाहिए जिसे कृष्ण ने अपनी उंगली पर उठा लिया था। यदि पक्षी हों तो उन्हं यमुना नदी के किनार कदम्ब की डाल पर बसेरा करना पसंद हैं।

या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डार।
आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

कृष्ण और ग्वालों  की  लाठी और कम्बल के लिए तीनों लोकों का राज भी त्यागना पड़े तो कवि उसके लिए तैयार हैं। नंद की गाय चराने का मौका मिल जाए तो आठों सिद्धि और नवों निधि के सुख वे भुला देंगे। अपनी आँखों से ब्रज के वन उपवन और तालाब को जीवन भर निहारते रहना चाहते हैं। यहाँ तक कि ब्रज की कांटेदार झाड़ियों के लिए भी वे सौ महलों को भी निछावर कर देंगे।


मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥

यहाँ पर गोपियों की कृष्ण का प्रेम पाने की इच्छा और कोशिश का वर्णन किया गया है। कृष्ण गोपियों को इतने रास आते हैं कि उनके लिए वे सारे स्वांग करने को तैयार हैं। वे मोर मुकुट पहनकर, गले में माला डालकर, पीले वस्त्र धारण कर और हाथ में लाठी लेकर पूरे दिन गायों और ग्वालों के साथ घूमने को तैयार हैं। लेकिन एक शर्त है और वह यह है कि मुरलीधर के होठों से लगी बांसुरी को वे अपने होठों से लगाने को तैयार नहीं हैं।



काननि दै अँगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै॥

यहाँ पर गोपियाँ कृष्ण को रिझाने की कोशिश कर रही हैं। वे कहती हैं कि जब कृष्ण की मुरली की मधुर धुन बजेगी तो उसमें मगन होकर हो सकता है गायें भी अटारी पर चढ़कर गाने लगें, लेकिन गोपियाँ अपने कानों पर उंगली रख लेंगी ताकि उन्हें वो मधुर संगीत ना सुनाई पड़े। लेकिन गोपियों को ये भी डर है और ब्रजवासी भी कह रहे हैं कि जब कृष्ण की मुरली बजेगी तो उसकी टेर सुनकर गोपियों के मुख की मुसकान सम्हाले नहीं सम्हलेगी। उस मुसकान से पता चल जाएगा कि वे कृष्ण के प्रेम में कितनी डूबी हुई हैं 


सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावै। जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावै॥ नारद से सुक व्यास रटै पचि हारे तऊ पुनि पार पावै। ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै॥ रसखान कहते हैं कि जिस कृष्ण के गुणों का शेषनाग, गणेश, शिव, सूर्य, इंद्र निरंतर स्मरण करते हैं। वेद जिसके स्वरूप का निश्चित ज्ञान प्राप्त न करके उसे अनादि, अनंत, अखंड अछेद्य आदि विशेषणों से युक्त करते हैं। नारद, शुकदेव और व्यास जैसे प्रकांड पंडित भी अपनी पूरी कोशिश करके जिसके स्वरूप का पता न लगा सके और हार मानकर बैठ गए, उन्हीं कृष्ण को अहीर की लड़कियाँ छाछिया-भर छाछ के लिए नाच नचाती हैं।