Sunday, December 27, 2015

कशमकश..



सृष्टि आलोकित करने को
मैनें माँगा है उजास
शब्दों से

कुछ लिखने की जद्दोजहद में
उतरती हूँ गहरी खोह में
पथरीले सफर में भी खोजती हूँ
हरियल पगडंडियाँ
देखती हूँ!
बहुत कुछ बिखरा है

कुछ यादें, रिश्तें और मूल्य अनगिनत
वहीं औंधें मुँह गिरी
ख्वाबों की एक पोटली है
रिसता दर्द है
कुछ जज्बातों की खूशबू है
औऱ सिसकती आस है

दूर किसी कोने में
हिंसा के तांडव से सहमी
टूटती कल्पना की साँसें है
इसी टूटन से याद आता है
उसने कहा था
तुम छायावादी हो
तपाक कह उठी थी तब मैं
हाँ! प्रगतिवाद की पृष्ठभूमि हूँ

शायद! उसी को सच करने
खुद को फिर फिर आजमाने
कुछ दरकते हुए को बचाने
अब रंग रही हूँ भावनाओं को
वैचारिकता की स्याही से...


डॉ विमलेश शर्मा

Friday, December 25, 2015

एक शोख़ मासूमियत औऱ कातिलाना नज़र का जादू






साधना वह नाम जो खूबसूरती की हदें पार करता हो.. जो मासूम हो पर शोखी से भरा हो, जिसे बस एकटक सराहना भाव से निहारा जा सकता हो।  रूप जो अपनी पूर्णता  में आत्मविश्वास यूँ छलकाता हो कि सौन्दर्य को चार चाँद लग जाए. अपनी साधना हेयर स्टाइल से प्रसिद्ध साधना शिवदासानी अपने अभिनय में भी अलहदा थी। उनके जैसे नाम कम ही है फिल्म इंडस्ट्री में जो अपने सौन्दर्य और अदाकारी के दम पर दर्शकों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ते हो. 

झूमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में हो या फिर ए नर्गिसे मस्ताना या फ़िर मेरा साया उनकी आँखों का वो काजल जो शायद रात भर जलता रहा होगा बरबस याद आ जाता है। वे अपने व्यक्तित्व में सादा थी और लोकप्रियता के चरम पर ऐसी सादगी कम ही मिलती है।

साधना जिसके नाम से साधना कट हेयर स्टाइल मशहूर हुआ वह उन्होंने अपनी पारम्परिक छवि बदलने के उद्देश्य से  फिल्म लव इन शिमला के लिए करवाया  था औऱ कहा जाता है कि इसको सुझाया भी उन्होंने ही था । तंग चूड़ीदार-कुर्ता को वे पहले पहल वक्त फिल्म में रूपहले पर्दे पर लेकर आयी ।  सौन्दर्य के साथ - साथ वे सौन्दर्यबोध की भी धनी थी।  

यों तो उनकी अनेक फ़िल्में है परन्तु आप आए बहार आयी, एक फ़ूल दो माली और मेरा साया मेरी पंसदीदा फ़िल्में है। इन फ़िल्मों के पोस्टर भी अभी तक जेहन में हैं और अभिनय तो है ही अमिट। मेड़ता जैसे कस्बे में बचपन गुज़ारने का यह फ़ायदा रहा कि ये फिल्में जो काफ़ी समय पूर्व ही रूपहले पर्दे पर अपनी उपस्थिति दे चुकी थीं, मैं उन्हें नब्बे के दशक में देख पा रही थी।  साल बीतते बीतते विदा हुए सौन्दर्य के इस चाँद को अलविदा! जिसकी चाँदनी का साया मन को सदा -सदा भिगोता रहेगा...

साधना आप चमकती रहें यूँहीं सदा इस रूपहले पर्दे से फ़लक के उस पार तक...

Wednesday, December 23, 2015

मीडिया में उभरते सौन्दर्यवादी मिथक और वस्तु बनती स्त्री

                
                                                          

भूमण्डलीकरण के इस दौर में मीडिया आम आदमी तक पहुँचने तक का महत्वपूर्ण माध्यम है। अक्सर कहा जाता है कि मीडिया समाज का आईना है और वह जो देखता है वही गढ़ता भी है।  कई बार उसकी अवधारणाओं पर सामाजिक और अनेक मानकों से प्रेरित अवधारणाएँ हावी हो जाती है।  इन अवधारणाओं के पीछे एक मानसिक तंत्र काम करता है। दरअसल मीडिया के तंत्र में वह ताकत है कि वह यथार्थ को झूठ का जामा पहना सकता है और  झूठ को सच बनाकर प्रस्तुत कर सकता है। कई बार मीडिया के पैरोकार इसे मीडिया के अस्तित्व के लिए  इन्हें जरूरी मानते हैं। परन्तु क्या यह जरूरी है कि व्यावसायीकरण के खतरनाक खेल में किसी व्यक्तित्व को ही एक वस्तु बना दिया जाए। अगर आधी दुनिया के संदर्भ में बात की जाए तो मीडिया ने स्त्री को सर्व गुण सम्पन्न और अतिमानवीय चरित्र के रूप में उकेरा है। आखिर क्यों स्त्री को तमाम अपेक्षाओँ युक्त इन सौन्दर्यवादी और देहवादी दायरों में बाँधने का प्रयास किया जा रहा है। यहाँ चिट्टियाँ कलाईयों को ही तरज़ीह  क्यों मिलती है और आखिर क्यों लिपे पुते चेहरे ही सौन्दर्य के मानक निर्धारित किए गए हैं।  सामाजिक दायरों की बात की जाए तो स्त्री को सदा एक षोडसी के रूप में ही देखा गया है परन्तु क्या यह जरूरी है कि स्त्री सदा रूपवान ही हो।  आखिर क्यों उसका वैचारिक पक्ष मीडिया में हाशिए पर रखा जाता है ?  आखिर क्यों स्त्री अपराध की भूमिका को ग्लैमराइज कर के परोसा जाता है। आखिर क्यों अपराध की तहे खोलते खोलते मीडिया केवल और केवल उसके निजी जीवन की खुदाई प्रारम्भ कर देता है। यह सारे प्रश्न है जिनके पीछे देखा जाए तो टी आर पी के समीकरण समझ आने लगते हैं।  इन्हीं समीकरणों में उलझकर स्त्री आज मानवी के स्थान पर महज एक वस्तु बन गई है। स्त्री की छवि के लिए इतिहास  में मिथकों की कमी नहीं है,स्त्री अभी उन्हीं से जूझ रही थी कि मीडिया ने जीरो फिगर और सुपरमोम जैसी नयी अवधारणाओँ को गढ़ दिया है।
आज अगर इन मिथकों को  तोड़ने में हमारा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहायता करता  तो यह निःसंदेह एक सराहनीय कदम होगा पर ऐसा नहीं है अतः इसकी भूमिका पर  हमें पुनः चिंतन करना होगा और उसे बाध्य करना होगा क्योंकि आखिरकार मीडिया पथ प्रदर्शक की भूमिका में भी हैमीडिया का आज सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही रूप देखने को मिल रहा है स्त्री अस्मिता के जिन मापदंडों का जिक्र हम मीडिया के परिप्रेक्ष्य में कर रहें हैं वहाँ दोहरे मापदंड है जहाँ एक ओर स्त्री मुक्ति का परचम उठाता हुआ मीडिया है वहीं उसी अस्मिता को देह बनाकर परोसने का खतरा भी वहाँ मंडरा रहा है। आज सभी पैमाने स्त्री मुक्ति और व्यवसाय के दोहरे स्तरों को साथ-साथ लेकर चलते हैं। हालांकि दूसरे रूप में देखे तो मीडिया ने स्त्रियों को मानवाधिकारों के प्रति सबसे अधिक सजग किया है। पूर्व में घरेलू हिंसा जैसी अनेक घटनाएँ प्रकाश में ही नहीं आ पाती थी परन्तु आज स्त्रियाँ उनसे त्रस्त ना होकर सीधे प्रकाश में ले आती है।  इन घटनाओं को मीडिया तक पहुँचाने में मीडिया की सकारात्मक भूमिका रही है। परन्तु आज मीडिया अपनी भूमिका का अतिक्रमण कर रहा है । वह स्त्री के लिए ऐसे संवेदनहीन शब्दों का प्रयोग करता है जैसे वह कोई वस्तु हो।  अपराध अगर स्त्री से जुड़ा हो तो मीडिया उस घटना के पूरी तरह पीछे पड़ जाता है।  मीडिया स्वयं उन अपराधों को सुलझाने लगता है। यही अतिचेष्टा उस स्त्री के जीवन में त्रासदी ला सकता है जिसका अपराध अभी तय भी नही हुआ है। मीडिया ट्रायल के दौरान स्त्री के निजी जीवन से जुड़े प्रसंग तोड़ मरोड़कर इस तरह प्रस्तुत किए जाते हैं कि अगर वो कभी फिर से सामाय सामाजिक जीवन जीने की सोच भी नहीं पाती। हाल ही में घटित इन्द्राणी प्रकरण इसी का उदाहरण है।
स्त्री की छवि गढ़ने में मीडिया व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखता है। आज बाजारवाद और भूमंडलीकरण स्त्री की देहवादी छवि को गढ़ रहे हैं। आज हमारी हर सुबह एक विज्ञापन से शुरू होती है। टूथपेस्ट से लेकर  रात को लिए जाने बोनविटा तक के विज्ञापनों पर गौर करें तो हर जगह स्त्री उत्पादों का विज्ञापन करती नज़र आएगी। इस भौतिकतावादी संस्कृति ने स्त्री को सर्वाधिक प्रभावित किया है। विज्ञापन करती स्त्री सुंदर होनी चाहिए, उसके शरीर पर अवांछित वसा नहीं होनी चाहिए ये सब ऐसे बिन्दु है जिसने स्त्री जीवन का अर्थशास्त्र ही गड़बड़ा दिया है। आज कोई स्त्री ट्रेफिक पुलिस के रूप में कर्मक्षेत्र को चुन रही है या ऐसे चुनौतिपूर्ण कार्यों को कर रही है जहाँ कोमल देह मिसफिट है तो वहाँ भी क्या ये सौन्दर्य के तय प्रतिमान अपनी भूमिक निभाएँगें। आखिर क्यों मीडिया केवल और केवल अपनी सौन्दर्यवादी घारणाओं के आधार पर स्त्री की छवि गढ़ रहा है। क्यों स्त्री के लिए जीरो फिगर और चिट्टियां कलाइयों जैसी संकल्पना गढ़ी गई है। क्यों हर लड़के के लिए वधू के चयन में आज गोरी,छरहरी और लम्बी लड़की को प्राथमिकता दी जाती है। यह कहना यहाँ ज़रूरी है कि मीडिया ही ये सब छवियाँ ,मिथकों के रूप में गढ़ रहा है। अगर विज्ञापनों से ही इतर भी बात की जाए तो जरा समाचार पढ़ती लड़कियों पर गौर कर लिया जाए। फाउंडेशन से लिपे पुते खुबसूरत चेहरे ही आज इस व्यवसाय की पहली जरूरत बन गए हैं। योग्यता का सिर्फ और सिर्फ एक पैमाना गढ़ ल्या गया है आज सोशल मीडिया युवाओं के लिए एक बड़ा नेटवर्क उपलब्ध करवाता है। परन्तु यहाँ भी स्त्री को छल का सामना करना पड़ता है । कई कई बार तो इतनी अधिक अभद्र और अपमानजनक टिप्पणियाँ देखने को मिलती है कि मानवता ही शर्मसार हो जाती है। चैट इनबॉक्स इतनी अधिक असहजताओं से भरे होते हैं कि वहाँ से हताशा और निराशा ही एक स्त्री को हाथ लगती है। हाल ही में घटा मोनिका लैविंसकी प्रकरण इसका जीता जागता उदाहरण है। इन मंचों पर किसी की निजी बातों में हस्तक्षेप करना कतई अशोभनीय माना जाता है परन्तु यह आभासी दुनिया कई बार निजी दुनिया में इतना अधिक घुसपैठ करने का प्रयास करती है कि व्यक्ति आत्महत्या और अवसाद के कगार पर पहुँच जाता है। हाल ही की बात की जाए तो अभी कई लोग इस बात से सदमे में हैं कि अमृता राय ने शादी क्यों कर ली? और इसके तहत आप अमृता की वाल को देखेंगें तो समझ पाएँगें कि एक स्त्री के लिए ऐसे मुद्दों को झेलना कितना कष्टकारी होता होगा। इस नए ख़तरे का नाम 'साइबर बुलीइंग' है। इसका मतलब है इंटरनेट की दुनिया में किसी व्यक्ति के चरित्र पर हमले करना, उसे प्रताड़ित करना
अगर मीडिया को कर्मक्षेत्र के रूप में चुनने की बात की जाए महिलाओं क यहाँ भी भारी असमानता का सामना करना पड़ता है। उन्हें समान वेतनमान, अनुकूल कार्य स्थिति, मातृत्व अवकाश जैसी अनेक समस्याओं से दो चार होना पड़ता है । कई बार तो उन्हे यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। सौन्दर्य के तय मापदण्ड तो है ही साथ ही पुंसवादी मानसिकता के चलते इस क्षेत्र में डायरेक्टर, सिनेमेटोग्राफर, लेखक, मेकअप आर्टिस्ट के रूप में भी उनका योगदान बहुत कम है। इस समस्या को भी दूर किया जाना आवश्यक है क्योंकि आधी आबादी को अपना जीवन जीने का पूरा पूरा हक है। आज सर्वाधिक आवश्यकता है प्रतिरोध की क्योंकि प्रतिरोध ही परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य रखता है। प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया और सभी मंचों को स्त्री को स्त्री की ही तरह देखने की एक समझ विकसित करनी होगी। स्त्री के उचित समाजीकरण की प्रक्रिया को समझने के प्रयासों के लिए व्यक्ति मात्र को वैचारिक रूप से परिपक्व होना होगा। मानवीय संवेदनाओं को उदात्त बनाना होगा। स्त्री को देह से परे एक मनुष्य मानना होगा। साथ ही  स्त्री को भी अपनी चेतना और सजगता को बढाना होगा ,कुछ और परिपक्व होना होगा। उसे अपनी चुप्पी तोड़नी होगी अगर किसी भी अन्य स्त्री के साथ वो अन्याय होते देखती है तो उसके खिलाफ आवाज उठानी होगी। एकजुट प्रयासों से ही स्त्री मुक्ति के प्रयास संभव होंगें और मीडिया के क्षेत्र में उसे उसकी वास्तविक अस्मिता की प्राप्ति होगी जिसकी वो वाकई हकदार है।
डॉ विमलेश शर्मा@vimleshsharma



Tuesday, December 22, 2015

हिज़्र का रंग रूहानी औऱ रूमानी बाजीराव मस्तानी...

              
मराठा योद्धा बाजीराव औऱ दीवानी मस्तानी के किरदार को जिस भव्यता औऱ सहजता के मिश्रण के साथ संजय लीला भंसाली ने उतारा है शायद ही कोई औऱ उतार पाता। मराठी उपन्यास राव पर आधारित यह फिळ्म इतिहास में कल्पना को कुछ यूँ परोसती है जैसे कि दिसम्बर के महीने की ठंड में घुली धूप । पेशवा के सामने गुहार से शुरू हुआ बाजीराव मस्तानी का प्रथम साक्षात्कार अंत तक उसी उष्णता के साथ फिल्म में  बना रहता है।   प्रेम इस फिल्म की आत्मा है औऱ यह अंत तक हर मन को बाँधे रखता है। बाजीराव वाकई एक बहादुर  योद्धा है, एक  पति हैं, एक समर्पित प्रेमी  है औऱ एक जिम्मेदार पिता भी । इन सबके बावजूद यहाँ जो रूप सर्वथा मुखर है वह है एक प्रेमी का।  एक ऐसा पेशवा जो योद्धा है परन्तु बाहर से सख्त होकर भी ओस की बूँदों को थामना जानता है। हवाओं के रूख को पहचानता है और प्रेम को धर्म , समाज औऱ तमाम मान्यताओं से आगे जाकर देखता है। इतिहास में  हिन्दु पद पादशाही की स्थापना करने वाला यह योद्धा पूरे प्राण प्रण से अपना प्रेम निभाता है , यही बात मन को बहुत अधिक छू जाती है। हर स्त्री को सम्मान देकर वो उस स्त्री के दर्द को भी कही कम करना चाहता है जो सामंतवादी सभ्यता में स्त्री सदियों से भोगती आयी है। यहाँ नायक ने अपनी अदाकारी से इस किरदार को बखूबी निभाया है। चाहे योद्धा हो या फिर हताश राव दोनों ही जगह रणवीर सिंह कुछ अधिक परिपक्व नज़र आते हैं।   बात करते है मस्तानी कि तो वहाँ कभी मरवण याद आती है , कभी हीर तो कभी सोहनी । मन लालायित होता है छत्रसाल औऱ रूहानी बेगम की उस बेटी के बारे में जानने का, इतिहास को खंगालने का जो प्रेम के चलते किसी एक रस्म का सहारा लेकर पूरी ज़िंदगी किसी और के नाम करने का ज़ज्बा रखती हो। वाकई यह फिल्म इतिहास के कई अनछूए पन्नों को फिर पढ़ने पर बाध्य करती है। प्रेम की अतिरंजना भले काल्पनिक हो परन्तु प्रेम का यह उदात्त स्वरूप और यह कहन कि बाजीराव ने मस्तानी से मोहब्बत की है,अय्याशी नहीं उस योद्धा को पूरे नम्बर दे देता है जो शायद वह 41 युद्ध जीतकर भी ना प्राप्त कर पाया हो।  तुझे याद कर लिया आयत की तरह , अब तेरा ज़िक्र होगा इबादत की तरह .. इन्हीं पंक्तियों की तरह मस्तानी को पूरे समय हिज्र के रंग में डूबे हुए दिखाया है।
दरअसल यह जो पात्रों के सीधे मन में उतर जाने का रास्ता है वह उनके पीछे सधे हुए अभिनय का सुझाया हुआ है। कहानी  के तीन प्रमुख किरदारों में रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा है औऱ तीनों ने ही अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। दीपिका कुछ औऱ मंझकर दमदार तरीके से सामने आयी है। यहाँ यह कहना बेहद जंरूरी होगा कि मस्तानी के किरदार के लिए अगर कोई सर्वथा उपयुक्त था तो वह थी मस्तानी दीपिका । गज़ब के आत्मविश्वास से लबरेज़ औऱ प्रेम में आकंठ डूबी मस्तानी के किरदार को जिस सहजता के साथ दीपिका ने निभाया है वह काबिलेतारीफ है। दीपिका की उपस्थिति आश्वस्त करती है कि हिन्दी सिनेमा का भविष्य अभी उज्ज्वल है। बाजीराव की पत्नी की भूमिका में प्रियंका , चंचल , शोख , अल्हड़ नज़र आती है । पेशविन जो सदा उजालों के बीच रहती है परन्तु अपने गुरूर के टूटने पर उन्हीं उजालों को मिटा देना चाहती है और चिर इंतजार को ओढ़े हुए अंततः उसी पर विराम भी स्वंय लगा देती है। 
फ़िल्म में  आँखे पूरे समय दीपिका पर टिकी रहती है जो तमाम रस्मों, रवायतों के परे दीवानी होकर  सिर्फ़ प्रेम करना जानती है। रणवीर हर फिल्म के साथ एक पायदान ऊपर चढ़ते हुए नज़र आते हैं। बाजीराव जो युद्ध क्षेत्र में अजेय है परन्तु प्रेम औऱ परिवार के आगे हार गया है उसे निभाने में वह एक हद तक सफल साबित हुए हैं। 
<i>Bajirao Mastani</i> Movie Review


फ़िल्म के लिए बधाई उस निर्देशक को जो मस्तानी के  ही हाथों मस्तानी की तकदीर लिखवाता है , जो यह बताता है कि प्रेम में देह नहीं आत्मा का मिलन होता है वहाँ रिश्तों के बंधन औऱ मजहब की जंजीरे नहीं होती बल्कि प्रेम दरिया बन दो दिलों के बीच बहता रहता है।फिल्म अनेक  सवाल जेहन में पीछे छोड़ती चलती है कि  स्त्री की पहल जहाँ एक ओर मस्तानी को संवेदनात्मक स्तर पर शीर्ष पर पहुँचा देती है वहीं काशी के बारे में मन सोचता रह जाता है।  यह कदम अगर काशी ने उठाया तो पेशवा की पेशवाई किस तरह से होती ये बातें समय के गह्वर में है और समाज की प्रतिक्रिया तो  हम आप जानते ही हैं. 

पूरी फिल्म में जब दर्शक बाहर निकलता है तो साथ रह जाता है एक तुतलाया ख़ुदा हाफ़िज़ , उन सितारों की टूटन  जो अपनी तमन्नाओं की आरज़ू में खुद बखुद टूट जाते हैं , कुछ पत्तों की सरसराहट, संजीदा संगीत औऱ वक्त बेवक्त की बारिश। फिल्म वाकई उन मनःस्थतियों पर सटीक तंज कसती है जो मजहब की आड़ में  प्रेम को गेरूए की बज़ाय हरा और केसरिया रंगने में विश्वास करते हैं।

Monday, December 21, 2015

ज़रूरी है जड़ो की ओर लौटना...

                     

 जिसने तीन साल पहले मनुष्यता को तार तार किया था , आज वह फिर चर्चा मे है।  एक दहशत आज फिर हर दिल महसूस कर रहा है जो उस रात किसी एक ने महसूस की थी। एक माँ हताश है और रूँधे गले से कह देती है कि क्या यही इंसाफ है , आखिरकार जीत जुर्म की ही हुई औऱ मेरा संघर्ष एकाकी रह गया, हार गया। मूर्धन्य लोग बहस कर रहे हैं,  समाज के पैरोकार चिंतित है, माँग है कानून में बदलाव की औऱ कुछ नए कानूनों के निर्माण की । निर्भया के दुर्दांत अपराधी और उस कथित नाबालिग की रिहाई की ख़बर से सारा देश सकते में है। हर मन में एक गुस्सा है, ऐसे कृत्यों के प्रति आक्रोश है औऱ तीव्रता के चरम पर पहुँची थकी हुई पीड़ा है   । यही कारण है कि रातों रात एक नए कानून की माँग के स्वर भी सुने जा रहे हैं जो ऐसे वाकयों में निर्णायक भूमिका अदा कर सही मायने में न्याय दिलाएगा ! हम में  से ही कई लोग  अपराधी का चेहरा उजागर करने के भी पक्षधर हैं जो उस जघन्य कृत्य के लिए उत्तरदायी  था।  ये  कदम जो सम्भवतः उठा  लिए जाएँगें, कानून भी बन जाएँगे परन्तु ये तमाम जतन क्या उन दबे पाँव आने वाले अपराधों को रोकने में कारगर होंगें जो लगातार घट रहे हैं ,उस वीभत्स दिसम्बर के बाद भी । क्या ये कानून किसी ज्योति को निर्भया बनने से रोक पाएँगें? ये  सभी सवाल जो हमारे समक्ष मुँह बाएं खड़े हैं, वास्तविकता में बहुत चिंतन औऱ ठोस कदम उठाए जाने की माँग करते हैं। इसके समानान्तर जो दूसरी बात है जिसे  पीड़ित औऱ उसका परिवेश  निरन्तर भोगता है, उस दर्द की वाकई  कोई भरपाई नहीं है। वह सिर्फ़ कानून में सुधार का ही आकांक्षी नहीं होता वरन् इंसाफ भी चाहता है जो कि अविलम्ब उसे मिलना ही चाहिए।  आज एक ओर समाज को पहल कर कुत्सित मानसिकता में बदलाव को अहमियत देना होगा तो दूसरी औऱ कठोर कानून भी बनाने होंगें। वास्तविक प्रश्न यह है कि क्या केवल कानून अपराधों की रोकथाम कर सकता है  या समाज को भी अपनी निर्णयात्मक भूमिका में लौटना होगा? आज इन तमाम प्रश्नों पर जो कुत्सित अपराध औऱ सामाजिक विसंगतियों से जुड़े हैं ,केवल न्यायपालिका को ही नहीं वरन् हम सभी को भी मिल बैठकर सोचने की आवश्यकता है।  वास्तविकता में  चोट उस मानसिकता पर की जानी आवश्यक है जो इन घृणित कर्मों के लिए उत्तरदायी हैं। आवश्यक है कि ऐसे ठोस कदम उठाएँ जाएं कि ये घटनाएँ घटित ही ना हो। यहाँ बात एक नाबालिग के अपराध से जुड़ी  है,ज़ाहिर है यही बात सबसे अधिक चिंताजनक है।
आज हालात यह है कि संचार क्रांति औऱ आधुनिकता की बहती उच्छृंखल बयार में हर कोई बहता जा रहा है औऱ बचपन की नन्हीं कौंपले असमय वयस्क हो रही हैं। सही मायने में  आज वयस्कता की अवधारणा ही बदल गयी है। आज हर बचपन अपरिपक्व युवा मानसिकता को लेकर बढ़ रहा है। कहीं वह नशे की लत का शिकार हो रहा है, तो कहीं अपराध में लिप्त है । निश्चय ही ये तथ्य चौंकाएँगें पर यह सत्य है कि  नामी संस्थाओं के आँठवी- नवीं कक्षाओं के कई- कई छात्र आज अनेकानेक नशों के आदी हो चुके हैं। पाश्चात्य संस्कृति के मोह ने  और क्षणिक आनन्द प्राप्ति की चाह ने हर अस्तित्व को मिटाकर रख दिया है। हर तरफ एक उन्माद हावी है जो सिर्फं औऱ सिर्फ आत्मकेन्द्रित है। धैर्य , सहिष्णुता और सम्मान जैसे शब्द आज नवयुवाओं के शब्दकोश से नदारद  हैं। शिक्षा के अतिशय दबाव औऱ उन्मुक्तता ने उन्हें आक्रामक बना दिया है औऱ साथ ही तकनीक ने मुहैया करवाएँ हैं वे तमाम साधन जो इस आक्रामकता और अधैर्य को निरन्तर बढ़ावा दे रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी सोशल मीडिया की गिरफ़्त में है। इन्टरनेट पर उपलब्ध विकृत सामग्री उनके उन असहज भावों को बढ़ावा देते हैं जो कि असामाजिक है। टी.वी. और सोशल मीडिया सिर्फ देह के रिश्तों के इर्द-गिर्द ही कहानियाँ बुनते नज़र आते हैं। स्वस्थ हास-परिहास औऱ नैतिक शिक्षाओं का वहाँ पूर्णतया अभाव है। एकल परिवारों की अवधारणाओं औऱ माता –पिता दोनों के कामकाजी होने के कारण बचपन सिमट गया है। सिमटते बचपन से बेलगाम किशोरावस्था को जीते इस बचपन के अपने तनाव, दबाव व संघर्ष हैँ औऱ अपने-अपने कुरूक्षेत्रों में सिमटा बचपन आज एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त हैं।  वहाँ वे अनुभवी आँखें नहीं है जो उनकी हर ऊँच – नीच पर नज़र रख सकें। नतीजतन प्रकृति और अरण्यों से दूर होती यह पीढ़ी  असंवेदनशील हो रही  है।
 यह बात निःसंदेह भयावह परन्तु सच है कि हम एक निरंकुश औऱ उच्छृंखल समाज की ओर  अनवरत अग्रसर हो रहे हैं। युवा पीढ़ी पर जिस मानवीय और नैतिक अंकुश की वास्तविक दरकार है वह पूर्णतः नदारद है। ऐसी घटनाओं के घटने पर हम बात संस्कृति की करते  हैं पर कहीं ना कहीं  आधुनिकता के दंभ में हम भारतीय संस्कृति को बिसरा बैठे हैं, जिसमें संयम , त्याग औऱ ब्रह्मचर्य जैसे गुण बचपन से ही सिखाए जाते हैं। आज कोई  संस्कृति की बात करता है तो आधुनिकता की रौं में उसे दकियानूसी कहा जाता है परन्तु आज आवश्यकता उसी संस्कृति की तरफ़ लौटने की है। भारतीय संस्कृति बचपन से ही नैतिकता का पाठ सिखाती है। पृथ्वी औऱ संपूर्ण चराचर जगत में कौटूम्बिक अवधारणा को लेकर चलती है। यहाँ स्त्री और पुरूष में भेद नहीं वरन् अर्धनारीश्वर की अवधारणा के दर्शन कराए जाते हैं ,रिश्तों को स्नेह के नीर से सींचा जाता है और ब्रहमचर्य जैसे उदात्त विचारों से जीवन को उर्ध्वगामी बनाने पर जोर दिया गया है। यह सच है कि समाज में  अपराध सदा से रहे हैं परन्तु बढ़ती विवेकहीनता के कारण अब ये निरंकुश हो गए हैं। यही कारण है कि वर्तमान समाज में अनेक विकृतियाँ आ गयी हैं। आज शील और ब्रह्मचर्य जैसे रूपकों का मखौल उड़ाया जाता है परन्तु सही मायने में ये तत्व ही अनेक अपराधों  और विकारों को रोकने में महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। किसी घटना के घटित होने के पश्चात् उस पर चिंतन करने की बज़ाय हमें पूर्व में ही उसके रोकथाम हेतु एक दिशा तय करनी होगी । आज  हम सभी को नायक की भूमिका में आना होगा  जो इस युवा पीढ़ी को  बिखरते हुए देख चिंतित होने के साथ साथ उसका सजगता के साथ मार्गदर्शन भी करें । संयमित आचरण औऱ जीवन शैली  वे दो महत्वपूर्ण तत्व हैं जिनका हमें आज के बचपन और नवयुवापीढ़ी में निवेश करना होगा। सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे एप्स पर आज एक अंकुश की सर्वाधिक आवश्यकता है क्योंकि  मानसिक कुंठाओं  और यौन विकृतियों को यहीं से  बढ़ावा मिल रहा है । ठीक ही कहा गया है कि शक्ति को  उन्हीं हाथों में सौंपना चाहिए जो उसका सही उपयोग कर सके। ये युवा सूचना क्रांति के उपकरणों को महज़ एक मन बहलाव के साधन के रूप में ले रहे हैं। यहाँ उपजा आकर्षण उन्हें यथार्थ से दूर कर रहा है, नैतिकता से भटका रहा है, नतीजतन अपराध बढ़ रहे हैं।
  एक साझा जिम्मेदारी उठाते हुए अब पुरजोर आवश्यकता है वास्तविक घर वापसी की , अपनी जड़ो की ओर लौटने की क्योंकि बात उन असंख्य ज्योतियों की है जो जगमगाना चाहती है , बात हमारे समाज की है जिसकी रूग्णता को दूर किया जाना  आवश्यक है। बात उस विश्वास के पुनर्स्थापन की है जो आज भय में तब्दील हो गया है और सबसे ज़रूरी  बात है अपराधों को घटने से पहले ही रोकने की क्योंकि उसके बाद तो परवर्ती घटनाक्रम केवल और केवल एक बहस और विचारयात्रा का हिस्सा भर  हैं। 

चित्र- google से साभार
@vimleshsharma

Saturday, November 28, 2015

हर कहानी एक तमाशा !!


इम्तियाज की फिल्म देखना मतलब कुछ पुराने में नए की कल्पना करना। अक्सर यही लगता है कि वही तो है जो अभी बीती फिल्म में देखा था पर भीतर ही भीतर कुछ खदबदाता है ,कुछ कुलबुलाता है , यही खूबी है  उनकी हर कहानी में और यह फिल्म तो कहानी भीतर कहानी सी है। तमाशा!!!..मेरी ,तेरी और हर आम ज़िंदगी का तमाशा।

तमाशा शुरू करने से पहले इम्तियाज पर बात करना बेहतर होगा। चाहे रॉक स्टार हो या तमाशा इम्तियाज कहीं ना कहीं उस युवा पीढ़ी से जुड़ते हैं जो भीड़ में होकर भी तन्हां है। वे युवाओं के अवसाद और जीवन और उसके भीतर पलते प्रेम को इतनी मासूमियत से दिखाते हैं कि इस युवा के प्रति चुप से  दिल के किसी कोने में प्रेम उपज जाता है। हाँ ! यह बात तय है कि वे केवल और केवल नई पीढ़ी को ,उसकी कशमकश को उकेरने वाले लेखक और निर्देशक हैं। लव आजकल हो ,रॉक स्टार हो ,जब वी मेट हो या तमाशा प्रेम सबमें कॉमन है। वह प्रेम जो बरसात सा बरसता है और एक सौंधी महक छोड़ देता है जो बनी रहती है बारिश के बरसने के बाद भी पहले की ही तरह अपनी ही तरह अनूठी ,अकेली  और शब्दातीत.. 

तमाशा में वे एक ओर बालमनोविज्ञान की गहरी समझ उजागर करते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम पर वही सब पुराना दोहराते हुए भी सिर्फ और सिर्फ विश्वास पर, उसकी बुनियाद पर प्रेम की इमारत खड़ी करते हैं औऱ आश्चर्य कि यह बुनियाद झूठ पर है। कार्शिया के जादूई रंगीन तिलिस्म के बीच जो सबसे अधिक आकर्षित करता है वह है प्रेम का सच्चा औऱ निश्छल चेहरा और उन्मुक्त खिली हँसी,जो पहाड़ो सी विराट है औऱ नदी में बैखौफ डूबती है , यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि उजली हँसी के इस रूप को  अपने किरदार में उतारने में दोनों ही कलाकार निःसंदेह सफल हुए हैं। परन्तु इसके बाद जो घटता है वह विचारों का अकस्मात् फट पड़ना है। फैंटेसी और यथार्थ के ताने बाने में गढ़ी यह कहानी जहाँ एक मासूम बच्चे की कहानी सुनने की दीवानगी की हद को बयां करती है वहीं यह तथ्य भी उजागर करती है कि कहानियाँ सदा बदलती रही हैं। इसीलिए शायद यहाँ कहानी सुनाने वाला किरदार हर कहानी को बिना किसी पृष्ठभूमि के अपने मने मुताबिक बढ़ाता है। कहानी सुनाने वाला वो बाबा अनजाने ही उस बचपन को समय , काल औऱ इतिहास से दूर ले जाकर भी कहीं कुछ इतना अधिक जोड़ देता है कि युसुफ औऱ ईसु के किरदार एक हो जाते हैं।  पाँच रूपये में पूरी कहानी सुनने की उत्सुकता औऱ मासूम चाहत कहीं ना कहीं मुझे मेरे बेटे की याद दिला देती है औऱ मैं पूरी फिल्म में उसी की चाहत को शिद्दत से एक और बार जी लेती हूँ। 

तमाशा फिल्म में दीपिका कुछ औऱ खूबसूरत, अपने चरित्र में पगी हुई और रणबीर से कुछ अधिक सशक्त किरदार बनकर उभरती नज़र आती हैं वहीं मध्यांतर के बाद रणबीर अपनी भूमिका से कुछ जूझते नज़र आते हैं। यही समय फिल्म का भी कुछ कमजोर पक्ष साबित होता है।  पर हाँ फिल्म के ही वाक्य की तरह कमजोर पल सब का होता है बस आगे दिशा खुद को ही देनी होती है, कहानी का पाथेय बनती है। यह दर्शन यहाँ बार बार उभर कर आया है कि मृग मरीचिका सा यह जीवन जिसमें दिखता सब सोना है और होता मिट्टी है बड़ी ही खूबसूरती से दिखाया गया है। रिजेक्शन से उपजे दर्द और दिल के वास्तविक रंग और उसी की कहानी को शब्दबद्ध किया है इम्तियाज ने ।  इरशाद कामिल अपने शब्दों दूरियों की खूँटियों पर यादे टाँकिये से हर बार की तरह ही चौंकाते हैं। उनसे मिल चुकी हूँ इसलिए कह सकती हूँ उनकी सहजता  औऱ सादगी उनके लफ्जों में  भी है।


कुल मिलाकर तमाशा एक कामयाब तमाशा है,प्रेम का बेतहाशा बहता सोता है जिसे रोक पाना संभव नहीं। यह तमाशा किसी सरस कविताई की मानिंद युवा मन को कभी अपने बचपन की सैर कराने में तो कभी खुद  से ही खुद की मुलाकात कराने में सफल प्रतीत होता दिखाई देता है।  

इम्तियाज ने यह बखूबी बताया है कि हर वक्त में एक कहानी होती है । यहाँ हर इंसान की अलग अलग कहानियाँ है । क्राशिया की एक कहानी है औऱ एक कहानी दिल्ली की है। एक मीडियोकर के किरदार में अपनी विक्षिप्तता में अपने को ही पुनः खोजना चाहता है तो दूसरा हर पल एक नयी कहानी गढ़ता और जीता है। मेरा मानना है कि यहाँ इम्तियाज की लेखकीय चेतना अधिक सजग है और वह कहानी दर कहानी नजर आती है।  कहानी के मनोविज्ञान के माध्यम से वे ये बताने में सफल हो जाते हैं कि अपनी कहानी का रचयिता हर व्यक्ति स्वयं है। कोई किसी का आदर्श या पथ प्रदर्शक नहीं हो सकता क्योंकि हर व्यक्ति का जीवन और उसकी कहानी और उसके अनुसार उसका किरदार सर्वथा अलग है। यहाँ इसी बात को सिद्ध करने के लिए प्रेम दिखाया है परन्तु प्रेम कहीं नेपथ्य में है और उस पर हावी है कहानी का रचनाकार जो प्रेंम के ही माध्यम से अपनी कहानी को दिशा देता है।
                                                        
                                                                       -विमलेश शर्मा

Friday, November 27, 2015

बस्स बहुत हुआ...!!!

                                                             



अब यह लगने लगा है कि असहिष्णुता औऱ सहिष्णुता दोनों ही शब्दों पर  प्रतिबंध लगा देना चाहिए । गौर किया जाए तो  कहीं भी इन शब्दों का प्रयोग शुरू हुआ नहीं कि राजनीतिक दंगल शुरू हो जाता है। निःसंदेह यह दौर वैचारिक संक्रमण का है। हर शब्द के अपने मने मुताबिक अर्थ गढ़ लिए जाने लगे हैं हर कोई अथाह समन्दर से ह्रदय को सीमित कर मानो किसी गहन कंदरा में बैठ गया है ,  कि बाहर कोई शिकार मिला नहीं कि राजनीतिक उठापटक शुरू । बकौल सागरिका घोष नवम्बर का महीना है पर यहाँ मार्च हो रहा है, सच भी है। असहिष्णुता के खिलाफ मार्च,सद्भावना मार्च और पुरस्कार वापसी मार्च और पुरस्कार वापसी के विरोध में मार्च। लोगों की चिंता यह भी है कि देश की छवि विश्व में कैसी बन रही है। मेरा सीधा सीधा प्रश्न है कि क्या कोई चिंतित है कि उन सभी घटनाक्रमों से देशवासियों के मन पर क्या असर हो रहा है। पक्ष, प्रतिपक्ष आरोप लगा रहे हैं, बयानबाजी कर रहे हैं परन्तु देश की वास्तविक समस्याओं से दोनों ही पीछे हट रहे हैं। हालांत यह है कि कहीं कोई अपनी बात कह दे तो शोर मच जाता है। हर कोई सब कुछ खुली आँखों से देख रहा है, सुन रहा है। परन्तु यह शाश्वत राजनीतिक परम्परा रही है कि वाक्यों को तोड़ा जाए औऱ चंद रूपबंधों पर ध्यान केन्द्रित कर विषय से भटकाया जाए। नवम्बर का यह महीना इन शब्दों के प्रयोग से ज़रूर असहिष्णु हो गया है। भीड़ सदा रही है, उन्माद सदा रहा है औऱ ऐसी प्रतीकात्मक घटनाएँ भी..हाँ वह वर्ग इस उन्माद से कुछ अधिक आहत हो सकता है जिसने यह सब कुछ सहा है। फिर चाहे वह स्त्री हो, दलित हो या फिर सम्प्रदाय विशेष। आज क्यों हम फिर सम्प्रदाय की दीवारें खड़ी कर रहे हैं। सब कुछ ठीक हो सकता है अगर मिल बैठकर कुछ विचारों को सुन लिया गया। एक दूसरे पर गोली दागने की बज़ाय देश हित में कुछ ज़रूरी फैसले ले लिए जाए। एक तरफ फ्रांस में आतंक सर उठाता है तो वहाँ  पूरा देश,सरकार , पक्ष प्रतिपक्ष सब एक साथ खड़े नज़र आते हैं। मानवता को बचाए रखने के उनके प्रयासों से पूरे विश्व में उनके लिए एक सम्मान भाव उपजता है। इस दृष्टिकोण से यहाँ कुछ राहत है कि ऐसा कुछ यहाँ नहीं घटा है पर फिर भी अगर ऐसी कुछ क्षति हो तब भी शायद नेतृत्व और विपक्ष एक दूसरे पर विश्वास बनाए बगैर यहाँ खिलाफत आंदोलन ही करेंगें, यह तय मानिए।
हम अगर बीमार हैं तो बीमारी के इलाज खोजें जाहिर सी बात है कि घर में तनाव है तो जिम्मेदार तो सिर्फ और सिर्फ घर के ही लोग हैं। ऐसे में हम माहौल सुधारने की कोशिश करें तो श्रेष्ठ होगा। तथ्यों और तर्कों से किसी भी खबर की सत्यता को जाँचे ना कि उस पर आँख मूँद कर विश्वास कर लें।  सहिष्णुता और असहिष्णुता के शब्दजाल में आज हर कोई फिसल गया है। सत्यता है कि सभी विरोधियों की मंजिल एक ही हैं बस उन्होंने राह कुतर्क की चुन ली है। नेतृत्व मन की बात भले ही जगजाहिर करें परन्तु उसे सम्वेदनशील मुद्दो पर मौन रहने की नीति से बचना होगा।कारण कि इस व्यथित मन के मौन ने तो वैसे भी लम्बे समय तक परेशान किया है। अब संवाद को अपनाना होगा। खुल कर बात करनी होगी। देश को भीतरी मसलों पर एकजुट होकर यह दिखाना होगा कि भारत अब भी सूरज औऱ चाँद को एक ही हथेली पर लेकर चलने वाला देश है। यहाँ कि विविधता और विभिन्न सम्प्रदाय ही यहाँ की विशेषता ही नहीं ताकत भी है। यहाँ धार्मिक सद्भाव है औऱ भक्ति, ज्ञान और नीति की त्रिवेणी से हर मन सराबोर है। आज सबसे अधिक जिम्मेदारी वैचारिक पक्ष और राजनीतिक कदमों की हैं। इन्हें अब देश के लिए एकजुट होना होगा। देश को सही राह दिखानी होगी। जनता को विश्वास दिलाना होगा कि सब कुछ वैसा ही है जैसा सदियों से चला आ रहा है। भीड़ को व्यक्तिगत सोच प्रदान करनी होगी नहीं तो कहने को तो बगदादी भी भीड़ के मनोविज्ञान से खेल ही रहा है। यहाँ सिर्फ इतना बदलाव होगा कि खेल आज कोई रहा है औऱ कल कोई और खेल रहा होगा। आज हर कोई अपने को सिकन्दर समझ रहा है। जरा सा विरोध होते ही सीधे सीधे दूसरे को देशद्रोही होने का तमगा दिया जा रहा है। इन स्थितियों पर  अब गौर करने की ज़रूरत है। देखा जाए तो सोशल मीडिया आज निर्णायक की भूमिका में नजर आने लगा है। यहाँ जितनी अधिक अभद्र भाषा का प्रयोग और असहिष्णुता फैली है औऱ कहीं नहीं।
आज आवश्यकता है समरसता को स्थापित करने की, स्वयं के साथ – साथ औरों के अस्तित्व को भी स्वीकारने की और अपनी बात को सलीके से और सतर्क कहने की कला को विकसित करने की। हर देश और समाज में बहुत कुछ घटता है। कभी बाहर तो कभी भीतर, कोरे आदर्शवाद की कल्पना करना महज़ दिवास्वप्न देखने जैसा है। यहाँ का हर नागरिक प्राथमिक है यही विश्वास आज पक्ष और प्रतिपक्ष को आम जनता को देना होगा। भारत सदैव अपनी विलक्षण नीतियों से विश्व का सिरमौर रहा है, वह आज भी है इसमें कोई दोराय नहीं। बस इस नवम्बर में कहीं कुछ गड़बड़ी हो गई है। नवम्बर बीत रहा है और दिसम्बर दस्तक दे रहा है ऐसे में आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि बाहर शीत होने के बावजूद भीतर  बहुत कुछ पिघल जाएगा।


http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/7374143




Tuesday, September 29, 2015

धर्म के सिंहगढ़ में स्त्री सैंध




धर्म उस अवधारणा का नाम है जो चेतना को परिष्कृत करती है, मनुष्य को मनुष्य गढ़ती है और घोर एकाकी क्षणों में एक सम्बल प्रदान करती है परन्तु समय के साथ साथ इस अवधारणा में बदलाव आया है। कहीं निजी स्वार्थों ने , कभी किसी वर्ग विशेष के आधिपत्य ने, धर्म के मानकों , मान्यताओं को अपने मन मुताबिक बदला है। कभी किसी धार्मिक विचारधारा ने स्त्री को धर्म के गढ़ों से बाहर धकेला तो कभी किसी वर्ग विशेष को। बोद्ध धर्म की हीनयान और महायान शाखाओं से लेकर हिन्दू ,जैन औऱ शरीअत में आए बदलावों  के अनेकानेक उदाहरणों से यह बात स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है।  धर्म के प्रति अंधश्रद्धा के बढ़ जाने के कारण ही साहित्यकारों ने इसे अफीम की संज्ञा से भी नवाज़ा है। धर्म में जब भ्रम का समावेश हो जाता है तो वह व्यक्ति चेतना को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में कर लेता है। आज विज्ञान और शिक्षा के युग में जब हम धर्म के विकृत रूप को देखते हैं तो चौंकते हैं, हतप्रभ होते हैं और ऐसे अविश्वसनीय प्रसंगों पर अफसोस जताते हैं। वर्तमान में जब धर्म को तोड़ने मरोड़ने के इन प्रसंगों में जब अनेक बाबाओं औऱ ढ़ोंगी संतों का बोलबाला है तब अनेक संन्यासिनें भी धर्म औऱ धर्म के इस वीभत्स सिंहगढ़ में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। आखिर क्या कारण है कि ऐसे तथाकथित प्रसंग सामने आते हैं , जो कुछ दिनों तक तो मीडिया में भी छाए रहते हैं और फिर अचानक कहीं खबरों के जंजाल में गुम हो जाते हैं। अगर भ्रमित जनता की बात की जाए तो शायद ये तथाकथित अवतार और धर्मगुरू उनकी मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों की पूर्ति करते हैं। मनुष्य परिस्थतियों का दास है और व्यक्ति वस्तुतः भावनाओं के सहारे जीता है ,उठता है और गिरता है । कुछ व्यक्ति विपरीत परिस्थतियों में सम्भलना जानते हैं तो कुछ टूटकर बिखर जाते हैं। इसी बिखरन और दरकन को समेटने का काम करते हैं ये धर्मगुरू।  आज धर्म औऱ तत्काल शांति की आश्वस्ति देने वाली ये तेज चकाचौंध की ऊँची दुकानें ऐसे शिकार ढूँढती है जो भावनात्मक रूप से आहत है क्योंकि सिर्फ वहीं ये अपना प्रभाव छोड़ सकते हैं। राधे माँ औऱ कृष्ण के ये तथाकथित अवतार अपने भव्य औऱ अलौकिक दर्शन से आम जनता को स्वर्ग की अनुभूति कराते हैं क्योंकि स्वर्ग की मानसिक उपस्थिति सदा ही भव्य रही है औऱ उसी स्वर्ग की आड़ में ये अपना कारोबार चलाते हैं। बात चाहे आसाराम की की जाए या रामदास की या फिर राधे माँ की सबमें एक समानता है कि सबके असंख्य अनुयायी है और जब कभी भी इन पर कोई आँच आती है तो ये भक्त ही उनके रक्षाकवच बन कर खड़े हो जाते हैं। बात अगर कुछ लोगों के माध्यम से उठायी भी जाती है तो उसे दबा दिया जाता है। यहाँ यह बात समझ से परे है कि अगर कोई वाकई धर्म में गहरे पैठा है , आध्यात्मिक सरोकारों को जीता है तो उसे खुद को सिद्ध करने के लिए आत्म प्रचार की कहाँ जरूरत है और आखिर यह कैसा धर्म है जो सिर्फ विलासिता को जीता है, जहाँ संस्कृति औऱ मूल्यों का कोई स्थान नहीं है औऱ धर्म की ही आड़ में जनता को ही शोषित किया जाता हो। जब वास्तविक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की बात आती है तब भी ये गैरजिम्मेदार बयानबाजी से अपनी मूढ़ता प्रदर्शित करने में पीछे नहीं रहते हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब सेलिब्रटी कहा जाने वाला और बुद्धिजीवी वर्ग भी इनके समक्ष नतमस्तक होता है। सरकारें इनके द्वार पर होती है और धर्म के इनके गोरखधंधे पर मौन साधे रहती हैं। आज के ये हाईप्रोफाइल संन्यासी भक्तों को सम्मोहित करने में महारथी होते हैं , भक्तों पर अपार स्नेह की वर्षा करते हैं औऱ भक्त उन्हें बदले में अकूत दान देते हैं।

करोड़ो के भूस्वामी रहे संत ही अब अकेले इस मायावी साम्राज्य के मालिक  नहीं है वरन् अनेक मायावी संन्यासिनें भी इस पनघट की स्वर्णिम डगर का रूख किए हुए हैं। आनन्दमूर्ति , अमृतानंदमयी और मदर मीरा जैसी साध्वियाँ तो अब तक थी ही परन्तु अब स्वघोषित राधे अवतार भी हमारे समक्ष है जो अभी तक प्राप्त प्रसंगों के अनुसार पूरी तरह ढोंगी नजर आता  है। यह अवतार स्वच्छंद है , उन्मुक्त है,  और स्वंय को  तमाम सीमाओं से परे रखने का पक्षधर है। ये माँ आज अचानक उठे विवादों से यूँ सुर्खियों मे भले ही आयीं हों परन्तु इनका अस्तित्व कई वर्षों से हैं। इनकी भव्यता और इनके स्थलों पर हजारों लोगों की मौजूदगी इनकी महिमा को उजागर करती है। आखिर क्या कारण हैं कि एक तरफ हम 21 वीं सदी के मुहाने पर खड़े होकर प्रगतिशील सोच रखने का दावा पेश करते हैं औऱ दूसरी ओर हमारी भोली जनता इन पाखण्डों में पिसती नजंर आती है। वस्तुतः ये कारोबारी लोगों की भावनाओं का शोषण कर  अपना व्यासायिक दोहन करते हैं। चमत्कारी सम्मोहन और मिथकों के सहारे ये लोगों पर अपना विश्वास जमाते हैं और जब मुख्यधारा के औऱ प्रभावशाली लोग इनका अनुसरण करने लगते हैं तो अन्य भी उसी भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। आम व्यक्ति संघर्षों से रोज दो चार होता रहता है वहीं ये अवतार किसी परी के मानिंद आकाश से उतरते हैं औऱ सम्मोहन और चमत्कार की सृष्टि से युवाओं को अपने वैभव की तरफ खींचते है । बात सिर्फ यही नहीं है आश्चर्य तो तब होता है जब इनके कारनामें सामने आते हैं तो प्रतिरोध के स्वर भी बहुत हल्के और मद्दम नज़र आते हैं। बात अगर हालिया मुद्दे की ही की जाए तो यहाँ आम जनमानस की आपत्ति धर्म के भौंडे प्रदर्शन को लेकर औऱ आस्था के खंडित होने की नहीं है वरन् आपत्ति यह है कि उस महिला ने क्या पहना है और किस हिसाब से उसका रहन सहन है। यहाँ प्रयास इस धार्मिक दुश्प्रचार को रोकने का ना होकर उसकी निजी जिंदगी में झांकने का हो रहा है। हमारी मीडिया ने  भी यूरेका यूरेका की ही तर्जं पर  यह भी खोज निकाला है कि कितने वर्ष पहले उसकी आजीविका का स्रोत क्या था। क्या ये सब मुद्दे और छिछला प्रतिरोध हमारे मानसिक पिछड़ेपन का सूचक नहीं है। धर्म में उतर आए इस अनैतिकवाद पर धर्म में भी क्या केवल और केवल पुंसवादी सोच हावी नज़र नहीं आती । सोशल मीडिया आज वैचारिक बहस औऱ प्रतिक्रिया का त्वरित माध्यम है मगर वहाँ भी आयी प्रतिक्रियाँएँ हतोत्साहित करती है औऱ दुख होता है कि वहाँ भी इस अनाचार पर कोई बात ना होकर बात स्त्री को लक्ष्य करके कही जा रही है। वहाँ अमर्यादित आलोचनाओं का अंबार लगा हुआ है। कहीं वास्तविक विषय और चोट यह तो नहीं हैं कि धर्म की इस कालाबाजारी के व्यवसाय में इन तथाकथित स्त्री अवतारों के आगमन से धर्म के ठेकेदार औऱ पुरूष अवतार खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं ?  प्रश्न बहुत से हैं पर इनके जवाब हमें स्वंय ही ढूँढने होंगें कि आखिर हम लोग जिनका अनुसरण कर रहे क्या वाकई वो हमारी इस पाक श्रद्धा और विश्वास के वास्तविक हकदार हैं? हमें स्वंय जागरूक होने के साथ ही समाज को जागरूक करने के प्रयास करने होंगे जिनसे हमारी सांस्कृतिक विरासत अक्षुण्ण बनी रहे और हम अंधविश्वासों से ऊपर उठ सकें।

Saturday, September 26, 2015

सांस्कृतिक धरोहरों के प्रति सजगता ज़रूरी

             

मानव मन सदा से प्रकृति का साथ चाहता है इसीलिए तमाम व्यस्तताओं से बचकर वह जा पहुँचता उस छाँव में जहाँ वह खुद को पुनर्ववा कर सकता है। इस प्रक्रिया में वह कभी नदियों को जीता है ,कभी पर्वतों को लांघता है तो कभी मरूस्थलों को टोहता है। जिस तरह शब्दों का आलोडन ,विलोडन चेतना को झंकृत करता है उसी तरह ऋतुओं का नर्तन और ऐतिहासिक स्थापत्य मन को वीतरागी तो कभी मयूर कर देता है।  पर्यटन खुद से पुनः पुनः जुड़ने का अवसर तो है ही साथ ही सांस्कृतिक धरोहर और विरासत से जुडने का मौका भी। भारत का पर्यटन और स्वास्थ्यप्रद पर्यटन मुहैया कराने की दृष्टि से विश्व में पाँचवा स्थान है। भारत जैसे विरासत के धनी राष्ट्र के लिए पुरातात्विक विरासत केवल दार्शनिक स्थल भर नहीं होती वरन् इसके साथ ही वह राजस्व प्राप्ति का स्रोत और अनेक लोगों को रोजगार देने का माध्यम भी होती है। भारत में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें अनेक प्रयास कर रही हैं परन्तु कई स्थानों पर हालांत चिंताजनक हैं। पर्यटन के संदर्भ में अगर हम राजस्थाल की बात करें तो यह प्रदेश भारत के मानचित्र पर प्रमुखता से उभरा हुआ नज़र आता है। यहाँ सांझ के दूरस्थ सीमांत पर रेत के टीलों पर सोने सी चमकती हवेलियाँ हैं तो सिंह की सी गर्जना सा ओज लिए नाहरगढ़ जैसे किले। धोरों की इस धरती पर कहीं महल हैं ,कहीं छतरियाँ तो ,कहीं अपने यौवन पर इठलाती झीलें परन्तु कहीं ना कहीं इनकी एक उपेक्षा सी जान पड़ती है।  राजस्थान का लगभग हर जिला ऐतिहासिक धरोहरों से संरक्षित है परन्तु सवाईमाधोपुर, मेड़ता,नागौर और चित्तौड़ जैसे महत्वपूर्ण स्थान आज रख-रखाव और यथेच्छ संरक्षण के अभाव में सभ्यता के ध्वंश अवशेष में बदलने की ओर अग्रसर है। चित्तौड़गढ़, कुम्भलगढ़ और प्रतापगढ़ जिलों में अनेक ऐसे गहन कानन और रम्य स्थान है जिन्हें पर्यटन स्थानों के रूप में विकसित किया जा सकता है। ऐतिहासिक नगरी मेड़ता जहाँ मीरा जैसी भक्तिन और स्त्री  प्रतिरोध का स्वर उत्पन्न हुआ था आज सर्वथा उपेक्षणीय है। वहाँ पर जर्जर अवस्था में खड़ा मीरा महल अपनी दुर्दशा पर स्वयं रोता हुआ नज़र आता है। हालांकि एक संग्रहालय बनाकर औऱ अनेक शिलालेखों पर तत्कालीन इतिहास और मीरां के पदों को उकेरने का प्रयास किया गया है जो वरेण्य है परन्तु पुरातन की उपेक्षा और उसे खत्म होते देखते जाना पीड़ा का विषय है। हाल ही में एक खबर ने बताया कि बारिश से जैसलमेर की हवेली में पटवा की हवेली की छत गिर गई है। ये खबरे इंगित करती है कि सभ्यता और संस्कृति की इन धरोहरों को वाकई संरक्षण की दरकार है।
राजस्थान में अरावली, विंध्याचल व मालवा के पठार उपस्थित हैं, जिनके बीच स्थित जंगल में जैव विविधता का संगम होता है, अनेक प्राकृतिक और शांत स्थल है जिन्हें पर्यटन स्थलों की भाँति विकसित कर इन स्थानों का संरक्षण और जनता को इसकी विरासत से परिचित किया जा सकता है। राजस्थान में कुम्भलगढ़ और चित्तौड़गढ़ के इर्द-गिर्द ऐसे अनेक स्थान है जो अभी भारत  के पर्यटन मानचित्र पर उभर भी नहीं पाए हैं। कई झीलें जिनमें अजमेर की आनासागर झील जैसी महत्वपूर्ण झीलें भी है सीवेज का संग्रह भर होकर रह गई है। कई बार तो हालात इतने विकट हो जाते हैं कि दुर्गंध के मारे इन के अस पास से गुजरना मुश्किल हो जाता है। हालांकि देश और विदेश की कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं के माध्यम से इसे बचाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं पर हालांत अभी भी विकट है।
राजस्थान में अरावली पर्वतमाला का अवैध खनन और ऐतिहासिक धरोहरों के आस पास की जमीन पर अवैध स्वामित्व जैसी घटनाएँ भी चिंता का विषय हैं।  कई ऐतिहासिक स्थान हरियाली के अभाव बीहड़ स्थानों में तब्दील हो गए हैं और अनेक अपराधों की शरणस्थली बन गए हैं। पेड़- पौधों की अवैध कटाई प्रतापगढ़ जैसै हरे भरे जिले को भारी नुकसान पहुँचा रही है। पेड़ो की इस अवैध कटाई के चलते जहां शहरों में पेड़-पौधे कम हो रहे हैं वहीं जंगल भी घट रहे हैं और स्वास्थ्यपरक वातावरण का भी ह्रास हो रहा है । आज दरकार है सरकार और आम जनता दोनों को अपने दायित्व बोध के प्रति सजग होने की और  अवैध कटाई पर रोक लगाकर पेड़-पौधों के संरक्षण की महती अन्यथा प्रदेश के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पर्यावरण पर भी इसका विपरित प्रभाव पड़ेगा।  आज प्रदेश में जयपुर, जैसलमैर और उदयपुर जिलों में अनेक पर्यटक आते हैं । इसी तर्ज पर अगर हर जिले मुख्यालय और उसकी धरोहरों की और ध्यान देते हुए यदि ठीक तरह से कार्य योजना बना कर ऐतिहासिक स्थलों को सहेजने का प्रयास किया जाए तो इन पर्यटकों को अनेक अन्य जिले के पर्यटन स्थलों की ओर भी आकर्षित किया जा सकता है। इसके लिए  जिला मुख्यालयों पर पर्यटन सूचना केन्द्र बनाए जाने की ज़रूरत हैं। वहीं पर्यटकों के आने-जाने के लिए सड़क मार्गों  को दुरूस्त करने और हर जिले को रेल मार्ग से जोड़ने की आवश्यकता है। राजस्थान के कई  जिले पारिस्थतिकी पर्यटन केन्द्रित जिले हैं । वर्तमान में इन इको ट्युरिज्म सेंटर के प्रति भी लोगों का रूझान और जागरूकता कम है। अतः आवश्यकता है कि पारिस्थतिकी पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए घनी वादियों, जंगलों ,सघन पेड़ों और शहरों से दूर वनों में पारिस्थतिकी केन्द्र बनाए जाए जिससे लोगों में इनके प्रति जागरूकता पैदा हो। साथ ही इनका व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार भी किया जाना आवश्यक है क्योंकि परिचय के अभाव में लोग यहां नहीं आते हैं जबकि यहां आकर प्रकृति के अद्भुत सौन्दर्य का आनंद लिया जा सकता है।
राजस्थान की ज़मी पर अनेक अभ्यारण्य और राष्ट्रीय उद्यान है,साथ ही अनेक जैव विविधता वाले स्थान है अगर पर्यावरणीय दृष्टि से इन्हें सहेजा जाए तो कई स्थान वैश्विक धरोहरों की बराबरी भी कर सकते हैं। आज जरूरत है सबसे पहले एकजुट होने की औऱ पर्यावरण के प्रति सजगता दिखाकर उसके प्रति एक सनातन दृष्टि विकसित करने की । फोग लकड़ी और अरावली के अवैध खनन को रोकने और वंसुधरा को ओर हरियल करने की कोशिश करने की जिससे वाकई यह धरती धानी चूनर औढ़ कर पधारो म्हारे देश की उक्ति को वास्तविक रूप में चरितार्थ कर सके। यहाँ साल, आम ,गुर्जन ,अमरूद ,बरगद, जामुन सुर्ख फूलों से लदे ढाक वृक्ष बहुतायत से मिलते हैं। परन्तु प्राकृतिक चक्र के अंसुतिलत होने और मनुष्य की स्वार्थपरता के कारण आज इनका क्षेत्रफल सिमट रहा है। अतः सभी को एकजुट होकर वृक्षारोपण अभियान को जीवन में उतारना होगा नहीं तो आने वाली पीढ़ी इस प्राकृतिक धरोहर और संपदा से विमुख हो सकती है। अगर हमने सहेजने की सामाजिक जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लिया तो कई प्राकृतिक दृश्य और कल कल करते झरने उनके लिए किसी पुस्तक के चित्र भर रह सकते हैं। आज ज़रूरत है ऐसे कानून बनाने की जिनसे महस्वपूर्ण प्राकृतिक स्थल कचरे के ढेर में बदलने से रूक सकें।

रजवाड़े औऱ दरबारों की भव्य परम्परा राजस्थान की विरासत है। आमेर की ही तर्ज पर आज हर किले को पर्यटन और आम जनता से  जोड़ने की ज़रूरत है जिससे यहाँ का हर बच्चा बच्चा और आने वाले सैलानी यहाँ की विरासत और संस्कृति के उन अनछुए पहलूओं से परिचित हो सके जो कभी प्रकाश में नहीं आ पाए। वस्तुतः पर्यटन रोजगार के नाना अवसर भी प्रदान करता है । अगर किसी क्षेत्र विशेष को पर्यटन की दृष्टि से बढ़ावा मिलता है तो वहाँ के स्थानीय नागरिकों को भी उससे लाभ मिलता है। रजवाड़ो के साथ –साथ राजस्थान में जन जातियों का भी बाहुल्य रहा है। यहाँ भील , मीणा, गरासिया जनजातियों के लोक नृत्य और संस्कृति खासा लोकप्रिय हैं । चाहे घूमर हो या कालबेलिया सभी ने विश्व स्तर पर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है। प्राकृतिक, स्थापत्य और संस्कृति के इन आकर्षण के केन्द्रों को अगर प्राथमिकता में रखकर इनके विकास की ठानी जाए तो पर्यटन के क्षेत्र में मरूधर देश के स्वर भी वैश्विक स्तर पर गूँज कर अपनी एक विशिष्ट पहचान बना सकते हैं।

Sunday, September 6, 2015

बुनियादी शिक्षा के ज़रूरी सवाल!!!

                      

                                                                                                                                 
शिक्षा अर्थात् वह तंत्र जो हमारे चिंतन में बदलाव लाता है , हमें जागरूक बनाता है ,जीवन के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करता है  और जिदगी को कुछ आसान बना देता है परन्तु इस महती उद्देश्य को भूल आज यह तंत्र अनेक विसंगतियों का शिकार हो गया है। निजीकरण , निजी स्वार्थ और दोषपूर्ण राजनीति वे कारक हैं जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अनावश्यक घुसपैठ कर हमाने भविष्य को अंधकारमय बनाने में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी है। आज सामूहिक नकल के मामले हो या वरीयता सूची में किसी एक संस्थान के छात्रों के स्थान पाने जैसे मामले ये सभी हमारे शिक्षा तंत्र की कमजोरी को ही बयां करते हैं। आज सरकारी विद्यालयों में नामांकन निरन्तर गिरता जा रहा है। कहीं पर योग्य शिक्षकों के अभाव में तो कहीं जागरूकता के अभाव में आज शिक्षा हाशिए पर चली गयी है। एक तरफ  निजी तंत्र है जहाँ शिक्षा को केवल सतही रूप से अपनाकर ट्यूशन संस्थान खड़े करने का व्यवसाय चलाया जा रहा है तो दूसरी तरफ हमारे श्रेष्ठ मानव संसाधन अनेकानेक समस्याओं और गिरते नामांकन स्तर की परेशानियों को झेलने हेतु विवश हैं।  इसमें कोई दोराय नहीं है कि स्वतंत्र भारत में शिक्षा का विस्तार हुआ है परन्तु इसके विकास के सूचकांक को देखा जाए तो स्थिति चिंतनीय नजर आती है। राजेन्द्र प्रसाद का कथन है जिसमें ए.पी .जे कलाम के विचार भी समावेशित हैं कि  हमें केवल राष्ट्र  की अखण्डता ही सुरक्षित नहीं रखनी है वरन् हमें हमारी सास्कृतिक धरोहर और परम्पराओं को भी शिक्षा के माध्यम से सहेजना है। यह महनीय और महत्वपूर्ण काम हमारे ही कंधों पर है। इनके साथ ही हम आज 21 वीं सदी में जी रहें तो हमें विज्ञान औऱ तकनीक के भी साथ चलना होगा। लेकिन बात अगर बुनियादी शिक्षा की ही करे तो ये सारे ख्वाब दिवास्वप्न से लगते हैं । हमारे देश का विकास आने वाली पीढ़ी के कंधों पर है और वही जब अपरिपक्व होगी तो देश पिछड़ जाएगा। गरीबी और अंधविश्वास जैसी समस्याएँ तो है ही पर आज सरकारी तंत्र की विफलता के अनेक तात्कालिक कारण भी बुनियादी शिक्षा में दीमक की तरह लग गए हैँ औऱ यही कारण है कि हमारे नोनिहालों का भविष्य अँधेरें में है।  आज लगभग सभी प्रकार की मूल्यांकन प्रणाली और परिक्षाएँ जाँच के घेरे में हैं।  आज ऐसे ऐसे वाकये घटित हो रहे हैं कि मन क्षुब्ध हो उठता है।  मूल्यांकन पद्धति और प्रक्रिया से जुड़े हाल ही के प्रकरण हमारी चिंताओं को बढ़ाने वाले हैं। यह दोषपूर्ण पद्धति हताश नौजवानों की भीड़ खड़ा कर रही है पर आँकड़े सदा की ही तरह कुछ और बयां करते है।आँकड़ों की बात करें तो पिछले एक दशक में साक्षरता की दर में हमारे देश ने उल्लेखनीय प्रगति की है परन्तु महज कागजी आँकड़ों से देश का भविष्य नहीं निर्धारित होता है। आज जो यक्ष प्रश्न है कि आखिर क्यों बुनियादी शिक्षा उतने प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पा रही है जितनी की उसे दरकार है। यह प्रश्न केवल शिक्षा और अशिक्षा का ही नहीं है  वरन् लाखों वंचितों और शोषकों के सम्मानपूर्वक जीवनयापन से भी सम्बन्धित है अतः अगर हमारा लोकतंत्र शिक्षा के गिरते स्तर से आँखें मूँदे रखता है तो यह निश्चय ही संवेदनाहीन और आत्मघाती होगा। बुनियादी शिक्षा की नींव कमजोर रहने से छात्र माध्यमिक औऱ उच्च माध्यमिक स्तर पर भी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते है । अभिभावकों की अपेक्षाओँ पर खरा नहीं उतरते हुए और प्रतिस्पर्धा के युग में स्वयं को पिछड़ा हुआ पाकर कई बालक अपना आत्म विश्वास खो  बैठते हैं। एक अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। यह स्थिति अत्यन्त शोचनीय है।
आज विद्यार्थी के समक्ष बहुत चुनौतियाँ है। अभिभावकों की असीमित इच्छाओँ का बोझ उन पर है औऱ इस बोझ तले उनका बचपन कहीं खो गया है। वास्तविक प्रतिभा आज हाशिए पर पड़ी है क्योंकि उसकी मेहनत का प्रतिफल निजी स्वार्थों की भेंट चढ़ रहा है। यही बालक उच्च शिक्षा में पहुँचकर बिल्कुल टूट जाते है। क्योंकि वहाँ कि स्थितियाँ औऱ भी अधिक विकट है। जहाँ फर्जी डिग्रीयाँ रोजगार मुहैया की साधन बनती है वहाँ प्रतिभा की पूछ स्वतः ही गौण हो जाती है। ऐसे विसंगतियों से उपजे वाकये  मन को खिन्न कर देते हैं। हालांकि स्थितियाँ सब और ऐसी नहीं है। आज भी सरकारी क्षेत्रों में कई ऐसे शिक्षक मौजूद है जो पूरे समर्पण और निष्ठा के साथ अपनी कर्मठता के साथ छात्रों का भविष्य संवारनें में लगे हैं परन्तु उनका प्रतिशत बहुत कम है।
भातीय चिंतन कभी भी केवल बौद्धिक व्यायाम भर नहीं रहा है। यहाँ के गुरूकुल जीवन के गहन सूत्रों को व्याख्यायित करने वाली प्रयोगशालाएँ रही हैं। परन्तु आज के संदर्भ में देखा जाए तो जहां एक ओर शहरी बालक केवल और केवल किताबी ज्ञान को रट रहा है औऱ तकनीक का गुलाम बन रहा है वहीं ग्रामीण विद्यार्थी हर तरह की सुविधाओं से वंचित रहकर अपना भविष्य गुमनामी में धकेलने को अभिशप्त है। यह कटु सच है कि कई विद्यालयों में अब भी शैक्षणिक गतिविधियाँ नहीं के बराबर है ,पाठ्यक्रम में अरसे से कोई बदलाव नहीं हुआ है, राजनीतिक हस्तक्षेपों से नियुक्तियाँ प्रभावित हो रही हैं और परिणाम तय हो रहे हैं। ये सभी ही वे वास्तविक कारक हैं जो शिक्षा के स्तर को गिरा रहे हैं। बढ़ता निजीकरण शिक्षा की सहजता को निगल रहा है। ग्रेड सिस्टम गला काट प्रतिस्पर्धा को जन्म दे रहा है तो वहीं पक्षपाती परिणाम प्रतिभा का हनन कर रहा है। सामूहिक नकल जैसे मामलों में अभिभावक भी उतने ही दोषी है जितना की स्कूल प्रशाशन। लोकतंत्र के समक्ष शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की अनेक चुनौतियाँ है । आज आवश्यकता है रोजगारपरक शिक्षा के साथ साथ ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जो उच्च मानवीय  गुणों की व्यवस्था की स्थापना कर सके। इस हेतु सरकारी तंत्र में आमूलचूल बदलाव लाने होंगें। कागजी कार्यवाही और दिखावी अभियानों के परे  वास्तविकता के धरातल पर उतरकर जमीनी आवश्यकताओँ की पूर्ति करनी होगी। बेहतर संसाधन उपलब्ध करवाने होंगें आज भी ऐसे विद्यालय है जहाँ पीने का साफ पानी, बैठने की सुविधाएँ और शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाएँ नहीं उपलब्ध है।  कहीं विद्यार्थी हैं तो कहीं शिक्षक नहीं जैसी स्थितियों ने शिक्षा का मजाक बना कर रख दिया है।  आज दरकार है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीतियाँ  शिक्षा की व्यावहारिकता पर काम करें । वे  किसी विचार धारा से प्रभावित ना होकर मानवीय विश्वासों की पुनर्स्थापना का प्रयास करें तो यह सभी के हित में होगा।

आज सरकारी और निजी दोनों ही महकमों को जागरुक बनने की आवश्यकता है , निजी स्वार्थों से उपर उठने की आवश्यकता है क्योंकि सवाल किसी एक पीढ़ी का नहीं सवाल आने वाली नस्लों का है। सवाल एक सृष्टि के उपजने का है। 

राजस्थान का आदिवासी साहित्य और प्रतिरोध के स्वर

            
                                           
                                           
भारतीय समाज प्रजातीय ,भाषीय, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा विकास की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर अनेक जातियों एवं जनजातियों में बँटा हुआ है। इनमें से जनजातीय वर्ग सामान्यतया उन लोगों का समूह है जो किसी निश्चित भू भाग पर निवास करते हैं, विकास की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और वंचित हैं।   निश्चित भू भाग की बात की जाए तो अब तो स्थिति यह है कि जो भू-भाग कभी उनका था उन्हें वहीं से विकास के नाम पर बेदखल किया जा रहा है। अगर सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में इस समुदाय को देखने का प्रयास करें तो इस वर्ग के अपने रीति-रिवाज हैं, मान्यताएँ है जो उन्हें ग्रामीण एवं कस्बाई क्षेत्र से अलग ठहराते हैं। वस्तुतः यह समाज जिसे आदिवासी समाज की संज्ञा दी जाती है, आदिम है और सदियों से चली आ रही  परम्परा, संस्कृति और मूल्यों का ही दूसरा नाम है । आज यही परम्परा, संस्कृति और इसकी रस्मों रवायतें अनेक खतरों का सामना कर ही हैं। यह समाज मुख्यधारा के बनावटी उसुलों , चकोचौंध और तेज आवाजों के बीच सबसे कम सुनी गई आवाजों में से एक है जिसे साहित्य में भी सबसे कम अभिव्यक्ति मिली है। हमेशा से हाशिए पर रहा यह समाज अब एक चेतना और ऊर्जा के साथ साहित्य में प्रवेश कर रहा है, जिसे हमें सहेजना है। हाशिए से केन्द्र की और आते हुए इन विषयों के लिए हमारी जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है और इनके लिए उदय प्रकाश की यही पंक्तियां याद आती है- जो प्रजातियाँ लुप्त हो रही है/  यथार्थ मिटा रहा है जिनका अस्तित्व/ हो सके तो हम उनकी हत्या में न हो शामिल। / और सम्भव हो तो सँभालकर रख लें, उनके चित्रः, ये चित्र अतीत के चलचित्र है 1              आदिवासी समाज इसकी समस्याओं और इसके सांस्कृतिक अवदान पर हाल ही में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। विभिन्न संगोष्ठियों, शोधों एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन के माध्यम से इस वर्ग और इसकी समस्याओं को केन्द्र में लाने का प्रयास किया जा रहा है। वस्तुतः 21वीं सदी में भू मंडलीकरण के एक धमक के साथ प्रवेश करने के साथ ही हमारे देश में उन अस्मिताओं के संघर्ष के लिए विमर्श की आवश्यकता महसूस हुई जो सदियों से पददलित और शोषित थी जो समाज का अंग तो थी परन्तु किसी उपेक्षित और वंचित वर्ग की तरह जीवन यापन कर रही थीं। इन अस्मिताओं में स्त्री, दलित और आदिवासी चेहरे उभर कर आए और उन्हीं के करूण पीड़ित,कातर स्वर ने 21वीं शताब्दी में जेहाद की ही तर्ज पर एक विमर्श छेड़ दिया जो आज भी जारी है। इन्हीं विमर्शों को दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और आदिवासी विमर्श के रूप में जाना जाता है।
      समाज में जो भी कुछ घटता है वह ही साहित्य में प्रतिध्वनि बन सुनाई देता है। वस्तुतः साहित्य के सरोकार समय सापेक्ष बदलते रहते हैं।  एक सर्वथा उपेक्षित समाज जिसे हम आदिवासी दुनिया के नाम से जानते हैं वह लगभग उतना ही प्राचीन है जितनी की मानव सभ्यता, उसके मूल्य और संस्कृति । इस आदिम सभ्यता को समय-समय पर अनेक संघर्षो का सामना करना पड़ा है। इस सभ्यता को बार-बार अपने नैसर्गिक एवं शांत जीवन से बाहर खदेडनें का प्रयास किया गया हैं। वैश्वीकरण के इस प्रतिस्पर्धात्मक दौर में यह वर्ग आज भी पूर्व की ही भांति संघर्ष कर रहा है और अब उनका यह संघर्ष बहुराष्ट्रीय कंपनियों से भी है जो उनसे उनकी जमीन छिनकर अपने धरों को सोने से भर रहे हैं। जो पहले से रह रहा है उसकी जगह बाहर वाला आएगा तो निश्चित ही शांति भंग होगी, जिससे संघर्ष अनिवार्य है। आदिवासियों के साथ यही हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक कई आदिवासियों की जनसंख्या में कमी आई है। जो जनजातियाँ सूचीबद्ध है उनकी जनसंख्या करीब 8 करोड़ है। उनमें 2 करोड़ आदिवासी विस्थापन के कगार पर हैं या विस्थापित किए जा रहे हैं । एक तरफ उद्योग लगाए जा रहे हैं दूसरी तरफ विकास के नाम पर आदिवासी का विस्थापन हो रहा है।2 त्रासदी यह है कि तमाम सरकारी आश्वासनों के बाद भी यह विस्थापन और पलायन निरन्तर जारी है।
      आदिवासी साहित्य की बात की जाय तो यह भले ही साहित्य की सीमा रेखा में अब आया हैं परन्तु अपने लौकिक रूप में यह कई हजार वर्षों से हमारे बीच है। आदिवासी स्वर एक परम्परा के रूप में कई समय से अभिव्यक्त हो रहा है फिर चाहे वह मौखिक रूप से ही क्यों न हो । समय समय पर गैर आदिवासीयों द्वारा भी इनकी समस्याओं की ओर ध्यान खींचने को प्रयास किया गया है और किया जा रहा है ।  आदिवासी साहित्य के इतिहास पर अगर नजर डाले तो यह केवल लोककथाओं व लोक गीतों में ही सिमटा हुआ नजर आता है। अगर इसके वर्तमान की बात की जाए तो आदिवासी समाज की तरह स्वयं आदिवासी साहित्य भी अनगिनत चुनौतियों से जूझ रहा है। आदिवासी साहित्य पर लिखा जा रहा कथा साहित्य एवं शोध प्रबंध दोहराव से ही अधिक गुजर रहे हैं। आदिवासी विषयक शोधों की स्थिति तो यह है जो शोधार्थी इस विषय पर लेख लिख रहे हैं उन्हें न तो आदिवासी जीवन का कोई परिचय है ना ही आदिवासी विषयक समाजशास्त्रीय और नृतत्वशास्त्रीय सिद्धान्तों का कोई ज्ञान। नतीजतन ये शोध आदिवासी संवेदनाओं और उसकी समस्याओं को छू भी नहीं पाते, विमर्श का भागीदार बनना तो दूर की बात है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् साहित्य के कैनवास पर कई रचनाएँ उभरकर आयी जो सही मायने में आदिवासी जीवन उसके संघर्ष और उसकी संस्कृति की जांच पड़ताल करती हैं। आज भारत की विभिन्न आदिवासी भाषाओं, बोलियों मे उपलब्ध यह साहित्य एक भिन्न संस्कृति और दृष्टिकोण का साहित्य है। इस साहित्य के अनुशीलन से यह तथ्य सामने आता है कि आदिवासी समाज के जीवनदर्शन और मुख्यधारा के जीवन दर्शन में कोई समानता नहीं है। आदिवासी समाज प्रकृति का रक्षक है, वह उसकी छाँव में पलता है, बड़ा होता है और अंततः विलीन भी हो जाता है। सहजीविता, सहअस्तित्व और समानता की आदर्श प्रतिमूर्ति यह समाज नैसर्गिक तौर पर मौलिक है, इसकी अपनी परम्पराएँ है। वह अर्थ केन्द्रित और शास्त्र शासित समाज नहीं है।  वह सहज है और अगर साहित्य में इसके दखल की बात की जाए तो  अब यह विमर्श बराबर दस्तक देता हुआ नजर आ रहा है। आदिवासी विशेषांक जिनमें युद्धरत आम आदमी’, ‘अरावली उद्घोष’, ‘दस्तक’ , और समकालीन जनमत प्रमुख है के निकलने से इस साहित्यिक प्रवृति को एक उत्तेजना प्राप्त हुई है। इस पद्धति में मौलिक एवं अनूदित साहित्य दोनो ही अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। यह साहित्य इस बात की प्रतिध्वनि बनकर गूंजता हुआ सा प्रतीत होता है कि अगर आदिवासी समाज और उसकी नैसर्गिक परंपरा को बचाना है तो हमें जल, जंगल और जमीन को सुरक्षित रखना होगा। कमोबेश यही स्वर ध्वनित होता है निर्मला पुतुल की कविताओं में तो कही महाश्वेता देवी के जंगलके कुछ देवदार में। इसी क्रम में उपन्यास साहित्य की बात की जाय तो इस क्षेत्र में पुन्नी सिंह, राकेश कुमार सिंह, विनोद कुमार, मधु काँकरिया, रणेन्द्र (लालचन्द असुर, ग्लोबल गाँव के देवता) संजीव (जंगल जहाँ शुरू होता है), गोपीनाथ मोहंती (अमृत संतान) ,अनुज लुगुन आदि का लेखन अपने-अपने भूगोल के साथ आदिवासी जीवन की विषमताओं को प्रकट करता है। चाहे कविता हो या कथा साहित्य ये सभी एक स्वर में यही बताते है कि औपनिवेशिक एवं निजी स्वार्थो ने आदिवासियों का शोषण हर स्तर पर किया है. 'युद्धरत आम आदमीका आदिवासी विशेषांक आदिवासी साहित्य संस्कृति और उसके जीवन दर्शन को समग्रता से हिन्दी जगत के समक्ष  लाकर खड़ा कर देता है।
 
आदिवासी समुदाय देश के हर हिस्से में निवसता है।  राजस्थान में भीलमीणा, सहरिया, गाड़ोलिया लुहार जैसी अनेक जनजातियां उदयपुरडुँगरपुर, बाँसवाड़ा, सवाईमाधोपुर के अनेक भू भागों पर अपना विस्थापित जीवन व्यतीत कर रही हैं।  राजस्थान में जनजाति के रूप में भील, मीणा की संख्या लगभग 25 लाख मानी गई है। सन् 1901 में आदिवासियों की प्रथम जनगणना के समय देशी रियासतों के राजपुताना में इनकी संख्या सिर्फ 3 लाख थी। इनकी सबसे घनी आबादी बागड़ (बांसवाड़ा और उदयपुर) में है।3 अगर बात इस जन समुदाय के साहित्य की की जाए तो  श्रुतपरम्परा के रूप में हजारों वर्षों पहले से ही मौजूद है परन्तु अगर आधुनिक युग और लिखित परम्परा की बात की जाए तो मानगढ़ पर केन्द्रित लेखन से ही इसका प्रारम्भ माना जाना चाहिए।  अगर आदिवासी लोकसाहित्य की बात की जाए तो उनके पास  लोकगीतोंलोककथाओं और वीरगाथाओंप्रेम प्रसंगों और त्योहारों पर उकेरी गई घटनाओं की इतनी समृद्ध परम्परा है जिनमें सिर्फ इस जनजाति का इतिहास ही नहीं वरन्  सम्पूर्ण पृथ्वी का इतिहास और भूगोल भी उलझ कर रह गया है।  वस्तुतः समकालीन आदिवासी लेखन जीवन और प्रकृति से जुड़ाव का लेखन  है।  उनमें मनोरंजन और किस्सागोई को ढूँढना  मुश्किल है, “उनकी कलम  बिरसा के उलगुलान परझारखंड के जंगलों में अंग्रेजों के खिलाफ हुए संथाल कोल विद्रोह पर,सिद्ध कानू को दी गई फांसी पर सतत चल रही है।4 तात्पर्य यही है कि आदिवासी लेखन का विषय उस समाज की पीड़ा और उसकी अस्मिता के लिए किया जाने वाला संघर्ष है़ और यह संघर्ष वह संघर्ष है जिसे वह सदियों से अब तक अनवरत झेल रहा है। इस लेखन की सफलता भी तभी मानी जाएगी जब उनके स्वर को साहित्य में उचित स्थान मिले।
  राजस्थान का या राजस्थान के आदिवासियों पर लिखा गया साहित्य यद्यपि अभी बहुत कम है परन्तु जितना भी लिखा जा रहा है वह आदिवासी अस्मिता के संघर्ष के इतिहास ,वर्तमान और भावी संभावनाओं पर प्रकाश डालता हुआ प्रतीत होता है। राजस्थान के आदिवासी लेखक आदिवासी अस्मिता के आंदोलनों पर ,उसकी समस्याओं पर सजग लेखनी चला रहे हैं। उन्होने अपनी रचनाओं से यह जता दिया है कि आदिवासी जब मूक था तब वह अपने प्रति हो रहे अन्याय का विरोध तीर चलाकर किया करता था परन्तु अब वह कलम की शक्ति से परिचित हो गया है और बोल कि लब आजाद है तेरे की उक्ति का अनुसरण करता हुआ अपनी लेखनी से अपने ऊपर हुए अन्यायों का प्रतिशोध ले रहा है। अगर पत्रिकाओं के योगदान की बात की जाए तो राजस्थान से निकलने वाली अरावली उद्घोष पत्रिका में आदिवासी चेतना के स्वर स्पष्ट सुने जा सकते हैं। पथिक बाबा(वी.पी. वर्मा) द्वारा संपादित यह आदिवासी पत्रिका आदिवासी समाज को लेकर पनपी भ्रांतियों के निराकरण और उनके कठोर यथार्थ को तलाशने का विनम्र प्रयास है। 1986 से त्रैमासिक प्रकाशित होने वाली यह पत्रिका आदिवासी जीवन दर्शन से जुड़े लेखकों और इस समुदाय की मूक आवाज को एक मुखर मंच प्रदान कर रही है। हिन्दीभाषी आदिवासी लेखकों का प्रतिनिधित्व करने वाली इस पत्रिका से प्रेरित होकर युद्धरत आम आदमी ने दो आदिवासी विशेषांक भी निकाले हैं। 'मनगढ सन्देश' एक अन्य पत्रिका है जो बाँसवाड़ा से रमेश बढेरा निकाल रहे हैं। 'मीणा भारती' पत्रिका  भी आदिवासी समाज के लेखन और चिंतन को अपना स्वर प्रदान कर रही है। राजस्थान में इस समय हरि राम मीणा,रमेशचन्द्र मीणा,शंकरलाल मीणा, मोहन पारगी,रमेश वढ़ेरा,गोगराय शेखावत आदिवासी साहित्य पर बराबर अपनी लेखनी चला रहे हैं।
ऱाजस्थान के आदिवासी लेखकों ने अपनी लेखनी से एवं शोधपरक दृष्टि से इतिहास को पुनर्जीवित करने का , उसे नवीन दृष्टि से देखने का प्रयास किया है । इसी दृष्टि से उन्होने गोविन्द गुरू के विद्रोह और कालीबाई के बलिदान और जनजाति समाज के संघर्ष को भी खोज निकाला है। वी.पी.वर्मा पथिक एवं हरिराम मीणा के शोधपरक आलेख  आदिवासियों के दुख दर्द ,विस्थापन की वेदना और उनके पुनर्स्थापन की मांग को अनेकानेक पहलुओं से पुरजोर तरीके से उठाते है। शंकरलाल मीणा का लेखन ,उनके आलेख और विचार भी आदिवासी जीवन दर्शन और उसके संघर्ष को प्रमुखता से उजागर करते हैं। रमेश चन्द्र वडेरा और खेमराज पारगी राजस्थान की लोककथाओं औऱ जनगीतों के माध्यम से  आदिवासी साहित्य के इतिहास को प्रकाश में लाने का महनीय प्रयास कर रहे हैं। इसी क्रम में भँवरलाल मीणा लोकगीतों के माध्यम से जनजातियों के साहित्य को प्रकाश में लाकर इस जनजाति के सरस रूप को उजागर कर रहे हैं। आदिवासी मौखिक साहित्य मानवीय मूल्यों एवं जीवन के श्रेष्ठ गुणों की अनुपम निधि है। इस समुदाय के अपने त्योहार देवी देवता , आचार व्यवहार ,नियम और संस्कृति है। लोक गीतों ,कथाओं के माध्यम से इन्हीं तत्वों को उकेरने का प्रयास यहाँ के सभी लेखकों ने किया है। यह लोकसाहित्य बताता है कि तथाकथित सभ्य समाज से यह असभ्य समाज कितना अधिक अकुंठित ,खुला हुआ और स्वाभाविक है, जिनमें तमाम समस्याओं के पश्चात् भी जीवन जीने की अदम्य लालसा है। इधर इस क्षेत्र में  कुछ श्रेष्ठ कहानियां भी आयी हैं,केदार नाथ मीणा की एक बहुत अच्छी कहानी है 'कामरेड मीणा। आपके द्वारा संपादित एक कथा संकलन भी आदिवासी कहाँनियाँ  के नाम से आया है। कविता के क्षेत्र में प्रभात राजस्थानी के उदीयमान कवि है। प्रकृति से नैकट्य और आदिवासी पीड़ा उनकी कविताओं का मुख्य भाव है। वे लिखते हैं-क्या प्रकृति की गंध जैसी चीज भी, उड़ जाएगी हमारी धरती से,चील की तरह।5  प्रकृति की गंध कविता इस नैसर्गिक समाज की  इसी  दर्द ,वेदना को उद्घाटित करती है कि क्या हमसे हमारी सुवास ही छिन जाएगी। सी.ए.सांखला, ओम नागर, राम नारायण मीणा, हरि चरण अहरवाल और हरिराम मीणा  की कविताएँ भी आधुनिक काव्य जगत में इस विमर्श के साथ एक जरुरी हस्तक्षेप करती हुई सुनाई पड़ती है। इन सभी कविताओं में आदिवासी समाज की पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति मिली है। उनमें एक आग है ,आक्रोश है जो ना जाने कितने ही समय से दहक रहा है। हरि चरण अहरवाल के शब्दों में- तुम पैसों के पीछे खुद को समझते सभ्य और श्रेष्ठ, कभी पत्तों और छालों से फटे पुरानों से ही कभी ढक लिया था अपना तन ,बचा ली थी आबरू, न हम उसमें झांके कभी न हमने ही दिखाई उसे कभी।6
राजस्थान के आदिवासी लेखन के फलक पर एक नाम पूरी ऊर्जा के साथ चमकता हुआ दिखाई देता है और वह है हरि राम मीणा। मीणा जी राजस्थान की आदिवासी जनजातियों के जीवन दर्शन , संस्कृति और समस्याओं पर अपनी नियमित लेखनी चला रहे हैं। आदिवासी संस्कृति नामक अपने लेख में आप  आदिवासी जीवन और उनकी जीवन दृष्टि पर बहुत निकटता से प्रकाश डालते हैं। मिसाल के तौर पर वे एक जगह भगोरिया प्रथा का उल्लेख करते हैं। यह प्रथा उदयपुर, पाली , अरावली पर्वतांचल के मामाभील एवं गरासियों की एक परम्परा है, जिसमें किसी लोक मेले में कोई नवयुगल अपने प्रेम एवं भावी जीवन साथ गुजारने की सहमति का ऐलान दूर किसी टीले पर जाकर कर देते हैं और बड़ो की सहमति ना मिलने पर भाग कर विवाह कर लेते हैं। भाग कर विवाह करने के कारण ही इस प्रथा को भगोरिया नाम दिया गया है। ऐसे ना जाने कितने प्रसंग है , कितने रोचक प्रसंग है इस जनजीवन में जहाँ प्रेम और मूल्यों को प्राथमिकता दी जाती है, इन्हीं प्रसंगो पर वे अपनी किताब आदिवासी दुनिया लिखते हैं। इस किताब में वे आदिवासियों की भाषा,इतिहास और मिथकों पर लिखते हैं साथ ही आदिवासियों की अनेक गोत्रों सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी देते हैं।
राजस्थान में मानगढ़ वह स्थान है जहां जलियांवाला बाग हत्याकांड से पूर्व ही लगभग दो हजार निर्दोष आदिवासी लोगों को अंग्रेजों और औऱ देशी रियासतों ने गोलियों से भून दिया था। इस तथ्य और इस स्थान को खोजने का यह प्रयास सर्वप्रथम हरिराम मीणा ने किया और पहल पत्रिका के माध्यम से यह वृतांत पहली बार देश के सामने आया।  आपका जंगल जंगल जलियांवालायात्रा वृतांत भी आदिवासी आदिवासी समुदाय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व उसके संघर्ष को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि क्या सचमुच ऐसा घटित हो चुका है। क्या अंग्रेजों के ही  साथ साथ देशा रियासतें भी इतनी क्रूर और अमानवीय हो सकती हैं ? ऐसे अनगिनत प्रश्न यह यात्रा वृतांत हमारे समक्ष छोड़ता है। इस यात्रा वृतांत में राजस्थान के मानगढ़, भोला, बिलोरिय़ा और पालचितरिया स्थानों की यात्राओं का वृतांत है।
 मानगढ़ आंदोलन की ही पृष्ठभूमि पर केंद्रित और बिहारी सम्मान से सम्मानित महत्वपूर्ण रचना है धूणी तपे तीर । यह उपन्यास वस्तुतः एक ऐतिहासिक जरूरत को पूरा करता है। हरिराम मीणा अपने इस उपन्यास को मानगढ़ के उन आदिवासी वीरों और वीरांगनाओं को समर्पित करते हैं जिन्होंने अंग्रेजों एवं सामन्ती शासकों के विरूद्धउनकी सामन्ती    शोषक मानसिकता के विरुद्ध महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी। इस लड़ाई में सुगनी, पानो व कमली जैसी बहादुर स्त्रियाँ भी अपनी भागीदारी निभा रही थी जो अपनी अस्मिता, अपनी परम्परा, अपने जंगल और जमीन के लिए मौत से भी नहीं डरी.। इस उपन्यास में सम्प सभा के गठन उसकी कार्यशैलीवैचारिकी, दर्शन और गोविंद गुरु के आदिवासी समाज के लिए किए गए संघर्ष को पूरी सत्यता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।  मानगढ़ पर्वत जो आदिवासियों के बलिदान की गाथाओं से अनुरंजित हैसदियों से इतिहास की कंदराओं में छिपा रहा है। वस्तुतः यहां जलियांवाला बाग जैसी ही घटना अमृतसर से छः वर्ष पूर्व ही दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा में घटित हो चुकी थी जिसमें जलियांवाला से चार गुना अधिक शहादत हुई। दुःख  इस बात का है कि दोनों ही घटनाएँ दुखद हैं पर जलियांवाला काण्ड को हम भूला नहीं पाते हैं और इस शहादत को लगभग भूला दिया गया है।  औपनिवेशिक अंग्रेजी शासन एवं देशी सामंती प्रणाली के विरुद्ध आदिवासियों के संघर्ष की इस गाथा को उपन्यासकार हरिराम मीणा ने वर्षों के अनुसंधान से लिखा है। 'धूणी तपे तीर ' में धूणी से आशय उस पवित्र स्थान से है जिसे राजस्थान के आदिवासी धूणी माता के रूप में पूजते हैं।  यही वह स्थान है जहां पर गोविंद गुरु ने अपने आदिवासी साथियों में चेतना को जाग्रत कर शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने का बिगुल बजाया। " हम एक माँ के पेट के जाए तो है नहीं पर धूणी माता की   गोद में पलकर हम एक से भगत बने हैं। " 7 अर्थात् चेतना की धूणी में तपकर जहां असंख्य तीर रूपी भगत पैदा हुए वह स्थान ही है धूणी।  इस समूचे उपन्यास में राजस्थान की भीलमीणा व सहरिया जनजातियों की संस्कृति, आचार, व्यवहार को अत्यंत ही निकटता से देखने का प्रयास किया गया है।  उपन्यास में अनेक स्थानों पर ऐसे  प्रामाणिक तथ्यों का उल्लेख किया गया है जिससे इसकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध सी लगने लगती है। इसमें बताया गया है कि  वह दौर ऐसा था जब यहाँ वहाँ आदिवासियों को परेशान किया जाता था।  कोई भी उल्टा सीधा बहाना ढूँढकर उन्हें थानों में बंद कर दिया जाता था, फर्जी मुठभेड़ों में उनकी हत्या कर दी जाती.  आशंकित विद्रोह को देखकर संभावित नायकों पर झूठे इल्जाम लगाकर कठोर सजा दे दी जाती या फिर फाँसी पर चढा दिया जाता या मौत के घाट उतार दिया जाता।  इस प्रकार के नृशंस अत्याचार अंग्रेजों के लिए आम बात थी।8  गोविंद गुरू ने ऐसी घटनाओं के विरोध स्वरूप ही सम्प सभा का गठन किया और मानगढ पर्वत पर विद्रोह किया जिसे राजस्थान के जलियांवाला काण्ड के नाम से जाना जाता है।  प्रस्तुत उपन्यास में आदिवासी समुदाय के सबल और निर्बल पक्षों को भी प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार एक ओर इस रचना में 1857 के पश्चात्  रियासती सत्ता द्वारा किए जाने वाले अत्याचार,  ब्रिटिश राज  के अत्यधिक हस्तक्षेप और उनके शोषण, दमन और अभावों में जूझते आदिवासी दिखाए गए हैं वहीं  दूसरी तरफ मानगढ़ पर धूणी जमाये  संप सभा के आदिवासी नायक और प्रमुख नायक गोविंद गुरू के संघर्ष की कथा बतायी गयी है ।वास्तव में धूणीयों पर तपते तीरों की ही कथा है धूणी तपे तीर
मानगढ़ आंदोलन पर लिखी गई अन्य रचनाओँ में मगरी मानगढ़ः गोविन्द गिरी उपन्यास(राजेन्द्र मोहन भटनागर)एवं मोर्चा मानगढ़ नाटक (घनश्याम प्यासा गढ़ी) भी उल्लेखनीय है। राजेन्द्र मोहन भटनागर के अनुसार मानगढ़ काण्ड अनायास ही जलियांवाला बाग की याद ताजा करा देता है। तब भी अंग्रेजों ने निहत्थी भीड़ पर अंधाधुंध गोलियों की वर्षा की थी उस समय पन्द्रह से बीस हजार लोग वहाँ इकट्ठा हुए थे। उपन्यास के प्रारम्भ में ही लेखक यह स्वीकार करते हैं कि राजस्थान के भील घोरतम उपेक्षा ,अनादर और प्रतिकूल परिस्थतियों में भी अपनी स्वतंत्रता और देश की स्वतंत्रता, मान सम्मान की परम्परा और त्याग बलिदान की प्रतिष्ठा के लिए सदैव समर्पित रहे हैं। अतः धोरों का यह रक्तरंजित इतिहास भूलाया नहीं जा सकता।9
 ‘मोर्चा मानगढ़ मानगढ़ आंदोलन पर आधारित आठ अंकों का ऐतिहासिक नाटक है जो स्वतंत्रता संग्राम में बांगड़ अंचल के आदिवासियों के संघर्ष एवं योगदान को चित्रित करता है। नाटक का शीर्षक मानगढ़ हत्याकांड की ओर हमारा ध्यान खींचता है। उपन्यास में बताया गया है कि मानगढ़ अर्थात् वह स्थान जहाँ विभिन्न आदिवासी जत्थे स्थानीय महारावलों,राजाओं एवं जागीरदारों के साथ भूरेटियों से मानगढ़ पर्वत पर मोर्चा लेते हैं। इस नाटक में आदिवासियों में जोश भरता हुआ एक गीत भी है, “भूरेटिया नी मानूं रे नी मानूं । यह गीत वस्तुतः आदिवासी चेतना की मुखर प्रतिध्वनि के रूप में ही बार बार अभिव्यक्त होता है। मानगढ़ केन्द्रित इन तीनों रचनाओं की विषयवस्तु समान है, तीनों के नायक भी एक ही हैं,गोविन्दगिरी। उनका एक मात्र ध्येय था सम्प सभा के माध्यम से बांगड़ प्रदेश के आदिवासियों की सेवा करना। वे अपने प्रयासों से आदिवासियों में जागरूकता लाते हैं,शिक्षा का प्रसार करते हैं तथा समता की स्थापना करने का प्रयास करते हैं। अगर सही मायने में देखा जाए तो इसी चेतना और जागरूकता की आवश्यकता अब भी आदिवासी समाज को है। राजस्थान के आदिवासियों पर लिखी गई अन्य रचनाओं में 'सहराना'(पुन्नी सिंह) ,' मीणा घाटी '(सोहन शर्मा) और 'गमना '(हबीब कैफी) महत्वपूर्ण है। सहराना उपन्यास राजस्थान की आदिम जनजाति सहरिया के जीवन और समस्याओं पर आधारित है। सहरिया राजस्थान का सर्वाधिक पिछड़ा और शोषित आदिम समाज है।सहराना का अर्थ है सहरियाओं की बस्ती और इस बस्ती का प्रमुख पात्र है सोमा। इस उपन्यास में सहरिया जनजाति की जमीन के गलत बँटवारे की समस्या को प्रमुखता से उजागर किया है। पुन्नीसिंह ने इस उपन्यास में सहरिया जनजाति के दुख दर्दों को ,उसके जीवन के विविध पक्षों को पूरी मार्मिकता के साथ उकेरा है। आदिवासी समाज यौन शुचिता के मामले में उदार  और प्रगतिशील है। सहराना में भी प्रेम और यौन मामलों में शुचिता का उतना आग्रह नहीं दिखाई पड़ता है। सोमा (मुख्य पात्र) के अपनी पत्नी चंपा से अलग होकर लाड़िली के साथ रहने के बावजूद बाद में पूरा सहराना उसे स्वीकार कर लेता है। लाड़िली भी सोमा से अलग होने के बाद बल्ला के साथ रहने लगती है।10 राजस्थान के ही आदिवासियों पर लिखे गए अन्य उपन्यास है मीणा घाटी और गमना। सोहन शर्मा के मीणा घाटी उपन्यास के कथानक का परिवेश राजस्थान की मेवाड़ रियासत है जहाँ पर यह दर्शाया गया है कि रियासत में बसे भील ,मीणा और अन्य अल्पसंख्यक समाज अंग्रेजों और रजवाड़े दोनों के शोषण के शिकार है। अमरा के संघर्ष के माध्यम से इस उपन्यास में एक ऐसे चरित्र को गढा गया है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श बना रहेगा। हबीब कैफी गमना में जनजातीय समाज पर दिकूओं के द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को चिन्हित करते हैं और इसकी खासियत यह है कि बरसों पहले लिखा होने पर भी .यह आज भी समसामयिक है।   इन सभी उपन्यासों में यह बताने का प्रयास किया गया है कि आदिम समाज वस्तुतः सहजता और समानता की संस्कृति है। वे न तो किसी दूसरे के धर्म और जीवन दर्शन का अपमान करते हैं ना ही घृणा। उनका धर्म भी उन्हीं के समान सहज है , उनके पूर्वज और प्रकृति ही उनके ईश्वर है। वहाँ छल नहीं है, वरन् रिश्तों में अपनापन बसता है। इन रचनाओं में राजस्थान के आदिवासी समाज, उनके जीवन सौन्दर्य,दर्शन ,अस्मिता, संस्कृति  को उनकी समस्याओं को अलग अलग कोणों से समझने का प्रयास किया गया है।
राजस्थान में और राजस्थान के आदिवासियों पर लिखा गया साहित्य भले ही अल्प हो परन्तु इसकी दिशा इसके उज्जवल भविष्य के प्रति आशान्वित करती है। यह साहित्य प्रतिबद्ध साहित्य है जिसका एक मात्र ध्येय समाज और मानव का कल्याण है। यह लेखन जमीन से जुड़ा है, धूणीयों की आँच में तपकर कुंदन बना है और सदैव वसुधैव कुटुम्बकम् में विश्वास करता है। हम आशान्वित हैं कि चेतना और साक्षरता की किरणों  से सराबोर यह साहित्य न केवल अपने विचारों से आदिवासी समाज में एक नवीन चेतना का प्रवाह करेगा वरन्  जल, जंगल और जमीन के रखवालों को एक सम्माननीय और सुखद भविष्य को प्राप्त करने का साहस भी प्रदान करेगा।
संदर्भ-
1. इंडिया टुडे – साहित्य वार्षिकी (1995-96) पृ. 127
2.आदिवासी अस्मिता के पड़ताल करते हस्ताक्षर – सं. रमणिका गुप्ता, स्वराज प्रकाशन,नई दिल्ली, पृ.72
3.आदिवासी भील –मीणा – संतोष कुमारी,प्रकाशक- युनिक ट्रेडर्स,जयपुर,पृ.17,18
4.आदिवासी साहित्य एवं संस्कृति- सं. विशाला शर्मा,दत्ता कोल्हारे ,लेय़-रमणिका गुप्ताः आदिवासी चेतना, साहित्य और संस्कृति का मूल्यांकन,पृ.23
5.समकालीन आदिवासी कविता (कविता- प्रकृति की गंध)-सं. हरिराम मीणा,अलख प्रकाशन,जयपुर,पृ.64
6. समकालीन आदिवासी कविता (कविता- तुम क्या समझते हो ?)-सं. हरिराम मीणा,अलख प्रकाशन,जयपुर,पृ.98
7 हरिराम मीणा- धूणी तपे तीर- साहित्य उपक्रम,पृ 375
8. हरिराम मीणा- धूणी तपे तीर- साहित्य उपक्रम,पृ 128
9.मानगढ़  आंदोलन केन्द्रित हिन्दी साहित्य- पिन्टू कुमार मीणा,अलख प्रकाशन,जयपुर,पृ.52
10.आदिवासी साहित्य एवं संस्कृति- सं. विशाला शर्मा, दत्ता कोल्हारे, पृ. 62,सहराना आदिवासी और सहराना लेख से,स्वराज प्रकाशन,दरियागंज,नई दिल्ली।