Monday, February 27, 2017

बोर्ड परीक्षाओं में उलझी शिक्षा



सरकार एक बार फिर से दसवीं औऱ आठवीं के बाद पांचवीं कक्षा में भी बोर्ड परीक्षा को अनिवार्य करने की तैयारी कर रही है। इसको लेकर पूर्व में बहुत से राज्यों का तो दबाव था ही पर अब केन्द्र औऱ राज्य सरकार की साझा समिति ने भी इसकी सिफारिश कर दी है। शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है अर्थात् इसमें केन्द्र औऱ राज्य अपने-अपने हिसाब से बदवाल कर सकते हैं। राजस्थान में प्राथमिक औऱ माध्यमिक स्तर पर बोर्ड परिक्षाएँ आयोजित करने का निर्णय राज्य सरकार द्वारा लिए गए हैं। समय-समय पर यह निर्णय राज्य सरकारें लेती  रही हैं पर विडम्बना यह है कि सरकारों के बदलने के साथ ही बोर्ड की परिक्षाओं के निर्णय भी बदलते रहे हैं। राज्य में हो रहे इन बदलावों के साथ-साथ ही केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री जावड़ेकर ने भी सत्र 2017-18 में दसवीं बोर्ड परीक्षा फिर से प्रारम्भ करने की घोषणा की है।
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक वरिष्ठ सूत्र कहते हैं कि पिछले कुछ समय से इस बात को लेकर व्यापक सहमति बन रही है कि पांचवी औऱ आठवीं में भी राज्य स्तर पर बोर्ड परीक्षा आयोजित की जाए। फेल नहीं करने की नीति की समीक्षा के लिए बनाई गई केब की उप समिति ने  अपनी रिपोर्ट में भी  इसकी सिफारिश की है। इसके अनुसार पांचवी और आठवीं में राज्य स्तरीय परीक्षा व्यवस्था लागू की जाए। साथ ही उन्हें दुबारा परीक्षा देने की छूट भी दी जाए। स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम को निर्धारित किया जाए और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार किया जाए। राजस्थान राज्य को इस संदर्भ में पूर्व में शिक्षा के क्षेत्र में बीमार राज्य का दर्जा दिया जाता रहा है परन्तु स्कूली शिक्षा में किए गए नए बदलावों से शिक्षा विभाग की रिपोर्ट के अनुसार 15 लाख नामांकन बढ़े हैं औऱ राज्य में अब सरकारी स्कूलों में गुणात्मक सुधार हुआ  है।
 वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून को लागू करने के साथ ही आठवीं तक छात्रों को फेल नहीं करने की नीति राजस्थान के साथ-साथ अनेक राज़्यों में भी अपनायी गई थी। शिक्षा का अधिकार आने के बाद इस पर रोक लग गई थी।  इसके बाद हुए अध्ययन अध्यापन में पाया गया कि सरकारी स्कूलों  में अध्यापन का स्तर बहुत घट गया है। पास करने के इस रवैये से छात्र औऱ शिक्षक दोनों ही स्तर पर गंभीरता कम हो गई। राजस्थान में वर्तमान में आठवीं बोर्ड को प्रारम्भिक शिक्षा पूर्णता प्रमाण पत्र नाम दिया गया है। इसी तर्ज पर पांचवी बोर्ड को प्राथमिक शिक्षा अधिगम स्तर नाम दिया गया है।  बोर्ड परीक्षा लागू करने के पीछे यह तर्क दिया जाता रहा है  कि विद्यार्थियों का शैक्षणिक स्तर बढ़ाने के लिए यह ज़रूरी है। वंसुधरा सरकार का भी इसके संबंध में यही मत रहा है कि प्राथमिक औऱ माध्यमिक स्तर पर बोर्ड नहीं होने से शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है जिसका परिणाम 10 वीं औऱ 12 वीं के परिणामों पर भी पड़ता है। सरकार का तर्क है कि प्राथमिक औऱ माध्यमिक कक्षाओँ में बोर्ड लागू किए जाने से बच्चें पढ़ाई के प्रति सजग होंगे, प्रारम्भिक कक्षाओँ से ही उनके बेहतर भविष्य की नींव तैयार हो पाएगी। बोर्ड पैटर्न से परीक्षा कराने से बच्चों  की प्रतिभाएँ निखर कर सामने आएँगी। पर ज़मीनी हकीकत कुछ औऱ है, सीमित संसाधनों में जबरन अच्छा परिणाम तैयार करवाने की बाध्यता की तलवार भी उन्हीं शिक्षकों के माथे होगी जो अनेक भूमिकाओँ में एक साथ नज़र आते हैं।
शिक्षा में सुधार होना ज़रूरी है परन्तु सरकारी औऱ निजी स्कूलों में बोर्ड के अलग-अलग नियम भ्रमित तो करते ही हैं साथ ही मूल्यांकन प्रक्रिया में भी पृथक्कत्व और विसंगतियों को भी दर्शाते हैं। गत सत्र में आठवीं बोर्ड में भी ऐसे ही नियम लागू किए गए थे जिससे अनेक निजी स्कूल में पढ़ रहे विद्यार्थियों ने आठवीं बोर्ड की परीक्षा नहीं दी थी। इसका कारण इस परीक्षा का ऐच्छिक होना था। साथ ही यह परीक्षा हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए ही अनिवार्य थी। इसके बाद शिक्षा विभाग ने नियम बदलते हुए अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए भी आठवीं बोर्ड परीक्षा देना अनिवार्य किया गया। ऐसा ही निर्णय पांचवी बोर्ड के लिए लेते हुए शिक्षा राज्य मंत्री ने कहा है कि इसमें अच्छा प्रदर्शन नहीं करने वाले बच्चे फेल होंगे साथ ही उन्हें अपना शैक्षणिक स्तर सुधारने हेतु एक वर्ष का समय दिया जाएगा।
गौरतलब है कि राजस्थान देश का संभवतः पहला राज्य होगा जहाँ सरकारी स्कूलों में स्टार रेटिंग लागू की जाएगी, जिससे शिक्षा के स्तर में सुधार होगा। यह रेटिंग हर स्कूल की बोर्ड परीक्षा परिणामों के आधार पर होगी। एक ओर जहाँ ऐसी पहल है वहीं दूसरी ओर आँकड़े यह भी बताते हैं कि राजस्थान स्कूली शिक्षा पर अपने कुल बजट का महज  16.7 फीसदी हिस्सा ही खर्च करता है जो कि गत चार वर्षों से स्थिर बना हुआ है। ज़रूरत बोर्ड पद्धति के साथ-साथ शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने की है, सुविधाएँ जुटाने की है। चाइल्ड राइट्स एंड यू तथा सेंटर फॉर बजट्स गवर्नेंस एण्ड अकाउंटेबिलिटी (क्राई) की ओर से दी गई जानकारी में यह भी बताया गया है कि राज्य में प्रति विद्यार्थी व्यय 13,512 है जो ओडिशा और छत्तीसगढ़ से भी कम है। राज्य में स्कूली बच्चों का एक बड़ा वर्ग सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कमजोर भी है। गाँवों में सुविधाएँ नहीं है। स्कूलों में सत्र पर्यन्त संतोषजनक उपस्थिति भी नहीं पाई जाती। इन्हीं विसंगतियों के मद्देनज़र प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा के रूझानों पर नज़र रखने वाले विशेषज्ञ आगाह करते रहें हैं कि देश गुणवत्ता पूर्ण स्कूली शिक्षा के लिए जरूरी संसाधनों की कमी की बहुत बड़ी कीमत चुका रहा है।
बोर्ड लागू करके सरकारें विद्यार्थियों का मानसिक तनाव बढ़ा देती हैं। इसका असर उऩ शिक्षकों पर भी पड़ेगा जो व्यवस्था औऱ स्टाफ के अभाव में स्कूलों को अकेले ही संभाल रहे हैं। सरकारें सिर्फ नतीजों पर ध्यान केन्द्रित करती रहीं है, उनकी गुणवत्ता कैसे बढ़ायी जाय उन विकल्पों पर नहीं। शिक्षा नीतियों में राष्ट्रीय स्तर पर एकरूपता का अभाव है। हर नयी सरकार अपने नवीन प्रयोग शिक्षा पर थोपती हैं। वे अलग करने की चाह में नए अभियान चलाती हैं जो नयी सरकार के आते ही फिर बदल जाते हैं। आज आवश्यकता है पूरे देश में समान शिक्षा नीति के अपनाने की जिससे शिक्षा में गुणात्मक स्तर पर सुधार किया जा सके। छात्रों को शिक्षा का वह माहौल प्रदान किया जाए जो उन्हें भविष्य के प्रतियोगी वातावरण से लड़ने के लिए तैयार कर सके। शिक्षा भविष्य निर्माण, राष्ट्र निर्माण में सहायक हो इसलिए ज़रूरी है प्रारम्भिक शिक्षा को सशक्त करने की, शिक्षा नीतियों के साथ ही पाठ्यक्रम में एकरूपता लाने की, बेहतर पाठ्यसामग्री उपलब्ध करवाने की,ना कि समय-समय पर अल्पकालिक प्रयोगात्मक परीक्षण करने की।

Friday, February 24, 2017

मातृत्व पर व्यावसायिकता का स्याह साया...!


उजली हंसी तब फ़ीकी हो जाती है जब हम अपने विश्वास को चूर-चूर होता देखते हैं। जिधर देखिए उधर ही   धोखे के व्यापार पर दुनिया का कारवां बढ़ा जा रहा है औऱ यही कारण है कि डॉक्टर भी मरीज को पाल ले इक रोग नादां की नसीहत देते हुए अपनी महत्वाकांक्षाओँ को पर देने लगे हैं। केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका संजय गांधी ने एक बार फिर मानवता के ज़मीर पर कुछ सवाल खड़े किए हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने इस मुद्दे पर सराहनीय हस्तक्षेप करते हुए अस्पतालों को सी-सेक्शन सर्जरी के माध्यम से पैदा होने वाले बच्चों की जानकारी को सार्वजनिक करने का आदेश देने के लिए स्वास्थ्य मंत्री जे.पी नड्डा से अनुरोध किया है। उन्होंने इस सर्जिकल स्ट्राइक के तहत दोषी चिकित्सकों के नाम उजागर करने की बात भी रखी है। मेनका गाँधी ने बच्चों को जन्म देने के लिए गर्भवती महिलाओं को सी-सेक्शन सर्जरी के लिए मजबूर करने की अस्पतालों की बढ़ती प्रवृत्ति के बारे में  भी गहरी चिंता व्यक्त की है।  प्राकृतिक तरीके से बच्चे पैदा होने देने की बजाय सर्जरी से बच्चे पैदा करने की तरफ महिलाओं को धकेल कर लाभ कमाने वाले अस्पतालों और डॉक्टरों के खिलाफ 'चेंज डॉट ओआरजी' की सुपर्वो घोष की एक अर्जी के जवाब में मेनका ने यह बात कही । इस अर्जी पर अब तक 1.3 लाख लोग दस्तखत कर चुके हैं।
 डॉक्टरी पेशा एक लम्बे वक्त औऱ मंहगी सुविधाओँ की  मांग की दरकार रखता है। इसीलिए डॉक्टर अधिक से अधिक पैसा कमाना ही जीवन का ध्येय मानते हैं। सिजेरियन डिलीवरी के बढ़ते आंकड़े  स्वास्थ्य सेवाओँ के कारोबारी रूख को इंगित करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की  वर्ष 2014 की सिजेरियन ऑपरेशन संबंधी रिपोर्ट के आंकड़ें चौंकातें हैं। इसमें बताया गया है कि भारत में प्रसव के संबंध में 5 से 50 % सिजेरियन दर बढ़ गयी है। भारत ही नहीं समूचा विश्व इस समस्या से जूझ रहा है। विश्व में 5 में से 1 केस सिजेरियन होता है। अमेरिका में यह दर 29.1% तथा ब्राजील में यह 20% है। चिंताजनक बात यह है भारत में लगभग 70% डिलीवरी सिजेरियन आपरेशन के माध्यम से हो रही है और महानगरों में यह दर औऱ अधिक है ।
 विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी सिफारिशों में  मातृ औऱ शिशु सुरक्षा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि सी-सेक्शन सर्जरी सामान्य रूप से कुल डिलिवरी की 10 से 15 प्रतिशत  ही होनी चाहिए । परन्तु दुखद है कि हालिया राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण परिवार रिपोर्ट में भी यह आंकड़ा बहुत अधिक पाया गया है।  निजी अस्पतालों और नर्सिग होम में ऑपरेशन के आंकड़ों की यह स्थिति चिंताजनक है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्विस के मुताबिक तेलंगाना में, निजी अस्पतालों में सी-सेक्शन डिलिवरी करवाने वाली महिलाओं की संख्या कुल डिलिवरी की 58 प्रतिशत है वहीं दूसरे स्थान पर तमिलनाडू था जहाँ 34.1 प्रतिशत बच्चों का जन्म सिजेरियन के माध्यम से हुआ।  हालांकि कई बार दर्द रहित प्रसव के लिए भी यह कदम उठाया जाता रहा है पर अधिकतर मामलों में पैसा लेने की नीयत से किए गए ये ऑपरेशन स्वास्थ्य सेवाओँ पर सवालिया निशान छोड़ते हैं। चिकित्सक  इसका कारण खतरा नहीं उठाने की नीति बताते हैं । आणविक परिवारों का चलन भी इसका एक कारण है परन्तु सच तो यही है कि निजी अस्पतालो में ऑपरेशन के बहाने मोटी रकम ऐंठी जाती है। नार्मल से तीन गुना अधिक पैसे सिजेरियन से मिलते हैं।  मरीज  अधिक दिन तक अस्पताल में रहता है औऱ यूँ उसका बिल भी बढ़ता रहता है जो इसके व्यवसायियों की जेब भरता रहता है।
 प्रसव से पूर्व ही डॉक्टर व्यवसायिक रणनीति बनाते हुए , दपंति को भयभीत औऱ गुमराह कर  ऑपरेशन के लिए दबाव बनाते  हैं। इसके लिए वे सिजेरियन डिलेवरी के वैज्ञानिक औऱ आधुनिक होने की बात कहते हैं।   प्रसव के भय औऱ तथाकथित अनेक खतरों से बचने के लिए दंपति इस विकल्प का चयन कर लेते हैं परन्तु प्रसव की यह तकनीक माँ औऱ बच्चे दोनों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर डालती है। एक शोध के अनुसार सामान्य प्रसव के दौरान होने वाला स्त्राव, हितकर जीवाणुओं से युक्त होता है। यह स्राव शिशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाला तथा दमा, एलर्जी तथा श्वसन संबंधी अनेक खतरों  को कम कर देने वाला भी होता है। सिजेरियन प्रसव की अपनी हानियाँ है जिसमें माँ और शिशु के लिए अनेक खतरें इस शोध में बताए गए हैं। मेनका ने नड्डा को लिखी इस चिट्ठी में कहा है कि इस समस्या से निपटने के लिए हमें शायद कई तरीकों की जरूरत होगी । एक तो यह हो सकता है कि नर्सिंग होम और अस्पताल से कहा जाए कि वे हर महीने किए गए सी-सेक्शन डिलीवरी और सामान्य डिलीवरी की संख्या सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित करें। साथ ही महिलाओँ और आम जन में सुरक्षित प्रसव के संदर्भ में जागरूकता भी बढ़ानी होगी। मेनका गांधी ने इस मामले मे यह भी सुझाव दिया है कि स्वास्थ्य मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सहयोग से चिकित्सीय समुदाय के साथ भावी माताओं के साथ-साथ मिलकर एक अभियान चला सकता है।
   स्वास्थ्य मंत्री को भेजे अपने संदेश में मेनका संजय गांधी ने इस ओर इशारा किया है कि सी-सेक्शन सर्जरी से न केवल माता के स्वास्थ्य पर बल्कि प्रसव के बाद उसके लगातार काम करने की क्षमता पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है। अधिकांश मामलों में सी-सेक्शन सर्जरी ने महिला के प्रजनन स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया है।  स्वास्थ्य सेवाओँ के इस कारोबारी रवैये ने महिला एवं शिशु विकास को खतरें में डाल दिया है। नन्हीं कोंपले इसी कारण ब्रोंकाइटिस के खतरे से जूझ रही है। इसका कारण आकस्मिक चिकित्सा जरूरत नहीं बल्कि पैसा कमाने की वह लालसा ही है जिसके चलते डॉक्टर स्वास्थ्य सेवाओँ संबंधी मूल्यों को  ताक में रख देते हैं। हर पेशे के अपने मूल्य होते हैं । स्वास्थ्य सेवाएँ, समर्पण औऱ विश्वास की अधिक दरकार रखती हैं क्योंकि मरीज के लिए डॉक्टर दैवीय भूमिका में होता है। मातृ औऱ शिशु हितों की रक्षा बेहतर भविष्य के निर्माण में आज अधिक ज़रूरी है। अतः आवश्यकता है ऐसे धनपिपासुओँ को सबक सिखाने की जो मानवता के दामन को शर्मसार कर रहे हैं। सतर्कता और जागरूकता के साथ हर व्यक्ति को  ऐसी मानसिकता वालों से अब सवाल करना ही होगा कि-
‘हम हैं मुशताक औऱ वो बेज़ार,या इलाही ये माज़रा क्या है’(गालिब)
-विमलेश शर्मा 

Friday, February 17, 2017

सियासी भँवर में बदलते समीकरण



न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम.... तमिलनाडु का सियासी दंगल इसी तर्ज़ पर समाप्त होता नज़र नही आ रहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने, चन्द्रग्रहण लगा शतरंज की बाजी को उलट दिया है।  अन्नाद्रमुक नेता जे.जयललिता के निधन के बाद से प्रदेश औऱ पार्टी लगातार चक्रवातों के झंझावतों से गुज़र रही है। तमाम कयासों औऱ सियासी उलटफेर के बाद शशिकला के करीबी रहे अन्नाद्रमुक के ई पलानीस्वामी ने गुरूवार को तमिलनाडु के मुख्यंमंत्री पद की शपथ ली है। पलानीस्वामी के साथ ही उनके 31 सदस्यीय मंत्रीमंडल  को भी राज्यपाल सी विद्यासागर राव ने  चैन्नई स्थित राजभवन में शपथ दिलवाई है। यह घटनाक्रम चौंकाता हैं क्योंकि  इदापड्डी के पलानीस्वामी और उनके विरोधी  और पूर्व मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम दोनों ही अपने साथ अन्नाद्रमुक विधायकों का समर्थन होने की बात  लगातार कह रहे हैं। दोनों ने ही बुधवार को राज्यपाल से मुलाकात कर बहुमत का दावा भी पेश किया। दोनों ने ही बहुमत साबित करने के लिए वक्त दिए जाने की भी मांग की औऱ इन सब के बीच पलानीस्वामी की शपथ राजनीतिक कयासों की एक ओर राह खोल देती है। हालांकि  इस शपथ ग्रहण से ऊपरी तौर पर पार्टी में उठापठक पर भले ही अल्पविराम लग गया है पर  असली परीक्षा अब बहुमत सिद्ध करना होगा। इस मामले में संवैधानिक अड़चनें भी राह में आ सकती है क्योंकि राज्यपाल ने पन्नीरसेल्वम को मौका दिए बगैर ही  पलानीस्वामी को सरकार बनाने का न्यौता दे दिया है और इस पेच से यह मामला अदालत में जा सकता है। हालांकि एक बारगी जनाधार व विरासत के इस संघर्ष पर राज्यपाल सी.आर.विद्यासागर ने विराम लगा दिया है। पन्नीरसेलम तमाम प्रक्रिया औऱ उनके निष्कासन के विरोध में चुनाव आयोग जाने की तैयारी कर रहे हैं,संभवतः यह अपने बचाव की उनकी अंतिम कोशिश होगी।
राजनीतिक घमासान बहुत बड़ा तूफान लाते हैं। सत्ता पलट औऱ न्यायिक व्यवस्था के  कठोर शिकंजे के चलते चंद मिनटों में कोई धनकुबेर औऱ रसूखदार सलाखों के भीतर होता है। सजा के फैसला आने के दो घंटे के भीतर ही शशिकला की विधायकों के साथ बैठक औऱ उसमें लिए गए निर्णय उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चरम को दिखाते हैं। कार्यवाहक मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम औऱ 19 अन्य विधायकों को पार्टी से निकालने की घोषणा भी उनके राजनीतिक रूख को स्पष्ट करती हैं। इस कदम के माध्यम से यह भी साफ होता है कि पन्नीरसेल्वम को समर्थन देने वाला या पलानीस्वामी से द्रोह करने वाला अन्नाद्रमुक पार्टी की नज़र में भी दोषी कहलाएगा। इससे पूर्व शशिकला के संबंध में यह बात भी सामने आई थी कि उन्होंने  विधायकों को कथित रूप से बंधक बनाकर रखा है।  इसी क्रम में मद्रास हाइकोर्ट में दो विधायकों की तलाश के लिए हैबियस कार्पस भी दाखिल की गयी, जिसके जवाब में पब्लिक प्रोसिक्यूटर ने 119 विधायकों का लिखित बयान कोर्ट में पेश किया। सुप्रीमकोर्ट ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में शशि को 4 साल की जेल औऱ 10 करोड़ के जुर्माने की सजा सुनाई है।  इस फैसले ने तमिलनाड़ू की राजनीति में फिर एक घमासान शुरू हो गया है। पन्नीर की राह का सबसे बड़ा रोड़ा कोर्ट ने हटा दिया था परन्तु शशि ने अपनी सक्रियता से तत्काल पन्नीर औऱ उनके समर्थकों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। फैसले के बाद चिनम्मा का मौज़ूदा सीएम बनने का सपना तो धूमिल हो ही गया है साथ ही वे अगले 6 वर्षों तक कोई चुनाव नहीं लड़ पाएगीं औऱ 10 वर्षों तक मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाएँगी । परन्तु राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ पहाड़ जैसी विशाल होती हैं। वह अब भी ई पलानिसामी के ज़रिए पार्टी में अपना वर्चस्व बनाए रख सकती हैं। फैसले के बाद चिनम्मा ने बुधवार शाम बेंगलुरू में आत्मसमर्पण कर दिया और अब वह अपनी बेहिसाब संपत्ति जो कि 8% नहीं 541%  अधिक होने  के संबंध में  तीन साल,10 महीने औऱ 27 दिन की सजा काटेंगी। जाते-जाते पार्टी की इसी उठापठक में उन्होंने टीटीवी दिनकरन  औऱ एस वेंकटेश को पार्टी में शामिल किया जिन्हें पांच वर्ष पूर्व जयललिता ने निष्काषित कर दिया था। अपने भतीजे दिनकरन को अन्नाद्रमुक का महासचिव नियुक्त किए जाने को भी उनके पार्टी पर वर्चस्व को लेकर ही देखा जा रहा है।
आने वाले दिन तमिलनाडु की राजनीति के लिए अत्यंत संवेदनशील है। शशि के जेल जाने के बाद पार्टी के अधिकांश विधायक  पन्नीरसेल्वम के पक्ष में आ सकते हैं।  पार्टी टूट भी सकती है। अम्मा ने जेल जाते समय पन्नीर को नेता घोषित किया औऱ चिनम्मा ने पलानीसामी को । तमिलनाडु की राजनीति में  इतिहास किसी ना किसी रूप में सदा दोहराया जाता रहा है। विश्वासपात्रों को निकाला जा रहा है और बाहर वालों की घरवापसी हो रही है। एम जी रामचंद्रन के निधन के बाद भी राज्य में इसी तरह के सत्ता संघर्ष का दौर चला था।  मौज़ूदा पस्थितियाँ भी राज्य में राजनीतिक अस्थिरता के संकेत देती हैं। हालिया समीकरणों से द्रमुक को खासा लाभ मिलता दिखाई दे रहा है परन्तु अन्नाद्रमुक यदि राजनीतिक स्थिरता प्राप्त कर लेती है, बहुमत सिद्ध कर देती है तो तमाम उठापठकों पर स्वतः विराम लग जाएगा। कांग्रेस औऱ भाजपा तो वहाँ वैसे भी दर्शक की भूमिका में हैं। राज्यपाल पर स्थिर सरकार के लिए कदम उठाने के लिए दबाव हैं परन्तु सियासी दावपेंचों के अपने समीकरण हैं। तमिलनाडु के सियासी समीकरण से स्पष्ट नज़र आता है कि जनता भले ही पन्नीसेल्वन के साथ हो परन्तु मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए दोनों ही दावेदारों को विधायकों की आवश्यकता है ना कि मतदाताओँ की। शशिकला के पास अपने विकल्प हैं परन्तु पलनिसामी को बुलावा देकर मुख्यमंत्री ने अदालती विकल्पों की भी एक राह खोल दी है जिससे मामला उलझ सकता है। गौरतलब है कि पलानीसामी ने बहुमत से ज्यादा विधायकों की सूची राज्यपाल को सौंपी थी औऱ ऐसे में राज्यपाल ने उन्हें निमंत्रण देना उचित समझा। शक्तिपरीक्षण पन्द्रह दिन बाद होगा, पर तख्तापलट का यह घटनाक्रम अब एक अजूबा बन गया है। असंतुलन के इस दौर में राजनीतिक दाव-पेंच जोरों पर रहेंगे, जनता अस्थिरता के भंवर में पिसेगी परन्तु राह अब विधानसभा से ही निकलेगी। इस उठापठक के बीच जफ़र बरबस याद आते हैं-
             “कौन डूबेगा किसे पार उतरना है जफ़र, फैसला वक्त के दरिया में उतर कर होगा”

Tuesday, February 14, 2017

एक पाती लाडो के नाम




सुनो मेरी अल्हड़ हीर, सोनी और मरवण सी कुड़ियों..!

ये जो दिन विशेष की सौगातें है ना इन के भुलावे में ना आना। जिस राह से तुम गुज़र रही हो कई चौराहे मिलेंगे,  कई फिसलनें होगी पर तुम्हें संभल कर अपनी राह चुननी है। स्वभाव में तुम प्रकृति सी ही सादा और निश्छल हो इसलिए भरोसा भी जल्दी ही कर लेती हो पर अपने विश्वास को कुछ परीक्षणों से ज़रूर गुज़रने देना। नेह में खुद को घुला देना पर अपने अस्तित्व पर चोट हो तो संभलने की हिम्मत रखना।

जमाना लाख तंज कसे,  हिम्मत रखना!  उन आँखों में आंखें डाल कह देना कि स्त्री होने मात्र से मेरे हँसने,  बोलने, खेलने - कूदने को बांधने, तय करने के अधिकार  तुम्हें नहीं मिल जाते। अपनी बात सहजता से रखना, यह जानते हुए कि सहज होना स्त्रियोचित नहीं मानवीय गुण है। परवाज़ ऊँची होगी तुम्हारी पर अपने पंखों में हौंसले की ताकत पैदा करना।

लाज की देहरी उंघाल पूछ लेना उस हमसफ़र से कि रिश्ते के शुरूआती दौर में जिस  नेह, सौगातों और संदेशों की बौछारें तुम कर रहे हो उसकी ऊष्मा और नमी यूँही सदा बनी रहेंगी ना। पूछ ज़रूर लेना एकबार कि मैं तुममें पूरी तरह घुल जाऊंगी,  अपने पूरे समर्पण के साथ, पर क्या तुम इस कुछ मेरे निज को अपने में ,  अपने ही  अस्तित्व की तरह सहेज  लोगे ना..! क्या ताउम्र यूँही मेरी बातें तुम्हें गुदगुदाती रहेंगी  और कहीं मेरे बार बार पूछे जाने पर कि क्या तुम मुझसे प्यार करते हो कहीं झुंझला तो नहीं जाओगे ना..?

सुन रही हो ना!  लाडो! कोरी भावुकता नहीं कुछ समझदारी से भी अपने फैसले लेना फिर देखना जीवन का हर दिन प्रेम का उत्सव होगा.. प्रेम महज़ दिखावे के लिए नहीं होता पर इसे उतना ज़ाहिर ज़रूर होने देना कि यह पुल बनकर उस दिल में सीधा उतर जाए जहाँ की रेतीली ज़मीन जाने कब से इसके बरसने का इंतजार कर रही है..जीना पर इस जीने में खुद को सहेज लेना!

#खिलती_कोंपलों_की_खिलखिलाहट_के_नाम
#Repost

Friday, February 10, 2017

विवाहोत्सवों में फ़िजूलखर्ची पर रोक ज़रूरी






जीवन का सर्वोत्तम उत्सव है विवाह, जहाँ दो कोरे मन सदा- सदा के लिए एक दूजे के हो जाते हैं। हमारी सनातन परम्परा में हर उत्सव में एक सादगी घुली दिखाई देती है परन्तु आधुनिक होते मानव ने प्रदर्शन और भोगलिप्सा को ही आत्मतुष्टि का आवश्यक अंग मान लिया है। पश्चिमी संस्कृति से चालित हमारा समाज अतिउपभोक्तावाद की ओर अग्रसर हो रहा है, नतीज़ा हमारी संस्कृति की वो सहजता, हमारे  रस्मों रिवाज़ो  से  कहीं दूर छिटक  गयी हैं। एक तरफ़ जहां शादियों में दिखावे की चमक हैं औऱ सिक्कों की बरसात होती नज़र आती हैं वहीं कोई सादगी से, इन रिवाज़ों की सात्विकता को बचाकर ज़िदादिली के रंग भी घोल जाता है। इसी सादगी की मिसाल पेश की, मंडोर जिला न्यायालय की जज प्रिया टावरी और अभिषेक बूब ने। ना कोई दिखावा, ना लक दक पहनावा और ना ही कोई अनावश्यक तामझाम। पारिवारिक सदस्यों औऱ रिश्तेदारों के बीच आयोजित यह सादगीपूर्ण आयोजन वाकई एक अनूठी मिसाल है। यह आयोजन ऐसे समय में सामने आता है जब ऊँचे ओहदे पर बैठे सफेदपोश, नेता औऱ जनप्रतिनिधि अपने आर्थिक समृद्धि दिखाने के उदाहरण बैलौंस प्रस्तुत कर रहे हों।  ऐसी शादियाँ हर ज़गह चर्चा का विषय होती हैं औऱ यही चर्चा उनके आयोजकों को आत्मसंतुष्टि प्रदान करती है। शाही शादियाँ कोमल मन को सर्वाधिक आकर्षित करती हैं। धीरे-धीरे ये प्रथाएँ आमजन पर एक मनौवेज्ञानिक दबाव बना देती है, जिसे हर व्यक्ति येन-केन प्रकारेण पूरा करना ही चाहता है। निःसंदेह इस तरह दिखावे की यह मनोवृत्ति हर मानवीय पक्ष पर हावी हो जाती है।

वर्तमान वैवाहिक आयोजनों पर जब हम नज़र डालते हैं तो राजसी चादर ओढ़े बेहिसाब खर्च सामने आ जात है, जिसकी छाँव में इऩ आयोजनों की रूपरेखा बनती है। व्हाट्स एप् और अखबारों में आए दिन अनेक स्वर्णिम झांकियां इन आयोजनों की दिखाई देती है। पर सोचना होगा कि आखिर इन आयोजनों के बेहिसाब खर्चो के पीछे कौनसा अर्थतंत्र औऱ मनोविज्ञान काम करता है। वैवाहिक आयोजनों में बेहिसाब धन खर्च उच्च वर्ग की देन है जिसे वे अपना स्टेटस सिंबल मानते हैं। इसी के चलते वो उन स्वर्ग तुल्य मनोरम दृश्यों को धरती पर उतारने को लालायित नज़र आते हैं। हाल ही के एक वैवाहिक आयोजन में ब्रज संस्कृति की झलक दिखलाती झांकियां आयोजन स्थल के कोने कोने में थी। वहां राग-रागिनियों पर झूमते माखनचोर कृष्ण थे और उनकी गोपियों के नयनाभिराम दृश्य। पता करने पर ज्ञात हुआ कि करोङो का धन इन दृश्यों पर लुटाया गया है। अगर ये धनकुबेर  इन आयोजन स्थलों के बाहर के दृश्यों पर ज़रा भी नज़र डाल लेते तो शायद इन्हें इस अपव्यय की कुछ हद तक समझ आ जाती । वे दृश्य ह्रदय विदारक होते हैं जहां भूखे, नंगे बदन ठंड औऱ भूख से खुद में ही सिकुड़ते नज़र आते हैं। प्रश्न उस भीतर के चकाचौंध युक्त परिवेश से कि आखिर क्यों वे इस धनोन्माद में  औऱों की सुध नहीं ले पाते?
आजकल बेशुमार धन खर्च करने की शायद होड़ सी मची है। जो जितना अधिक खर्च करेगा उसकी सामाजिक प्रस्थिति उतनी ही उच्च मानी जाएगी। इस चलन से जो सर्वाधिक प्रभावित हुआ है वह मध्यवर्ग है।  हमारे समाज में आर्थिक विषमता की खाई पहले ही बहुत गहरी है औऱ ऐसे आयोजन इस विषमता को कुछ औऱ गहरा कर देते हैं। मध्यवर्ग में प्रर्दशन की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है। दरअसल उसकी त्रिशंकु स्थिति उसे यह करने को प्रेरित करती है। वह जहाँ उच्च वर्ग को अपना आदर्श मानता है वहीं निम्न वर्ग से एक दूरी भी बनाए रखना चाहता है। उच्चवर्ग के साथ –साथ, वर्गीय अतिक्रमण की यह मध्यवर्गीय चाहना भी शादियों में बढ़ती फिजूलखर्ची के लिए जिम्मेदार है। आज भी हमारे सामाजिक ताने बाने में बेटी पराया धन मानी जाती है और ऐसे आयोजन हमारी उस कुप्रथा को औऱ बढ़ावा दे देते हैं, जो जाने कितनी नवयौवनाओं का जीवन तक लील जाती है। दहेज हमारे समाज की एक बहुत बड़ी विसंगति है जो किसी ना किसी रूप में आज भी मौजूद है।  हमारी घरेलू चारदीवारियाँ आज भी उन तानों की आदी हैं जिन्हें विवाह में मिलने वाले उपहारों की कमी पर ताउम्र सुनाया जाता है। मध्यवर्गीय पिता के चेहरे को देखने पर सहज ही समझ आ जाता है कि उसे इस तरह बेज़ा खर्च होने वाले पैसे को जुटाने के लिए कितने प्रयास करने पड़े होंगे। परन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए उसे भी उस दिखावटी भीड़ का हिस्सा बनना पड़ता है। साथ ही उसके मन में यह भय भी रहता है कि कहीं उसकी संतान को आजीवन गलत बर्ताव ना सहन करना पड़े।
दरअसल इस प्रतिस्पर्धा का कोई अंत नहीं है। निमंत्रण पत्र औऱ परिधानों से लेकर , संगीत,खान- पान तक इस हद तक पैसे की बर्बादी होती है कि सोचकर ही मन खिन्न हो जाता है। खान-पान के नाम पर छप्पन पकवान औऱ फिर उनकी बर्बादी अब ऐसे आयोजनों में आम बात है। आँकड़े भले ही भारत को समृद्ध बताते हों परन्तु भारत  में गरीबी की समस्या आज भी बहुत भयावह है।  अक्सर देखा गया है कि समूची भोजन व्यवस्था में से लगभग 20% खाना ऐसे आयोजनों में पूर्णतः बर्बाद होता है। अनेक रस्मों में होने वाले फिजूल खर्च भी इसी अपव्यय के उदाहरण है। आज आवश्यकता है उन बातों पर विचार करने की जहाँ इस अनावश्यक खर्च को रोका जा सकता है। इस बात पर विचार किए जाने की आवश्यकता है कि यह धन भावी दम्पति के सुखद भविष्य के लिए भी तो निवेश किया जा सकता है।
 इन आयोजनों की तैयारियों औऱ सजावट में जितना प्लास्टिक प्रयोग किया जाता है, उसके मंजर  पांडाल उठने पर सहज़ ही दिखाई दे जात हैंगंदगी से अटे मैदान अपनी कहानी स्वयं बयां करते हैं। आखिर कहाँ तक उचित है दो दिन की इन रस्मों में दिखावे को इतना बढ़ावा देने की कि हम अन्य लोगों के हितों का अतिक्रमण कर लें।   
  शाही शादियों को अंजाम देने वाले तमाम धनकुबेर अगर अपने धन को सामाजिक हित में लगाएँ तो अनेक विसंगतियों से काफी हद तक निज़ात पाई जा सकती है।  समाज में नाना प्रकार के अपराध तभी कम हो सकते हैं अगर विषमता की खाई को पाटने का काम किया जाए। परन्तु अगर एक वर्ग केवल अपने ही हितों को देखते हुए जीवन के तमाम तथाकथित आनंद अपनी ज़द में करना चाहे तो यह अनैतिक है। हमारा समाज बदल रहा है औऱ इस बदलाव में हमें हमारी सोच को भी बदलना होगा। शादियों में फिजूलखर्ची को रोकने के लिए प्रिया औऱ अभिषेक जैसे युवाओँ को आगे आना होगा। यह कतई स नहीं है कि समाज में किसी की स्थिति उसकी आर्थिक हैसियत से तय होती हो। व्यक्ति के कर्म उसे महान बनाते हैं।  ऐसे लोगों का भी सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए जो इन रस्मों में लेन-देन के हिमायती बनते हैं। आज हर व्यक्ति शिक्षित है औऱ अपने दम पर जीवनयापन कर सकता है। अतः उस विचार को तिलांजलि देनी होगी कि दहेज से ही बेटी का भावी संसार फलता- फूलता है। यह भी कतई ज़रूरी नहीं कि हर कुप्रथा से निबटने के लिए कानून की ही शरण ली जाय। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे समाज में बिखरें हैं जहाँ बेहद सादगी से इन आयोजनों को खुशी-खुशी अंजाम दिया जाता है।  आज आवश्यकता है इन उदाहरणों को प्रोत्साहन की ऊर्जा  देने की , जिससे समाज में सकारात्मक संदेश प्रेषित हो। वैवाहिक आयोजन सामाजिक मेल-मिलाप की धुरी है, समरसता का यज्ञ है अतः प्रयास सहजता से रस्मअदायगी का ही होना चाहिए , दिखावे या प्रदर्शन से वैषम्य को बढ़ावा देने का नहीं।





आधार को जनसुलभ बनाना होगा




बसंत की धमक है औऱ चहुँओर प्रकृति की ही तरह सिलसिला बदलावों का है। परिवर्तन की इसी बयार में  मोबाइल सिम वैरिफिकेशन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को चेताया है कि सभी मोबाइल कनेक्शन्स का सत्यापन बेहद ज़रूरी है।  आकड़ों की माने तो वर्तमान में देश में  105 करोड़ मोबाइल यूजर्स हैं और इनमें से 90  फीसदी से ज़्यादा प्री पेड हैं लेकिन अब ऐसी कार्ययोजना तैयार की रही है जिससे इन सभी मोबाइल सिम को नए सिरे से आधार से जोड़ा जा सके। एक वर्ष में सरकार द्वारा इसे पूर्णता की ओर पहुँचाने  की राह हालांकि कुछ कठिन जान पड़ती है, पर फर्जी मोबाइल कनेक्शन पर सुप्रीम कोर्ट ने अब  सख्त रूख अख्तियार किया है।   

गौरतलब है कि पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा था कि मोबाइल सिम कार्ड रखने वालों की पहचान सत्यापित करने के लिए क्या-क्या तरीके हैं, इसके बारे में दो सप्ताह में केंद्र सरकार से जानकारी  भी माँगी गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस  जे एस खेहर ने कहा था कि मोबाइल सिम कार्ड रखने वालों की पहचान  निर्धारित न हो तो , यह नोटबंदी के बाद यकायक बढ़े नेट बैंकिग संबधित मामलों में भी  धोखाधड़ी से रुपये निकालने के काम में इस्तेमाल हो सकता है। इस संदर्भ में जनहित में सरकार को जल्द ही पहचान सत्यापित करने की प्रक्रिया करनी चाहिए। इसी के जवाब में   केंद्र की ओर से कहा गया कि इस मामले में उसे हलफनामा दाखिल करने के लिए वक्त चाहिए।  इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने दो हफ्ते का वक्त दिया, और  अब इसकी परिणति इस निर्णय से हुई है।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट NGO लोकनीति की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार और ट्राई को ये निर्देश दिए जाए कि मोबाइल सिम धारकों की पहचान, पता और सभी सूचनाएँ उपलब्ध होंकोई भी मोबाइल सिम बिना वैरिफिकेशन के न दी जाए। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी कर इस मामले में जवाब मांगा था। हालांकि न्यायालाय द्वारा दिए जा रहे ये दिशा निर्देश पूर्णतः सटीक है परन्तु उसके सफल क्रियान्वन के लिए आधार कार्ड निर्मिति की प्रक्रिया को आसान करना होगा।

सभी सूचनाएँ एकत्र होने से देश की सुरक्षा संबंधी एक बड़ी समस्या भी हल हो जाएगी परन्तु इसके लिए इस राह की पेचीदगियों को सुलझाना होगा। यह उल्लेखनीय है कि  केंद्रीय सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पूर्व में बताया हे कि  देश में 111 करोड़ लोगों का आधार कार्ड बन गया है और इसके कारण दो वर्षों के अंदर केंद्र व राज्य सरकारों के 36,144 करोड़ रुपये की बचत हुई है। आधार कार्ड के आवेदनों को निबटाने का काम भी युद्ध स्तर पर ज़ारी है। उनके अनुसार आधार के लिए 47,192 पंजीकरण केंद्रों के लिए 135 रजिस्ट्रार व 612 पंजीकरण एजेंसियां काम कर रही हैं और प्रतिदिन 7-8 लाख आवेदनों का निपटारा कर रही हैं। उन्होंने कहा 31 मई, 2014 को 63.22 करोड़ आधार कार्ड बन चुके थे और उस वक्त प्रतिदिन लगभग 3-4 लाख आवेदनों का निपटारा हो रहा था, जबकि अक्टूबर 2016 में यह 5-6 लाख प्रतिदिन हो गया। हालांकि, नोटबंदी के बाद से प्रतिदिन 7-8 लाख आवेदनों का निपटारा हो रहा है। यह आँकड़े सुखद है परन्तु जो एक वर्ष की अवधि सरकार ने तै  की है उसका लक्ष्य प्राप्त करने के लिए इस प्रक्रिया को कुछ आसान कर जनसुलभ करना होगा।
अगर दूरसंचार नियामक ट्राई के इस मुद्दे पर आए सुझावों को मान लिया जाए तो किसी शहर में बाहर से आने वाले लोगों को नया कनेक्‍शन लेने के लिए अपना आधार नंबर देना होगा।ट्राई किसी सेवा क्षेत्र में कनेक्शन हासिल करने के लिए बाहरी ग्राहक को आधार आधारित ईकेवाईसी के इस्तेमाल की अनुमति का सुझाव दे सकता है। इसके साथ ही नियामक यह भी सुझाव दे सकता है कि देश में मौजूदा मोबाइल ग्राहकों को आधार आधारित केवाईसी सत्यापन को प्रोत्साहित किया जाए । इस निर्णय के तहत देशभर के करीब 95 करोड़ प्री-पेड मोबाइल प्रयोगकर्ताओं को आधार के ज़रिए अपनी पहचान सिद्ध करनी होगी। यह कवायद दरअसल उन 5 करोड़  फर्जी आई डी के लिए हैं जिनकी पहचान संदिग्ध है। इस पहचान के लिए आधार कार्ड ही प्राथमिकता रहेगा।  परन्तु यह सभी बातें उस कस्बाई औऱ ग्रामीण मन के लिए कठिन है, जिनका सरोकार तकनीक से नहीं है।

सरकार का मानना है कि मौजूदा ग्राहकों के आधार आधारित ईकेवाईसी से ग्राहकों का उचित सत्यापन सुनिश्चित होगा और सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं को दूर करने में मदद मिलगी। उन्होंने कहा कि ईकेवाईसी के जरिए सत्यापन को अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता लेकिन मौजूदा ग्राहकों को प्रोत्साहित करने के लिए कोई उचित कार्यक्रम बनाकर इसे लागू किया जा सकता है। आँकड़े यह भी बताते हैं कि देश में 31% लोगों के पास अभी आधार कार्ड उपलब्ध नहीं है। साथ ही आधार कार्ड बनवाने की प्रक्रिया भी इतनी आसान नहीं है। बने हुए आधार कार्डों को व्यक्तिगत रूप से मिलने में भी काफी इंतज़ार करना होता है । बने हुए आधार कार्ड में शेष रह गयी त्रुटियों के निस्तारण में भी लम्बा वक्त लग जाता है।  साथ ही  अनेक प्रकरणों में यह भी देखा गया है कि आधार कार्ड के नाम पर लोगों को गुमराह कर मासूमों से अधिक धन भी ऐंठा जाता है। इन तमाम विसंगतियों से निबटने के लिए सरकार को इस प्रक्रिया को सुलभ बनाना होगा और जनता को विभिन्न स्तरों पर ज़ागरूक करना होगा।
 तकनीक के हमकदम होने की अपनी कीमत होती है, जिसे चुकाते-चुकाते वयक्ति अनेक तनावों से गुज़रता है। यही आशा कि देशहित में उठाए जा रहे इन सभी कदमों से आम आदमी को परेशानियाँ ना झेलना पड़े नहीं तो हर मन यही कहेगा – 

                      ‘पर्दा- ए- लुत्फ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए,
            हाए ज़ालिम तिरा अंदाज-ए-करम क्या कहिए ।(फ़िराक़)

http://www.epaper.rajexpress.in/Details.aspx?id=254036&boxid=55932241