सरकार एक बार फिर से दसवीं औऱ आठवीं के बाद पांचवीं कक्षा में भी बोर्ड परीक्षा को अनिवार्य करने की तैयारी कर रही है। इसको लेकर पूर्व में बहुत से राज्यों का तो दबाव था ही पर अब केन्द्र औऱ राज्य सरकार की साझा समिति ने भी इसकी सिफारिश कर दी है। शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है अर्थात् इसमें केन्द्र औऱ राज्य अपने-अपने हिसाब से बदवाल कर सकते हैं। राजस्थान में प्राथमिक औऱ माध्यमिक स्तर पर बोर्ड परिक्षाएँ आयोजित करने का निर्णय राज्य सरकार द्वारा लिए गए हैं। समय-समय पर यह निर्णय राज्य सरकारें लेती रही हैं पर विडम्बना यह है कि सरकारों के बदलने के साथ ही बोर्ड की परिक्षाओं के निर्णय भी बदलते रहे हैं। राज्य में हो रहे इन बदलावों के साथ-साथ ही केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री जावड़ेकर ने भी सत्र 2017-18 में दसवीं बोर्ड परीक्षा फिर से प्रारम्भ करने की घोषणा की है।
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक वरिष्ठ सूत्र कहते हैं कि पिछले कुछ समय से इस बात को लेकर व्यापक सहमति बन रही है कि पांचवी औऱ आठवीं में भी राज्य स्तर पर बोर्ड परीक्षा आयोजित की जाए। फेल नहीं करने की नीति की समीक्षा के लिए बनाई गई केब की उप समिति ने अपनी रिपोर्ट में भी इसकी सिफारिश की है। इसके अनुसार पांचवी और आठवीं में राज्य स्तरीय परीक्षा व्यवस्था लागू की जाए। साथ ही उन्हें दुबारा परीक्षा देने की छूट भी दी जाए। स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम को निर्धारित किया जाए और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार किया जाए। राजस्थान राज्य को इस संदर्भ में पूर्व में शिक्षा के क्षेत्र में बीमार राज्य का दर्जा दिया जाता रहा है परन्तु स्कूली शिक्षा में किए गए नए बदलावों से शिक्षा विभाग की रिपोर्ट के अनुसार 15 लाख नामांकन बढ़े हैं औऱ राज्य में अब सरकारी स्कूलों में गुणात्मक सुधार हुआ है।
वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून को लागू करने के साथ ही आठवीं तक छात्रों को फेल नहीं करने की नीति राजस्थान के साथ-साथ अनेक राज़्यों में भी अपनायी गई थी। शिक्षा का अधिकार आने के बाद इस पर रोक लग गई थी। इसके बाद हुए अध्ययन अध्यापन में पाया गया कि सरकारी स्कूलों में अध्यापन का स्तर बहुत घट गया है। पास करने के इस रवैये से छात्र औऱ शिक्षक दोनों ही स्तर पर गंभीरता कम हो गई। राजस्थान में वर्तमान में आठवीं बोर्ड को प्रारम्भिक शिक्षा पूर्णता प्रमाण पत्र नाम दिया गया है। इसी तर्ज पर पांचवी बोर्ड को प्राथमिक शिक्षा अधिगम स्तर नाम दिया गया है। बोर्ड परीक्षा लागू करने के पीछे यह तर्क दिया जाता रहा है कि विद्यार्थियों का शैक्षणिक स्तर बढ़ाने के लिए यह ज़रूरी है। वंसुधरा सरकार का भी इसके संबंध में यही मत रहा है कि प्राथमिक औऱ माध्यमिक स्तर पर बोर्ड नहीं होने से शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है जिसका परिणाम 10 वीं औऱ 12 वीं के परिणामों पर भी पड़ता है। सरकार का तर्क है कि प्राथमिक औऱ माध्यमिक कक्षाओँ में बोर्ड लागू किए जाने से बच्चें पढ़ाई के प्रति सजग होंगे, प्रारम्भिक कक्षाओँ से ही उनके बेहतर भविष्य की नींव तैयार हो पाएगी। बोर्ड पैटर्न से परीक्षा कराने से बच्चों की प्रतिभाएँ निखर कर सामने आएँगी। पर ज़मीनी हकीकत कुछ औऱ है, सीमित संसाधनों में जबरन अच्छा परिणाम तैयार करवाने की बाध्यता की तलवार भी उन्हीं शिक्षकों के माथे होगी जो अनेक भूमिकाओँ में एक साथ नज़र आते हैं।
शिक्षा में सुधार होना ज़रूरी है परन्तु सरकारी औऱ निजी स्कूलों में बोर्ड के अलग-अलग नियम भ्रमित तो करते ही हैं साथ ही मूल्यांकन प्रक्रिया में भी पृथक्कत्व और विसंगतियों को भी दर्शाते हैं। गत सत्र में आठवीं बोर्ड में भी ऐसे ही नियम लागू किए गए थे जिससे अनेक निजी स्कूल में पढ़ रहे विद्यार्थियों ने आठवीं बोर्ड की परीक्षा नहीं दी थी। इसका कारण इस परीक्षा का ऐच्छिक होना था। साथ ही यह परीक्षा हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए ही अनिवार्य थी। इसके बाद शिक्षा विभाग ने नियम बदलते हुए अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए भी आठवीं बोर्ड परीक्षा देना अनिवार्य किया गया। ऐसा ही निर्णय पांचवी बोर्ड के लिए लेते हुए शिक्षा राज्य मंत्री ने कहा है कि इसमें अच्छा प्रदर्शन नहीं करने वाले बच्चे फेल होंगे साथ ही उन्हें अपना शैक्षणिक स्तर सुधारने हेतु एक वर्ष का समय दिया जाएगा।
गौरतलब है कि राजस्थान देश का संभवतः पहला राज्य होगा जहाँ सरकारी स्कूलों में स्टार रेटिंग लागू की जाएगी, जिससे शिक्षा के स्तर में सुधार होगा। यह रेटिंग हर स्कूल की बोर्ड परीक्षा परिणामों के आधार पर होगी। एक ओर जहाँ ऐसी पहल है वहीं दूसरी ओर आँकड़े यह भी बताते हैं कि राजस्थान स्कूली शिक्षा पर अपने कुल बजट का महज 16.7 फीसदी हिस्सा ही खर्च करता है जो कि गत चार वर्षों से स्थिर बना हुआ है। ज़रूरत बोर्ड पद्धति के साथ-साथ शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने की है, सुविधाएँ जुटाने की है। चाइल्ड राइट्स एंड यू तथा सेंटर फॉर बजट्स गवर्नेंस एण्ड अकाउंटेबिलिटी (क्राई) की ओर से दी गई जानकारी में यह भी बताया गया है कि राज्य में प्रति विद्यार्थी व्यय 13,512 है जो ओडिशा और छत्तीसगढ़ से भी कम है। राज्य में स्कूली बच्चों का एक बड़ा वर्ग सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कमजोर भी है। गाँवों में सुविधाएँ नहीं है। स्कूलों में सत्र पर्यन्त संतोषजनक उपस्थिति भी नहीं पाई जाती। इन्हीं विसंगतियों के मद्देनज़र प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा के रूझानों पर नज़र रखने वाले विशेषज्ञ आगाह करते रहें हैं कि देश गुणवत्ता पूर्ण स्कूली शिक्षा के लिए जरूरी संसाधनों की कमी की बहुत बड़ी कीमत चुका रहा है।
बोर्ड लागू करके सरकारें विद्यार्थियों का मानसिक तनाव बढ़ा देती हैं। इसका असर उऩ शिक्षकों पर भी पड़ेगा जो व्यवस्था औऱ स्टाफ के अभाव में स्कूलों को अकेले ही संभाल रहे हैं। सरकारें सिर्फ नतीजों पर ध्यान केन्द्रित करती रहीं है, उनकी गुणवत्ता कैसे बढ़ायी जाय उन विकल्पों पर नहीं। शिक्षा नीतियों में राष्ट्रीय स्तर पर एकरूपता का अभाव है। हर नयी सरकार अपने नवीन प्रयोग शिक्षा पर थोपती हैं। वे अलग करने की चाह में नए अभियान चलाती हैं जो नयी सरकार के आते ही फिर बदल जाते हैं। आज आवश्यकता है पूरे देश में समान शिक्षा नीति के अपनाने की जिससे शिक्षा में गुणात्मक स्तर पर सुधार किया जा सके। छात्रों को शिक्षा का वह माहौल प्रदान किया जाए जो उन्हें भविष्य के प्रतियोगी वातावरण से लड़ने के लिए तैयार कर सके। शिक्षा भविष्य निर्माण, राष्ट्र निर्माण में सहायक हो इसलिए ज़रूरी है प्रारम्भिक शिक्षा को सशक्त करने की, शिक्षा नीतियों के साथ ही पाठ्यक्रम में एकरूपता लाने की, बेहतर पाठ्यसामग्री उपलब्ध करवाने की,ना कि समय-समय पर अल्पकालिक प्रयोगात्मक परीक्षण करने की।