Saturday, February 26, 2022

दैन्य से परे लोकमन पर अंकित मानवीय छवि का पुनराख्यान- सीता पुनि बोली


 

लेखन तब विशेष बनता है जब अनुभूतियाँ प्रगाढतम और प्रगल्भता के साथ सामने आती हैं। उपन्यास लिखना धैर्य की माँग करता है,और वह भी जब किसी धार्मिक आख्यान और पारम्परिक कथा पर आधारित हो तो बात और भी गंभीर नज़र आती है। मृदुला सिन्हा जी सदैव भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कारों की पैरोकार रही हैं और साथ ही सामाजिक रुग्णताओं के प्रति स्पष्ट नकार भी उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। मिथक पर लिखना शायद किसी अन्य रचनाकार के लिए कष्टकर विषय रहता होगा;परन्तु मृदुला जी यह काम बड़ी सहजता से कर गुज़रती हैं। यह बात उनके पुराख्यानों पर आधारित उपन्यासों-सीता पुनि बोली, ‘विजयिनी और परितप्त लंकेश्वरी के अध्ययन से सहज ही जाना जा सकता है। वैसे स्त्री मुद्दों पर वे जिस तरह से बात करती हैं उतना सलीके और प्रेरणास्पद् तरीके से हर कोई नहीं कर सकता क्योंकि बात जब भारतीय ऐतिहासिक संदर्भों और स्त्री की आ जाती है तो इन विषयों पर लिखना और चुनौतीपूर्ण हो जाता है। मधुसिक्त लेखनी की धनी मृदुला जी अपने लेखकीय मंतव्य को स्पष्ट करती हुई कहती हैं,साहित्यकार को मधुमक्खी की भूमिका में होना चाहिए, मकड़ी की नहीं। जो साहित्यकार समाज के विभिन्न क्यारियों से परगण इकट्ठा करते हैं, उनका साहित्य उसी समाज के लिए स्वास्थ्यवर्धक होता है। (महिला साहित्यकार सम्मेलन,अजमेर में दिए गए वक्तव्य में) एक संवेदनशील अंतःकरण जीवन के किसी भी क्षेत्र को प्रभावित किए बिना नहीं रहता। सूक्तियों से वे किस प्रकार किसी भी कथानक में अर्थ-गांभीर्य भर देती है यह उनके ही लेखकीय कौशल का परिचायक है।

भारतीय पुराकथाओं का अपना इतिहास है और वे  किसी न किसी विधा में एक परम्परा का अनुगमन करती हुई साहित्य में उपस्थित भी रही है।रामकथा इसी कड़ी में जनमानस के अधिक निकट ठहरती है साहित्य में  इसी रामकथा को सर्वाधिक तरीके से पुनर्व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। इन उपन्यासों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचाव नरेन्द्र कोहली जी का है।

‘‘नरेंद्र कोहली जी‘ ने रामकथा को आधार बनाकर पाँच उपन्यास लिखें हैं- दीक्षा’ (1975), ‘अवसर’ (1976), ‘संघर्ष की ओर’ (1978) और युद्ध‘ भाग-1 एवं युद्ध‘ भाग-2 (1979)। ये सभी उपन्यास स्वतंत्र रूप से प्रकाशित हुए हैं। बाद में दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ इन तीन उपन्यासों को एकीकृत कर अभ्युदय’-1 और वहीं युद्ध‘ (भाग-1 एवं भाग-2) को एकीकृत कर अभ्युदय’-2 नाम से प्रकाशित किया गया।डा0 प्रदीप लाडनरेन्द्र कोहली के उपन्यासो का अनुशीलन,अभय प्रकाशन,सं.2012 पृष्ठ स. 88

स्वयं कोहली ने अपने इन उपन्यासों को ‘‘रामकथा की पुनर्व्याख्या ही कहते हैं। नरेन्द्र कोहली ने इन पाँचो उपन्यासों में समकालीन स्थितियो और सरोकारो को गहरी संवेदनशीलता और गहन चिंतन के साथ प्रस्तुत करते हुएपरम्परागत रामकथा को आधुनिक संचेतना के आलोक में तर्क-संगत पुनर्व्याख्या द्वारा नवीन अर्थ और सर्जनात्मक रूप देने का प्रयास किया है। उन्होंने अवसर में नारी को पुरूष के समस्तर पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया  है। सीता‘ के चरित्र में स्थितसमकालीन नारी की छवि को प्रतिबिम्बित करलेखक ने आधुनिक संदर्भ में नारी-क्रांति के स्वर क मुखरित किया है। प्रस्तुत उपन्यास मे ‘कोहली‘ ने अनेक युगीन प्रश्नो को जहाँ पात्रो के माध्यम से उठाया हैवहीं  चिर-प्रसिद्ध आदर्श पात्रो द्वारा युगीन समस्याओ का समाधान भी प्रस्तुत किया हैपरन्तु वहाँ सर्वत्र राम ही राम हैं। सीता कोऔर उसके स्त्रीमन को वहाँ उतनी प्रमुखता से नहीं उरेहा गया है।

रामकथात्मक उपन्यासों की इन्ही कड़ियों में सीता पुनि बोली उपन्यास में स्व अस्मिता के प्रति चैतन्य और प्रश्निल मानसिकता रखने वाली, वाक्पटु और संस्कारों में प्रगाढ़ विश्वास रखने वाले स्त्री चरित्र से भेंट होती है। यहाँ सीता का चरित्र वही है जो पौराणिक रामचरित काव्यों में तथा लौकिकवाल्मीकि रामायण और तुलसी के महाकाव्य रामचरितमानस  में चित्रित किया गया है परन्तु उनसे किंचित् भिन्न अर्थों में। रामचरित काव्यों में दरअसल स्त्री पात्र राम के महाकाव्यत्व चरित के आगे बौने ही नज़र आएहैं। वहाँ सीता का विरोध है ,पर मौन के ही साथ। सीता के भूमि में समाहित होने पर वह ध्वनित या प्रतिबिम्बित तो होता है पर उसकी मुखरता भी  राम के विलाप में ही स्थान पाती है। सीता पुनि बोली उपन्यास सांस्कृतिक सीमाओं का अतिक्रमण किए बगैर इस मौन को मुखर वाणी तो प्रदान करता ही है साथ ही जनमानस में पैठी सीता के रचनात्मक और कर्तृत्व पक्ष से भी साक्षात्कार करवाता है। 

 किसी भी कृति के प्रति जो पहले-पहल ध्यान खींचता है वह है उसकशीर्षक। विवेच्य उपन्यास का शीर्षक भी हर संवेदनशील मन को आंदोलित करने के लिए काफी है कि सीता को आखिर पुनः बोलने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? वह सीता जो ऐतिहासिक आख्यानों में पतिपरायणा है, अग्नि  परीक्षा जैसे कठोर और त्वरित निर्णयों की मूक अनुगामिनी है, अपने निर्णयों के प्रति सजग है और प्रतिरोधशीला है पर उतनी है जहाँ तक उसकी सौम्यता खण्डित ना हो । कैसी विडम्बना है कि उसका प्रतिरोध ध्वनित या प्रतिबिम्बित भी होता है तो बस राम के विलाप में। सीता पुनि बोली , सीता को पुनः बोलने की आवश्यकता क्यों हुई, आखिर वे कौनसे सवाल थे जो अनुत्तरित रह गए , मृदुला जी उन्हीं बिंदुओं पर प्रकाश डालने की चेष्टा करती हैं। हालांकि सवाल अभी भी अनुत्तरित ही रह जाते हैं परन्तु मूक सीता का यह मानवी रूप  लौकिक साहित्य में पगे मन को आकर्षित करता है। लोक साहित्य के माध्यम से सीता की  अन्यान्य चारित्रिक विशेषताएँ  पाठक गण के सम्मुख हैआज भी हर माता वंशानुरूप कर्तव्य निर्वहन की शिक्षा, स्वविवेक से संचालित होने की शक्ति सीता के ही आदर्श को ध्यान में रखती हुई हर पुत्री को सौंपती है। 

सीता पुनि बोली को पढ़ते हुए मुझे भी परकाया प्रवेश का अवसर मिला। और एक व्यथा, किंचित घुटन और औदार्य के एक विस्तृत सरोवर में डूबने उतराने के विराट और सात्त्विक अनुभव मुझे पाठकीय प्रक्रिया के तहत सतत महसूस होते रहे। पीड और प्रश्नों के अनेक गह्वर इस ग्रंथ को पढ़ते हुए फूट पड़ते हैं। प्रश्न कौंधता है कि वह सीता जो संकट की घड़ी में राम के साथ वनवास का स्वयं वरण करती है, राम के जीवन के व्यथा केक्षणों में उनके जीवन को उत्सव बना देती है,वह स्वयं क्यों उसी राम के द्वारा अकूत व्यथा के क्षणों में असहाय और अकेली छोड़ दी जाती है?स्वनिर्णय और आत्मचेतस प्रज्ञा की स्वामिनी आखिर क्यों अग्नि-परीक्षा  और गर्भिणी रहने पर भी निर्वासन का अभिशाप अकेले सहती है। इन सबका उत्तर शायद इनके पीछे राम का लौकिक व पुंसवादी, आरोपित व्यवहार ही है जो सीता के मानुषी व पत्नीत्व रूपी व्यक्तित्व पर हावी हो गया । 

मृदुला जी स्त्री मुद्दों, मनोविज्ञान और भारतीय संस्कृति की सजग पैरोकार के रूप में हमारे सामने आती हैं। वे आलोच्य कृति में भी सीता के उसी स्त्रीत्व का सम्मान करती हुई  वाल्मीकि और सीता संवाद के वाक्यों को उद्धृत करती है कि, “मैं प्रति सुबह स्नान-ध्यान करके श्लोक की रचना करने लगा। श्रीराम की कथा लिखीकिंतु वह तो सीता के चरित्र-गान से आच्छादित है, सही है कि उसमें करुणा तुम्हारे ही कारण आई है। मैं स्वयं जब वीणा पर अपने श्लोकों का गायन करता हूँ तो भाव विह्वल हो जाता हूँ। परंतु यह रामकथा नहीं है यह तो सीतायाश्चरितं महत’ है। (सीता पुनि बोली,पृ.-252); परन्तु यह स्वीकारोक्ति, सीता के अस्तित्व और उसकी करुणा के प्रति स्वीकार भाव लौकिक ग्रंथों में मुखर नहीं हो पाया है। सीता को केन्द्र में रखकर लिखे गए साहित्यिक ग्रंथ कम ही हैं,ऐसे में इस रिक्तता की पूर्ति स्वयं सीता के ही स्वरों में सीता पुनि बोलीग्रंथ करता है। यह रचना हर प्रसंग में यह घोषणा करती है कि राम का पुरुषत्व सीता के नारीत्व में ही पगा है। आत्मकथात्मक शैली में किसी लोकप्रचलित मिथक को गढ़ना अत्यंत दुष्कर कार्य है;परन्तु मृदुला जी इस कार्य को बखूबी करती हैं। उन्होंने सीता से जुड़े हर प्रसंग को एक उत्सव के रूप में इस पुस्तक में पिरोया है, यथा- मिथिलोत्सव, अवधोत्सव,वनोत्सव, लंकोत्सव,आश्रमोत्सव, मातृ-उत्सव और महाप्रयाण। इसका कारण संभवतः भारतीय मन का उत्सवधर्मी होना रहा है।  उत्सव अर्थात् उच्चता की ओर गमन करने की आकांक्षा, यही भाव इस आत्मकथात्मक उपन्यास के हर पर्व में अभिलक्षित होते हैं। 

उपन्यास समरसता की बात करता है और यहाँ भी स्त्री-पुरुष संबंधों की समरसता सर्वोपरि है, इसीलिए मृदुला जी राम के मुख से कहलवाती हैं, पुरुषों के लिए भी एकपत्नीव्रत का आदर्श है। दो व्यक्तियों से बना कोई भी ऐसा संबंध नहीं ,जिसमें एक को ही धर्म निभाना पड़े। दोनों ओर से बढ़े हाथ ही जुड़ते हैं। यह जुड़ाव तब तक बना रहता है, जब तक दोनों हाथ बढ़े रहते हैं। (सीता पुनि बोली,पृ.-69) इस संवाद में सीता के तर्क का शमन यहीं नहीं हो जाता वह आगे फिर पूठती है कि फिर अयोध्या के प्रतापी राजा दशरथ को तीन विवाह क्यों करने पड़े। और उसके उत्तर में जो पुरुष-सहजता सामने आती है, वह दुर्लभ है- राजाओं के जीवन में कुछ विवशताएँ भी होती हैं। उन्होंने किन परिस्थितियों में तीन विवाह किए,कभी बाद में बताऊँगा। परन्तु मैंने एक प्रण लिया है…सरयू नदी का यह निर्मल जल, इसके किनारे अस्थित ये वृक्ष, लताएँ, तोता-मैना, भृंगराज और सबसे ऊपर आपकी जन्मदातृ, पृथ्वी साक्षी है कि  मैंने एकपत्नीव्रत लिया है। मैं आपके अतिरिक्त किसी नारी की ओर मात्र उनके स्त्री होने के नाते नहीं देखूँगा। माँ-बहन औऱ अन्य रिश्तों के रूप में वे मेरी पूजनीया रहेंगी। आफको विश्वास दिलाने के लिए सरयू का जल हाथ में लेकर मैं पुनः एक बार अपना संकल्प दुहराता हूँ। (सीता पुनि बोली,पृ.-69) यह भारतीय संस्कृति और उसका उज्ज्वल पक्ष है जिसे लेखिका तर्क और प्रमाण के साथ अनेक प्रसंगों के माध्यम से सामने लाती है।

अगर मैं कहूँ कि इस ग्रंथ का हर उत्सव उज्ज्वल मोती सदृश है तथामहाप्रयाण इस ग्रंथ की स्फटिक समान आत्मातो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। महाप्रयाण के माध्यम से सीता का जो गौरवान्वित , तपस्विनी , धीरवाहिनी रूप इस प्रकरण में सामने आया है वह शब्दातीत है। अयोनिजा सीता, ऊर्वीजा सीता, वीर्यशुल्का सीता जब यह उद्घोषणा करती है कि मातृत्व को किसी परीक्षा की आवश्यकता नहीं होती है तो मेरे जेहन में आज के समय की अनेकानेक विसंगतियाँ कौंध जाती है। क्या मृदुला जी सीता स्वर में ही उन सभी विसंगतियों को करारा जबाव दे रही हैं, यह विचारणीय पक्ष है, “मैं पृथ्वी-पुत्री सीता इन दोनों पुत्रों की जननी हूँ। इक्ष्वाकु वंश की ये दोनो संतानें उनके प्रतापी वंश को अर्पित कर मैंने अपना दायित्व पूर्ण किया। माँ के सत की घोषणा नहीं होती और परीक्षा भी नहीं। माँ तो माँ होती है,उसी के गर्भ से संतान पैदा होती है। यह सत्य है इसीलिए मातृत्व शिव एवं सुंदर भी है। असंख्य संतानों की माँ धरती की अंश अब मैं अपनी माँ के सान्निध्य में जाना चाहती हूँ। चलते-चलते बहुत थक गई हूँ,मानो मेरी शक्ति क्षीण हो गई है। पुनः शक्ति प्राप्त करने के लिए धरती ही उपयुक्त स्रोत है। मैं कुश एवं लव की जननी और पालनकर्त्री अब अपनी जननी का आलिंगन करती हूँ, उसके सत में विलीन हो जाना चाहती हूँ। (पृ.293) पुनःश्च, माँ के सत की घोषणा नहीं होती और उसे किसी अग्निपरीक्षा की भी आवश्यकता नहीं होती’, यह कहकर मृदुला जी लोकसभा में प्रकारान्तर से राम पर और उनकी अग्निपरिक्षा पर ही आक्षेप लगाती है। स्वाभिमानिनी सीता हांलाकि यहाँ भी बार-बार कर्तव्य और दायित्व की शरण में जाती हैं परन्तु आत्मचेतस होकर, निःसंदेह यह उल्लेखनीय बात है।

इस प्रसंग में सीता जनमानस की आकांक्षा के अनुरूप अपनी शुद्धि की घोषणा नहीं करती वरन् अपना निर्णय भी खरे शब्दों में सुनाती है। सीता की इस उद्घोषणा में राम के प्रति तीखा कटाक्ष है, उस अग्नि-परीक्षा के प्रति आक्रोश है और निर्वासित मन की वेदना है और इसके ऊपर भी इक्ष्वाकु कुल की मर्यादा वहन करने का सत है, जिसे वह पूरी गरिमा से निर्वहन करती है। राम के वाटिका प्रसंग की प्रथम भेंट को अपने चक्षुओं में जीवनपर्यन्त समाहित करने वाली सीता, जीवन के तीसरे प्रहर में उसीाम के साथ सहजीवन के निर्णय को नकारती है, संभवतः इसलिए भी कि राम ने स्वयं अपने लिए सोने की सीता बनवा ली थी। एक निर्जीव पत्नी को वामांग में बैठाने के उपरांत उन्हें सीता के जीवंत व्यक्तित्व की भला क्या आवश्यकता हो सकती है। वह उन तमाम सवालों को स्वयं अपने ही स्वरों में नकारती है, जो करणीय-अकरणीय प्रश्न अकसर ऐसी अवश स्थितियों में किसी भी स्त्री के समक्ष आ खड़े होते हैं। क्योंकि अकेले जीवन जीने का निर्णय किसी भी काल में स्त्री के लिए आसान नहीं रहा है परन्तु सीता स्वयं को संभालती है और सतत मंथन करती हुई अपने निर्णय को सही ठहराती है। यदि मैं राम के साथ वन नहीं जाती, रावण का प्रस्ताव स्वीकार कर उसकी अंकशायिनी बन जाती, लंका से अयोध्या चले आने के पूर्व अग्निपरीक्षा नहीं देती, राम द्वारा निर्वासित होकर  नदी में डूब मरी होती, उनके पुत्रों को युवराज के योग्य नहीं बनाया होता तो निश्चय ही मिथिलावासियों का सिर नीचा होता।”(पृ.284) चूँकि सीता ने ये सभी कर्म पूरी निष्ठा से किए हैं अतः उस पर   मिथिलावासियों के क्रोध का अधिकार नहीं बनता। 

किसी भी आत्मकथात्मक उपन्यास में कथा में रहस्य की गुंजाइश नहीं रहती उस पर भी जब उपन्यास सीता जैसे मिथकीय चरित्र पर आधारित हो जिसकी घटना दर घटना लोगों की जबान पर चढ़ी होती है,वहाँ कल्पना का अवकाश लेना और अपनी बात कह पाना खासा मुश्किल नज़र आता है। यहाँ लेखक के सामने भारतीय जनमानस को अखंड बनाए रखना एकचुनौती था वरन् साथ ही लेखकीय प्रतिबद्धता दिखाते हुए उन बंद विषयों पर भी बात करना था जो रामचरित में कहीं ना कहीं अनुत्तरित ही रह गए थे। सीता के जन्म, उसके लालन-पालन, विवाह, वनगमन, लंका निवास और पुनः अयोध्या आगमन इन सभी जीवन-सूत्रों को गूँथते हुए मृदुला जी उस बाल सीता के मन की गुत्थियाँ खोलने का प्रयास करती हैं जो माँ की कुक्षि से ना उत्पन्न होने के कारण उपजी है, बचपन में सीता का ऊर्मी से सहोदरा भाव ना रख पाना और स्वयं को जनक की लाडली पुत्री स्थापित  होने की  जिद बालमनोविज्ञान के आलोक में देखी जा सकती है। लेखिका का सीता मन स्त्री की अस्मिता को लेकर कितना सजग है , यह कृति में अनेक स्थानों पर देखा जा सकता है। वे प्रश्न उठाती हैं कि आखिर क्यों सभी लड़ाइयाँ संपत्ति,धरती और स्त्री के लिए ही होती आईं हैं। स्त्री कई मायनों में पुरूष से बलवती होती है फिर भी उसकी गिनती जड़(धन-संपत्ति) और जमीन के साथ ही की जाती है। कृति में सीता सुधन्वा के भेजे गए संदेश पर केवल स्वयं के लिए ही नहीं वरन् संपूर्ण स्त्री जाति को संपत्ति की श्रेणी में गिने जाने पर विह्वल हो जाती है।

हमारे समाज में स्त्री को आँचल में है दूध आँख में पानी की दृष्टि से ही देखने की कोशिश रही है और इस अबलत्व की परिभाषा में उसकी तेजस्विता और शौर्य को कहीं कोने में धकेल दिया गया है। इस उपन्यास में इन्हीं उपेक्षा के कोनों को सँवारने की कोशिश की गई है। सीता लोकमानस में गहरे प्रतिष्ठापित है। उस चरित्र में नवोन्मेषशालिनी कल्पना के द्वारा भी यह कार्य किया जा सकता था पर वे सीता के चारित्रिक गुणों क रक्षा करती हुई अपनी बात कहती हैं इसी क्रम में वे बार-बार मातृत्व की बात सीता के माध्यम से कहती हैं, “मातृत्व भी एक शौर्य भाव है। माँ स्त्री से ऊपर होती है, मातृत्व भाव सभी भावों की जननी है। अपनी कोख से संतान उत्पन्न किए बिना भी कोई स्त्री माँ बन सकती है। उसके अंदर का मातृत्व भाव जगना चाहिए।(पृ.97) इसके उपरान्त वे शक्तिसम्पन्न सीता के रूप को व्यक्त करती हैं जो अशोकवाटिका में ही रावण को जड़ के साथ खत्म करने की आंकाक्षिणी दिखाई देती हैं। प्रकृति की सहोदरा सीता वीरता, साहस और  पातिव्रत्य की कांति के रूप में सामने आती है। लक्ष्मण के मुख का यह कहन सीता पुनि बोली में ही सामने आता है कि सीता रामकाज में मंत्री, घर के कामकाज में सहयोगिनी, धर्म में पत्नी, क्षमा में धरती , स्नेह में माँ और जीवन के उत्सव कार्यों में सर्वस्व है।

यह उल्लेखनीय है कि सीता पुनि बोली, उर्मिला नवम् सर्ग की तरह केवल विरह व्यथा होकर नहीं रह गया है अपितु उसके समस्त चरित्र को ससम्मान और यथार्थ की ज़मीन पर सामने रखता है। यहाँ किसी भी क्षण सीता की आँख में आँसू नहीं है। वह भाव विह्वल ज़रूर हैं पर वे आत्मचेतस होकरस्त्री मुद्दों पर बात करती है, राम के निर्णयों पर चिंतन मनन करती है अपने निर्णय सुनाती है पर ये सब कल्पना की अतिशय उड़ान लेकर नहीं वरन् पारम्परिक जीवन मूल्यों की लकीर पर चलती हुई।  यह कृति रामकथा के संपूर्ण सत्य को अक्षुण्ण रखते हुए, उससे साम्य रखते हुए भी अनेक सहज और मौलिक उद्भावनाएँ करती हैं जो  सीता के पुनः बोलने को सार्थक करती है। कृति वर्तमान मूल्यहीनता और दायित्वहीनता के दौर में मूल्यों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास भी है कि हर जीवन कुंदन की तरह तपकर ही विराटता को प्राप्त कर पाता है। यह कथ्य हाव-भाव, संवाद में तो विशिष्ट है ही पर साथ ही पाठक को एक नवीन जीवन दृष्टि से भी संपृक्त करता है कि श्रेय और प्रेय की भावना जीवन को उच्चता प्रदान नहीं करती वरन् त्याग और आत्मचेतस रूप व्यष्टि के साथ समष्टि का भी उद्धार करते हैं। सीता का तापसी स्वरूप उसके सात्विकता और पावित्र्य का परिचय देते हैं तो स्त्री और मातृत्व में भी विभेद बताते हैं कि स्त्रीत्व तो मात्र एक क्षणिक आवेग है परन्तु मातृत्व शाश्वत व स्थायी भाव है और यह भाव केवल कुक्षि में नहीं वरन् स्त्री मन में पलता है। सीता जिसे कहा जाता है कि वह भूमि में समा गई , पर जिसे समाते किसी ने नहीं देखा, राम ने भी नहीं ,दरअसल वह कंपित जन-समुदाय की मोह माया से दूर कहीं दूर निकल आई थी  और सभी ने मान लिया कि सीता धरती में समा गई है। 

स्त्री विमर्श के घात-प्रतिघातों से परे सहज और तार्किक उद्भावनाएँ इस कृति का प्राण है और यह उद्धरण सीता के व्यक्तित्व का सार कि, “सीता की तुलना रत्नों से नहीं की जा सकती। सारे रत्न तो सीता के सहोदर ही हैं। जैसे किसी माँ की कोख से जनमे सात भाईयों और  एक बहन में सात भाइयों के रूप और शील मिलकर भी बहन की बराबरी नहीं कर सकते । उसी तरह सीता संसार के सभी रत्नों से बढ़कर हैं। (पृ.282)सतयुगी सीता आज भी वन-वन भटक रही है, कहीं जीवित तो  कहीं मृत।आज भी समाज उसके सतीत्व, उसके पावित्र्य , उसके त्याग और शुचिता का सम्मान कर ही  उसके अस्तित्व की रक्षा कर सकता है अन्यथा आरोपित विमर्शों की भूलभूलैया तो उसके अस्तित्व की राह को और धुँधला ही कर गुजरेगी