Tuesday, June 14, 2016

महाप्रलय से पहले..

व्हाट्स एप पर एक संदेश पढ़ा था कल...  संदेश, मेरी, हमारी उस चिंता को विस्तार दे गया जिसे हम अक्सर सोचते हैं (? ) .. हालांकि वहां गहरी बात को हास्य के रंग में ढालकर कहा गया था पर विषय तो यह वाकई चिंतन का है..

यहाँ बात करना चाह रही हूँ अपने पर्यावरण की, अपने पर्यावरण पर... अजी छोड़िए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक पर्यावरण की बातें.. पहले अगर सहेज सकते हैं तो सहेज लीजिए अपने प्राकृतिक पर्यावरण को... बचा लीजिए अपनी प्रकृति को.. क्योंकि शायद अब यह अंतिम मौका है..
वेक अप कॉल के बारे में हम सभी पढ़ते हैं अब महसूस करने की बारी है.. अच्छा बताइए अपनी नदियों को रीतते देख कभी उतनी चिंता हुई है जितना आप अपने घर के मटके या फिर टैंक को रीतते देखकर होते हैं.. दो दिन अगर घर पर पानी ना आए तो आप का गुस्सा सातवें आसमान पर होता है पर क्या कभी आपने सोचा है उन पशु-पक्षियों के बारे में जिन के रैन बसेरों पर आप डाका डाले बैठे हैं...
नहीं हम नहीं समझेंगे.. हम अभी भी किसी अवतार की कामना करेंगें.. सरकार का हस्तक्षेप चाहेंगे (हालांकि यहां मैं स्वयं सभी सरकारों को कटघरे में खड़ा करती हूँ जो पर्यावरण संरक्षण के तमाम मुद्दों पर चुप लगाए रहती है ) पर स्वयं अपनी सुविधाओं में रत्ती भर भी कटौती नहीं करेंगे..
गौरतलब है कि अनेक स्थानों पर इस वर्ष सूखा दर्ज हुआ है.. पर हमें क्या.. हम टीवी पर मराठवाड़ा और मरूधर की तस्वीरें देख संवेदनाएँ प्रकट कर देंगे पर क्या मजाल कि अपने घर के नल को कुछ धीरे भी खोलें..
प्लास्टिक पर प्रतिबंध होने के बावजूद ना हम उसका प्रयोग करते रूकेंगे ना ही औरों को इसके दुरुपयोग पर रोकेंगे.. हाँ!  सब्जी वाले पर ज़रूर गरियायेंगे अगर वो थैली में सब्जी नहीं देता है..

पर्यावरण दूषित हो चुका है.. दो दिन पहले यहाँ बारिश हुई.. पहली बारिश पर मुझे इस बार कोई खुशी नहीं हुई वरन् मन व्याकुल हो गया कि यह जो नेमत की तरह बरस रहा है उसे मेरी यह धरा कितना सहेज पाएगी...और जो बहेगा वो इन प्लास्टिक की थैलियों के दानव से कितना लड़ पाएगा.. हाँ! एक बात ज़रूर होगी.. हमारे मन की अगले दिन.. और वो है प्रशासन की खिंचाई, नालों की सफाई ना होने पर .. पर अपनी जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता के बारे में हम सपने में भी नहीं सोचेंगे...

अब तो जागिए.. अब और सोना हानिकारक है.. हम तो ज़ी लिए आगे आने वालों के लिए ज़रा सोचिए.. और अब तो सोचिए नहीं कीजिए किसी और का इंतजार किए बगैर..

आपने गौर किया है कि अब नीम,  पीपल और बरगद जैसे वृक्षों की संख्या कितनी कम हो गयी है.. सुना है कभी सड़कों के दोनों ओर ऐसे पेड़ लगाए जाने का रिवाज़ था जो घने हों, छायादार हों पर अब तो केवल पंछी को छाया नहीं वाली उक्ति ही चरितार्थ होती है... बचा लीजिए अपने पेड़ों को... दे सकते हैं तो दे दीजिए स्वच्छ हवा, पानी और वृक्षों की समृद्ध कतारों की सौगात आने वाली पीढ़ियों को...
रोक सकते हैं तो रोक लीजिए हकीकत को ख्वाब बनने से..

छिः हद दर्ज़े के स्वार्थी हैं हम.. हमने पहाड़ खोद डाले... नदियाँ पी गए,  हरी भरी धरा पर कंक्रीट के जंगल उगा दिये और आकाश का सीना तक छलनी कर दिया..