Tuesday, October 7, 2014

दुराचारों की जकड़न और घटती संवेदनाएँ

           
आजकल अखबार, न्यूज चैनल्स और सोशल मीडिया बलात्कार और यौन शोषण की खबरों से अटे पड़े हैं । इन्हें देखकर पढकर मन खिन्न हो जाता है और अचानक कई प्रश्न भी मन में कौंध उठते हैं कि सहसा क्या हुआ है कि इन घटनाओं में इतनी तेजी आई है या फिर मीडिया ही इन घटनाओं को प्रमुखता से छापने लगा है और आखिर क्यों यह सभ्य माना जाने वाला समाज पाशविकता की सारी हदें पार कर रहा है। जानकार कहते हैं कि ये घटनाएँ पूर्व में भी घटती थी परन्तु इतनी अधिक संख्या में इनका प्रकाश में आना अब प्रारंभ हुआ है। वे यह भी तर्क देते हैं कि देह शोषण संबंधी इन घटनाओं में दस में से चार मामले झूठे होते हैं। यह सब सुनकर मन सही गलत और सच झूठ के भँवर में घूमने लगता है। तर्क चाहे कुछ भी हो परन्तु यह बात सत्य है कि  दुराचार के मामले बढे हैं और 21 वीं सदी के  इस विकासशील भारत में भी हमारी निर्भया आज  समाज के ठेकेदारों और उसकी जड़तावादी सोच के आगे नतमस्तक हैं।
 वस्तुतः बलात्कार की समस्या को जहाँ हम सिर्फ स्त्रियों के प्रति अपराध समझ कर देखते हैं तभी हम गलती कर बैठते हैं। बलात्कार जैसी ये घटनाएँ सिर्फ स्त्री के साथ ही नहीं घटती वरन् हर उस वर्ग के साथ घटती हैं जो शोषित है ,कमजोर, वंचित  है। कुछ समाज सुधारक बताते हैं कि अगर शोषित वर्ग को सशक्त कर दिया जाए तो इस प्रकार की घटनाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है परन्तु बदलाव अभी मीलों दूर है। स्कूल ,कॉलेज,ऑफिस ,समाज या अन्य कार्यक्षेत्रों में जहाँ भी किसी कमजोर को दबाया जाता है वो कृत्य भी इसी श्रेणी में आता है। अन्य मामलों की अपेक्षा में स्त्री के संदर्भ में यह ज्यादा प्रकाश में सिर्फ इसलिए आ जाता है क्योंकि  इसे एक सामाजिक अपराध की संज्ञा प्राप्त है। शक्ति का केन्द्रीकरण जब समाज के किसी एक विशेष अंग पर हावी हो जाता है तो उसके दूसरे अंगों का शोषण होता है  और वह दबा हुआ और असहाय महसूस करता है और यही कारण है कि हिंसा और बलात्कार जैसी घटनाएँ निरन्तर बढ रही है। हाल ही में लगातार सुर्खियों में आ रही बलात्कार औऱ छेड़छाड़ की घटनाओं पर नजर डाले तो आँकड़े देश की अस्मिता को शर्मसार करने वाले हैं। समाज अब असम्वेदनशील हो गया है। रोज खबरों के बियांबान से ना जाने कितनी घटनाएँ हमारी आँखों से होकर गुजरती है, कही पेड़ों पर लाश टकी मिलती है तो कहीं किसी पर एसिड फेंके जाने की खबर तो कहीं दिल्ली घटना सी त्रासदी परन्तु हम सिर्फ और सिर्फ आँकड़ों पर नजर डालते हुए अगली किसी ऐसी ही घटना के घटने का इंतजार करने लग जाते हैं। हम तब तक इन घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेते जब तक हमारा कोई अपना इसकी चपेट में ना आ जाए। बेलगाम होती इन वीभत्स घटनाओँ औऱ इन अस्मत के लूटेरों पर किस प्रकार नियंत्रण पाया जाय  यह यक्ष प्रश्न आज हमारे समक्ष सर उठाए खड़ा है।
बढते हुए बलात्कार की  इन घटनाओं के मद्देनज़र ही कभी घृणित अपराध के लिए अधिकतम यानि, मौत की सज़ा की मांग उठ रही है तो कभी " लात्कार" को नए और विस्तृत संदर्भों में देखने की आवश्यकता। हाल ही में घटी कुछ आपराधिक घटनाओं ने न सिर्फ़ पूरे देश को झकझोर दिया बल्कि इस बहस को और हवा भी दे दी है। आज विडम्बना यह है कि इन अतिसम्वेदनशील मुद्दों पर राजनेताओं के बयान औऱ टिप्पणियाँ चौंकाने वाली हैं। उन्हें पढकर सुनकर आश्चर्य होता है कि हमारे देश के विकास के महत्वपूर्ण चेहरे कैसी अमानवीय सोच रखते हैं। इसी संदर्भ में अगर बात सोशल मीडिया की करें तो युवा पीढी ज्ञान और सम्पर्क के इस श्रेष्ठ साधन का गलत प्रयोग कर रही है। स्मार्ट फोन यूजर्स की संख्या दिन ब दिन बढती जा रही है और आज इस तरह के क्लिप्स  इन मोबाइल फोन पर  आसानी से अपलोड किए जा रहे हैं जिनसे युवा मन भटकन का शिकार हो रहा है।  इन माध्यमों से लाखों लोग अपनी काम पिपासा को बुझाने में लगे हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो दूसरों को कष्ट देकर इसका सुख भोगने की चाहत में अपराधों को अंजाम दे रहे हैं। अगर आँक़ड़ों की बात की जाए तो टेलीकॉम पोर्टल Themobileindia.com पर इंडस्ट्री के सूत्रों का हवाला देते हुए 2013 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 90 लाख से ज्यादा लोग अपने मोबाइल फोन पर  ऐसी क्लिपिंग्स को डाउनलोड करते हैं और उसका लुत्फ उठाते हैं और इनमें से एक बड़ा वर्ग उस बचपन  का है जो किशोरावस्था की ओर अग्रसर हो रहा है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि आज मोबाइल रिपेयरिंग की लगभग हर दुकान, साइबर कैफे और यहां तक कि फुटपाथ पर लगने वाली दुकानों में ऐसे माइक्रो मेमोरी कार्ड या पेन ड्राइव आराम से मिल जाएंगे, जिनमें आपत्तिजनक सामग्री की भरमार होती है। अगर युवा वर्ग ऐप्प संस्कृति के इन खतरों से बचने के लिए सजग हो जाए तो  इन अपराधों में एक सीमा तक कमी लाई जा सकती है। आवश्यकता है युवाओं को सही राह दिखाने की ,उनके भीतर मानवीय संवेदना के उत्स को प्रवाहित करने की ताकि हमारी महनीय संस्कृति सुरक्षित रह सके। निःसंदेह

हम आज शिक्षित हो रहे हैं , समझदार हो रहे हैं और आधुनिकता की दौड़ में बेटियों की परवरिश बेटो की तरह कर रहे हैं परन्तु ठीक उसी समय हम बेटों की परवरिश बेटियों की तरह करना भूल जाते हैं। स्त्री तत्व इंसानियत का परिष्कृत रूप है  और संवेदनशीलता इसका श्रेष्ठ गुण। इसी स्त्री तत्व को हमें हमारे बच्चों में रोपना है। सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक सोच की जड़ें समाज में बहुत गहरे तक फैली है और यही सोच ऐसे अपराधों में  शह प्रदान करती है अतः कोई भी क्रांति सामंती ताकतो के इन दुर्गों को ढहाए बिना सफल नहीं हो सकती। इससे बचाव की पहल हमें खुद से करनी होगी। समाज में उग आई इस बलात्कार संस्कृति को समाप्त करने के लिए हमें परिवार के स्तर पर बदलाव प्रारम्भ करने होंगें। हमें संवेदनशील होने के साथ साथ प्रतिक्रियात्मक भी होना होगा नहीं तो बाहुल्य में हो रही इन  घटनाओं से इस आपराधिक कृत्य का सामान्यीकरण हो जाएगा। प्रशासनिक संस्थाओं,  न्यायपालिका और समाज के सामूहिक प्रयासों से ही ऐसे वीभत्स कृत्यों से मुक्ति संभव है।

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