Thursday, January 28, 2016

तय करनी होगी सामाजिक जिम्मेदारी


भारतीय समाज सदा प्रगतिशील है। यहाँ विगत को नमन करते हुए आगत के स्वागत की परंपरा है। हर व्यक्ति यहाँ आकर अपनी चेतना को प्रगतिशील बनाता है। अनेक प्रतिभाएं यहाँ  आकर निखरती हैं परन्तु कला के क्षेत्र में जब बाजारवाद हावी हो जाता है तो वहाँ व्यक्तित्व और संस्कृति का स्खलन प्रारंभ हो जाता है।  यहाँ यह बात दीगर है कि अगर व्यक्तित्व में ऊर्जा है तो वह स्वयं दैदीप्यमान होगा ही।  हर व्यक्ति अपना जीवन पूरे सम्मान के साथ जीने का अधिकार रखता है औऱ इस हेतु वह अनेक कार्य करता है। गौरतलब है कि सनी लिओन रूपहले पर्दे पर आ रही हैं, वे अपने अतीत को भूलाकर एक सम्मान जनक जीवन जीना चाहती है और कहीं ना कहीं यह भी अपेक्षा रखती है कि समाज भी उन्हें सम्मान दे। हाल ही में  एक टीवी इंटरव्यू के दौरान अपने करियर को लेकर  उन्हें कई कड़े प्रश्नों का सामना करना पड़ा है।  साक्षात्कार में  उनके अतीत से लेकर भावी जीवन की योजनाओं पर सवाल किए गए ।उनसे यह सवाल भी किया गया कि क्या  सिनेजगत  के  शीर्ष अभिनेता भी उनके साथ  काम करना चाहेंगे? सवाल ज़रूर बचकाना है पर  सवाल यहाँ आकांक्षा की है ,यहाँ बात एक आदाकारा के स्थापित होने की है, आकांक्षा औऱ महत्वाकांक्षा के बीच की है। अगर इन दो शब्दों पर गौर किया जाए तो बहुत महीन फर्क है ,महज  एक सीढ़ी का अंतर भर है। क्या वाकई वे अपने अस्तित्व की रक्षा कर पाने की , या एक इमेज जो अब तक बनी हुई है  उसे सुधारने के लिए  प्रयासरत हैं?  इस मुद्दे पर अनेक   तर्क दिए जा रहे हैं कि यह एक प्रगतिशील कदम है , अगर नज़र दौड़ाएँ तो  इस संदर्भ में चौंकाने वाले तथ्य सामने आएँगें।

 जिस शख्सियत  की बात यहाँ  की जा रही हैं , उसकी जो छवि इलेक्ट्रानिक मीडिया में परोसी जा रही है उस पर ज़रा गौर कीजिए। क्या कहीं भी अब तक प्रसारित सिने जगत के बड़े व छोटे पर्दे पर उसे किसी प्रभावशाली या सशक्त किरदार की तरह उकेरा गया है? अगर हम विज्ञापनों या बिग बॉस जैसे कार्यक्रमों पर ही गौर करें तो बात में  सहज ही समझ में आ जाती है कि ये सभी उन्हें कहीं ना कहीं देह के उसी दायरे में धकेलने की कोशिश है जो उनका अतीत रहा है और यही कारण है कि वे  अभी तक  अपनी उसी प़ार्न इमेज से जकड़ी हुई है। अगर सिनेजगत सनी को इस इमेज से मुक्त करने का प्रयास करता तो यह कदम समाज और युवा पीढ़ी के लिए एक आदर्श स्थापित हो सकता था  परन्तु  देह का नीला रंग परोसकर वो अपना बस अपना बाजार ही बढ़ा  रहा है।
मेरा सीधा प्रश्न तमाम अगुवाई करने वालों से यह है कि क्या वे निज़ी तौर पर हिमायती हैं कि किसी स्त्री को देह के बंधनों से भी इतर देख पाने का वे सामर्थ्य रख पाते हैं अगर जवाब हाँ में है तो ये स्थापित करने के सरोकार उचित है अन्यथा सभी पर गहन मंथन करने की आवश्यकता है।  यहाँ तर्क दिए जाते हैं कि किसी का अतीत उसके भविष्य के लिए बाधक नहीं होना चाहिए। परन्तु क्या सिने जगत स्वयं ये बाधाएँ पार कर पाया है।  अगर किसी व्यक्तिव को वो सहजता प्रदान करतै हैं तो ठीक ,वे  उसे उसके दर्दनाक अतीत से मुक्त करने का प्रयास करता है तो ठीक नहीं तो उसे और  किसी  गैर सामाजिक पेशे को एक आदर्श की तरह स्थापित करने  का कोई हक नहीं है।
 सिनेमा और  समाज का अन्योन्याश्रित संबंध है। सिनेमा सबसे प्रभावशाली माध्यम है जो आमजन के दिलोदिमाग से सीधा जुड़ता है। ऐसे में अगर वहाँ किसी व्यक्ति को उसके उस काम की शय पर ही ख्याति मिलती है तो किसी अधपके मन में यह धारणा भी प्रबल हो जाती है कि ये सभी कृत्य सही हैं। अगर समाज को एक दिशा दिखानी है तो ऐसे कदमों को उठाने से पहले सौ बार चिंतन करना होगा। सही गलत के बीच एक सीमा रेखा खींचनी होगी क्योंकि मूल्यों से समझौता करना हानिकारक हो सकता है।

अभी हाल ही में  कंगना रणौत ने एक साक्षात्कर के दौरान इस रूपहले पर्दे के अनेक स्याह पक्षों को उजागर किया है। वे बताती है कि किसी स्त्री को एक मुकाम हासिल करने के लिए इस समाज में बहुत जद्दौजहद करनी पड़ती है।  वे कहती है कि “मैं एक बैंग में दो कपड़े और कुछ रुपये लेकर मुंबई आई और संघर्ष की हर सीढ़ी पार कर आज यहाँ तक पहुँच गई |" ऐसे वक्तव्य  कामयाबी के शिखर पर पहुँचने वाली अनेक  अभिनेत्रियाँ पूर्व में भी देती आ रही हैं । लेकिन कंगना रनौत ने संघर्ष के दिनों में हुए अपने शारीरिक-भावनात्मक शोषण के कटु सच के बारे में बेबाक बात की है । कंगना का यह सच दूसरों को गुमराह होने से बचाने के लिए एक जरूरी कदम है। सफलता के शिखर पर बैठी एक अदाकारा का यूँ खुलकर सच बोलना गांवों, कस्बों और छोटे-छोटे शहरों की कितनी ही लड़कियों को रौशनी के पीछे छुपे यहाँ के मर्मांतक अंधेरों से रुबरु करवाता है। फ़िल्मी दुनिया में प्रसिद्धि और सम्पन्नता के आकाश पर झिलमिलाने वाले चमकते चहरों के रास्ते की अपनी हकीकत है औऱ त्रासदी भी जो कि समाज को जागरूक बनाने के लिए सामने आना ज़रूरी है । ऐसे प्रसंग इस जादुई दुनिया में बिना किसी पृष्ठभूमि के अपनों को छोड़, यहाँ बिना सोचे समझे क्षणिक आवेश में चली आने वालीं अनेक लड़कियों को व्यावहारिक धरातल पर सोचने को विवश करते हैं । सोच समझकर कदम उठाने की सीख देते हैं । गौरतलब है कि कंगना ने अनेक फिल्मों में सशक्त किरदार निभाए है। परन्तु सनी लिओन का अब तक के सफर पर गौर किया जाए तो यह इस प्रसंग के बिल्कुल उलट है ।
यहाँ हर मन  सहमत है कि ज़रूरी नहीं कि हर अतीत सुनहरा हो परन्तु वर्तमान को सशक्त बनाकर समाज के समक्ष अगर आदर्श प्रस्तुत करें तो वह सम्मानजनक होगा  अन्यथा वह समाज को रूग्ण करने में ही सहायक होगा। नयीं कोंपलें नाजुक हैं वे दुनिया की विद्रुपताओं को नहीं समझ पा रही हैं।  यह नवयुवा पीढ़ी बहुत कम समय में सब कुछ हासिल कर लेना चाहती है। ऐसे में इस इस्पात को सनी लिओन जैसे प्रकरण महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ की तरफ धकेल सकते हैं।  ऐसे में किसी शख्सियत को एक आदर्श जामा पहनाने से पहले समाज को और उसके पहरूओं को अनेक बार सोचना होगा कि आखिरकार वह समाज को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है।

Monday, January 18, 2016

बैचेन कर देने वाला कहानीकार- सआदत हसन मंटो


                                                           जन्म- 11 मई,1912
                                                         मृत्यु-18 जनवरी,1955
"वह शब्दों के पीछे ऐसे भागता है है जैसे कोई जाली शिकारी तितलियों के पीछे। वे उसके हाथ नहीं आती। यही कारण है कि उसके लिखने में सुन्दर शब्दों की कमी है। वह लट्ठमार है, जितने लट्ठ उसकी गर्दन पर पड़े, उसने बड़ी खुशी से सहन किए हैं। "
ये मंटों के आत्मोद्गार है जो उन्होंने ' सहादत हसन' में लिखे हैं। मंटों उर्दू के सबसे महत्वपूर्ण, चर्चित एवं विवादास्पद लेखक हैं। वे जब लिखते हैं तो कलम को मानों तलवार सी धार लग जाती है। लिखते समय वे वाक् चातुर्य व शब्दों की सजावट पर निगरानी नहीं रखते। वे जो लिखते हैं सत्य को अपने पास बैठाकर और अनुभव की आँच में तापकर। गौर किया जाए तो यह साफ दिखाई देता है कि उनका साहित्य किसी भी मान्यता का मोहताज नहीं हैं। वहाँ अनैतिक से दिखने वाले नैतिक चरित्र है। यहाँ खुशनुमा स्वप्न और दुःस्वप्न यों साथ-साथ चलते हैं जैसे नदी औऱ किनारा।

वे चाहे विभाजन पर लिख रहे हो या दलित समस्याओं पर या अन्य विसंगतियों पर , उतना ही डूब कर लिखते हैं जैसे कोई अपना ही भोगा हुआ लिख रहा हो । वे उन पर नज़र डालते हैं जिन पर समाज की नजरें वक्र हो जाती हैं। वे ब़ड़ी ही जिम्मेदारी से उन अनजाने पक्षों को उद्घाटित करते हैं ,जिन पर पहुुूुँचा हुआ मनोवैज्ञानिक भी नहीं पहुँच पाता। मंटो का पहला अफ़साना 'तमाशा' शीर्षक से 'ख़ल्क' में प्रकाशित हुआ। यह कहानी जलियाँवाला बाग हादसे से प्रेरित है। एक बच्चे खालिद की अबोध जिज्ञासा औऱ दमनकारी प्रवृत्तियों को यह कहानी बखूबी उज़ागर करती है। कहानी प्रक्रिया में वे इतिहास की घटनाओं को संवेदना,अभिव्यक्ति व सच्चाई के साथ लिखते हैं। यह बानगी और बयाँगिरी ही उनका अपना अनूठा ढब है, जो आज भी लोकप्रिय है। सन् 1919 की एक बात, शिकारी औरतें, दो कौंमें,ठंडा गोश्त, गुरूमुखसिंह की वयीयत और टोबा टेक सिंह उनकी बेहतरीन कहानियाँ है। इन कहानियों में वे एक चरित्र के माध्यम से अनेक चरित्रों की तहें खोलते हैं।

मंटों का लिखा बैचेन करता है, गहरे तक आंदोलित करता है, चेतना को तार-तार करके रख देता है। मुल्क और उसकी बैचेनी से जुड़ी उनकी कहानियाँ निज़ी नहीं है। वे लिखते हैं, "अदब दर्ज़ा हरारत है अपने मुल्क का,अपनी कौम का। वह उसकी सेहत औऱ बीमारी की खबर देता रहता है।" मंटो मुल्क की सेहत और बीमारी का पूरा खाका शब्दशः तैयार करते है। कुछ ने उन्हें सनकी कहा तो कुछ ने उन्हें काफ़िर पर वे तो बेफिक्री में जीने वाले थे ।
 मंटों अपनी कब्र पर स्वयं अपनी इबारत लिखते हैं कि- "यहाँ सआदत हसन मंटो लेटा हुआ है और उसके साथ कहानी लेखन की कला और रहस्य भी दफ़न हो रहे हैं। टनों मिट्टी के नीचे दबा वह सोच रहा है कि क्या वह खुदा से बड़ा कहानी लेखक नहीं है। " मंटों की यह लिखी इबारत उनकी आत्ममुग्धता नहीं वरन् आत्मसम्मान है जो यह बयां करती हैं कि वे मानवता के लिए अपने लिखे से बदस्तूर कायम है।

बुनियादी मुद्दें हैं मातृत्व और शिशु सुरक्षा

               
कहने को हम 21 वीं सदी में जी रहे हैं, विज्ञान और तकनीक के नए पायदान चढ़ रहे हैं, डिजीटल इंडिया और स्मार्ट सिटी में जी रहे हैं पर अभी भी कई-कई जमीनी समस्याएँ यथावत् है।  जब ध्यान बुनियादी समस्याओं पर जाता है तो विकास के ये सारे पायदान धुँधले नज़र आने लगते हैं। इन्हीं समस्याओँ में आज जिन समस्याओँ से आम जन सर्वाधिक जूझ रहा है वे हैं मातृत्व और शिशु सुरक्षा। आज भारत में हर आठ मिनट में एक प्रसूता स्त्री की प्रसव के दौरान मृत्यु हो जाती है । अभी भी ग्रामीण इलाके बुनियादी सुरक्षाओं के लिए तरस रहे हैं। सर्दरात में कोई प्रसूता अब भी पीड़ा के मारे कराहती रहती है औऱ उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र सुने पड़े रहते हैं और एक आम जन उसके बुनियादी अधिकारों की प्राप्ति की बाँट जोहता रहता है।  यह प्रदेश के किसी एक माधोराजपुरा की घटना  का जिक्र नहीं है , वरन् गाहे बगाहे ऐसी अनेक घटनाएँ सुनने को मिलती है जहाँ कभी चिकित्सक दोषी पाए जाते हैं तो कहीं मूलभूत सुविधाओं के अभाव में, किसी नन्हें के माथे पर से माँ का आँचल उठ जाता है तो किसी की गोद सूनी हो जाती है। चिंता का विषय यह है कि तमाम विकास के प्रस्ताव बनाए जाने के बाद भी ऐसी घटनाएँ अनवरत घटती रहती है। दावा किया जाता है कि  नवजात शिशुओं व प्रसुताओं के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर उपचार की निःशुल्क सेवाएँ और प्रशिक्षित कार्मिक  उपलब्ध हैं पर अनेक उदाहरण इन खामियों को स्वयं ही उजागर कर देते हैं।
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राजस्थान की बात की जाए तो यहाँ मातृ और शिशु मृत्युदर के आँकड़ों में कमी लाने के प्रयास किए जा रहे हैं परन्तु अभी भी अनेक समस्याएं इन प्रयासों पर सवालिया निशान लगाती नज़र आती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में भारत का मातृ , नवजात शिशु एवं शिशु मृत्यु के मामले में बेहद खराब प्रदर्शन है। हालांकि पिछले दशक के मुकाबले शिशु मृत्यु दर एवं मातृ मृत्यु अनुपात में गिरावट ज़रुर दर्ज की गई है। आँकड़ो पर नजर डाले तो वर्ष 1990 में शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 जीवित शिशुओं पर 83 दर्ज की गई थी वहीं वर्ष 2011 में यह आंकड़े प्रति 1000 जीवित शिशु पर 44 दर्ज की गई है। मातृ मृत्यु दर भी वर्ष 1990 में प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 570 दर्ज की गई थी जबकि वर्ष 2007-2009 में यह  घट कर 212 दर्ज की गई है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अन्य ब्रिक्स देशों की तुलना में दोनों संकेतक अब भी काफी अधिक हैं। इंडियास्पेंड ने पहले ही अपनी खास रिपोर्ट में बताया है कि किस प्रकार अन्य ब्रिक्स देशों की तुलना में भारत का स्वास्थ्य देखभाल व्यय सबसे कम है। सीएचसी में चिकित्सकों की कमी,  सीएचसी में बाल रोग विशेषज्ञों की कमी,  सीएचसी में रेडियोग्राफर की कमी,  इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष स्वास्थ्य उपचार कराना कठिन है । यही कारण है कि महंगे निजी अस्पतालों की ओर लोगों की संख्या अधिक बढ़ रही है औऱ आम व्यक्ति मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा है।  राजस्थान  में ये तमाम स्थितियाँ औऱ भयावह नज़र आती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में  शिशु मृत्यु दर 47 शिशु प्रति 1000 है औऱ मातृ मृत्यु दर  में भी प्रति एक लाख पर 244 के साथ यह देश में  तीसरे स्थान पर है।


प्रदेश में अनेक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र संचालित है परन्तु वहाँ पर अधिकारी और कर्मचारियों दोनों का ही अभाव है।  स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी गाँवों के साथ ही अगर बड़े बड़े शहरों की ही बात की जाए तो वे भी सामान्य सुविधाओं से जूझते नज़र आते हैं। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी-2015 के अनुसार, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में विशेष चिकित्सा पेशेवरों की 83 फीसदी तक कमी है। इसी के साथ कई शहरों के बड़े अस्पतालों में गहन इकाईयों में काम में ली जाने वाली मशीनें खराब हैं तो कहीँ वे सफाई व्यवस्था जैसी प्राथमिक समस्याओँ से जूझ रहे हैं। टायलेट्स की सफाई का तो यह आलम होता है कि इनका प्रयोग कर किसी को भी असानी से संक्रमण हो जाए। ये तमाम बातें वास्तविक धरातल पर बुनियादी सच को बयां करती हैं और इनकी चपेट में जो वर्ग आता है वह है इस समाज का सबसे संवेदनशील कहे जाने वाला स्त्री व शिशु वर्ग , जिसे सुरक्षा की सर्वाधिक दरकार है।  आज स्मार्ट सिटी जहाँ स्वच्छता व मशीनों के खराब होने की समस्याओं से तो कस्बे उन्हीं केन्द्रों पर ताले पड़े होने की समस्याओं से जूझ रहे हैं। गौरतलब है कि पूर्व में प्रशिक्षित दाईयाँ होती थी जो ये काम बड़ी ही कुशलता से कर लेती थी परन्तु आज शहरों और गाँवो दोनों ही जगह ऐसे प्रशिक्षित हुनर कम ही दिखाई देते हैं। कभी किसी कानून की आड़ में तो कभी जागरूकता की दुहाई देकर इस तंत्र को लगभग समाप्त ही कर दिया गया है। ऐसे में वास्तविक जिम्मेदारी आ पड़ती है सरकारी तंत्र पर जो कि अभी भी अनेक अव्यवस्थाओं से जूझ रहा है। स्वास्थ्य सेवाएँ किसी भी समाज की मुख्य धुरी है औऱ प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहला  प्रयास होना चाहिए उन साँसों को बचाने का जो नवजीवन की आस में अभी- अभी अपनी आँखें खोल रहा हो।
मातृत्व और किसी शिशु का जन्म एक यात्रा का हिस्सा है । जिसमें दोनों ही अनेक कष्टों से गुजरकर नवजीवन के लिए जन्म लेते हैं। इस प्रक्रिया में आई एक छोटी सी चूक भी जीवन को मृत्यु में तब्दील करने के लिए काफी है। सेव द चिल्ड्रन की एक रिपोर्ट के अनुसार महिला प्रसव सेवा मे भारत का 80 विकासशील देशों में 76 वाँ स्थान है। इन के पीछे अनेक कारण है अगर राजस्थान के संदर्भ में ही बात करें तो अनेक माताएँ आज भी प्रसव के लिए घर से अस्पताल पहुँचने के बीच ही दम तोड़ देती हैं।  प्रसव में होने वाली जटिलताओँ की अनभिज्ञता, आवागमन के साधनों का अभाव और एक हॉस्पीटल से दूसरे में रैफर कर दिया जाना इन कारणों में सर्वोपरि है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र,राजस्थान और गुजरात की मातृत्व प्राप्त करने वाली आधी से अधिक महिलाएँ रक्तअल्पता से जूझ रही हैं औऱ केवल 8% महिलाएँ ऐसी हैं जो गर्भावस्था के दौरान ली जाने वाली ज़रूरी दवाओं का सेवन करती हो साथ ही 30% महिलाएँ ऐसी भी है जौ गंभीर संक्रमण और अत्यधिक रक्तस्राव के कारण घर पर ही दम तोड़ देती है। राजस्थान में 15 से 25 वर्ग की आयु का स्त्री वर्ग  ही सर्वाधिक  रक्तअल्पता से ग्रस्त है। कुपोषण की शिकार ये बालिकाएँ ही अपरिपक्व मातृत्व को प्राप्त करती हैं। यहाँ के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के हालात ये है कि अगर कोई गर्भस्थ माता समय रहते  अस्पताल पहुँच भी जाए तो भी उसके और उसके शिशु के जीवन की सुरक्षा की कोई जवाबदेही नहीं है। यह हम नहीं कहते वरन् केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी की गई नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट खुद कहती है कि देश की स्वास्थ्य सेवाएँ मरणासन्न हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति दस हजार की आबादी पर, 50 बिस्तर और 25 चिकित्सक उपलब्ध होने चाहिए परन्तु यहाँ उपलब्ध है महज नौ बिस्तर औऱ 7 चिकित्सक । ये स्थितियाँ  वाकई चिंताजनक है क्योंकि इनका खामियाजा उस आमवर्ग को भुगतना पड़ता है जिसका यह बुनियादी अधिकार है।  हमें और सरकारी तंत्र को यह समझना होगा कि मातृत्व और शिशु सुरक्षा हमारी प्राथमिक आवश्यकताएं हैं। अगर गर्भस्थ महिला को उचित मार्गदर्शन प्रदान किया जाए तो इनमें से 90 प्रतिशत जानें बचायी जा सकती हैं। इस वर्ग को बेहतर और समुचित  स्वास्थ्य सुविधाएं सही समय पर उपलब्ध करवाने के लिए  हम कटिबद्ध हो जाए तो हम हम उस आधी आबादी और भविष्य को सहेज सकते हैं जो कि इस देश के विकास का केन्द्रीय आधार है।


Thursday, January 14, 2016

चेतना के चितेरे और उल्लास का खिचड़ी पर्व


त्योहारों के मन में उल्लास बसता है ,जिस तरह बारिश की बूँदें मिट्टी पर गिर कर उसे एक सौंधी महक से सराबोर कर देती है उसी तरह त्योहार व्यक्ति मन के भीतर छिपी ऊर्जा को पुनर्नवा कर देते है।  मकर संक्राति अर्थात् सूर्य के मकर राशि में आगमन का पर्व, फसल के खिलने औऱ पकने का पर्व ,सरसों के फूलने का पर्व पर अगर अजमेर के संदर्भ में बात की जाए तो यह अपने साथ धर्म के अनेक पहलूओं के साथ-साथ सद्भावना और मनुहारों को भी  समेट कर चलता है। ख्वाज़ा गरीब नवाज की यह नगरी गंगा जमुनी तहज़ीब में रंगी हुई है । सूर्य के उत्तरायण होने का औऱ देवताओं के पृथ्वी पर आगमन का यह पर्व पुष्कर के घाटों पर अचानक ही श्रद्धालुओं की बाढ़ लेकर आ जाता है , जहाँ हर हाथ उठता है तो केवल श्रद्धा और दाता भाव से।  तिल औऱ गुड़ की रेवड़ियाँ यहाँ हर मन को मिठास से भरती नज़र आती है वहीं रिश्तों को बाँधने में भी इस पर्व का विशेष महत्व है। पारिवारिक रिश्तों को मान देने की कुछ विशेष परम्पराएँ राजस्थान में ही दिखाई देती है जिनमें  मन के पूनीत भावों से अग्रजों औऱ बड़ेरों को नेह की चादर ओढ़ाकर उनका सम्मान किया जाता है। मान और मनुहारों की यह महक शीत के प्रभाव में घुल कर उसमें ताप प्रवाहित कर देती है । वहीं दान करने की प्रवृत्ति संग्रह करने की भावना और अहम् को दूर करने में सहायक सिद्ध होती है।
यहाँ इस दिन छतें और मुंडेरे कुछ अधिक आबाद होती हैं। हर हाथ में आस की चरखी सजी होती है जो रिश्तों का मांझा कुछ ओर मजबूत करती है । नन्हें हाथों में थमी डोर और उड़ती रंग बिरंगी पतंगें आकाश को सतरंगी आभा से युक्त कर देती है मानो आशाओं के जहाज सातवें आकाश को छूने चले हों। हाथ में थमी यह डोर  अपनी जड़ों से जुड़े रहने का प्रतीक है तो उड़ती पतंगें आशा व उन्मुक्तता का प्रतीक है। पौष बड़ों का आयोजन हो या सरसों के खेतों में मेड़ो पर नाचना गाना यह त्योहार हर और अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता है। मौसम में बढ़ी खुनकी को कम करने के लिए ही गर्म पदार्थों का सेवन  शरीर को रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करता है वहीं ये सांझी परम्पराएँ रिश्तों को ऊष्मा देने में अपनी महती भूमिका अदा करती हैं। पितामह भीष्म के देहत्याग का दिन, देवताओं के जागने का यह पर्व और सूर्य के उत्तरायण होने का यह पर्व अनेक संदर्भ अपने गर्भ में समेटे हुए है पर सबसे अधिक सहज कारण दिखाई देता है तो वह है इसकी चैतन्यता । सूर्य अपनी रश्मियों को सुनहले धान की भाँति पृथ्वी पर बिखेर कर उसे आरोग्य बनाता है और नेह रिश्तों को सींचता है। यही वास्तविक मायने हैं त्योहारों के जहाँ परम्पराएँ बेड़ियाँ बनकर नहीं  वरन् स्नेहिल सौगातों के रूप में महकती  हैं। अनेकानेक पौराणिक संदर्भ और पुष्कर सरोवर के घाटों पर उच्चरित मंत्रोच्चार हर मन को सात्विक भावों से भर देते हैं। उन्मुक्त गगन और पतंगें  यहाँ वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश देती है तो गतिशीलता का संदेश लिए चेतना का चतुर चितेरा सूर्य पुष्कर के घाटों और अरावली पर्वतमाला से घिरे अजयमेरू को कुछ और पीतवर्णी कर देता है । रंग-बिरंगे त्योहार भारतीय संस्कृति की पहचान है और तिल और गुड़दानी का यह त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर की मिठास को अक्षुण्ण रखता है।

Saturday, January 2, 2016

परिवार ही है सामाजिक व्यवस्था की धुरी


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एक और नया साल, कुछ औऱ सपने औऱ कुछ और  फलक माप लेने  की आकांक्षा ..इन्हीं तिनका-तिनका ख़्वाबों को  लेकर हर मन फ़िर एक नयी यात्रा पर निकल पड़ा है। यांत्रिकता के बढ़ते बेतार साधनों के साथ हर व्यक्ति जागता है और सोता है। हर पल नयी उपलब्धियों के बढ़ते जाल को देख वो कुंठित होता है औऱ ऐसे में उसके भीतर बहता नेह का सोता कहीं सूख जाता है। वस्तुतः उपलब्धियाँ,व्यक्तिगत ऊँचाईयाँ तभी सार्थक है जब उनकी सराहना करने वाला कोई हो। जब किसी के साथ उसे बाँटा जा सके। बाहरी प्रभाव औऱ इस प्रतिस्पर्धात्मक माहौल ने व्यक्ति को स्व पर केन्द्रित कर दिया है, इसी स्व के कारण आज व्यक्ति अपनों के साथ रहते हुए भी अकेला है, परिवार में रहते हुए भी कट गया है  औऱ शायद यही वे कारण भी है कि जिसके तहत अपराध औऱ अवसाद निरन्तर बढ़ रहे हैं। आज बचपन श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त कर रहा है पर सशंकित है, स्त्री आधुनिक होते हुए भी देह और देहरी जैसे शब्दों से जूझ रही है, वृद्धजन अकेले हैं , चौपालें और घर के आँगन स्नेह की बौछारों औऱ अपने से अभिवादनों की बाट जोहते हैं। जिंदगी की ओर देखने के व्यावसायिक नज़रिए ने हमारी वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा पर कहीं ना कहीं गहरी चोट की है औऱ इसके तहत जो सर्वाधिक प्रभावित हुई है वह है हमारी परिवार संस्था। ग्लोबल गाँव की अवधारणाओं के सत्य फलीभूत होने में पूर्व और पश्चिम समीप आ रहे हैं परन्तु इस सामीप्य में भी यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों की कहीं बलि ना चढ़ा दें। व्यक्तित्व विकास में स्व का विकास परम आवश्यक है और बदलती सामाजिक परिस्थतियों में यह निंदनीय भी नहीं होना चाहिए लेकिन यह विकास इतना भी नहीं हो कि वह आदमी को व्यक्तिगत एवं मानसिक रूप से पंगु कर दे। 
वर्तमान समाज अनेक विसंगतियों से ग्रस्त है , हर वर्ग चाहे वह बचपन हो, स्त्री हो, विशेष योग्य जन हो या फिर वृद्ध जन , आज सभी सुरक्षा की छाँव ढूँढ रहे है, ऐसे में आज परिवार की अवधारणा को पुनर्ववा करने की आवश्यकता है क्योंकि नव युवा एकल घरोंदों की और बढ रहे है जिसकी परिणति सिर्फ अवसाद है। परिवार एक केन्द्रीय अवधारणा है जो सहितं की परीपाटी पर आधारित है। जहाँ बचपन बैखौफ अनुभवों की अँगुली थामे दौड़ता है और बुढ़ापा युवाओं के काँधों पर अपनी ऊष्मा बिखेरता है। जहाँ प्रभाविकता का नियम इतना कारगर है कि अपराध एवं मूल्यहीनता को किनारे करने की समझ हर कृत्य के साथ-साथ तुरंत मिल जाती है। बढ़ते अवसाद औऱ दबाव को परिवार ही सुरक्षा को हाथों से थाम सकता है। हालांकि आज यह व्यवस्था बिखर गई है और अनेक आपराधिक प्रंसंगों ने परिवार की अवधारणा पर ही सवालिया निशान लगा दिए हैं परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि परिवार आज भी व्यक्तित्व गढ़ने तथा सामाजिकता और नैतिकता को विकसित करने का सबसे विश्वसनीय और अहं माध्यम है।
हम विकास के चाहे कितने भी पायदान चढ़ ले हमारी जड़े हमारी  उत्सवधर्मी संस्कृति में ही निहित है जहाँ वर्षारम्भ से लेकर वर्षान्त तक रिश्तों के आपसी सौहार्द के त्योहार निरन्तर झूमते रहते हैं। जहाँ संस्कार छोटे से छोटे कर्म में ही सिखा दिए जाते हैं, जहाँ रिश्तों की सहेजन की सौंधी बयार महकती है औऱ सुरक्षा के माहौल में तहज़ीब पलती है। आने वाली पीढ़ी को आज परिवार की ओर मोड़ने की आवश्यकता है जहाँ वे अपनी परेशानियों को बेसबब बाँट सके , राहें चुनने का हौंसला पा सके औऱ सामाजिक और वैचारिक प्रदूषण की समस्या से निजात पाकर आशावाद के उस  चरम फल की और बढ़ सकें जिसे पाकर जीवन मनु की मानसरोवर यात्रा सा आनंदित हो सकता है।

http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/7925516



Friday, January 1, 2016

भोर सा कोमल नवजीवन


भोर तमाम प्रतिकूलताओं के बीच कुछ कोमल  उग आने की जिजीविषा है.. वस्तुतः यह शब्द है ना जिजीविषा.. बस एक खेला भर है जीवन..बात चाहे खुद को सँभालने की हो  या फिर दूसरे पिघलते मनों को सँभालने की, इसके   इर्द-गिर्द ताना बाना बुने बिना जीवन अधीर हो उठता है। कभी पाण्डु सा पीत और भीत मन हो तो मन की दीवार को सींचना नेह से क्योंकि सबसे अधिक आप ही को आपकी ज़रूरत है। ओस की  नम बूँदे अगर आस जगाने में कामयाब हो तो थाम लेना उन्हें रात्रि के अंतिम पहर में कि कहीं कोई सपनों का सौदागर उन्हें छीन ना ले। सुबह-सुबह एक युवक अक्सर दिखाई देता है, जो  बड़ा सा नीला थैला काँधे पर लटकाए घूमता है।कुछ बोरी नुमा है वह थैला जिसमें आदमकद की कोई वस्तु भी आसानी से छिप सकती है।  वय से युवा है परन्तु ढ़ाढी फकीरों सी बढ़ा रखी है,  कहने को निस्पृह दिखाई देता है परन्तु ना जाने क्या क्या बीन कर अपने चौगे के हवाले कर देता है।  किसी एक अलसायी सुबह में जब मैंने उसे पहले पहल देखा था तो मैंने उसे सपनों का सौदागर नाम दे दिया था। इतने अँधेरे में कोई क्या बीन सकता है और भला। उस दिन से मैं कुछ और सचेत हो गयी थी।  माँ कहा करती है कि सुबह के सपने सच होते हैं, इन्हीं सपनों को सच करने के लिए जाने मैं कितनी बार रात्रि के अंतिम पहर में सोयी हूँ और कोई यूँ मेरे ख्वाबों को चुरा ले यह कतई गवारां नहीं मुझे। इसीलिए जागती आँखों से सपने बुनना शुरू किया है अब।  कोई नहीं चुरा सकता इन आस के मोतियों को वो नीली थैली वाला सौदागर भी नहीं... सचेत रहती हूँ और सभी को करती हूँ क्योंकि  अब ऐसे सौदागर इधर बहुत हो गए हैं...
 ये सौदागर बहुत शातिर होते हैं जिस तरह कोई चुप्पी के वस्त्र को सुई से छेदता है ठीक वैसे ही ये नींद में दख़ल देते हैं चुप से और चुरा लेते हैं उन मोतियों को जो आँखों में अभी अभी जन्में थे। जब काँधों पर गगन बैठा हो ये ठीक उन पलों में दाखिल होते हैं और जब आँख खुलती है तो हम बिन पंखों के आसमां में डूबते उतराने लगते हैं..
ख़्वाब देखिए इस साल कुछ और ज़्यादा.. इतने कि अगर कोई सौदागर सौदा भी करे तो उसका वो आदमकद झोला भी छोटा पड़ जाए..
अनेकानेक  दुआएँ.. शुभकामनाएँ..