Monday, February 12, 2018

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय!


पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ,पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
कबीर ने कहा है कि जिसने प्रेम को जान लिया उसके लिए और कुछ भी जानना शेष नहीं रहा। इस दृष्टि से प्रेम धर्म,दर्शन,साहित्य,विज्ञान सबसे परे एक अनिर्वचनीय अनुभूति है। प्रेम का वैशिष्ट्य इसके दैहिक, वैचारिक और भावनात्मक स्तर से इतर आध्यात्मिक स्तर तक की पहुँच से है। प्रेम को परिभाषित करें तो जो शबनम सा नम पत्तों पर ठिठका है , जो रात की चूनर में तारों सा टँका है , जो पहाड़ियों के पीछे दिपता सिन्दूरी उजास है ,  जो बारिश बन घास पर बिछलता है,  जो फूलों में महकता है, जो खेतों में खिलता है और जो निर्दोष हँसी में खनकता है, प्रेम  है!  जहाँ नाराजगियाँ कागजी हों और अहसास ना छूटने वाले स्थायी रंग तो समझ लो प्रेम है।  जो दिलों से दिलों तक नदी सा बहता है, प्रेम है। पर प्रेम की इस अनुभूति के लिए सिर्फ एक दिन मयस्सर हो, कोई गुलाब किन्हीं हाथों में सिर्फ एक दिन महकता रहे यह बात ठीक नहीं। यह खूशबू हर जीवन में  ऐसी हो कि हर दिन महकती रहे तो ज़िन्दगियाँ खूबसूरत किताब सरीखी हो जाएँगी। इसीलिए कहा गया है कि लिखना प्रेम धूप रोशनाई से। दरअसल यह वो उजास है जिसे प्रेममार्ग का धीर पथिक ही पा सकता है।
द्वन्द्व से परे अभेदत्व का छंद है प्रेम
प्रकृति का हर उपादान परस्पर विरोधी तत्वों की उपज है। प्रेम ही वह रंगरेज है जो प्रकृति के हर उपादान को एक  रंग में रंग देता है। प्रेम वैपरीत्य के साथ सम है और विरोध के साथ समर्पण, वस्तुतः यही इस सृष्टि के विकास का मूल कारण भी है।  सृष्टि का प्रत्येक तत्त्व द्वैत से उपजा है और इसके लय में छिपा है अद्वैत का छंद। प्रेम समर्पण की माँग रखता है तभी तो आसमां और बादल की आवारगी  को भी धरा चुपचाप स्वीकार करती है।  रूप से अरूप की इस यात्रा में ही इस धरा और गगन की सारी मैत्रियाँ जन्म लेती है, विकसती है और प्रेम तक पहुँचती है ।

मैत्री की पंगडंडियों पर खोजना प्रेम के अमिट निशान
प्रेम मैत्री की पगडंडियों पर खिलता है। किसी की सच्ची दोस्ती मिल गई तो मानों उसे कायनात की हुकुमत मिल गई। अब्राहम-लाट,रूथ-नाओमी,सिमोन–सार्त्र,कार्ल मार्क्स-एंजेल्स और हमारे सबसे नज़दीक कृष्ण-अर्जुन; ऐसी ही मैत्रियाँ हैं जो किसी भी जैविक रिश्ते से ऊपर थीं। ऐसे किसी भी रिश्ते के भीतर के प्रेम को महसूस करने वाला खुशनसीब होता है और उसे सहेज कर रखने वाला शायद कोई सिद्ध। इस चरम को जीने के लिए बाहर की नहीं वरन् भीतर की यात्रा करनी होती है। शबनम सा निर्मल और शफ्फाक प्रेम, आवेग का चरम है पर साथ ही यह चरम स्थैर्य का प्रतीक भी है। यहाँ बिथोवन के संगीत सी एक लय है तो थामने का हौंसला भी।
आभासी दुनिया में प्रेम
 वर्चुअल दुनिया में प्रेम कितना बचा रहा है, यह सोचने पर यकायक ही मन प्रश्निल हो जाता  है कि क्या वहाँ भी गुलमोहर की छाँव नज़र आती होगी, क्या वहाँ भी फूल की अंतिम पत्ती के टूटने पर, सांस ठिठकती होगी क्या वहाँ की हरी बत्तियों में  रेशमी छुअन का एहसास होता होगा, क्या वहाँ के धोखों के जख्म भर पाते होगें और क्या व्हाट्सएप्प पर तैरते संदेश बहती भावनाओं के नमक को महसूस पाते होंगे? यह सच है कि गुम होते और उगते लास्ट सीन के चेहरें मायूसी और रंगत लाते हैं पर दुःख यह भी है कि प्रेम छत की मुंडेरों पर अब आबाद नहीं दिखाई देता और ना ही खतों में अब गुलाब ही भेजे जाते हैं जिन्हें एक उम्र तक वरकों में संभाल कर रखा जाता था। हाँलाकि तकनीक ने कुछ सहूलियतें बरती हैं ,उसने अहसासों की नरम छुअन को लाइव ज़रूर किया है पर इस शब्द की ऊष्मा को स्थायित्व प्रदान करने में वह अब भी पीछे ही रहा है। ऐसे में युव मन को  आभासी काराओं के आकर्षण की कैद से मुक्त कराना इस समय की एक बड़ी चुनौती नज़र आती है।
प्रेम लगन अनूठी ; न आदि न अंत....
प्रेम से बड़ी आग दुनिया में नहीं है। प्रेम चाहे तो सिंकदर बना दे और चाहे तो फकीर बना दर-दर की ठोकरें खाने को मज़बूर कर दे। दरअसल यह आत्मा को परिष्कृत करता है। मन के सात्त्विक भावों को नई उजास से भर देता है, वह जलाता है पर आत्मा को निखारता है। यही बात कभी बुद्ध ने तो कभी जरथुष्ट्र ने तो कभी कबीर और कभी मीरा ने कही है। प्रेम मनुष्य को मानवीय गुणों से युक्त बनाता है, उसे जीवन जीने का सलीका देता है। प्रेम सह अस्तित्व के सिद्धान्त पर चलता है।  प्रेम नैतिक –अनैतिक, जाति-अजाति, धर्म –अधर्म के साँचों को ख़ारिज़ करता है, वह अपना अक्स सामने वाले की आँखों में देखता है। यही प्रेम है जिसका न आदि विदित है ना ही अंत.....
प्रेम पर बाज़ार का ग्रहण
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।
प्रेम न तो खेत में उगता है न ही वह किसी बाज़ार में बिकता है। यह वो खजाना है जो यहि किसी मन को भा गया तो राजा हो या प्रजा सभी अपने प्राणों का मोल देकर इसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है। प्रेम पारस है, करुणा का सहोदर है और करुणा वासना का शुद्धतम और परिष्कृत रूप है। प्रेम वस्तुतः कुछ बनने या पाने की अवस्था नहीं है।वह न तो तुष्टीकरण कराता है,ना ही आहत होता है। वहाँ न याचना है ना ही क्षमायाचना, वहाँ है तो बस क्षेमभाव। प्रेम के ये अनगढ़ मुहावरें आज बाज़ार की गिरफ्त में हैं। पूर्व में बसंत का आगमन प्रेम का ही पर्याय प्रतीत होता था। सरसों के लहलहाते खेत, खिली हुई क्यारियाँ, धानी चुनर ओढ़े हुई वसुंधरा और खिलता हुआ कचनार प्रेमी के व्याज से  मनोवृत्तियों को खुद ही जाहिर कर देता था। पर आज इन प्रतीकों की जगह गुलाब,चाकलेट्स,टेडीबीयर और महँगी सौगातों ने ले ली हैं। यह एक कौतुक ही है कि प्रेम का एक दिन मुकम्मल है और फिर टूटन के बिदेसिये भी। कार्डस से शुरू हुई यह विपणन की संस्कृति जाने कितने प्रतीकों को शामिल कर बाज़ार के रंग में रंग रही है। इसके बावजूद भी अगर प्रेम बचा रहे तो हमें यह बाज़ारीकरण भी मंजूर पर इन सबके बीच यह जानना होगा कि प्रेम केवल माँग नहीं है, वहाँ श्रेय, प्रेय , प्रदेय की होड़ नहीं है वहाँ तो बस कलकल करते अनाम रहस्य के अजस्र झरने हैं।
प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाय
प्रेम एक उदात्त मनोभाव है जहाँ सयानापन और स्वार्थ को कोई जगह नहीं है। आज के दौर में प्रेम में जब स्वार्थ, दोहरापन और स्वार्थ हावी हो गया हो तो प्रेम गली अति सांकरी और ‘प्रेम को पंथ कराल महा’, वाली उक्तियाँ भी ठीक जान पड़ती हैं। ऐसे अनुभवों से गुजरा प्रेम पीड़ा,छलावा और संताप जैसे शब्दों की छाँव में रूपान्तरित हो  जाता है। प्रेम दो व्यक्तित्वों का अलगाव नहीं है वरन् दो व्यक्तित्वों का साथ-साथ जीना है। वह संबंधों में होकर भी संबंधों से परे है। प्रेम में सकारात्मकताएँ होती हैं वह मानसिक तथा नैसर्गिक वृत्तियों से परे अलौकिक अनुभूति है। प्रेम साहसी बनाता है, दो विरोधी धुर्वों को एक सम पर लाकर ठहरा देता है तभी तो रांझा हीर और हीर रांझा एकमेक नज़र आने लगते हैं। प्रेम आज़ादी में विश्वास रखता है न कि वर्जनाओं में। एकाधिकार, वर्चस्व और शर्तें उसे धीरे-धीरे मार देती है ऐसे में विश्वास और नेह का तावीज गले में बाँध अनहद के इस दुर्लभ नाद को सहज ही सुना जा सकता है।
प्रेम के बदलते समीकरण
बदलते मूल्यों की आड़ में आज प्रेम का अलग-अलग नामकरण हो रहा है, लव जिहाद भी एक ऐसी ही टर्म है। हम एक ओर प्रेम को आज़ादी का नाम देते है, प्रेम के प्रतीक राधा और कृष्ण को मंदिरों में पूजते हैं पर अगर हमारी नज़रों के सामने प्रेम नज़र आ जाए तो उसे लाठियों से भाँज देते हैं। ऐसे में विचार आता है कि आज भले ही बहुत खिड़कियाँ खुल गई हों परन्तु मुख्य दरवाज़ों पर अब भी कठोर पहरे हैं। इन दरवाजों की कुंडियों को खोले जा सकने का विकल्प तैयार करना होगा नहीं तो जाने कितनी मिसरी की डलियाँ नमक में बदल रिस जाएँगी। प्रेम असीम है उसे परिवार, जाति,समाज,पंथ,धर्म,देश इत्यादि सरहदों में नहीं बाँटा जा सकता। प्रेम कर्तव्य से परे होता है, प्रेम में बस वर्तमान है। वह न वैयक्तिक है ना ही निर्वैयक्तिक वह पूर्णतः सार्वभौमिक है। वहाँ कुछ सुना जाता है, कुछ कहा जाता है और बहुत कुछ है जो अनकहा और अनसुना रह जाता है जिसे सिर्फ महसूस किया जाता है...कुछ इसी ही तरह....
प्रेम!
कितना मीठा है ना यह शब्द
मिसरी की डली सरीखा
पर प्रेम को जी सको
उससे पहले कुछ ताप सहना सीखना

जानना कि
प्रेम में हिस्सेदारियां नहीं होती
नही होती सच और झूठ की महीन लकीरें
वो आँखों बोलता है
और घुलता है
शहद की मानिंद
सांस के विलोम में नि:शब्द

प्रेम देह के हारसिंगार से नहीं
वरन् कोमल भावनाओं से करता है श्रृंगार
डूबता उतरता वो थामता है
प्रिय की कचनार स्मृतियों को
उसकी अनुपस्थिति में भी

प्रेम करो तो जानना कि
यह नही होता
महज़ किसी रिक्तता को भरने
या कि रवायतों की रस्मी चादर ओढ़
क्षणिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु

 सांसों की डोर सा महीन यह
 आस की पूली से उपजता है
भावनाओं के धानी रंग से निखरता है
जन्मता है टूटकर
बिखर कर फिर फिर संवरता है
फरवरी के इन्हीं सतरंगी दिनों की  तरह

सुनो! प्रेम करो तो लिखना इसे शब्द दर शब्द
जनवरी की सर्द पीठ पर
धूप रोशनाई से
किसी मोम छांव तले!

Saturday, February 10, 2018

Kierkegaard

My sorrow in my castle, built like an eagle's nest, upon the peak of mountain lost in clouds.

When I am sunk in the deepest suffering of melancholy, one thought or another becomes so knotted for me that I cannot loosen it, and since it is related to my own existence, I suffer indescribably. And then when a little time has paned, the abscess and inside lies the richest and most wonderful material for work.

- Kierkgaard

मेरे दु:ख मेरे किले में इस तरह बँधे हैं जैसे बादलों के धुंधलके में गुम हुई किसी पर्वत की उत्तुंग चोटी पर किसी चील का घोंसला।

जब भी मैं गहन उदासी  और वेदना की पगडंडियों से गुज़रता हूँ तो वेदना की ये परतें परस्पर इतनी गूँथी होती है कि मैं इन्हें खोल नहीं पाता।
 ये पल और परतें चूँकि मेरे अस्तित्व और स्मृतियों से जुड़ी हैं इसीलिए में असह्य कष्ट  से गुज़रता हूँ। वक़्त की ये किरचें ही  मेरी रिक्तता पर चोट कर मुझे अलहदा और अमीर बनाती हैं और ये ही मेरे काम के लिए बेहतरीन ज़मीन भी तैयार करती हैं।

#Kierkegaard
अनुवाद
~विमलेश