Tuesday, July 4, 2017

आत्महत्या के विरूद्ध!

कोई भी आत्महत्या कचोटती है, देरतलक..! उस अजाने दर्द की सीलन मन की दीवारों पर कई दिनों तक जमी रहती है, कभी दबे पाँव यूँही आ धमकती है। मानव मन के कितने कोने केवल खुद तक ही जाहिर होकर रह जाते हैं, यही सीमा शायद भीतर गहरे तक कहीं भावनाओं की सुनामी पैदा करती है। माना मृत्यु का अपना सम्मोहन है पर हम फिर भी जीवन जिए जाने के तर्क दिए चले जाते हैं।
कोई गहरी नींद को अपने पूरे होश में कैसे चुनता है, कैसे जीवन के चटख या धुंधलके से मुँह मोड़ता है यह तो सिर्फ वही जान सकता है, जो इस पीड़ा और निर्णय का साक्षी रहा हो.. हमारा देय हर जीवन में खुश लम्हों का जोड़ हो तो हम सहचर आत्माएं हैं वरना प्रकारांतर से उस जीवन के अवरोधों में ही तो शामिल । हर जीवन के अपने संघर्ष हैं... किसी ओर की नजर में भले वे तिल से हों पर प्रभावित मन के लिए तो पहाड़ से ही होते हैं।
 उफ्फ! वाकई तमाम अवरोधों, भावनाओं की उठापटक के साथ जीवन जीना  बहुत मुश्किल है।

 जाना है कि अवसाद स्थायी नहीं हो सकता अगर उसे हराने के लिए दिल से कोशिश की जाए। पर कई बार परिवेश दिल की इन कच्ची कोशिशों पर हावी हो जाता है और भावनाओं का ज्वार तमाम वैचारिकी को परे धकेल एक पूर्ण विराम को अपना कर सफर समाप्ति की घोषणा कर देता है। हम बस इस विराम की स्याह छाँह में देर तलक बस सिसकते रह जाते हैं...!

आत्महत्या के विरूद्ध
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यूँ टूटता है हर घड़ी कुछ
मन के निबिड़ एकांत में

कहीं चटकता है शीशे सा ख्वाब
किसी सड़क के सबसे खूबसूरत मोड़ पर
तो कहीं सिन्दूरी आँचल से गिर पड़ते हैं सितारे कई

पर रीतती संवेदनाओं के बीच भी
चलना होता है
खुद को
खुद के लिए ही
अनवरत!

दर्शन बतलाता है कि
इक बोझ उतारने के लिए
दूसरा लादना समझदारी नहीं
वह सिखलाता है
चेतना की इस पगडण्डी पर खौफ़नाक  सांये हैं
पर लड़ना होगा उन तमाम अँधेरों से
जो छीनते हो
स्वत्व, आस और चंदीले ख्वाब

मैंने माना
मौत दर्ज़ है
ज़िंदगी कि किताब के
उस अंतिम पृष्ठ पर
किसी अदृश्य अल्फाज़ की तरह

पर  उसके माथे पर चमकने तक,
इंतजार करना होगा..!