Tuesday, December 25, 2018

और शब्द-रथ पर यों ही कारवाँ चलता रहे...२०१८ एक नज़र



“मुझमें जीवन की लय जागी
मैं धरती का हूँ अनुरागी
जड़ीभूत करती है मुझको
यह संपूर्ण निराशा त्यागी।”

जनवादी कवि त्रिलोचन की इन्हीं पक्तियों का अनुसरण करते हुए हर सर्जक उजास, चेतना और जिजीविषा की एक अनवरत यात्रा पर निकल पड़ता है। लिखना भी एक यात्रा पर निकल पड़ना है, लिखना स्वयं को जीवित रखना है और इन्हीं मायनों में साहित्य की उपादेयता अक्षुण्ण है ; क्योंकि साहित्य बदलते हुए समय का दस्तावेज़ीकरण करते हुए चलता है। वह मनोभावों और संवेदनाओं को चिह्मित करता हुआ साहित्य के इतिहास में दर्ज़ होता है, यही कारण है काल-सापेक्ष साहित्य का इतिहास जानना अपरिहार्य है ।
सुखद है कि समकालिक भारतीय लेखक विविध विधाओं में श्रेष्ठ साहित्य की सर्जना कर रहे हैं। इसी दृष्टि से सन् 2018 , हिन्दी साहित्य में युवा लेखकों की पुरजोर उपस्थिति का वर्ष कहा जा सकता है। जहाँ एक ओर वर्ष 2018 साहित्य में समेकित रूप में कथा-साहित्य, काव्य और कथेतर गद्य का एक अद्भुत साम्य लेकर उपस्थित होता है; वहीं यह वर्ष गंभीर बनाम लोकप्रिय साहित्य की बहस को भी तरजीह देता हुआ दिखाई देता है। इस वर्ष कई महत्त्वपूर्ण कृतियाँ व रचनाकार सम्मानित हुए तो कई रचनाएँ दिल के क़रीब रहकर बदस्तूर महकती भी रहीं।


इस वर्ष प्रकाशित रचनाओं में कथेतर गद्य की बात की जाए तो ज्ञानपीठ ने वर्ष २०१७ में अपना प्रतिष्ठित  नवलेखन पुरस्कार युवा लेखक आलोक रंजन की कृति ‘सियाहत’ जो कि यात्रावृत्त (ट्रेवलॉग) है, को प्रदान किया। यह कृति इस वर्ष प्रकाशित हुई। वस्तुतः ‘सियाहत’ एक यात्रा है तथा इसका वर्ण्य विषय उत्तर-दक्षिण भारत के मध्य का संवाद सेतु है। ‘सियाहत’ दो पृथक् परिवेश और संस्कृति के बीच का पुल है जिसमें लेखक सहज भाषा की चित्रवीथि गूँथते हुए यह संदेश देता है कि यात्राएँ कभी ख़त्म नहीं होती वरन् वे अंततः भीतर की ओर मोड़ लेती हुई दिखाई देती हैं। आलोक इस यात्रा में प्रकृति-चित्रण में ही नहीं भटक जाते  वरन् वे प्रकारान्तर से अनेक विषयों को भी उठाते हैं। यात्रा-वृत्त-साहित्य की ही बात करें तो ‘दर्रा-दर्रा हिमालय’ के बाद अजय सोडानी की ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’  भी उल्लेखनीय रचना है। इसी क्रम में असगर वज़ाहत की पुस्तक ‘अतीत का दरवाज़ा’ को भी पाठकों ने सराहा । ‘दरकते हिमालय पर दर-ब-दर’ में जहाँ हिमालय के अचिह्मित स्थानों के किस्से हैं, जिन्हें लेखक, पाठक के समक्ष रखते हुए यह सोचने पर मज़बूर करता है कि सभ्यता और आधुनिकता की बयार में आख़िर हमने  क्या खोया और क्या पाया? वहीं ‘वज़ाहत’ मध्य एशिया, यूरोप और दक्षिणी अमेरिका के परिदृश्य और छोटी-बड़ी घटनाओं को वृत्तांत शैली में प्रस्तुत करते हैं।

अशोक कुमार पांडेय की कृति ‘कश्मीरनामा’ इस वर्ष की चर्चित शोधपरक पुस्तक रही। कश्मीर से जुड़े मुद्दे अभी भी अलक्षित हैं, ऐसे में यह कृति तर्क के साथ कई भ्रमों को तोड़ती है। शिवदत्त जी निर्मल वर्मा के अनन्य प्रेमी-पाठक के रूप में ख्यात हैं। उनकी कृति ‘स्मृतियों का स्मगलर’ एक भिन्न पाठकवर्ग की माँग रखती है, जो लेखक के शब्दों में ही, ‘निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘एक चिथड़ा सुख’ का अघोर पाठकीय अवगाहन है।‘ अष्टभुजा शुक्ल की ‘पानी पर पटकथा’ ललित निबंधों की कृति है। पुस्तक में संकलित निबंधों में भाषा का लालित्य, भदेसपन और संस्कृतनिष्ठ प्रवृत्ति द्विवेदी-परम्परा का एहसास कराती प्रतीत होती है तो वहीं विषयवस्तु की रोचकता, दार्शनिक गहनता उत्तरप्रदेश के सांस्कृतिक परिदृश्य को गद्यात्मक लय में सामने रखती है।


अनुवाद में आई उल्लेखनीय कृतियों में डॉ. बलराम शुक्ल की ‘निःशब्द नूपुर’ उल्लेखनीय रचना है। यों तो सूफी-शायर मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन की ग़ज़ल और रुबाइयाँ कई बार अनूदित हुई हैं; परन्तु यह इस बात में अनूठी है, क्योंकि इसका अनुवाद ‘शुक्ल’ ने मूल फ़ारसी से किया है। शंखघोष केवल बांग्ला भाषा के रचनाकार नहीं वरन् भारतीय मनीषा के महत्त्वपूर्ण प्रतीक-चिह्न भी हैं।  इनकी तीन पुस्तकों का अनुवाद एक साथ हिन्दी में आना सुखद है। इनमें ‘निःशब्द की तर्जनी’ और ‘होने का दुःख’ गद्य रचनाएँ हैं,जिनके अनुवादक उत्पल बैनर्जी हैं तो ‘मेघ जैसा मनुष्य’ काव्य-संकलन के अनुवादक प्रयाग शुक्ल  हैं। शंख घोष के गद्य के केन्द्र में, ‘मैं से तुम’ अर्थात् ‘व्यक्ति से लेखक’ तक की यात्रा हैं तो उनकी कविताएँ जीवन के यथार्थ की ओर इशारा करती हैं।

कथा-साहित्य में इस वर्ष अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ सामने आई । इस साल के चर्चित उपन्यासों में गीतांजलि श्री का ‘रेतसमाधि’, ज्ञान चतुर्वेदी का ‘पागलखाना’ चर्चित रहे तो अलका सरावगी के ‘एक सच्ची-झूठी गाथा’, ऊषाकिरणखान का ‘गई झूलनी टूट’ और मधु कांकरिया का ‘हम यहाँ थे’ उपन्यास भी चर्चा में आया। ‘रेतसमाधि’ और ‘गई झूलनी टूट’ उपन्यास स्त्री-संघर्ष की परिवेशगत बयानगियाँ हैं,वहीं ज्ञान चतुर्वेदी का पाचवाँ उपन्यास ‘पागलखाना’ उन पागलों की कथा है जो जीवन को बाज़ार से बड़ा मानते रहे। बाज़ार को लेकर उन्होंने एक विराट् फैंटेसी की सर्जना की है। इसी वर्ष गरिमा श्रीवास्तव की ‘देह ही देश’ रचना भी प्रकाश में आई है। लेखिका ने इसे क्रोएशिया की प्रवास डायरी कहा है। बोस्निया युद्ध की पृष्ठभूमि में यह उन हज़ारों पीडिता स्त्रियों की कहानी है जिनकी देह पर ही जाने कितने युद्ध लड़े गए हैं।

इसी साल असगर वज़ाहत का कहानी-संग्रह ‘भीड़तंत्र’ भी प्रकाशित हुआ साथ ही मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘किरदार’ कहानी संग्रह, ममता सिंह का प्रथम कहानी संग्रह ‘राग-मारवा’, दिव्या विजय का ‘अलगोजे की धुन पर’, जयंती रंगनाथन का ‘नीली छतरी’ तथा सैन्य पृष्ठभूमि के जाबांज गौतम राजऋषि का कहानी-संग्रह ‘हरी मुस्कराहटों वाला कोलाज़’ भी ख़ासा चर्चित रहा।

भाषा समय-सापेक्ष है; पर क्या भाषा में आ रहा बदलाव क्या भाषा के कलेवर के लिए ख़तरा है, ऐसे कई सवाल ‘नई वाली हिन्दी’ मुहावरे से आई अनेक रचनाएँ पाठक और शुद्धतावादियों के जेहन में भी छोड़ गईं तो साथ ही बेस्ट सेलर के मुहावरे को भी जीवंत करती नज़र आईं। इन रचनाओं में भगवंत अनमोल का उपन्यास ज़िंदगी-५०-५०, तथा सत्य व्यास का ‘चौरासी’ खासा चर्चित रहा। हालाँकि 'चौरासी' , 'बनारस टॉकीज' के बाद पुन: भाषाई प्रांजलता की ओर लौटती नज़र आती है।  कहानी-संग्रहों में निखिल सचान का ‘नमक स्वादानुसार’ ,दिव्य प्रकाश दुबे का ‘शर्तें लागू’, अंकिता जैन की ‘ऐसी-वैसी औरत’  रचनाएँ मुखरता से सामने आईं, जिनमें से अधिकांश बेस्ट-सेलर के मुहावरे को भी रचती हैं। विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘हमन है इश्क मस्ताना’ भी इस वर्ष का लोकप्रिय उपन्यास है। नीलोत्पल मृणाल के ‘औघड़’ उपन्यास  की भी साल बीतते-बीतते हिन्द युग्म से प्रकाशन की खबर मिल रही है। हालाँकि कुछ उपन्यासों  (औघड़, अक्टूबर जंक्शन  जो अभी प्रकाश्य नहीं है का उल्लेख इधर चर्चा के कारण ही) के बारे में  बात उन्हें तफ़सील से  पढ़ने के बाद ही बात की जा सकती है।

कविता की दृष्टि से यह काल अपेक्षाकृत कम उल्लेखनीय रहा;परन्तु साल बीतते-बीतते यह रिक्तता भी भरती नज़र आई। केदारनाथ सिंह के निधनोपरान्त उनका अंतिम कविता-संग्रह ‘मतदान केन्द्र पर झपकी’ शीर्षक से आया। वीरेन डंगवाल की कविताओं का संग्रह ‘कविता वीरेन’  भी इसी वर्ष आया। सुमन केशरी का ‘पिरामिडों की तहों में’, श्यौराज सिंह बैचेन का ‘भोर के अँधेरे’, असंगघोष का ‘अब मैं साँस ले रहा हूँ’, अनुराधा सिंह का ‘ईश्वर नहीं, नींद चाहिए’ इस वर्ष के कतिपय उल्लेखनीय काव्य-संग्रह हैं।  ‘मुश्किल दिनों की बात’ शिरीष कुमार मौर्य की ४० कविताओं का संकलन है। एक लम्बे समय बाद गगन गिल का काव्य संकलन ‘मैं जब तक आयी बाहर’ भी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ।

संभावनाशील युवा कवियों की प्रकाशन शृंखला की योजना के तहत वाणी प्रकाशन द्वारा रज़ा फाउण्डेशन के सहयोग से मोनिका कुमार का काव्य-संग्रह ‘आश्चर्यवत्’ प्रकाशित हुआ। वाणी से ही अम्बर पाण्डेय की ‘कोलाहल की कविताएँ’ प्रकाशित हुईं । ये कविताएँ अम्बर के भाषिक सामर्थ्य, बहुभाषाई ज्ञान और मिथकीय चेतना की गहरी समझ की जीवंत अभिव्यक्ति हैं। इधर ‘मैं बनूँगा गुलमोहर’ युवा-प्रातिभ-मेधा और विविध विषयों पर साधिकार लिखने वाले लेखक सुशोभित सक्तावत की प्रेम कविताएँ और गद्यगीत हैं । सुशोभित का ही इसी वर्ष आया अन्य काव्य-संग्रह ‘मलयगिरि का प्रेत है’, जिसकी कविताएँ आदिम भित्ति-चित्रों पर रचित शास्त्रीय राग सी ही मनोहर हैं। अम्बर और सुशोभित की रचनाएँ काव्य-जगत् में युव-हस्ताक्षरों की झकझोरने वाली उपस्थितियाँ हैं, जो पुरातन और नव्य का अभीष्ट संगम प्रस्तुत करती हैं।
इस बरस नीलिमा पाण्डेय की दिसंबर,2018 में 'थेरीगाथा' पुस्तक आई। यह बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा संघ प्रवास के दौरान लिखी गई कविताओं का संकलन है, इसलिए अपनी तरह का एक खास आकर्षण रखती है। इसमें कविताओं  की कुल संख्या 73 है तथा इनकी भाषा पाली है। थेरीगाथा की स्त्रियों से संबद्धता उसे एक उत्साहवर्धक -उत्तेजक-रोचक-शोधपरक साहित्य बनाती है।यह एकमात्र ऐसा प्राचीन धार्मिक साहित्य है जिसे एकाकी रूप से स्त्रियों के द्वारा रचा गया है।


पुरस्कारों की बात करें तो सुप्रसिद्ध कथाकार चित्रा मुद्गल को इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी औपन्यासिक कृति ‘नालासोपारा’ (प्रकाशन वर्ष 2016) के लिए प्रदान करने की घोषणा की। यह उपन्यास हाशिए पर उपस्थित उस वर्ग की दारुण गाथा है ,जिसे समाज थर्ड-जेन्डर की संज्ञा से नवाज़ता है। हाल ही में प्रसिद्ध कवि गीत चतुर्वेदी को शैलेश मटियानी कथा पुरस्कार की घोषणा भी  हुई है।

हेमन्त शेष की काव्य-कृति ‘प्रायश्चित् प्रवेशिका व अन्य कविताएँ’ व गीत चतुर्वेदी का ‘टेबल-लैम्प’ शीर्षक से गद्य-संग्रह भी साल बीतते-बीतते प्रकाशित हुई।

 आलोचना की दृष्टि से यह वर्ष समृद्ध कहा जा सकता है। इसी वर्ष वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह जी की पुस्तकें आलोचना और संवाद, पूर्वरंग, द्वाभा, छायावाद:प्रसाद, निराला, महादेवी और पंत तथा रामविलास शर्मा शीर्षक से प्रकाशित हुईं। ओम निश्चल के संपादन में कवि कुंवर नारायण पर ‘अन्विति और अन्वय’ शीर्षक दो खण्डों से पुस्तकें प्रकाशित हुईं। विनोद शाही की पुस्तक ‘आलोचना की ज़मीन’ , राजेश जोशी की ‘कविता का शहर’, ओमप्रकाश सिंह, शीतांशु की उपन्यास का वर्तमान आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं।

पत्रिकाओं ने इस वर्ष कई महत्त्वपूर्ण अंक निकाले। आलोचना,हंस, ज्ञानोदय, पहल,वागर्थ,पाखी के साथ ही अनेक शोध पत्रिकाओं यथा वाड़्मय, अनुसंधान तथा अन्य ई-पत्रिकाओं ने अनेक विषयों पर अच्छे अंकों का संपादन भी किया। बनास जन पत्रिका के अंक भी इसी वैशिष्ट्य की दृष्टि से सहेजने लायक हैं। इधर बरस बीतते यह भी ख़ुशी है कि ‘कथन’ पत्रिका का प्रकाशन फ़िर से प्रारम्भ होने जा रहा है। ई-पुस्तकों के रूप में नॉटनल नई संभावनाओं को लेकर उपस्थित हुआ है, तो बाल साहित्य में भी रोचक सामग्री लेकर ‘साइकिल’ जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं।
बीतते साल की साहित्यिक घोषणाओं में  चौंकाने वाली एक घोषणा यह भी रही कि भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ’ एक अंग्रेजीदां लेखक  अमिताभ घोष को प्राप्त हुआ। मेरी सोच के पाठकों का यह सोचना अंग्रेजी भाषा से किसी झगड़े के कारण नहीं है, न ही पुरस्कृत लेखक से शिकायत के तहत; पर इससे जुड़ा प्रश्न भारतीय साहित्य व क्षेत्रीय भाषाओं की अस्मिता से जुड़ा प्रश्न है।कई मायनों में इस घोषणा ने भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार के महत्त्व को तो कम किया ही साथ ही भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं के आत्मविश्वास को भी हतोत्साहित किया है।

बहरहाल यह वर्ष भी रचनात्मकता की दृष्टि से अपेक्षाकृत उर्वर रहा तो साथ ही भाषा-नई भाषा की ज़ंग को , लोकप्रिय और गांभीर्य की बहस को हवा भी देकर जा रहा है। यह वर्ष कई बड़े साहित्यकारों दूधनाथ सिंह, कुंवर नारायण, अमृतलाल वेगड़, गीतकार गोपालदास नीरज, अभिमन्यु अनत के अवसान का  वर्ष भी रहा। बड़ेरों की यह क्षति अपूरणीय है पर सतत साहित्य-सर्जना आशा के नवीन लाल सूरज के प्रति आशान्वित भी करती है कि आने वाला वर्ष 2019 रचनाकारों के श्रेष्ठ अवदान का गवाह बन माथे पर पुनः चमकेगा।



#हँस_तू_हरदम_खुशियाँ_या_ग़म

कोई मसीहा उठता है आधी रात
अनगिनत बिखरे सपनों को रफू करने
खाली जेबों को सिक्कों की खनक देने
और उन आँखों में चमक का ईंधन भरने
जो काल के भाल पर
चमकीली इबारत लिखने की तैयारी में है

अनुभव की उसकी गठरी में
अनगिन खनकती सीखें हैं
कई तोहफ़ों  में घुली सहेजन है
और वहीं डर को शिकस्त देती
गुदगुदाती हथेली की आहट है

भावनाओं का वासंती कपास लिए
कोई मीलों का सफर  तय करता है

भोर-अलगनी पर
ख़ुशियों की बत्तीसी सजाने
      यों भी भला कोई
            ओस के मोती चुना करता है ?

चाँदी की ढाढ़ी वाले तारों में
वो सूरज की आँच छिपाता है
तकिये की ओट में रखी फरमाइशें उगा
सीने में मुस्कुराहटें सजाता है

रात के अंतिम पहर की टिक-टिक में
वो टकटकी लगाए रहता है
सर्द रात में गालों को ललाई देते-देते
और बेवज़ह ही
कहीं लौटने का बहाना लेकर
कोई....  चुप से यों
‘मैरी क्रिसमस’ कह सो जाता है

सुनो!  चेहरों पर आशवस्तियाँ
और योंही कभी दरवाज़े पर कुछ ख़ुशियाँ टँगी मिले
तो उस कीमियाग़र को ज़रूर खोजना
जो दर्द को मुस्कान में बदलने का हुनर जानता  है!

विमलेश शर्मा
तसवीर गूगल से साभार

#Merry_Christmas

Thursday, December 20, 2018

वैवाहिक आयोजनों में अपव्यय पर लगाम ज़रूरी



हमारी सृष्टि का हर व्यवहार एक नियम और संतुलन में बँधा है और उसी के तहत यहाँ सभी कुछ समता की धुरी पर परिचालित है। इस जगत् में मूर्त-अमूर्त सभी तत्त्व  इसी नियम पर चलते हुए एक लय में आबद्ध रहते हैं मिसाल के तौर पर सप्त स्वर और बाईस श्रुतियों का वैविध्य राग कहलाता है, एक सी जैनेटिक संरचना वाले जीव समाज या कुटुम्ब कहलाते हैं, एक ही पारिस्थितिकी के जीव एक ही संवर्ग में आते हैं और यूँही ग्रह-नक्षत्र वृन्द आदि-आदि। हर परिवेश का तत्त्व एक नियम से चलता है। हमारा समाज भी समय-समय पर सभ्यता और संस्कृति के दायरों में कुछ नियमों को गढ़ता है। समाज के ये नियम कैसे बनते हैं और कैसे लागू होते हैं, इनमें वस्तुतःअनुकरण का गणित काम करता है। हर संस्कृति, देश और काल में अनेक परम्पराएँ वहित होती रही हैं; परन्तु वे सदैव नैतिक और मानवीय ही रही हों ,यह नहीं कहा जा सकता। परदा-प्रथा, दास-प्रथा जैसी अनेक परम्पराएँ हैं जो नैतिक रूप से किसी भी प्रकार से समत्व पर नहीं ठहरती पर चलन के कारण वे प्रचलित और प्रसारित हुईं। इस प्रकार किसी भी भू-भाग पर परिचालित परम्पराओं का सात्त्विक पक्ष भी रहा तो विद्रूप पक्ष भी । ऐसी ही एक परम्परा है विवाह और कन्या-दानजिसका सात्त्विक पक्ष तो कन्या के लिए दान था परन्तु बाज़ारवाद, पश्चिनीकरण औऱ आधुनिकता के दखल ने इस परम्परा को दिखावे और अपव्यय के पर्याय में बदल कर रख दिया   

भारतीय समाज में विवाह या पाणिग्रहण संस्कार जन्म-जन्मान्तर का एक पावन उत्सव है, जो सहज और अनौपचारिक वातावरण से प्रगाढ़ होता है। सहजता का यह वासंती उत्सव आज बाज़ार की चकाचौंध में अपव्यय की मिसाल बनता जा रहा है। आमंत्रण पत्र से लेकर डोली सजने तक की घटना-प्रघटना भव्यता के इतने मोड़ो से होकर गुजरती है कि उस पर होने वाले खर्च का अनुमान लगाना मुश्किल ही नहीं कल्पनातीत भी हो जाता है। ऐसे ही भव्य आयोजनों की सोशल मीडिया पर प्रसारित तसवीरें और सीधा प्रसारण जहाँ एक वर्ग के लिए आमदनी का माध्यम बन जाता है तो दूसरे वर्ग पर वह नकारात्मक मनोवैज्ञानिक असर भी डालता है। यह चलन दिखावे की संस्कृति को तो बढ़ाता ही है वरन् सहज रिश्तों में भी अपेक्षाओं का आधिक्य उत्पन्न करता है।

ऐसा नहीं है कि सादगी और मितव्ययता से शादियाँ नहीं हो रहीं हैं ;परन्तु चिंतनीय पक्ष यह है कि उनका अनुपात बहुत कम है। फिर  आकर्षण के नियम के काम नहीं करने के कारण ऐसी प्रेरक बातों का प्रचार-प्रसार भी उतना अधिक नहीं हो पाता। वर्तमान समाज में राजनीति, सिनेमा(फिल्म) और बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से जुड़े लोगों के साथ-साथ आम परिवारों में भी शादियों में बेवजह का खर्च और दिशावा आम बात हो गई है। शादियों की इस फिजूलखर्ची को सामाजिक-आर्थिक प्रतिष्ठा से इस क़दर जोड़ दिया गया है कि किफायती या मितव्ययी सोच से भरा आयोजन करने का विचार ही एक कमतरी का अहसास पैदा कर देता है। खर्चीली शादियाँ एक वर्ग पर अनावश्यक बोझ और दबाव डालती हैं क्योंकि सामाजिक मनोविज्ञान इस दबाव को सहन करता  है। वर्तमान प्रवृत्ति पर यदि नज़र डालें तो भव्यता और चकाचौंध की पृष्ठभूमि का बेहिसाब खर्च स्वतः ही सामने आ जाता है। थीम बेस्डविशेष वातारवरण और दृश्यजन्य कौतूहल पैदा करने में ये शादियाँ मानवीय सरोकारों को ताक में रख देती है। यह ठीक है कि विवाह जीवन का अविस्मरणीय पल है परन्तु फिजूलखर्ची रोक कर इस पर्व की ऊष्मा को बढ़ाया जा सकता है ;परन्तु दुःखद है कि ऐसा हो नहीं पा रहा।  


पश्चिमी संस्कृति से चालित हमारा समाज वर्तमान दौर में अतिउपभोक्तावाद की ओर अग्रसर हो रहा है, नतीज़ा हमारी संस्कृति की  सहजता, हमारे  रस्मों रिवाज़ो  से  कहीं दूर छिटक  गयी हैं। एक तरफ़ जहां शादियों में दिखावे की चमक हैं औऱ सिक्कों की बरसात होती नज़र आती हैं वहीं मानवीय संवेदनाओं को क्षणविशेष के लिए बिसरा दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह दिखावे की संस्कृति केवल और केवल आधुनिक समाज और नगरीय संस्कृति का ही हिस्सा है वरन् ग्रामीण परिवेश में भी आन-बान-शान की रक्षा के लिए समूचे गाँव और खेड़ों को संतुष्ट करने हेतु भव्य आयोजनों का आज भी चलन है। ग्रामीण संस्कृति में स्वर्णाभूषणों व अन्य भेंट को किलों व लाखों में देने का चलन है और यह चलन परम्परा के रूप में इस क़दर रूढ हो गया है कि वह प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जाने लगा है। मध्यवर्गीय युवा व नौकरीपेशा आमजन परम्परा के इस विद्रूप पक्ष के निर्वहन में अपनी बचत और आय के एक बहुत बड़े भाग की  आहूति तक दे बैठता है

न्यू वर्ल्ड वेल्थ की रिपोर्ट देखें तो दुनिया के सबसे धनी देशों की सूची में भारत को छठा स्थान प्राप्त हुआ है। रिपोर्ट में भारत को 2017 में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला संपत्ति बाज़ार भी बताया गया है। उल्लेखनीय है कि दुनिया के 10 धनी देशों में भारत का स्थान व्यापक तौर पर उसकी आबादी के कारण है। दूसरी तरफ 2018  बहुआयामी वैश्विक गरीबी सूचकांक (एमपीआई) की हालिया रिपोर्ट कहती है कि 132 करोड़ की आबादी वाले भारत में अभी भी 21 फीसदी अर्थात् अमूमन करोड़ 30 लाख  लोग गरीब हैं । यद्यपि यह आँकड़ा आशान्वित भी करता है कि बीते वर्षों की तुलना में भारत से 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर भी निकल गए हैं रन्तु आर्थिक वैषम्य की यह खाई अभी भी मौजूद है। भारत के बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में गरीबों की संख्या सर्वाधिक है जहाँ उन्हें दो वक्त का खाना भी मुश्किल से उपलब्ध हो पाता है। 
इस सभी आँकड़ों के मद्देनज़र कहा जा सकता है दस भारतीयों में से एक भारतीय अभी भी गरीब है और आर्थिक वैषम्यता के इस वैपरीत्य में भव्यता और दिखावे की  चकाचौंध पर इस बेवजह खर्चे पर पुनर्विचार और मंथन करने की आवश्यकता है। समाज में एक ओर तो भव्य आयोजनों की शृंखला है दूसरी ओर बुनियादी आवश्यकताओं को तरसते सामान्य जन। वंचितों की आपबीती के जाने कितने निरीह पर अकाट्य तर्क हैं जो आयोजनों की इस चौंध को धता बताते नज़र आते हैं। 
समाज या आम जनता के जो नायक हैं वे समृद्धि , सम्पन्ता और वैभव का प्रदर्शन कर  युवमन और समाज को एक स्वप्नलोक में ले जाते हैं, जिसकी परिणति या तो फिजूलखर्ची में होती है या माता-पिता व परिवार पर अतिरिक्त आर्थिक दबाव के रूप में।अन्न, धन , सुविधाओं व संसाधनों का अंधाधुध निवेश  व्यापार में भी भ्रष्टाचारी और मिलावट को बढ़ाता है। खपत, माँग और उपलब्धता का एक तय समीकरण होता है अगर वहाँ सामंजस्य नहीं है और माँग अधिक है तो उस माँग की आपूर्ति मिलावट से ही पूर्ण होती है। भाँति-भाँति के पकवानों से सजे ये आयोजन अन्न की बर्बादी का हेतु बनते हैं। खाद्य मंत्रालय की रपट के अनुसार वैवाहिक आयोजन में बनने वाले खाने का लगभग 20 फीसदी भाग तो व्यर्थ ही बेकार हो जाता है। लेन-देन के बढ़ते चलन और देखादेखी के प्रचलन ने मध्यवर्ग के कंधों पर बोझ बढ़ा दिया है।

होना यह चाहिए कि समाज का नेतृत्व करने वाले वर्ग कोअमीरों और गरीबों की आवश्यकताओं के बीच संतुलन बनाए रखे का प्रयास किया जाए। धन को समाज और देश के हित में लगाया जाए। संसाधनों को एक योजना बनाकर निवेश किया जाए ताकि अनावश्यक खर्च और संसाधनों की बर्बादी से बचा जा सके। देश के युवा सपनीली दुनिया सजाने की बजाय यथार्थ की दुनिया को सुंदर बनाने की नज़ीर पेश कर अन्य लोगों के लिए आदर्श बनें । युवाओं के साथ-साथ सरकारों को भी इस बिन्दु पर दखल देना चाहिए । हाल ही में दिल्ली सरकार की एक सराहनीय योजना सामने आई है जिसमें वे लोगों को ट्रेफ़िक जाम से निजात दिलाने और खाने और पानी की बर्बादी रोकने के लिए शादियों में आने वाले मेहमानों की संख्या तय करेंगे। निःसंदेह ऐसे क़दम गरीबी और अमीरी के बीच संतुलन स्थापित कर सकते हैं। कई-कई दिनों तक चलने वाले शृंखलाबद्ध आयोजनों के स्थान पर कम लोगों, दिखावेरहित और छोटे आयोजन अपव्यय को रोकने में कारगर हो सकते हैं। भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए कई स्वयंसेवी संस्थाएँ काम कर रही हैं । ऐसे में आयोजक उनसे समय पर सम्पर्क साध भोजन को उन अनाथालयों, वृद्धाश्रमों या उन लोगों तक भी पहुँचा सकते हैं जिन्हें उसकी वास्तल में जरूरत है। इस हर मनव्यापी समस्या का समाधान और निराकरण सामूहिक और प्रतिबद्ध चिंतन में ही निहित है अतः हर व्यक्ति को इस दिशा में सोचना होगा।

Thursday, August 23, 2018

मन माणिक

जीवन का हर बीतता, रीतता, गुज़रता  हुआ पल जीवन की सच्चाई है। कई दृश्य इन पलों में जुड़ते जाते हैं। कुछ चाहे तो कुछ अनचाहे पर ...पल की नियति यही कि उसे बस गुज़र जाना होता है। कभी ये तुषार पात से कृषण नष्ट कर जाते हैं तो कभी अनचाहे ही गोद भर जाते हैं।

जीते हुए , चलते हुए यही जाना कि सात्त्विक सत्ताएँ कर्म की गुत्थियाँ सुलझाती हैं। कभी मन डूबने लगे और एकाएक कोई कहकहा कहकशाँ सा कानों में गूँज जाए तो उसे तुम तक पहुँचाने वाले को धन्यवाद कहना उसे देर तक निहारना , मौन आभार व्यक्त करना।

जीवन जी लिया जाना तुम्हारा सच है , एकमात्र सच और इस सच को केवल तुम्हीं जान सकते हो। पतझड़ का शोक और वसंत के उल्लास को तुम्हीं ने जी भर जिया है । जीवन की पीडा को अकेले ही सहा है सो कभी कोई आत्मीय कहे कि मेरे न होने पर ऐसा कैसे करोगे तो कहना मुस्कुराते हुए कि तुम सदा साथ रहोगे मेरे , मेरे इस विश्वास की ही तरह।

किसी मंदिर जाती वृद्धा से पूछो आस्था के मानी क्या होते हैं , किसी मकतब में बैठे उस अबोध से पूछो जो क़ुरान की आयतों को मौलवी के गोल होते ओंठों में पढ़ने की कोशिश करता है , दुनिया उतनी ही सरल है जितने हमारे भाव और उथली उतनी ही जितना हमारा मन।

ठीक ही कहा है कि ऊर्जा का अनियंत्रित प्रवाह वजू को तोड़ देता है, इबादत में ख़लल पैदा करता है। सो बहने दो सकारात्मकता का सोता अपने भीतर । दंभ, झूठ , अहंमन्यता और पक्षपात जैसे शब्दों को जहाँ देखों वहीं छोड़ दो एक सद्भावना के साथ कि तुम्हारी क्रूरता कहीं तुम पर ही हावी न हो जाए , प्रार्थना तुम्हारे लिए कि तुम पर सात्त्विक अनुग्रह बरसे । निंदा से बच गए तो तर गए सो ठूँठपन  ठूँठ मन को ही मुबारक़।

कबीर इसीलिए तो कह गए कि -
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
 कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे यदा-कदा दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है । हरिऔध ने भी इन्हीं भावों के साथ एक तिनका कविता लिखी।

 आज इतना ही कहना कि -

समाज आत्मीय जन से नहीं
आत्मीय मन से बनता है
इससे कम और ज़्यादा
कुछ नही समाज
न ही मानी कुछ ओर
इस गोल दुनिया के

यहाँ दृश्य जल्दी ही
बदल जाया करते हैं

सुबह घनेरी शाम में
और उदास शाम पूरबी उजास में!

काल के दिन वर्तुल अयन पर घूमते हैं
जाने कब वे
उसी घुमाव पर
लाकर तुम्हें खड़ा कर दे
जहाँ तुम कल इठलाते हुए खड़े थे
और ठीक वहीं कोई मूक मन लिए
सहमा बैठा था

सो नतशिर रहना
नतमन रहना
जीतना मन कालुष्य को
बनना आत्मीय
बनना सहज,जीतना स्व को
और रहना

अविजित!!

~विमलेश शर्मा
#मन_के_घाव_मरहम_मन_का

Monday, June 18, 2018

ज़रा_ज़रा_सी_खिली_तबीयत_ज़रा_सी_ग़मगीन_हो_गई_है

कुछ अल्फ़ाज़ सिर्फ़ और सिर्फ़ महसूस किए जा सकते हैं...! क्या कीजिए फिर कि स्याही के ये निशाँ सीधे दिल पर दस्तक देते हैं...।

ऐसा ही ठीक ऐसा ही लिखा जाना चाहिए कि पढ़कर महुआ के चुप नाद को बूँद-बूँद महसूस किया जा सके,  किसी हरसिंगार का माँग पर हौले से आ ठहरना महसूस किया जा सके। बात बरस जाने में , खिल जाने में नहीं है उस क्रिया की प्रक्रिया में है, , बनकर देखने भर से, नज़र -नज़र के फेर  से चीज़ें बदल जाया करती हैं।

ठीक उसी तरह जैसे ज़माने के बीच आने से जो सबसे पहले ग़ायब होती है , वह है मासूमियत। नहीं?  ज़रा टटोलिए अपनी तस्वीरों को सच वे खुद बयां कर देंगी। सुख छिपने में है , नेपथ्य में है इसीलिए माँ कहती है दुनिया के मंच पर उतरना तो धीर होकर और खिलना तो अलसायी धूप होकर।

कहा जाता है कि लिखने वाले सिरफिरे होते हैं , बात-बेबात कुछ भी लिखते रहते हैं । कोई उसे कहानी कह देता है , कोई आलाप भर तो कोई कविताई दरअसल वह अपने लिखे से कबीर के ही उस लिखे की लकीर को ही कुछ और लम्बी करता रहता है कि लिखना तो खुद ही को , उस ईश्वर को कुछ और जानने की यात्रा में उठाया गया या कि ठहरा हुआ एक शांत क़दम है। कबीर ने यही तो कहा कि , यह जिनि जानो गीत है, यह तो निज ब्रह्म विचार!

जिहाल-ए-मस्ती मकुन-ब-रन्जिश,बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है !फ़िलहाल पार्श्व में यह गीत बज रहा है और खिड़की पर तिर्यक चाँद ,ज़ेहन में कहीं कबीर तो कहीं बिहारी अब सोच लिजिए क्या कुछ गुज़रने वाला है अहसासातों से लबरेज़ समन्दर पर। उठते ज्वार के बीच उसे देखना सुखद है। ठीक उसी तरह कि,”वो आके पहलू में ऐसे बैठे ,के शाम रंगीन हो गई है  ।

यह गीत प्रिय गीतों में से एक है, क़रीब है और सुनते ही शाम रंगीन हो जाती है।गुलज़ार साहब के लिखे को सिर्फ़ पढ़ा या सुना नहीं जा सकता। वो भीतर उतरता भी है और आँसुओं में ढुलकता भी है।

ललित कलाएँ इसीलिए तो रेचक कहलाती हैं और साथ ही रोचक भी,  मनश्चिकित्सा के लिए प्रभावी , कारगर और असरदार भी। सो बुनिए, गुनिए, गुनगुनाइए क्योंकि तिश्नगी की हद तक जाकर ही तिश्नगी से मुक्ति संभव है।

#ज़रा_ज़रा_सी_खिली_तबीयत_ज़रा_सी_ग़मगीन_हो_गई_है

Wednesday, June 13, 2018

तेरे_हक़_में_यह_उत्सर्ग

स्त्रियों की दासता की एक लम्बी कहानी है। सभ्यता के शुरूआती दौर से ही शायद उसे दोयम ठहराने की क़वायद शुरू हो गई थी। उसके सौन्दर्य , वैचारिक उच्चता , संतुलन की योग्यता, श्रेष्ठता या मानवीय मनोभावों की उच्च भूमि को देख उसे बंधन में रखने की इच्छा बलवती हुई  और इस प्रक्रिया में उस पर नाना भाँति के बंधन लगाए गए। उसे शिक्षा से वंचित रखा गया और चहारदीवारी के एक सीमित दायरे तक समेट दिया गया। कभी उसे हिजाब में आपादमस्तक ढका गया और कभी नाना भाँति की रवायतों में जकड़ा गया।

जब उसने प्रतिकार किया तो एक चिंतन सामने आया जिसे  स्त्रीवाद के नाम से जाना जाने लगा। पर यह चिंतन, स्त्री-विमर्श उसमें ठीक उसी समय जाग्रत हो गया था , जब उसे मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया। वर्तमान में बहुत कुछ सुखद है पर कितना कुछ सुखद है यह भी विदित है ही।

यहाँ फिलवक्त सौम्या स्वामीनाथन के निर्णय पर बात हो रही है।उसने हिजाब की बाध्यता के चलते एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लेकर ईरान में शतरंज चैम्पियनशिप की एक महत्त्वपूर्ण प्रतिस्पर्धा, एशियन टूर्नामेंट से खुद को अलग कर लिया है। सवाल उठता है कि एक तरफ़ डेनमार्क जैसे अन्य देश हैं जो हिज़ाब के ख़िलाफ़ फ़ैसले लेकर स्त्री के हक़ में खड़े हो रहे हैं वहीं मुस्लिम देश अभी भी कट्टरवादी मानसिकता को लेकर जी रहे हैं, चिंतनीय है।

इस्लाम की कट्टरता कई मायनों में उसके मानवीय होने पर प्रश्नचिह्न लगाती है। अगर हर धर्म की रवायत का सम्मान किया जाए तो भी मुझे हिजाब कभी भी स्त्री के हक. में खड़ा नज़र नहीं आता। हिजाब और तीन तलाक़ जैसे मुद्दे सदैव एक टीस देते रहे हैं। स्त्री को हिजाब मे  सिर्फ़ इसलिए रखना कि यह इस्लाम की रवायत है तो उसका या ऐसी ही कोई मान्यता जो किसी अन्य धर्म से संबंधित हो , परन्तु वह मूल अधिकारों की जद में आए तो उसका प्रतिकार ज़रूरी  है।

29 वर्ष की स्वामीनाथन भारत में शतरंज की पांचवी रैंक की खिलाड़ी है। उधर ईरान में महिलाओं के लिए , धार्मिक मान्यता के चलते सिर पर हिज़ाब रखना अनिवार्य है और इसी की पालना वहाँ जाने वाले खिलाड़ियों  को भी करनी होगी ;यह सोच वाकई मानवाधिकारों का हनन है। फ़िलहाल सौम्या के ईरान ना जाने के निर्णय  से वे एशियन टूर्नामेंट से बाहर हो गईं हैं परन्तु जब बात अपने साथ-साथ अपने वर्ग के हकूक के लिए हो तो स्वयं को हवि करना ही होता है और यूँही हिजाब जैसे पैरहन को परचम बना लेना होता है।

किसी भी व्यक्ति ख़ासकर खिलाड़ी पर अगर वो उस देश का नागरिक नहीं है तो धार्मिक पहनावे को थोपने की कोई गुंजाइश  होनी ही नहीं चाहिए। वस्तुत: ऐसी संकीर्ण सोच वाले देश को मेज़बानी का मौक़ा ही क्यों दिया जाए, विचार तो यहाँ भी किया जाना चाहिए| ऐसे मुद्दों पर गर देश का प्रतिनिधित्व भी मूक हो तो मुद्दे सदियों तक मुद्दे ही बने रह जाते हैं। ईरान की कट्टरता कई मामलों में हमारे सामने है।

खिलाड़ियों को बहुत से मोर्चों पर क़ुर्बानियाँ देनी होती है , बहुत से मुद्दे चाहे वे सुरक्षा को लेकर हो या सुविधाओं को लेकर उन्हें समझौता करना पड़ता है, ऐसे में हिजाब की अनिवार्यता जैसे तुग़लक़ी फ़रमान मनुष्यता के मसले पर फिर-फिर सोचने को मजबूर करते हैं।
हाँ यहाँ पर सरकार को भी दखल देना चाहिए था.. हो सकता है ज़ल्द ही इस दिशा मे कुछ क़दम उठाए जाएं पर फ़िलहाल तो सौम्या का निर्णय है और हमारी  तालियाँ । हालाँकि ऐसा करने वाली वे पहली नहीं हैं पर इस प्रतिरोध को जारी रखने वाली वे कड़ी बनी इसकी ख़ुशी है।

#तेरे_हक़_में_यह_उत्सर्ग

Sunday, June 10, 2018

वो महज़ एक झील ही नहीं वरन् आत्मा का कोई हिस्सा है!

"किसी भी भाव की अत्यन्तता ,पराकाष्ठा अथवा चरम ही सरहद (सीमा) है."- Euclid

ठीक है यह बात पर कई मर्तबा यही अति विनाश के चौड़े रास्तों को भी  बना देती है जिसका अंधानुकरण अनायास और सतत होने लग जाता है। ऐसा ही एक वाक़या देख रही हूँ और यह सब देखते हुए भी मना नहीं कर सकती। क्योंकि ऐसा करने वाले वहाँ संख्या में अधिक थे। बहुत लोग यह भी कह सकते हैं कि यह कृत्य बहुत से लोगों को रोज़गार भी तो देता है।सो वहाँ यूँ दमदार तरीक़े से नहीं कहा क्योंकि कम से कम सौ लोग तो वहाँ ये सब कर ही रहे थे...कुछ को टोका पर उन्होंने मुझे नेट पर तैरते कुछ संदेश दिखा दिए। फिर पूरी झील की सरहद का मुआयना किया तो यह संख्या चौंकाने वाली थी। वहाँ आटे से सजे थाल भी कुछ हाथों में थे । कुछ ने वहाँ मेरी बात को सुना और कइयों ने नहीं।मेरा उद्देश्य यूँ भी किसी को आहत करना नहीं था वरन् जो वाकई आहत हो रहीं थी उनकी रक्षा और झील को बचाना था।

आनासागर झील पर इन दिनों सौन्दर्यीकरण के सराहनीय प्रयास चल रहे हैं। प्रशासन की इसके चारों ओर पाथ वे बनाने की योजना है , शायद । सराहनीय है यह योजना कि लोग झील को और पानी की कल-कल को कुछ ओर समीप से देख सकेंगे। पर जब ये प्रयास किए जाते हैं तो नागरिकों की क्या भूमिका होनी चाहिए , इसकी रिक्तता वहाँ घूमते, वॉक करते लोगों में देख निराशा हुई।

आनासागर झील स्वच्छता के उन मापदंडों को पूरा नहीं करती और इसके पीछे अपने कारण हैं फिर भी इसका सौंदर्य जादुई है।यह अजमेर का दिल है जो इस शहर की ख़ूबसूरती में भी इज़ाफ़ा करता है। इस झील में खूब मछलियाँ हैं जिन्हें पकड़ने पर तो प्रशासन ने रोक लगा दी हैं पर यहाँ उन्हें ब्रेड, आटे की गोलियाँ और अन्य खाद्य पदार्थ डालने की लोगों में मानो होड़ सी लगी है और जिस पर कोई अंकुश नहीं है।

अंकुश तो स्व-अनुशासन का होना चाहिेए ना!

यह कहूँ कि जागरुकता के अभाव में लोग मछलियों को यह सब खाद्य वस्तुएँ चाव से खिला कर दान कर रहे हैं तो मुझे लोगों की समझ पर शक होता है। चौपाटी पर सुबह और शाम मछलियों को ये खाद्य वस्तुएँ खिलाते हुए लोगों को देखा जा सकता है। आटे की गोलियाँ,दाना, ब्रेड पीसेज, मुरमुरे, बिस्कुट, रोटी व सोयाबीन एवं कई अन्य खाद्य सामग्री झील में डाली जा रही हैं जो कि मछलियों  के लिए हानिकारक साबित हो सकते हैं। यही बात में कई अन्य जलाशयों व जल स्रोतों पर भी देखती हूँ।

इनके कारणों पर नज़र डालने की कोशिश की तो आस्था ही एक कारण नज़र आया..या कि संवेदनशील मन जिसे अज्ञानवश इस अहित कर्म का ज्ञान नहीं है।

यह समझना होगा कि मनुष्यों के लिए प्रयोग की जाने वाली खाद्य सामग्री मछलियों के लिए पोषक नहीं है, बल्कि यह उनकी मौत तक का कारण बन सकती है। आटे और मैदा से बनी वस्तुएँ जलीय जीवों , मछलियों का प्राकृतिक भोजन नहीं है। यह खाद्य सामग्री मछलियों के पेट में एकत्र हो जाती है और गलफड़ों में फँसकर उनकी जान तक ले सकती है। साथ ही इन खाद्य सामग्री के टुकड़ों से पानी भी दूषित होता है, वो अलग। खाद्य अवशिष्टांश से युक्तवह जल धीरे-धीरे सडऩे लगता है और इसके कारण पानी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। नतीजतन मछलियों की जान जोखिम में पड़ जातीहै। यहीं यह भी देखा कि लोग पॉलीथीन  की थैलियां तक पानी या किनारों पर फेंक देते हैं जो भी जलीय जीवों के लिए , झील के लिए हानिकारक है।

झील पर बहुतेरे प्रवासी पक्षी आते हैं, उन पर भी श्रद्धा का यह सैलाब इसी तरह उमड़ता है।

मेरे जीव की ही तरह साँस लेने वाले  मनुष्य नामधारी जीवों आपसे आग्रह है कि अतिशय श्रद्धा और संवेदनशीलता के सैलाब में हम करणीय , अकरणीय के बीच एक रेखा खींचने की समझ रख सकें तो यह प्रकृति और प्रकारान्तर से हम सभी के लिए बेहतर होगा।

अब समय नहीं है ।हमें हमारे व्यवहार से ही यह बताना होगा कि हम इस धरा के जागरूक मानुष पुंज हैं।

मेरा प्रशासन , प्रबुद्ध समुदाय, समाचार पत्रों ,नागरिकों से इस विषय पर सार्थक हस्तक्षेप करने का आग्रह है।

-विमलेश शर्मा
#झील_के_हक़_में
#save_the_nature
#Save_Anasagar

Monday, June 4, 2018

ज़रूरी है समरसत!

लिखती रही हूँ , पर लिखना होगा सतत क्योंकि मानना है कि गर इस तरह भी कुछ लोग प्रभावित हो पाए तो , कुछ हाथ सजग हो पाए तो मेरी , हमारी वसु के संरक्षण के लिए यह एक छोटी सी पर सार्थक पहल तो होगी।

प्रकृति दुर्जेय है पर मनुष्य यह बात भूला बैठा है। दोहन अतिशय दोहन (शोषण के चरम तक) और सुरसुरा रूपी हमारी अनियंत्रित इच्छाएँ , अंतहीन आवश्यकताएँ हमारी प्रकृति का सौन्दर्य लील चुकी हैं। वर्तमान में कई राज्य पानी की क़िल्लत से जूझ रहे हैं, पर उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। हरियाली नदारद है और पृथ्वी का तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है, पर उससे भी क्या???

हम एक दिन स्टेटस लगा लेंगे, तापमान बढ़ने पर दूसरों को गरिया कर एसी को कुछ और कम कर लेंगे या ज़्यादा ही हुआ तो एक पौधा लगा कर फ़ोटो सेशन कर लेंगे।
दरअसल जब तक यह चिंता व्यवहार में क्रियान्वित नहीं होती, नई पीढ़ी इसे एक मिशन की तरह नहीं लेती , सार्थक परिणाम प्राप्ति मुश्किल है।

स्नातक स्तर तक वनस्पति विज्ञान मेरा प्रिय विषय रहा है। नाना भाँति के फ्लोरा को देखना , जानना भाता था कि हमारी वसुंधरा कितनी समृद्ध है , उतना ही अच्छा लगता था जैव विविधता , जैव पारिस्थितिकी को पढ़ना भी पर अब विविधता तो लुप्त प्राय: की श्रेणी में बदल चुकी है।

क्या किया जाए और कितना ज़ल्द किया जाए ये निर्णय और परिकल्पना तो व्यक्तिगत प्रयास ही निर्धारित करेंगे। पर फिलवक्त यह तय है कि हमने हमारी संतति के लिए विकट परिस्थितियों के बीज बो दिए हैं।

छुटपन से माँ की डाँट खाती रही हूँ कि प्याज़ और सब सब्ज़ी एक साथ , एक थैली में क्यों लाती है। तू ही बचा लेगी प्लास्टिक से और मैं कह देती ना हम -आप दोनों । उनका सर पकड़ना और ग़ुस्सा सिर्फ़ इसलिए कि वे सात्त्विक आहार लेती हैं पर वे समझ गईं हैं कि फिर धरा कि सात्त्विकता का क्या होगा। उसके बाद से  दो थैले साथ होने लगे।

आचरण की शुद्धता , व्यवहार में शुद्धता से ही संभव। प्रयास करें कि समरसता बनी रहे, जड और चेतन में , पुरुष और प्रकृति में ..सर्वत्र!

~विमलेश शर्मा

#Beat_Plastic_Pollution
#Beat_pollution

Wednesday, May 30, 2018

राजनीति से परे!


कोई भी शहर एकाएक आपके भीतर धड़कने लगता है , बस उसे क़रीब से देखने की एक नज़र चाहिए। पक्षी, कलरव, लोग , जगहें , इमारतें सब अपने जैसे ही जान पड़ते हैं। जीवन से जूझते  हुए, लड़ते हुए, जीतते हुए और हारते हुए।निस्पृह भाव से इन्हें देखकर जब अख़बारों , ख़बरों और सोशल मीडिया पर नज़र डालती हूँ तो शहर, परिवेश, देस कुछ नहीं वरन् बहुत कुछ बदला-बदला सा नज़र आता है।

ऑटो चालक, भीड़ से गुज़रते राहगीर, मंदिर में दर्शन करते लोग, यात्री ,अजान को बेहद क़रीब से सुनती आँखें और अपने-अपने दायित्व संभालते लोग ..सब एक से ही नज़र आते हैं। जरा सोचिए हमने कब से उन्हें राजनीतिक संज्ञाओं में बाँटना शुरू कर दिया।

इन हादसों पर मुझे इतिहास याद आता है और यक बयक याद आ जाती हैं पुराणों में वर्णित किरात और आकुलि की कथा जो मन का ,मनु का शोषण करते हैं, उसकी अनधिकृत चेष्टाओं को पोषित करते हैं।

कामायनीकार उसी कथा को दर्शन से आवृत कर हमारे समक्ष रखते हैं। मनु के विनाश का हेतु वहाँ अहंमन्य राक्षसी प्रवृत्तियाँ हैं। ठीक वैसे ही तो जाने कितने किरात और आकुलि हमारे इर्द-गिर्द हैं , उन्हें पहचानने भर की देरी में हम सभ्यता और संस्कृति के विनाश के रूपक गढ़ देते हैं।

आनंद , परिवेश के साथ समरसता प्राप्ति के प्रयासों में है, राजनीति में तो नहीं , क़तई नही!

#राजनीति_से_परे

~विमलेश_शर्मा
~विमलेश_शर्मा

चारदीवारी का सुख!!!

जानते तो हम सभी हैं बस कर नहीं पाते हैं..या सिर्फ़ सलाह भर दे देते हैं..और यूँ बस हो गई अपने-अपने कर्तव्य की इति श्री..पालना!???

हम श्वास ले पा रहें हैं, जल पी रहे हैं  क्योंकि कभी हमारे पुरखों ने हमारे लिए पौधे रोपें, बाग़-बग़ीचे और ताल बनाए। किसी झील या छाँव को देखती हूँ तो उन हाथों को सौ बार नमन करती हूँ...उस विचार को प्रणाम करती हूँ जो लोक-हित के लिए किसी ज़ेहन में कौंधा होगा।

कुछ देर ही सही  हमें अपनी भूमिका पर नज़र डालनी चाहिए..अपने दैनन्दिन क्रियाकलाप पर , शायद समझ आ जाएगा कि हम क्या कर रहे हैं।

यह ख़ुशख़बर तो नहीं कि मेरे पड़ोसी जोधपुर और जयपुर प्रदूषण के मामले में नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। मेरा मानना है ,मेरे (?) शहर को भी उसी सूची में होना चाहिए क्योंकि यह भी ज़रा भी कम तो नहीं सड़कों, झीलों को दूषित करने में।

प्लास्टिक, डिटर्जेंट, धूम,सिर्फ़ और सिर्फ़ दोहन प्राकृतिक प्रदेयों का...लगभग शोषण की हद तक दोहन..इसका अंजाम सोचती हूँ तो सिहर जाती हूँ। हवा और पानी के लिए प्यूरीफायर लग गए..मोबाइल एयर प्यूरिफायर भी जल्द हमारी नाक पर होंगे ही किसी अलम् की ही तरह..यही तो चाहते हैं हम।

जानती हूँ विकल्प नहीं है हमारे पास। हमारी जनसंख्या , हमारी असीमित आवश्यकताएँ ..बहुत समस्याएँ हैं पर हर हाथ सोच ले तो क्या संभव नहीं फिर।

हम यहीं तक सोच बैठे है ..चारदीवारी  का सुख ....चारदीवारी के भीतर!

सब्ज़ी अलग-अलग थैली में ही पैक होनी चाहिए..कचरा गाड़ी में नहीं तुरंत सड़क पर ही जाना चाहिए, ढेर सारे कीटनाशक के साथ ही पौंछा लगना चाहिए और एसी सदैव चालू ही रहना चाहिए। कितने उदार हैं ना हम ..हमें सैर के लिए हरियल जगहें चाहिए पर उन्हें सौग़ात में हम हमारा अवशिष्ट ज़रूर सौंप आएँगे। पर्वत, नदी, झील सब जगह प्लास्टिक का अथाह पारावार। नदियाँ वाकई हमारे ही दिए कैमिकल के फ़ैन उगल रही हैं...!

क्यों यही चाहते थे ना हम आप??????

#चारदीवारी_का_सुख

Saturday, May 26, 2018

प्रेम में उदारता के समीकरण

बस चल रही थी और साथ ही कुछ सुबकियाँ।
पहले नज़रअंदाज़ किया पर उपेक्षा मारक होती है यह बात भी जानती हूँ। मेरे सोचने के बीच वह लगातार  रोती जा रही थी । अब तक इतने आँसू बह चुके थे कि उससे तीन वक़्त के भोजन के लिए नमक सहेज लिया जा सकता था।यह तीन वक़्त के नमक की अपनी दृष्टिकूट गणित से ध्यान हटा उसे पूछा तो किसी निठुर चाँद की बात सामने आई।  उसके आँसू पोछते  हुए मैंने कहा देखो यह जो चाँद है ना इसकी प्रकृति में ही दोष है।

कैसे ...??वह रूलाई के साथ बोली तो मैंने कहा सुनो दो चकोर की एक कहानी...

एक
चकोर ने एक दिन चाँद से कहा
तुम अब मुझे अजनबी से लगते हो?

मैं इन दिनों  देखता हूँ कि एक और चकोर भी तुम्हें मुझ जैसे ही देखता है और तुम भी ठीक वैसे। मैंने तुम दोनों की बातें सुनी और स्वयं को कहीं दूर ठिठके पाया। तुम्हारे नेह को भी टटोला वो वहाँ था बस नहीं था तो मेरा कुछ । वो रिक्ति जो उन क्षणों में , मेरी तुम्हारे मन में अनुपस्थिति  की बनी वो अब मेरे साथ है। उसे साथ ले कर मैंने एक रेखा खींच दी है और जो तुम्हारा था वहीं रख दिया है कुछ आशीषों के साथ ताकि बना रहे तुम्हारा नेह।

यह रिक्ति कचोटती है। यह रिक्ति मारक है। यह बताती है कि जगत् का दृष्टिकोण उपयोगितावादी होता है।प्रेम में उदारता के समीकरण बहुत कष्टकारी होते हैं प्रिय!

मुझे मालूम है तुम्हे किसी छुअन में मेरा एहसास नहीं हुआ होगा, ना ही मेरे दर्द की कोई टीस सुनाई दी होगी...उस अंक में तुम्हें मेरे उस हरे एहसास का आभास नहीं हुआ होगा। नहीं ही हुआ होगा...

वह सोचता रहा ...कि चकोर ना हो तो चाँद की क्या बिसात ! पर चकोर और चाँद का यह अंतर ही प्रकृति और पुरुष का अंतर है। उफ़्फ़ कितने छलावे हैं यहाँ। वो चकोर जो रहा चाँद के साथ भाग्यवान् था और जो छूट गया वो ...उसकी कहानी तो हम सभी जानते ही हैं...शब्द नहीं व्यक्त कर सकते उस पीडा को, वो अव्यक्त है।

लड़की का सर मेरे काँधे पर था...जानती हूँ प्रेम के अपने लक्षण और उदाहरण होतें हैं पर ...!
इस टूटन के दिलासे के लिए शब्द उसी लड़की के थे जो चकोर को उधार दे दिए थे पर उधार की छाँव तो सदा कड़वी ही होती है..यह कौन समझाए और किसे??

#प्रेम_गली_अति_साँकरी
-विमलेश शर्मा


कै़द और रिहाइयाँ!

रिहाइयाँ आसान कब हुई हैं....ज़िन्दगी क़तरा -क़तरा बह जाती है और ज़मी रह जाती हैं कुछ बिनबुलायी स्मृतियाँ... और एक अंतहीन इंतज़ार ।

ठीक वहीं ठहरे होते हैं कुछ चेहरे जिनसे कोई नाता न होकर भी कुछ बेहद आत्मीयता का रिश्ता बन जाता है।ठीक वैसे ही जैसे कुछ अजनबियों से हम  बहुत निश्छल मुस्कराहटें बेबात साझा कर लिया करते हैं।

हम कहाँ , किस तरह और किस क़ैद में स्वयं घिर जाते हैं पता ही नहीं चलता। यही कारण रहा होगा कि इन्द्रियों का संयत प्रयोग करने की सलाह तथागतों द्वारा दी गई होंगी।

ऐसा ही एक दु:ख घर ले आई हूँ। सात बरस के लगभग की उम्र , सायकिल पर दो दूध की डोलकी थामे वह खुश बच्चा हवा में अपनी देहगंध घोलता हुआ मुझे लगभग छूकर आगे बढ़ा है। कुछ दूर आगे वह एक घर पर रूक कर भीतर दूध देने गया है। मेरे साथ उसकी सायकिल कुछ देर ठहर गई है। हवा का एक तेज झोंका उसकी सायकिल को गिराने और दूध से अरमानों को बहाने की कोशिश करता है। दौड़ कर की गई मेरी कोशिशों के बावजूद मैं कोई  राहत नहीं जुटा पाती हूँ। वह भीतर से लौटता है और कुछ  हताश शब्द बुदबुदाता है ।
उनमें से यही सुनाई देते हैं कि यह कैसे हो गया ..मैं इतना ही कह पाती हूँ कि हवा तेज़ थी ..यह नहीं कह पाती कि मैंने कोशिश की थी। उसे शायद पिता या कि माँ की डाँट का भय रहा होगा।

वो लौट गया है पर एक भय और उदासी मेरे साथ रह गई है।

जीवन में ऐसे ही तो हम कितनी घटनाओं , उदासी या कि खुश लम्हों के साक्षी बन जाते हैं, जिनसे मुक्त होना ताउम्र संभव नहीं होता।

#क़ैदऔरिहाइयाँ

Saturday, May 19, 2018

प्रेम गली अति साँकरी!

रात आस का भी रूपक है तो बिछोह का भी!

शीतलता का भी तो दाह का भी। इसीलिए इसे विरह की जाई कहा गया..विरह से उत्पन्न ..अभाव की आत्मजा...अभाव  इसीलिए शीतल होने के बावजूद दाह..दाघ

घाम के ना होते हुए भी ताप!

मन पर याद की एक अमिट छाप होती है। वह कौंध होती है ..तीव्रतम अनुभूति। जहाँ मेधा नहीं मन जीत जाता है। अमिट इतनी कि साल बीत जाते हैं ...उम्र बीत जाती है पर साथ बना रहता है । क्षणांश का साथ भी जन्म भर साथ रहता है इसीलिए तो एकान्त भी निर्दोष बने रहते हैं। ठीक तभी कोई सीता अपने पावित्र्य में कुंदन बन जाती है और कोई  राम कुंदन को ही सिया मान बैठता है।

याद का साथ महत्त्वपूर्ण होता है...साथ रहें तो इस तरह कि धड़कन।ये क्षण ही ऊर्जा देते हैं ..वे तब भी याद अलगनी पर टंगे रहते हैं जब बिछोह हो जाता है...जब प्रिय दूर होकर और पास आ जाता है ।

कोशिश करना कि छोटी से छोटी याद को भी किसी प्रिय शब्द की तरह सहेज सको अपनी प्रिय डायरी में ..इस सूत्र वाक्य के संदर्भ में कि  प्रेम में क्षण महत्त्व रखते हैं उम्र नहीं । वे उसी तरह ज़िंदा रहते हैं जिस तरह डायरी में दर्ज इबारतें एक उम्र के बाद जीवित हो जाती हैं।यहाँ भाव महत्त्व रखते हैं , धन नहीं । यहाँ संज्ञाएँ भी बड़ी हो जाती हैं और पूरे-पूरे वाक्य अर्थहीन, इसलिए किसी को पुकारो तो कुँआरी संज्ञा से, वहाँ घालमेल , चातुरी और जोड़तोड़ नही चल पाता ...लाख बार ज़बरन शुरू कर ख़त्म कर देने पर भी नहीं !

प्रेम करो तो जन्मों में विश्वास रखना, प्रेम करो तो पाणिग्रहण संस्कार की तरह ऊष्मा सहेजना ताउम्र। प्रेम करना तो पढ़ना उसे किसी अनिवार्य विषय की तरह , विकल्पों के बीच पढ़ोगे तो वह रीत जाएगा, बीत जाएगा।

प्रेम में जीता मन बौराया होता है...ताउम्र प्रेम में पगा ।वह चाहता है कि बीती हुई बातों को दोहराया जाए, उन्हें फिर से  जिया जाए। शायद इसीलिए कोई सोती हुई आँखों से जागकर रात के काजल को  जलाता है और झूठ से भी अधिक स्याह रात को , चाँद की बिन्दी  वाली रात की तरह मनाता है...!

#प्रेम_गली_अति_साँकरी

~विमलेश शर्मा

Sunday, April 22, 2018

स्मृति विस्मृति के बीच खिलता प्रेम का हरसिंगार-अक्टूबर



धुँध से उठती एक महीन धुन,शाख़ पर खिलता फूल , टूट कर बिखरता चाँद हो या फिर पत्तों की सरसराहट ; दरअसल भाषायी संस्कारों में ये सभी प्रकृति की अद्भुत लीला के प्रतीक भर हैं। इस लीला से साक्षात्कार आपको अपनी और सिर्फ़ खींच ही नहीं लेता है वरन् बिठा लेता है अपने पास और जादू ऐसा कि आप उससे मुक्त ही ना हो पाए। कुछ ऐसा जिसे देख -जी ,शिउली के फूलों की महक सा कुछ , मुरार सा बहुत कोमल कुछ,आप विस्मृति से स्मृति की उस यात्रा में अपने साथ ले आए। कुछ इतना कोमल की जिसे आपने सहजता से व्यक्त नहीं किया तो वो खंडित हो जाएगा क्योंकि वह आपको चुप कर देता है।ऐसे ही किसी सुरूर में हूँ जो रोमावली से होकर रूह तक पहुँचा है । उस आत्मा की प्रकृति के इतना अनुकूल कि वहाँ ही रमा है अब तलक।

निर्मल वर्मा कहते हैं हम प्राय: लेखक के अकेले क्षणों की चर्चा तो करते हैं, कभी पाठक के एकान्त की बात नहीं करते। अक्टूबर इसी सूक्ति का अनुसरण कर दर्शक या पाठक के उस एकान्त पर सीधे दस्तक देती है।कोमल भावों को बनावट की आवश्यकता नही होती । वे जितनी सहजता से खिलते हैं उतनी ही सहजता से झर भी जाते हैं , नि:शब्द। इस प्रक्रिया में बस कुछ शब्दों की प्रतिध्वनियाँ हैं जो स्थायी बनकर रह जाती है। यह स्थायित्व एक दु:ख का कारण तो किसी अन्य अपरिचित सुख का जन्मदाता बन जाता है।

अक्टूबर को देखना एक ख़ूबसूरत कविता का शब्द दर शब्द खुलना है। इसे अनुभव करना संचारी भाव से स्थायी भाव तक पहुँचने की यात्रा है जो क्षणिक नहीं गहरी चोट करती है आपके मानस पर। हमारा सच , हमारा जीवन वह क़तई नहीं जिसे हम जी रहे हैं ।इससे इतर सच वह है जो नीली चादर ओढ़ लेने पर आँख में पलता है, वह जिसका हम चयन नहीं कर पाए हैं , वह जो हमारे भीतर तो जीवित है; परन्तु जगत् की कृत्रिमता में कहीं खो गया है, यह वह है जिसे हम सुनना तो चाहते हैं पर सुन नहीं पाए हैं। इतना कच्चा कि ठीक से अभिव्यक्त नहीं हो पाया तो टूट कर बिखर जाएगा।

अब तक रजत पटल पर भव्यता देखी, क्रूरता देखी, प्रेम का अतिरेक देखा पर किसी कविता को इतनी ख़ूबसूरती से जीवित होते नहीं देखा । खिड़की पर ठिठका चाँद हो , शीत नीरवता में झरता हरसिंगार हो या फिर वे छोटी -छोटी बातें जो जीवन का ईंधन हैं, जीने के लिए ज़रूरी हैं, इतनी कलात्मक सहजता से अरसे बाद देखी है । रूई के फ़ाहे के अहसास की मानिंद यह कहानी जीवन-अजीवन के महीन फ़र्क़ को सिखाती है।

शब्द आत्मा पर दस्तक देते हैं उनकी कीमिया कुछ ऐसी है कि देह चेरी की तरह उसके साथ हो लेती है , मीरा की ही तरह। कोई शर्त, कोई बात, कोई मुहर वहाँ फिर नहीं बच पाती । प्रेम को अनुभावों की आवश्यकता भी नहीं , वह बस घट जाता है और फिर एक मिसरी सी डली सा कुछ घुलता रहता है सतत।ऐसा कुछ जो साथ रहेगा अक्टूबर में खिलने और बाद मौसम बिखरने के बाद भी।

इसे देखते हुए अनेक साहित्यिक चरित्र बुदबुद से ज़ेहन में उठते-बैठते रहे।चाहे बात चेखव की कहानियों की हो, निर्मल वर्मा की हो या अपने ही कैमरे पर चढ़ी ख़ूबसूरत फ्रेमों की, परदे पर इन्हें हूबहू बिना किसी छेड़छाड़ के आप देख पा रहे हों तो एक चौंक तो उभरती ही है ना!

सुजित सरकार ने इस फ़िल्म को इतनी ख़ूबसूरती और यथार्थ के साथ हम सिरफिरे दर्शकों तक पहुँचाया है कि इसके लिए शुक्रिया कहना औपचारिकता भर है , दरअसल बात उसके कहीं आगे ठहरती है।

-विमलेश शर्मा

#October
#विस्मृति_से_स्मृति_के_आलोक_तक

Monday, February 12, 2018

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय!


पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ,पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
कबीर ने कहा है कि जिसने प्रेम को जान लिया उसके लिए और कुछ भी जानना शेष नहीं रहा। इस दृष्टि से प्रेम धर्म,दर्शन,साहित्य,विज्ञान सबसे परे एक अनिर्वचनीय अनुभूति है। प्रेम का वैशिष्ट्य इसके दैहिक, वैचारिक और भावनात्मक स्तर से इतर आध्यात्मिक स्तर तक की पहुँच से है। प्रेम को परिभाषित करें तो जो शबनम सा नम पत्तों पर ठिठका है , जो रात की चूनर में तारों सा टँका है , जो पहाड़ियों के पीछे दिपता सिन्दूरी उजास है ,  जो बारिश बन घास पर बिछलता है,  जो फूलों में महकता है, जो खेतों में खिलता है और जो निर्दोष हँसी में खनकता है, प्रेम  है!  जहाँ नाराजगियाँ कागजी हों और अहसास ना छूटने वाले स्थायी रंग तो समझ लो प्रेम है।  जो दिलों से दिलों तक नदी सा बहता है, प्रेम है। पर प्रेम की इस अनुभूति के लिए सिर्फ एक दिन मयस्सर हो, कोई गुलाब किन्हीं हाथों में सिर्फ एक दिन महकता रहे यह बात ठीक नहीं। यह खूशबू हर जीवन में  ऐसी हो कि हर दिन महकती रहे तो ज़िन्दगियाँ खूबसूरत किताब सरीखी हो जाएँगी। इसीलिए कहा गया है कि लिखना प्रेम धूप रोशनाई से। दरअसल यह वो उजास है जिसे प्रेममार्ग का धीर पथिक ही पा सकता है।
द्वन्द्व से परे अभेदत्व का छंद है प्रेम
प्रकृति का हर उपादान परस्पर विरोधी तत्वों की उपज है। प्रेम ही वह रंगरेज है जो प्रकृति के हर उपादान को एक  रंग में रंग देता है। प्रेम वैपरीत्य के साथ सम है और विरोध के साथ समर्पण, वस्तुतः यही इस सृष्टि के विकास का मूल कारण भी है।  सृष्टि का प्रत्येक तत्त्व द्वैत से उपजा है और इसके लय में छिपा है अद्वैत का छंद। प्रेम समर्पण की माँग रखता है तभी तो आसमां और बादल की आवारगी  को भी धरा चुपचाप स्वीकार करती है।  रूप से अरूप की इस यात्रा में ही इस धरा और गगन की सारी मैत्रियाँ जन्म लेती है, विकसती है और प्रेम तक पहुँचती है ।

मैत्री की पंगडंडियों पर खोजना प्रेम के अमिट निशान
प्रेम मैत्री की पगडंडियों पर खिलता है। किसी की सच्ची दोस्ती मिल गई तो मानों उसे कायनात की हुकुमत मिल गई। अब्राहम-लाट,रूथ-नाओमी,सिमोन–सार्त्र,कार्ल मार्क्स-एंजेल्स और हमारे सबसे नज़दीक कृष्ण-अर्जुन; ऐसी ही मैत्रियाँ हैं जो किसी भी जैविक रिश्ते से ऊपर थीं। ऐसे किसी भी रिश्ते के भीतर के प्रेम को महसूस करने वाला खुशनसीब होता है और उसे सहेज कर रखने वाला शायद कोई सिद्ध। इस चरम को जीने के लिए बाहर की नहीं वरन् भीतर की यात्रा करनी होती है। शबनम सा निर्मल और शफ्फाक प्रेम, आवेग का चरम है पर साथ ही यह चरम स्थैर्य का प्रतीक भी है। यहाँ बिथोवन के संगीत सी एक लय है तो थामने का हौंसला भी।
आभासी दुनिया में प्रेम
 वर्चुअल दुनिया में प्रेम कितना बचा रहा है, यह सोचने पर यकायक ही मन प्रश्निल हो जाता  है कि क्या वहाँ भी गुलमोहर की छाँव नज़र आती होगी, क्या वहाँ भी फूल की अंतिम पत्ती के टूटने पर, सांस ठिठकती होगी क्या वहाँ की हरी बत्तियों में  रेशमी छुअन का एहसास होता होगा, क्या वहाँ के धोखों के जख्म भर पाते होगें और क्या व्हाट्सएप्प पर तैरते संदेश बहती भावनाओं के नमक को महसूस पाते होंगे? यह सच है कि गुम होते और उगते लास्ट सीन के चेहरें मायूसी और रंगत लाते हैं पर दुःख यह भी है कि प्रेम छत की मुंडेरों पर अब आबाद नहीं दिखाई देता और ना ही खतों में अब गुलाब ही भेजे जाते हैं जिन्हें एक उम्र तक वरकों में संभाल कर रखा जाता था। हाँलाकि तकनीक ने कुछ सहूलियतें बरती हैं ,उसने अहसासों की नरम छुअन को लाइव ज़रूर किया है पर इस शब्द की ऊष्मा को स्थायित्व प्रदान करने में वह अब भी पीछे ही रहा है। ऐसे में युव मन को  आभासी काराओं के आकर्षण की कैद से मुक्त कराना इस समय की एक बड़ी चुनौती नज़र आती है।
प्रेम लगन अनूठी ; न आदि न अंत....
प्रेम से बड़ी आग दुनिया में नहीं है। प्रेम चाहे तो सिंकदर बना दे और चाहे तो फकीर बना दर-दर की ठोकरें खाने को मज़बूर कर दे। दरअसल यह आत्मा को परिष्कृत करता है। मन के सात्त्विक भावों को नई उजास से भर देता है, वह जलाता है पर आत्मा को निखारता है। यही बात कभी बुद्ध ने तो कभी जरथुष्ट्र ने तो कभी कबीर और कभी मीरा ने कही है। प्रेम मनुष्य को मानवीय गुणों से युक्त बनाता है, उसे जीवन जीने का सलीका देता है। प्रेम सह अस्तित्व के सिद्धान्त पर चलता है।  प्रेम नैतिक –अनैतिक, जाति-अजाति, धर्म –अधर्म के साँचों को ख़ारिज़ करता है, वह अपना अक्स सामने वाले की आँखों में देखता है। यही प्रेम है जिसका न आदि विदित है ना ही अंत.....
प्रेम पर बाज़ार का ग्रहण
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।
प्रेम न तो खेत में उगता है न ही वह किसी बाज़ार में बिकता है। यह वो खजाना है जो यहि किसी मन को भा गया तो राजा हो या प्रजा सभी अपने प्राणों का मोल देकर इसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है। प्रेम पारस है, करुणा का सहोदर है और करुणा वासना का शुद्धतम और परिष्कृत रूप है। प्रेम वस्तुतः कुछ बनने या पाने की अवस्था नहीं है।वह न तो तुष्टीकरण कराता है,ना ही आहत होता है। वहाँ न याचना है ना ही क्षमायाचना, वहाँ है तो बस क्षेमभाव। प्रेम के ये अनगढ़ मुहावरें आज बाज़ार की गिरफ्त में हैं। पूर्व में बसंत का आगमन प्रेम का ही पर्याय प्रतीत होता था। सरसों के लहलहाते खेत, खिली हुई क्यारियाँ, धानी चुनर ओढ़े हुई वसुंधरा और खिलता हुआ कचनार प्रेमी के व्याज से  मनोवृत्तियों को खुद ही जाहिर कर देता था। पर आज इन प्रतीकों की जगह गुलाब,चाकलेट्स,टेडीबीयर और महँगी सौगातों ने ले ली हैं। यह एक कौतुक ही है कि प्रेम का एक दिन मुकम्मल है और फिर टूटन के बिदेसिये भी। कार्डस से शुरू हुई यह विपणन की संस्कृति जाने कितने प्रतीकों को शामिल कर बाज़ार के रंग में रंग रही है। इसके बावजूद भी अगर प्रेम बचा रहे तो हमें यह बाज़ारीकरण भी मंजूर पर इन सबके बीच यह जानना होगा कि प्रेम केवल माँग नहीं है, वहाँ श्रेय, प्रेय , प्रदेय की होड़ नहीं है वहाँ तो बस कलकल करते अनाम रहस्य के अजस्र झरने हैं।
प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाय
प्रेम एक उदात्त मनोभाव है जहाँ सयानापन और स्वार्थ को कोई जगह नहीं है। आज के दौर में प्रेम में जब स्वार्थ, दोहरापन और स्वार्थ हावी हो गया हो तो प्रेम गली अति सांकरी और ‘प्रेम को पंथ कराल महा’, वाली उक्तियाँ भी ठीक जान पड़ती हैं। ऐसे अनुभवों से गुजरा प्रेम पीड़ा,छलावा और संताप जैसे शब्दों की छाँव में रूपान्तरित हो  जाता है। प्रेम दो व्यक्तित्वों का अलगाव नहीं है वरन् दो व्यक्तित्वों का साथ-साथ जीना है। वह संबंधों में होकर भी संबंधों से परे है। प्रेम में सकारात्मकताएँ होती हैं वह मानसिक तथा नैसर्गिक वृत्तियों से परे अलौकिक अनुभूति है। प्रेम साहसी बनाता है, दो विरोधी धुर्वों को एक सम पर लाकर ठहरा देता है तभी तो रांझा हीर और हीर रांझा एकमेक नज़र आने लगते हैं। प्रेम आज़ादी में विश्वास रखता है न कि वर्जनाओं में। एकाधिकार, वर्चस्व और शर्तें उसे धीरे-धीरे मार देती है ऐसे में विश्वास और नेह का तावीज गले में बाँध अनहद के इस दुर्लभ नाद को सहज ही सुना जा सकता है।
प्रेम के बदलते समीकरण
बदलते मूल्यों की आड़ में आज प्रेम का अलग-अलग नामकरण हो रहा है, लव जिहाद भी एक ऐसी ही टर्म है। हम एक ओर प्रेम को आज़ादी का नाम देते है, प्रेम के प्रतीक राधा और कृष्ण को मंदिरों में पूजते हैं पर अगर हमारी नज़रों के सामने प्रेम नज़र आ जाए तो उसे लाठियों से भाँज देते हैं। ऐसे में विचार आता है कि आज भले ही बहुत खिड़कियाँ खुल गई हों परन्तु मुख्य दरवाज़ों पर अब भी कठोर पहरे हैं। इन दरवाजों की कुंडियों को खोले जा सकने का विकल्प तैयार करना होगा नहीं तो जाने कितनी मिसरी की डलियाँ नमक में बदल रिस जाएँगी। प्रेम असीम है उसे परिवार, जाति,समाज,पंथ,धर्म,देश इत्यादि सरहदों में नहीं बाँटा जा सकता। प्रेम कर्तव्य से परे होता है, प्रेम में बस वर्तमान है। वह न वैयक्तिक है ना ही निर्वैयक्तिक वह पूर्णतः सार्वभौमिक है। वहाँ कुछ सुना जाता है, कुछ कहा जाता है और बहुत कुछ है जो अनकहा और अनसुना रह जाता है जिसे सिर्फ महसूस किया जाता है...कुछ इसी ही तरह....
प्रेम!
कितना मीठा है ना यह शब्द
मिसरी की डली सरीखा
पर प्रेम को जी सको
उससे पहले कुछ ताप सहना सीखना

जानना कि
प्रेम में हिस्सेदारियां नहीं होती
नही होती सच और झूठ की महीन लकीरें
वो आँखों बोलता है
और घुलता है
शहद की मानिंद
सांस के विलोम में नि:शब्द

प्रेम देह के हारसिंगार से नहीं
वरन् कोमल भावनाओं से करता है श्रृंगार
डूबता उतरता वो थामता है
प्रिय की कचनार स्मृतियों को
उसकी अनुपस्थिति में भी

प्रेम करो तो जानना कि
यह नही होता
महज़ किसी रिक्तता को भरने
या कि रवायतों की रस्मी चादर ओढ़
क्षणिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु

 सांसों की डोर सा महीन यह
 आस की पूली से उपजता है
भावनाओं के धानी रंग से निखरता है
जन्मता है टूटकर
बिखर कर फिर फिर संवरता है
फरवरी के इन्हीं सतरंगी दिनों की  तरह

सुनो! प्रेम करो तो लिखना इसे शब्द दर शब्द
जनवरी की सर्द पीठ पर
धूप रोशनाई से
किसी मोम छांव तले!

Saturday, February 10, 2018

Kierkegaard

My sorrow in my castle, built like an eagle's nest, upon the peak of mountain lost in clouds.

When I am sunk in the deepest suffering of melancholy, one thought or another becomes so knotted for me that I cannot loosen it, and since it is related to my own existence, I suffer indescribably. And then when a little time has paned, the abscess and inside lies the richest and most wonderful material for work.

- Kierkgaard

मेरे दु:ख मेरे किले में इस तरह बँधे हैं जैसे बादलों के धुंधलके में गुम हुई किसी पर्वत की उत्तुंग चोटी पर किसी चील का घोंसला।

जब भी मैं गहन उदासी  और वेदना की पगडंडियों से गुज़रता हूँ तो वेदना की ये परतें परस्पर इतनी गूँथी होती है कि मैं इन्हें खोल नहीं पाता।
 ये पल और परतें चूँकि मेरे अस्तित्व और स्मृतियों से जुड़ी हैं इसीलिए में असह्य कष्ट  से गुज़रता हूँ। वक़्त की ये किरचें ही  मेरी रिक्तता पर चोट कर मुझे अलहदा और अमीर बनाती हैं और ये ही मेरे काम के लिए बेहतरीन ज़मीन भी तैयार करती हैं।

#Kierkegaard
अनुवाद
~विमलेश