Thursday, April 9, 2015

सामाजिक सरोकारों की चुनौती झेलता इलेक्ट्रॉनिक मीडिया

                         सामाजिक सरोकारों की चुनौती झेलता इलेक्ट्रॉनिक मीडिया



परिवेश और वातावरण मनुष्य को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। वस्तुतः बदलाव मनुष्य को एक नए मनुष्य में बदलने की एक सतत प्रक्रिया है और चेतना के स्तर पर बदलाव की इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मीडिया है। मीडिया मनुष्य की चेतना को खाद देता है उसे पोषित करता है और सामाजिक चेतना को अग्रगामी बनाता है। आज मीडिया का विस्तार हो रहा है । वह आधुनिकतावाद और बाजारवाद से जूझ रहा है ,उसे अपने आपको हर पल नया रखना है ,संभवतः इन्हीं चुनौतियों के चलते उसे अनेक समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है। पैड न्यूज,विज्ञापन और टी.आर. पी. के बढ़ते जंगल में आज वो अपनी विश्वसनीयता खो बैठा है। सामाजिक सरोकारों का सजग प्रहरी आज बदलती कार्यशैली में जन सरोकारों से बहुत दूर हो गया है। आज मीडिया के प्रति जनता का विश्वास निरंतर  खोता जा रहा है । प्रिंट मीडिया आज अपनी साख अब भी बरकरार रखे हुए हैं परन्तु अगर इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बात की जाए तो वहाँ खबरों के चयन से लेकर प्रस्तुतिकरण तक अनेक प्रकार की गिरावट देखने को मिलती है। कभी कभी तो किसी खबर का इतना अधिक दोहन किया जाता है कि उस खबर की सम्वेदनशीलता ही समाप्त हो जाती है। मीडिया सामाजिक सरोकारों और जन संवेदनाओँ का सच्चा पहरूआ है। आज भी कई पत्रकार, टी.वी.रिपोर्टर्स और संपादक युवा पीढ़ी के आदर्श हैं परन्तु उनके भ्रम तब टूट जाते हैं जब वो इन्हें केवल प्रदर्शन और बाजारीकरण की होड़ में ऐसी खबरों को प्रदर्शित करते देखते हैं जिनका सामाजिक सरोकारों और जागरूकता से कोई लेना देना नहीं हैं। कई बार तो खबरे अन्य किसी ग्रह के एलियन को लेकर बनाई जाती है या फिर ऐसी विषयवस्तु को लेकर होती है जो हास्यास्पद हो। अगर उसे  पूरा देखा भी जाए तो नतीजा सिफर ही रहता है, वे दर्शकीय चेतना को किसी तरह प्रभावित नहीं करती । कई बार खबरों पर होने वाली चर्चाएँ भी तर्कहीन होती है । कई बार तो विषय पर प्रकाश डालने हेतु बुलाए जाने वाले विशेषज्ञ और वक्ता ही विषय से भटकते हुए और निजी आक्षेप लगाते हुए नजर आते हैं।  लोकतांत्रिक व्यवस्था के इस चौथे स्तंभ ने यों तो आज बहुत विकास कर लिया है परन्तु सार्थक सम्वाद के स्तर पर वो कहीं पिछड़ गया है। इसीलिए मीडिया की कार्यप्रणाली और सांख पर सवाल उठने लग गए हैं। अगर बीते वर्ष का ही उदाहरण ले तो इस वर्ष को एक स्मारक स्तम्भ की संज्ञा दी जा सकती है , पूरे वर्ष इतना कुछ घटा कि उसे लेकर एक सार्थक संवाद की आवश्यकता थी। जहाँ यह वर्ष एक और वैचारिक बदलाव का समय था वहीं दूसरी और उस समय विश्व औऱ देश के मानचित्र पर अनेक घटनाएँ घटित हो रही थी जो कि झकझोकने वाली थी और इस समय आवश्यकता एक प्रतिबद्ध मीडिया की थी जो कि हमारा ध्यान उन सरोकारों की ओर ले जाए जिन पर विमर्श की सर्वाधिक आवश्यकता है। परन्तु मीडिया हताश करता है और हर उस मुद्दे की तरफ भागता दिखता है जो उसे केवल औऱ केवल व्यावसायिक ऊँचाईयाँ प्रदान करें।

 आज बदलती जीवन शैली और जटिलता के वातावरण में अनेक विसंगतियाँ उपज रही हैं ,अनेक अपराध घटित हो रहे हैं। ऐसे में अगर इलेक्ट्रानिक मीडिया सतर्क होकर उन पहलूओँ को उजागर करें जिससे समाज इस माध्यम से उन अपराधों के प्रति और उनके पीछे रही मानसिकता को समझ सके तो क्या यह एक सार्थक पहल नहीं होगी। अनेक सवाल है, सवाल यह भी है कि आज तकनीक में जो बदलाव आ रहे हैं क्या वह भी मीडिया को प्रभावित कर रहे हैं और इस कारण मीडिया को आपना अस्तित्व बचाए रखने एवं खुद को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने हेतु अनेक बदलाव करने आवश्यक है। मीडिया यानि वह माध्यम जिसका आम जनता अनुसरण करती है और इस अनुसरण का कारण है कि मीडिया लोगों के सोचने के तरीके को प्रभावित करता है। 1922 में पहली बार वाल्टर लिपमैन ने अखबार में काम करने  के अपने अनुभव के आधार पर यह कहा कि मास मीडिया छवियों के सहारे लोगों की राय बनाता है। यह बात सत्य है कि मीडिया जनता की चेतना को प्रभावित करता है और दृश्य श्रव्य साधन इसे और अधिक प्रभावी बनाते हैं। यही कारण है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया सामाजिक जागरूकता हेतु अधिक जवाबदेह है परन्तु अब समय आ गया है कि मीडिया को अपनी प्राथमिकताएँ तय करनी होंगी। बेबाक तरीके से अपनी सहमतियाँ और असहमतियाँ प्रस्तुत करनी होंगी और यह जानना होगा कि उनका दर्शक अब समझदार हो गया है अब वह ऐसी खबरों पर रूकने की बजाय स्वस्थ हास्य चैनल्स पर ठहरना ज्यादा पसंद करता है। आज सर्वाधिक आवश्यकता है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ऊर्जस्वित विचारों का दोहन करे अपने मूलभूत सिद्धांतों और मूल्यों पर चले और सामाजिक दायित्वों का निर्वाह कर सजग प्रहरी की भूमिका का निर्वहन करे। अगर मीडिया सिंहासन और जनता, जन सरोकारों और घोषणाओं में एक सामंजस्य बैठा ले, वस्तुनिष्ठता एवं निर्वेयक्तिकता को अपना ले तो समाज के क्षेत्र में एक सच्चा प्रतिनिधि बन कर उभर सकता है। आज आवश्यकता है ऐसी पत्रकारिता की जो दोतरफा संवाद करने का माध्यम बनें, जागरूकता और बौद्धिकता के साथ संवेदनशीलता रखे  और साथ ही आम जिंदगी से जुड़ने का सामर्थ्य भी रखे तभी लोकतंत्र का यह चौथा परन्तु मजबूत और ज़रूरी स्तम्भ सही मायने में सच्चा सामाजिक पहरेदार साबित होगा।