Thursday, August 24, 2017

विदा की देहरी पर बेटियाँ 

बेटियाँ देहरी उघाँलते वक्त 
सिर्फ आशीष नहीं बिखेरती 
अपने मेहंदी रचे हाथों से 
वरन् समेट रही होती हैं 
एक साथ बहुत कुछ 
अपनी विक्षिप्त मनःस्थिति में। 

बरसते आँसुओं में
वे कोरों से चुपचाप पकड़ती हैं 
उसी देहरी पर देरतलक ठिठकी पदचापें 
स्वर्ण मृग सी चपल और सुंदर स्मृतियाँ 
और थेले में लौटती सारी दुनिया की खुश सौगातें 

अपनी सुबकती हिचकियों में 
वे बार-बार अनुरोध करती है 
तैतीस करोड़ देवताओं से 
माँ बाबा की छाँव में कुछ और देर रूके रहने का 
ताकि थामे रहे भाई के हाथ को देरतलक  
और बहन से लिपट कर 
गला दे तमाम शिकवे 
मीठी चुहलबाजियों के 

आशाओं और इच्छाओं के भँवर में 
वे लौटती हैं उस चंदन के पालने पर 
जिसकी डोरी का रेशम 
मन पर अब तलक बेहिसाब बिछलता है 

जानते हो! 
विदा होते वक्त 
बेटी का दिल 
पहाड़ सा होता है 
भय की सिकुड़न और 
परिस्थितियों को झेलने की विराटता को
एक साथ, चुपचाप सहेजे हुए!

- विमलेश शर्मा

प्रगतिशील सोच के ही पैरोकार हों धारावाहिक



दृश्य साधन मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालते हैं, इसी कारण सामाजिक मनोविज्ञान के तार भी इससे गहरे जुड़े हुए दिखाई देते हैं। सामाजिक मनोविज्ञान में संस्कार और पुरातन जकड़ने इतनी गहरी है कि वर्चस्ववादी ताकतों और मानसिकता को हवा देने वाली स्थितियाँ समाज सहज ही आत्मसात भी कर लेता है। टी.वी. और उसमें आने वाले ऐसे धारावाहिक इसी मानसिकता को हवा देते हैं। यह मंच अनेक प्रसंगों में घर-घर की कहानी और परम्पराओं की दुहाई के नाम पर ही सामाजिक जड़ मान्यताओं को बढ़ावा देता रहा है। कुछ नया करने की आड़ में ये शो कभी अतिमानवीय कथानकों को पकड़ते हैं, तो कभी जड़ मान्यताओं को हवा देते हैं। कभी ये इतिहास के झरोखों से केवल ऐसे प्रसंगों को चुनते हैं, जो महज़ भूलों से स्मृति में जमे रहते हैं तो कभी किसी कुप्रथा को ही आभिजात्य और सामंती रंग देकर विलासिता को बढ़ावा देते प्रतीत होते हैं। वर्तमान में ऐसे कथानक टी.वी. सीरीयल्स में बढ़ गए हैं जो घर की भीतरी संस्कृति में चुपचाप दखल देते हैं। हाल ही में बाल विवाह को एक विलास और सामंती कलेवर में प्रस्तुत करने वाले सीरियल को प्रतिबंधित करने की माँग उठी है। टेलीविजन पर दिखाया जा रहा शो पहरेदार पिया कीशुरू से ही अपने लीक से हटकर विषय होने के कारण विवाद में रहा है। इस धारवाहिक के नाटकीय कथानक में 10 वर्ष के बच्चे और 19 साल की लड़की का विवाह दिखाया गया है। यहाँ 10 वर्ष का अबोध बालक शादी की रस्म पूरी तन्मयता से पूर्ण करते हुए दिखाया जा रहा है, निःसंदेह दर्शक बालमन पर इसका नकारात्मक असर कहीं न कहीं गहरे तक पड़ता ही है। साथ ही भव्य तरीके से इन कुप्रथाओं को सामने रखना सामाजिक मनोविज्ञान के ताने-बाने पर भी प्रभाव डालता है। गौरतलब है कि भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां सबसे ज्यादा बाल विवाह होते हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में दुनिया के 40 प्रतिशत बालविवाह होते हैं। 49% लड़कियों का विवाह 18 वर्ष से कम आयु में ही हो जाता है। बालविवाह जैसा अभिशाप ही लिंगभेद और अशिक्षा का भी सबसे बड़ा कारण है। हालांकि कई कानून और संस्थाएँ इन्हें रोकने का काम कर रही है, पर अभी भी बदलाव का आंकड़ा छूना आसान नहीं है।
इस शो के कथानक और विषय को लेकर बढ़ते प्रतिरोध को लेकर हालांकि इसके किरदार शो के बचाव में आगे आते हुए कह रहे हैं कि हम किसी को कुछ नहीं सिखा रहे हैं, बल्कि यह प्रगतिशील विचारों का शो है। यह शो को प्रथम दृष्टया देखने पर तो कतई प्रतीत नहीं होता। फिलवक्त शो को बंद करने के लिए दायर की गई ऑनलाइन याचिका ने शो के आयोजकों को चिंता में ज़रूर डाल दिया है।  ख़बरों की माने तो दर्शक बिलकुल नहीं चाहते कि टी.वी. पर इस तरह के शो आएं। स्मृति इरानी तक अपनी बात पहुँचाने के लिए विरोध स्वरूप प्रारम्भ  हुई इस मुहीम में CHANGE.ORG वेबसाइट पर एक दर्शक ने सीरियल को बैन करने के लिए एक अभियान प्रारम्भ किया है। इस मुहीम पर अभी तक 55.000 लाइक्स भी आ चुके हैं। चिंता का विषय यह है कि शो एक 10 वर्ष के किशोर और नवयौवना के बीच प्रेम-प्रसंगों के दृश्य दिखला रहा है। राजकुमार , रनिवासों सा परिवेश लिए यह शो अपने रंग व दृश्य संयोजन के लिए भी चर्चा में रहा है। परन्तु विसंगति किसी भी सांचे में परोसी जाए उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। आधुनिक पीढ़ी टी.वी. को अपना आदर्श मानती है और उसका अंधाधुंध अनुसरण करती हुई दिखाई देती है। हालिया मामलों में वीडियो गेम का मामला और उससे प्रभावित होकर खेल में जीवन झोंक देने वाले प्रसंग भी हम देख रहे हैं। यह मनोविज्ञान ही तो है जो इतने गहरे तक व्यक्तित्व पर असर डालता है कि वह परिवेश के हाथों की कठपुतली मात्र बन जाता है।
हमारे समाज का एक बड़ा तबका अर्द्धशिक्षित और अशिक्षित है। वे उसी बात को सत्य मान बैठते हैं, जो दिखाई दे रहा है। एक सामान्य धारणा यह भी है कि जो दिखता है वह सच ही होता है, ऐसे में जब लिंगभेद और सामाजित संतुलन की बात करते हैं तो फिर ये शो आँखों का काजल चुराते से प्रतीत होते हैं। यह भ्रम , छलावा, झूठा वैभव परोस कर टेलीविजन संस्कृति, शुचिता और नैतिकता पर भी प्रभाव डाल रहा है।  किसी भी समाज और सामाजिक व्यवस्था हेतु नैतिक और सामाजिक बंधनों का जटिल होना, कहीं ना कहीं सामाजिक साम्य स्थापित करने के लिए भी होता है। ऐसे में अगर वैपरीत्य को बढ़ावा दें तो सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाएगा। वर्तमान में अनेक प्रसंग है जो बालमन और युवामन को अपनी गिरफ़्त में ले रहे हैं। कहीं बाजारवाद उन पर हावी है तो कहीं वह अंधाधुंध प्रतिस्पर्धा की दौड़ में उलझा है। कहीं वह रोजगार प्राप्ति की दौड़ में इतना आगे बढ़ गया है कि उसके अपने, दीवारों के भीतर ही चीख-चीख, कहीं पीछे छूट दम तोड़ रहे हैं। स्थितियाँ निःसंदेह भयावह है, अगर इन्हें संभालना है तो दृश्य-श्रव्य साधनों को सुधारवादी दृष्टिकोण सामने रखना होगा। केवल शो की प्रसिद्धि के लिए ऐसे विषयों को बढ़ावा देना कतई नासमझी है। शायद इसीलिए भारतीय दर्शक भी इस प्रकरण पर असंतुष्ट नज़र आ रहा है और सोनी टीवी पर प्रसारित होने वाले इस सीरियल को प्रसारण के पहले दिन से ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है। शो में ना केवल घटनाक्रम को लेकर ही आपत्ति है वरन् उसके संवाद भी बेतुके हैं। ये संवाद मनोविज्ञान की नज़र से संवेदनशील मन के लिए बहुत घातक हैं।
दूसरी तरफ़ भारत में अभी भी समाज का ढांचा पितृसत्तात्मक ही है। ऐसे में महिलाओं को अभी भी अपने अधिकारों के लिए अनेक स्तरों पर लड़ाई लड़नी पड़ रही है। आधी आबादी पर परम्पराओं की जकड़नें इतनी अधिक हैं कि अनेक स्याह साये उनका अनवरत पीछा कर रहे हैं। शिक्षा और आधुनिक युग की बयार ने उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता तो प्रदान दी है परन्तु दकियानुसी मानसिकता और पितृसत्ता के पैरोकार अभी भी इस स्वतंत्र छवि वाली स्त्री से नाखुश हैं। ऐसे में परम्पराओं या अन्य छलावे के माध्यम से  स्त्री जीवन को कुंद बनाकर प्रस्तुत करने वाली मानसिकता वाकई प्रतिबंधित ही होनी चाहिए। सिनेमा, रंगमंच, साहित्य आदि जनमानस की भावनाओं पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं अतः सेंसर की भी इन्हें ही अधिक आवश्यकता है। साहित्य, समाज और सिनेमा स्वहितों को छोड़कर, लामबंद होकर अगर विसंगतियों के खिलाफ़ मोर्चा खोल ले तो इससे बेहतर नज़ीर अन्य नहीं होगी, अन्यथा यही होगा कि-

मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी,

वो झूठ बोलेगा और ला-जवाब कर देगा।(परवीन शाक़िर)