Friday, March 10, 2017

आखिर क्यों फैलाया जा रहा है धार्मिक उन्माद!




कौन इस घर की  देख-भाल करे , रोज़ इक चीज़ टूट जाती है, जॉन एलिया की इन पंक्तियों की ही तरह रोज मेरे मुल्क का कोई  मासूम ख्वाब, बेबात टूट जाता है। फिज़ा की रंगत जाने क्यूँ बदली हुई सी है। आखिर क्यूँ कौमी एकता जैसी वृहत्तर अवधारणाएँ कुछ लोगों द्वारा सहज ही खण्डित कर दी जाती है। आखिर क्यों विभेदीकरण का ज़हर सहज ही नज़रों के पानी की रंगत बदल देता है और क्यूँ कोई मुद्दा साम्प्रदायिक रंगत ले विवाद का विषय बन जाता है। अनेक बेतरतीब घटनाक्रमों के बीच यह बात चर्चा में है कि 22 साल की सुहाना सईद ने सा रे गा मा पा के कन्नड़ वर्जन एपिसोड में भजन गाया है। इसके बाद सोशल मीडिया पर सुहाना को यह कहकर लगातार ट्रोल किया जा रहा है कि, वह कैसे एक मुस्लिम महिला होकर हिंदुओं का गीत गा सकती है। कफ़स की तीलियों से नूर झांकता ही नज़र आता है कि फिर कोई किसी को हिज़ाब में कैद करने की बात कर बैठता है। सुहाना को लगातार यह कहकर भी ट्रोल किया जा रहा है कि वह कैसे गैर मर्दों के सामने आकर गाना गा सकती है। यह 21 वीं सदी है औऱ सोच कर डर लगता है कि इस मानसिकता के साथ आखिर हम कहाँ जा रहे हैं?
 पाबंदियों की फे़हरिस्त  में एक तरफ हार्मोनल बर्स्ट आउट की बात कहकर कोई एक वर्ग को चाहरदीवारी में कैद करने के तर्क दे रहा है तो दूसरी ओर संकुचित सोच उन पर पैराहन और धर्म की पुरजोर सख्ती बरत रही  है। बात यहाँ भी आकर अटकती है कि आखिर यह विवाद उन अनाम शख्सियतों पर ही अपना जुल्म क्यूँ बरपाता है, जिनका कद लोकप्रियता के उँचे पायदानों पर नहीं ठहरता या जिनका अस्तित्व तिनके सा है। क्या इसलिए कि कमज़ोर पर भय,ताकत और आतंक की आजमाईश अधिक प्रभावशाली तरीके से की जा सकती है।

मंगलौर मुस्लिम्स नाम के समूह ने सुहाना सईद पर कौम की छवि खराब करने का आरोप लगाया है। इस संगठन का कहना है कि तुम यह प्रस्तुति देकर यह मत समझो कि तुमने कोई बड़ी चीज हासिल कर ली है। वो लोग जो छह महीने कुरान रटते हैं, तुमसे बड़ी चीज हासिल कर लेते हैं।  दरअसल यह कहन मानसिक रूग्णता औऱ पिछड़ेपन की निशानी है। राष्ट्रीय स्तर पर अपने क्षेत्र औऱ समुदाय का प्रतिनिधित्व कर आखिर कोई कैसे किसी की छवि खराब कर सकता है, समझ से परे है। सोशल मीडिया पर उसके पैराहन पर भी तंज कसे गए हैं। पोस्ट में सुहाना के अभिभावकों को भी निशाना
 बनाया गया है। यहाँ बात उस प्रस्तुति की सराहना  पर होनी चाहिए थी , जिसके सधे हुए बोलों ने निर्णायकों को भी उठ कर ताली बजाने पर मजबूर कर दिया पर यहाँ तो प्रस्तुति के बोल कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। संगीत और कला लोगों को जोड़ने का काम करती है पर अपनी सबसे पाक प्रस्तुति पर मिली इन धमकियों से सुहाना जाने ज़िंदगी का कौनसा पाठ सीख रही होगी।
बीबीसी ने एक सर्वे ,पूरी दुनिया में रहने वाले 30 लाख हिंदुओं पर कराया है । जिसमें यह जानने की कोशिश की गयी कि हिंदुओँ का प्रिय भजन कौनसा है। इस सर्वे के परिणाम उन धर्म के ठकेदारों को करारा जवाब है, जो हर बात औऱ मुद्दे को हिन्दू मुस्लिम पैमानों पर तोल, दोनों सम्प्रदायों के बीच दीवार खड़ी करते हैं। अगर इसी दृष्टि से गौर किया जाए तो चयनित पंसदीदा भजनों में से 6 शकील बदायुँनी के और 4 साहिर लुधियानवी के लिखे हुए हैं। इन 10 के 10 भजनों में संगीत दिया है नौशाद साहब ने और इन भजनों को अपना स्वर प्रदान किया है, रफ़ी साहब ने। तीस पर भी इन 10 भजनों में अभिनय किया है, यूसुफ खान उर्फ़ दिलीप कुमार ने। ऐसे उदाहरणों को रेखांखित किया जाना कतई आवश्यक नहीं हैं पर ये उस समय अधिक ज़रूरी हो जाते हैं जब धर्म विशेष को जबरन मुद्दों के कटघरे में पेश किया जाता है। ओ पालनहारे, निर्गुण ओ न्यारे जैसे प्रसिद्ध भजन के गीतकार जावेद अख्तर तथा संगीतकार ए.आर.रहमान रहे हैं। जावेद अख्तर ने सुहाना के पक्ष में ट्वीट कर उन कट्टरपंथियों पर अपना रोष जताया है जो धर्म के विषय पर मनुष्य मनुष्य को बाँटना चाहते हैं।  सांसों की माला पर पी का नाम सुमिरने वाले ये फरिश्ते मानवता के साथ खड़े होते हैं फिर आखिर किसी धर्म के अस्तित्व को इनसे क्या खतरा हो सकता है।

इस्लाम हर धर्म का सम्मान करना औऱ इंसानियत की कद्र करना सिखाता है पर दुखद है कि इन चीजों को, मुद्दों को राजनीति भी हथियार की तरह प्रयोग में लेती है। ट्रोल और भद्दी टिप्पणियाँ धार्मिक उन्माद औऱ व्यक्ति , व्यक्ति के बीच बढ़ती असहिष्णुता को दिखाती है।  सभी अलगाववादी ताकतें यह करते हुए यह भूल जाती है कि धर्मनिरपेक्षता तो भारतीयों के रग-रग में बसी हुई है। यही भावना दंगल गर्ल जायरा वसीम को लेकर भी सामने आयी थी। दरअसल गौर करने की बात है कि जो लोग अपनी छतों से आजादी का नारा लगाते हैं वे स्वयं ही दूसरों को एक रत्ती भर  आज़ादी देने पर सवाल उठाते हैं। कला की कोई जबान नहीं होती, ना ही किसी रंग या पैराहन पर किसी की दबिश  हो सकती है। पर कट्टरपंथी यह जुबां कब समझ सकते हैं। कबीर और खुसरों के अनेक पद आबिदा परवीन, राहत फतह अली खान, फरीद अयाज द्वारा भी गाए गये हैं जिन्हें अनेक लोग सराहते हैं। आबिदा के गले से रूहें मानो तृप्त होती हैं। जब संगीत सरहदों की सीमा को नहीं देखता तो फिर आवाज़ को साम्प्रदायिकता में देखने वाले कैसे मनुष्य होते होंगे, अचरज होता है।
डराना, धमकाना , जबरन बंधनों में  यूँ जकड़ना तभी दूर होगा जब हर व्यक्ति सुनी सुनायी बातों औऱ संदेशों पर विवेक से विचार करेगा, संदेशों की सत्यता की जाँच करेगा औऱ संकीर्णताओँ से दूर रहकर मनुष्य हित की बात करेगा तभी यह दुनिया वाकई खूबसूरत हो सकेगी। आम व्यक्ति को यह जानना होगा कि एक धर्म की श्रेष्ठता दूसरे धर्म को कमतर बताकर सिद्ध नहीं की जा सकती। यह समझना होगा कि धर्म मनुष्य ,मनुष्य के बीच सेतु का काम करता है, उसे बाँटता नहीं है। आज का दौर देखकर तो यही नज़र आता है-
न रूह-ए-मजहब न कल्ब-ए-आरिफ़, न शाइराना जबान बाकी,
ज़मीं हमारी बदल गई है अगरचे है आसमान बाकी।
(अकबर इलाहाबादी)