Tuesday, March 22, 2016

लोकरंगों की उपस्थिति का चैतन्य पर्व

(जब फ़ागुन रंग झमकते हों )

हमारा उत्सवधर्मी मन बारम्बार संस्कृति के सागर में गोते लगाता है और वहाँ से खोज लाता है पर्वों की सीपियाँ जिनसे अलसाया मन  पुनः आह्लादित हो उठता है। होलीशब्द इतने व्यापक अर्थों में औऱ पुरज़ोर उपस्थिति से हमारे मानस पटल पर अंकित है कि इसके स्मरण मात्र से ही मन पर सतरंगी छटा छाने लगती है। होली अनेक अर्थों में लोकरंगों की सांस्कृतिक उपस्थिति का स्मृति पर्व है।  लोक के बिना इस पर्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह पर्व समानता को तरजीह देता है जहाँ हर मन राधा और कृष्ण भाव में रंगा नज़र आता है यही कारण है कि सामाजिक बंधनों की कसावट भी इस दिन ढीली पड़ जाती है। फाग, पेड़ों की शाखों पर कोंपल फूटने का और प्रकृति के सबसे कोमल फूल उग आने का समय होता है । यह वसंत की उस वय  का समय है जब कचनार फूल , अबीर की खुशबू लिए मन की दहलीज़ पर कदम रखते हैं। रंग, गुलाल और प्रकृति के भाँति-भाँति के रंग, ठूँठ हुए मन को नयी चेतना से लबरेज़ कर देते हैं। फाग यानि उल्लास  और  इस उल्लास का जीवन में बहुत महत्व है। उल्लास के बिना जीवन बेराग हो उठता है इसलिए जीवन की चेतना के लिए हमारी संस्कृति में अनेक स्थल ऐसे जोड़े गए हैं जहाँ रस का सोता निर्बाध रूप से बहता रहता है।
रंगों के इस पर्व को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस दिन मानव सृष्टि के आदि पुरूष मनु का जन्म हुआ था इसी कारण इसे मन्वादितिथि भी कहते हैं। राग रंग का यह पर्व वसंतोत्सव और आनंदोत्सव के रूप में भी जाना जाता है।  कई मिथक और कई माऩ्यताएँ इस पर्व से जुड़ी है। एक ओर होली जहाँ होलिका दहन को लेकर बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है वहीं ब्रज परम्परा में यह प्रेम के प्रतीक राधाकृष्ण की होली के रूप में जानी जाती है। वस्तुतः अपने अनेक अनेक संदर्भों में  भी जो सामान्य बात निकल कर आती है वह यह कि होली सामूहिकता के जीवित होने का प्रमाण है। रंग, अबीर और गीत होली की अभिव्यक्ति है, जिसमें मौसम भी अपनी सतरंगी उपस्थिति देता है। यह सूर्य और धरती के मिलन का पर्व है और इसीलिए मिलन के इन क्षणों में धरा ,प्रिय को रिझाने के लिए बासंती चुनर ओढ़ लेती है। तेज और ताप का प्रतीक सूर्य भी इन दिनों सम पर आ जाता है, न धरती से अधिक दूर और ना अधिक पास। इसी समय वह धरती के मध्यभाग में प्रवेश करता है जिसे  भूमध्य क्षेत्र कहते हैं जो कि ऋतुओं का गर्भगृह है । समरसता के इस समय में फसलें पककर तैयार हो जाती है,  किसानों को उनके श्रम का फल मिल जाता है और प्रकृति रसवान हो उठती है, यही कारण है कि इस अवसर पर हर मन रससिक्त हो उठता है।

यह बात दीगर है कि त्योहारी गुलदस्ते के कुलीनतंत्र में होली सर्वाधिक लोकवादी और समतावादी त्योहार है। लोकसंगीत इस त्योहार की आत्मा है जिसमें होली खेले रघुवीरा से लेकर मोहे रंग दो लाल, नंद के लाल जैसे बोलों में मर्यादापुरषोत्तम एवं लोकरंजक दोनों ही रूप  होली खेलैया के रूप में नज़र आते हैं।  सूफी संगीत की पंचम ताने भी इस दिन आज रंग है रे, मां रंग है री गाने लगती है। ज़ाहिर है हर मन का अपना- अपना बरसाना है, शामे – अवध है ,मिलन है , वियोग है लेकिन इन सबके बावजूद  हर कोई भीगना चाहता है और  नेह के इसी गीलेपन को महसूस करने का त्योहार है यह रंगपर्व। यही कारण है कि कृष्ण कि गोपियाँ जो केवल श्याम रंग में रंगी चुनरिया की बात कहती है इस दिन नेह का इन्द्रधनुष ओढ़ लेती हैं। वस्तुतः प्रेम मन का लाड़ला भाव है औऱ यह भाव हास-परिहास से नित नया होता जाता है इसीलिए यह पर्व हमारी आत्मा के सबसे भीतरी दरवाजे पर दस्तक देने का साहस रखता है। यह पर्व केसरिया और हरे में भेद नहीं करता । हिन्दी साहित्य में विद्यापति, अमीरखुसरो, जायसी, सूरदास, मीरां, रसखान, पद्माकर, निजामुद्दीन औलिया के काव्य में उपस्थित एक ही भाव, इस पर्व के सम्प्रदाय निरपेक्ष होने का प्रमाण है।

हर त्योहार गहरे सामाजिक सरोकार रखता हुआ समाज को कोई न कोई संदेश देता है ऐसे में होली भी भक्ति की स्थापना, मूढ़ता के अवसान और सत्य पथ पर बढ़ने के साथ-साथ प्रेम की महानता का संदेश देती है।  इस त्योहार की लोकप्रियता का असर भारत के बाहर भी दिखाई देता है । कोई भी किसी भी देश में क्यों ना रह रहा हो इस दिन वह फगुवाई भारतीयता से सराबोर होता है औऱ रंग बेरोकटोक बिना किसी पारपत्र के उस व्यक्ति के मन में रम जाते हैं। भारतीय राज्यों में भी होली मनाने की अनूठी परम्पराएँ हैं। झारखंड की आदिवासी संस्कृति में यह शिव पार्वती विवाह का परिणयोत्सव है तो बंगाल  में यह वसंतोत्सव, राधा कृष्ण के प्रेम के समर्पण के दिन और चैतन्य महाप्रभु का जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। यों तो होली के ये रंग उत्साह ,अभिलाषा औऱ जड़ता पर चेतना के विजय  का प्रतीक हैं पर  वर्तमान में अनेक संदर्भों में होली के ये रंग बदलने लगे हैं। महिलाओं के साथ अनैतिक आचरण और चुहलबाजी की ओट में उच्छृंखलता के अनेक उदाहरण इस अवसर पर देखने को मिलते हैं। पहले अबीर औऱ गुलाल के प्रयोग से गालों पर उल्लास का अभिषेक किया जाता था पर आज अनेक घटनाएँ रंगों के घातक प्रयोग का उदाहरण पेश करती नज़र आती हैं।  अस्मिता को मलिन करने की कुत्सित मानसिकता भी कई जगह रंगों की प्रेमिल अभिव्यक्ति पर हावी होती नज़र आती है और यही कारण है कि कई स्थानों पर सड़को पर खौफ़ पसरा नज़र आता है। यही नहीं कई अतिउत्साही और बेलगाम हाथ पशुओं पर भी बेतुके रंग औऱ कीचड़ मल देते हैं। निःसंदेह ऐसे प्रसंग रंगों के खूबसूरत एहसास में ख़लल पैदा कर देते हैं।   इस अनियंत्रित उल्लास को यदि अऩुशासन के दायरे में बाँध लिया जाए औऱ हुड़दंग के स्थान पर लोकसंगीत को कुछ गुनगुना लिया जाए तो रंगों की मृदंग पर हर मन थिरक उठेगा। इस त्योहार के गहरे नैतिक संदर्भ है । ज़रूरत है तो बस उन्हें समझने की, यह इकलौता त्योहार है जो सामाजिकता, न्याय , सुरक्षा , समरसता और सहभागिता जैसे तत्वों को लेकर चलता है। अगर इन आशयों को समझ लिया जाए तो होली के रंग कुछ और झमक उठेंगे।  
आज का बचपन उस  स्वच्छंद माहौल से दूर है जिसे हमारी पीढ़ी ने जिया है । अगर परियों के उस गुलजार  से हम नवयुवाओं को रूबरू करा दें तो कई काफ़िर नैन भटकने से बच जाएँगें और वाकई होली के ऐश हो जाएँगें।  यह पर्व प्रकृति को निकट से देखने , फूलों को महसूस करने और कोयल की बेसुध तानों को सुनने का स्वर्णिम अवसर है । फ़ाग प्रकृति के चरम पर लय होने का प्रतीक है  जो यह सिखाता है कि उमंग और उल्लास की धमक मौन पदचापों के साथ हो, उमंग ऐसी हो कि जिससे किसी के चेहरे का रंग फीका ना पड़ जाए।   मौज ऐसी हो जो सागर के अनुनाद को समझती हो , प्रेम ऐसा हो जो प्रणय के उदात्त पक्ष को लेकर चलता हो औऱ रंग ऐसा हो कि मन की मलिनता को दूर कर दे। अगर होली के बदलते परिवेश में हम अपनी संस्कृति के स्थायी भाव को जिए चले जाएँ तो यह पर्व वाकई राग-अनुराग का वही पर्व बन जाएगा जिसे ब्रज की धरा पर ग्वालों और गोपियों ने खेला था।


Tuesday, March 15, 2016

ज़रूरी है संस्कृति की रक्षा



भारत की सांस्कृतिक परम्परा का अपना वैशिष्ट्य है।  आध्यात्मिक जगत में गहन समाधि की अवस्था तक पहुँचे हमारे देश की समृद्ध और चैतन्य परम्पराओं को नई पीढ़ी तक पहुँचाने का दायित्व हर व्यक्ति और समाज का है। आज देश में हालात यह है कि अगर संस्कृति की पक्षधरता की बात की जाती है तो उसे किसी खेमें, विचारधारा या दल विशेष से जोड़ दिया जाता है और ऐसे में बात विचार तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती है। हर देश एक विशेष संस्कृति  को लेकर चलता है जो उसकी प्राणवायु है।  वसुधैव कुटुम्बकम् जैसी व्यापक अवधारणाएँ हमारे ही राष्ट्र की उपज़ है।  आज अनेक  देश अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने को लेकर सजगता दिखाते हैं। गौरतलब है कि चीन सरकार ने हाल ही में देश की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कड़े कदम उठाए हैं।  वहाँ ज़ारी नए निर्देशों में साफ कहा गया है कि कोई भी चैनल ऐसे दृश्य नहीं दिखा सकेगा जिससे समाज पर गलत असर पड़ता हो। सरकारों और देश के नेतृत्व द्वारा ऐसे कदम समय समय पर उठाए जाने चाहिए जिससे नव पीढ़ी को सही मार्गदर्शन मिलता रहे।   रूस औऱ अमेरिका जैसे विकसित देश भी इस दिशा में समय –समय पर अपनी चिंताओं को जाहिर करते रहते हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति में मानवीय जीवन मूल्यों आधारित  अनेक ऐसे आधारभूत तत्व रहे हैं जिनसे आज भी हर मन जुड़ा हुआ महसूस करता है। संस्कृति व्यक्ति को मानवीय दृष्टिकोँण का पहला पाठ पढ़ाती है। गीता, वेद और उपनिषद् सदियों से हमारी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं । गीता का कर्मयोग सदैव अपनी प्रासंगिकता को लेकर हमारे बीच उपस्थित है। इस संस्कृति के सहिष्णु तत्वों ने ही उसे दीर्घता और स्थायित्व प्रदान किया है। भारतीय संस्कृति में लचीलापन है इसीलिए यहाँ अनेक धर्म और सम्प्रदाय  अपने अनूठे सौन्दर्य को साथ लिए चलते हैं । यहाँ बुद्ध और महावीर के उपदेश पलते हैं, कबीर और गुरूनानक की चेतावनी गूँजती है तो बाबा साहेब अम्बेडकर और ज्योतिबाफूले की समन्वय वादी विचारधाराएँ हमारी धरोहर को वैचारिकता प्रदान करती हैं। साहित्य , संगीत , नाना कलाएँ तथा लोक स्वर इसे वैशिष्ट्य प्रदान करते हैं। ऐसे में यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि भौतिकतावाद एवं आध्यात्मिकता में समन्वय स्थापित करने के लिए इस संस्कृति को बचपन से ही बाल मन में स्थापित करने के प्रयास किए जाएं। एक श्रेष्ठ और ज़िम्मेदार नागरिक वही हो सकता है जिसे अपने अधिकारों के साथ-साथ अपनी दायित्वों का भी बोध हो। राष्ट्र और समाज के लिए उसके मन में समान आदर हो। अगर हम संस्कृति को नयी पीढ़ी को सौंपने में सफ़ल रहे तो अराजकता, अवसाद औऱ असहिष्णुता जैसी अनेक रूग्णताओं से  समाज को बचाने में सफ़ल हो सकते हैं।  

Sunday, March 6, 2016

शिव ही हैं सुन्दर सृष्टि के नियामक


हमारी आध्यात्मिक संस्कृति में शिव अनूठे हैं। एक औघड़ जो कैलाश पर वीतरागी होकर विराजमान  है ,इस जीवन की आपाधापी में बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है। पुराणों की और चहलकदमी करें तो वहाँ शिव के विभिन्न रूपों , अवतारों का जिक्र मिलता है और  जो तथ्य सामने आते हैं वे हैं- शिव स्वयंभू हैं,शाश्वत हैं, सर्वोच्च सत्ता हैं , विश्व चेतना हैं और ब्रहमाण्डीय अस्तित्व की आधारशिला हैं। वस्तुतः अगर शिव के सार्वकालिक अवतारों और रूपों का विश्लेषण करें औऱ मानव सभ्यता के इतिहास की बात करें तो चेतना के विकसन की प्रेरणा के मूलभूत तत्व के रूप में शिव को पाते हैं। अपनी चेतना के विस्तार को लेकर जो युगों युगों तक समाधिरत रहा हो वह शिव जैसा जोगी ही हो सकता है इसीलिए शिव को सभ्यताओं का नियामक भी कहा गया है। शिव की सार्वभौमिकता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता । विश्व की अनेक सभ्यताओं के प्राचीन अध्यायों में शिव का उल्लेख सप्रमाण मिलता है। इंका, माया, बेबीलोन और मेसोपोटामिया की सभ्यता में पितृ शक्ति की उपासना के प्रतीक मिले हैं। ये प्रतीक ही शिव आस्था की वैश्विकता को भी सिद्ध करते हैं। जहां वेदों में शिव रुद्र हैं, वहीं पुराण में वे अ‌र्द्धनारीश्वर हो जाते हैं। यह एक गंभीर आध्यात्मिक चिंतन है जो जीवन में साम्यता का पक्षधर है। जहां शिव एक ओर भारत को वैश्विक आध्यात्मिक धारा से जोड़ते हैं, वहीं सिंधु सरस्वती सभ्यता और वैदिक सभ्यता के मध्य सेतु का काम भी करते हैं। यह प्रमाणित हो चुका है कि आमतौर पर वैदिक समाज में शिव संस्कृति का व्यापक प्रभाव था। वस्तुतः शिव एक ऐसी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अध्यात्म और दैवीय शक्तियों के प्रति मानवीय जिज्ञासाओं का प्रतिनिधित्व करती है और यही कारण है कि शिव चेतन औऱ अचेतन के बीच एक पुल का काम करते हैं।


केदारनाथ, तुंगनाथ, महामहेश्वर और कमलेश्वर वैदिककालीन शिव संस्कृति के प्रतीक हैं। शिव एक दार्शनिक तत्व हैं। वे सृष्टि के प्रत्येक नियम और स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिव के आकर्षण का एक औऱ महत्वपूर्ण कारण है कि वे परस्पर विरोधी शक्तियों को साथ लेकर चलते हैं। जीवन में ज्ञान, क्रिया और इच्छा के  अभाव के कारण ही मनुष्य दुःखों के समुद्र में डूबा रहता है । शिव इन तीनों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करते हैं। शिव प्रकृति से जुड़े हैं इसीलिए पहाड़ों में निवसते हैं । ऐसे दुर्गम स्थानों पर जहाँ राग औऱ तम चाहकर भी नहीं पहुँच सकते। इसीलिए शिव से जो  दर्शन जुड़ा है ,वह शैव दर्शन भी प्रकृतिवादी दर्शन है। शिव प्रकृति के सृजन और संहार दोनों से जुड़े हैं। वे मसानों की भस्म  मलते हैं , अघोरी है पर सृष्टि के मंगल की कामना में सदैव रत रहते हैं। यही कारण है कि उनका सृजन से जुड़ा रूप शिव कहलाता है तो संहार से जुड़ा रूद्र। सृजन और संहार का यह समन्वय , बताता है कि सृजन और संहार शाश्वत है और परिवर्तन अवश्यंभावी है।
शिव की दृष्टि लोककल्याणकारी है इसीलिए राम भी कहते हैं कि शिव द्रोही मम दास कहावा , सो नर मोहिं सपनेहूँ नहीं भावा..शैव और वैष्णव में समन्वय स्थापित करने के लिए इस निरहंकारी देव की उपस्थिति सकारात्मकता का ही परिचायक है। सब कुछ होते हुए भी औघड़ हो जाना, फ़कीर होने तक भी देने का सुख और सहजता का केदारनाथ केवल और केवल शिव ही दिखते हैं। वे सृष्टि पर नेह रूपी अमृत की वर्षा करते हैं और स्वयं हलाहल का पान करते हैं। गंगा के वेग को औऱ उसके अहंकार को शीश पर धरते हैं औऱ उमा को वाम अंग में धारण कर अर्धनारीश्वर कहलाते हैं।शास्त्रों के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्मांड महाशिवरात्रि पर ही अपने अस्तित्व में आया था। लिंग पुराण के अनुसार फाल्गुन महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। यह पर्व निराकार परमेश्वर शिव के साकार रूप में शंकर के उदय  होने का दिन है। इस दिन महादेव का विवाह उत्सव भी है।  ईशान संहिता में इस दिन को आत्मा के उत्थान का दिन कहा गया है।

शिव का अर्थ है जो है ही नहीं अर्थात् शून्य। मानव इस भौतिक जगत में जो कुछ भी खोजने का प्रयास कर रहा है उस से द्वन्द्व उपज रहा है और इस भौतिकता से जो परे हैं वह है शिव अर्थात् शून्य। शून्य का अर्थ है पूर्ण खालीपन, रिक्तता , भरा होकर भी खाली होने की अवस्था।  एक ऐसी स्थिति जहां भौतिकता का लेशमात्र भी अंश नहीं  है।  तो जहां भौतिक कुछ है ही नहीं, वहां ज्ञानेंद्रियां भी निष्काम  हो जाती हैं। अगर आप शून्य से परे जाएं, तो आपको जो मिलेगा, उसे हम शिव के रूप में पा सकते हैं। भौतिकता से परे होने के कारण इस शिव रूप के सीधे सीधे दर्शन नहीं किया जा सकता यही कारण है कि योग विज्ञान कहानियों के माध्यम से इसका ध्यान खींचता है।
शिव के अनेक अलंकार है । जिन्हें प्रतीक रूप में धारण करने के पीछें भी अनेक कल्याणकारी संदेश हैं। सर्वप्रथम अगर शिव का त्रिशूल लें तो यह जीवन के तीन मूल विस्तारों को दर्शाता है। योग परंपरा में इन्हें रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी भी कहा गया है। जिन पर समूचा शारीरिक वास्तु टिका हुआ है। शिव के वाहन के रूप में प्रयुक्त नंदी अनंत प्रतीक्षा औऱ गज़ब के धैर्य  का प्रतीक है।  शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं और चंद्रमौलि कहलाते हैं। शिव  एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं।  सोम का ही एक अर्थ सोम भी है पर यहाँ शिव भौतिक नशे में भी सजग रहने का उदाहरण देते हैं। शिव को त्रयंबक कहा जाता है, क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है। तीसरी आंख का अर्थ किसी असामान्यता से नहीं वरन् इसका तात्पर्य  है  ध्यान और भीतरी सजगता बोध , अनुभव का एक नवीन आयाम खोल देता  है। दो आंखें स भौतिक वस्तुओं से परे नहीं देख सकती हैं। शिव के गले में पड़े सर्प  कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है। यह  भीतर की वह उर्जा है जो  इस्तेमाल नहीं हो रही है, किसी कोने में ओझल और छिपी हुई है।  कबीर की अनेक उलटबासियों में पाताले पणिहारी के रूप में भी इसका उल्लेख है। कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो व्यक्ति को उसके अस्तित्व का पता भी नहीं चल पाता है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी  महसूस होता है कि हमारे ही भीतर  इतनी शक्ति है। शिवरात्रि पर शिवालयों में गूँजता ॐ नम: शिवायवह मूल मंत्र है, जिसे कई सभ्यताओं में महामंत्र माना गया है जिसे पंचाक्षर  भी कहा गया है। ये पंचाक्षर प्रकृति में मौजूद पांच तत्वों के प्रतीक हैं और शरीर के पांच मुख्य केंद्रों के भी प्रतीक हैं। इन पंचाक्षरों से इन पांच केंद्रों को जाग्रत किया जा सकता है। ये पूरे तंत्र  के शुद्धीकरण के लिए बहुत शक्तिशाली माध्यम हैं। ॐ का माहात्म्य वैज्ञानिक भी मान रहे हैं। गौरतलब है कि हाल ही में हुई वैज्ञानिक शोधों से यह पता चलता है कि सूर्य के पास जो  ध्वनि गुंजायमान हो रही है वह ॐ से मिलती जुलती है।  शिव तत्व ओंकार को ब्रह्माण्डीय सघनता प्रदान करता है। वर्तमान में जो वैषम्य है उसमें साम्य स्थापित करने के लिए शिवत्व की  सुंदर अवधारणा अनेक अर्थों में संपूर्णता की ओर ले जाने में कारगर साबित हो सकती है।


ज़रूरी है युवाशक्ति में धैर्य का निवेश

 
             

भारत एक युवा देश है और इस युवा देश में युवाओँ से जुड़ी अनेक समस्याएँ है। युवा वर्ग के पास ऊर्जा है, समय है और बेहतर भविष्य के लिए अनेक  विकल्प भी । परन्तु अनेक स्थानों पर यह वर्ग भ्रमित होता है,छला जाता है।अपनी युवा अवस्था की दुर्बलताओं, तनाव ,दबाव और संघर्ष के साथ-साथ अनिश्चित भविष्य और रोजगार को लेकर भी यह वर्ग सदैव आशंका से ग्रस्त रहता है। भारत में युवाओँ की संख्या अन्य देशों से बहुत अधिक है।  भारत की लगभग  65  प्रतिशत जनसंख्या की आयु 35 वर्ष से कम है। ऐसे में यह बात दीगर है कि भारत के पास बेहतरीन मानव संसाधन मौजूद है।  परन्तु इस समय अगर सबसे बड़ी चुनौति का काम है तो वह है इस युवा वर्ग को एक सही दिशा देना। आज के दौर में विचारधाराओँ का  अनंत जाल फैला हुआ है। इतिहास और भ्रमित सूचनाएँ उसे चौंकाती है, अंतर्जाल और एप्स की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है, जो दिखाया जाता है या जो बताया जाता है ,सच उससे कोसों दूर होता है।  ऐसे में य़ह ज़रूरी हो जाता है कि इस भटकाव को एक सही दिशा मिले। आज देश का सर्वोच्च पद  मेक इन इंडिया की विचारधारा को हकीकत में तब्दील करने का ख्वाब  देख रहा है। वस्तुतः वास्तविक मेक इन इंडिया जैसी अवधारणाएँ तभी फलीभूत हो पाएँगी जब देश के युवाओं में सकारात्मक वैचारिक निवेश किया जाएगा। देश के युवा की भी इस विषय में अहम् भूमिका होगी । उसे चिंतन और मनन करना होगा कि कौनसी बाते स्वयं उसके और देश हित में है और कौनसे नहीं। अगर यूँही अधैर्य औऱ महज उबाल हर और दिखाई दिया तो भारत जल्द ही हिंसा और अलगाव के किसी धधकते ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा होगा। भारत वैचारिक लोकतंत्र को तवज्जो  देता है, यहाँ पर खुलकर अंबेडकरवाद, नारीवाद,आदिवासी  औऱ दलित विमर्श जैसे संवेदनशील मुद्दो पर खुलकर बहस होती  है और उनसे संबंधित समस्याओं पर विचार करने की पहल भी परन्तु आक्रामकता औऱ  एकांगी अतिवादिता भारतीय एकता औऱ अखण्डता को बहुत बड़ी ठेस पहुँचा सकती है। देश के प्रति उठता हर एक शब्द और कृत्य जवाबदेही औऱ जिम्मेदारी की माँग करता है। ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि हम  स्वजाति या वर्ग को रक्षित करने के प्रयत्न में इतने उपद्रवी हो जाए कि हर मन असुरक्षित, बेबस और अरक्षित महसूस करने लगे। कुछ नियम राष्ट्रहित में बनने चाहिए जिनसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सम्पदा को स्वच्छंदता, उनमुक्तता  और उपद्रव की आड़ में क्षति ना पहुँचायी जा सके। सरकारों और राजनितिक दलों से भी यहाँ अपेक्षा उठनी स्वाभाविक है कि वे संवेदनशील मुद्दों पर औऱ युवाओं पर बात करते समय तार्किक बनें, उदार बने। क्योंकि देश प्रेम औऱ द्रोह जैसी अवधारणाएँ इतनी सरल नहीं है । अगर देश प्रेम का विलोम कहीं घटता है तो यह न केवल घोर निंदनीय है वरन् उस पर रोक लगाने और घटना की तह तक पहुँचना भी उतना ही ज़रूरी है।

http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/8969983


चित्र गुगल से साभार