Thursday, December 18, 2014

गुज़रते वक्त में तारीखें लौटती हैं


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कैलेण्डर की तारीखें बदल रहीं हैं
अब भी, उस 16 के बाद भी
बहुत कुछ घट रहा है अब भी
पर कुछ है जो थम गया है
जैसे कि महीनों में थमा है दिसम्बर
 कुछ उम्मीदें अब नहीं चमकती
पौ फटते ही नहीं अलसती
कुछ फीतें अब नहीं बँधते
दुआओं के ग्लास भरे पड़े हैं
और वे चंदीली मूँछें अमिट हो गई हैं
कुछ गेंदें अब नहीं उछल रही नन्हें हाथों में
कुछ रोशनियाँ नही बिखर रही पन्नों पर
कुछ किताबें मायूस हैं, चुप हैं
पन्ने नहीं फड़फड़ाते उनके
 बंद हैं वो अलमारियों में
कुछ नहीं! सच बहुत कुछ थम गया है
सर्द सुबह में ज्यों जम जाती है ओस बूँदें
उसी मानिंद आस जमी है कई सूनी आँखों की
कई गरम यादों के स्वेटर उधडे़ हैं
छुअने ठिठुर रहीं हैं
और पश्मीना अपनी गर्माहट पर ज़ार ज़ार रोते हैं

कुछ दरवाजे तरसते हैं उन मासूम दस्तकों को
कि बरसें उन पर फिर
अपनी सी 
वो सबसे कोमल दस्तकें

कुछ कभी ना पहने जाने वाली यूनिफार्म टँगी हैं
स्मृतियों की खूँटियों पर
वो खूशबू अब भी कायम है
नहीं है तो बस वह ताप
जो हर मन को पिघलाना जानता था
वाकई! कुछ घडि़यों के रूक जाने के बाद भी
तारीखें बदल रही है अब भी
बहुत सी जिंदगियाँ चल रही है अब भी
पर कुछ है
जो अब सिर्फ कट रहीं हैं
बहुत सी आँखें अब खोजेंगी उस वक्त को
गमज़दा होंगी, मायूस होंगी वे बरसेंगी
और लौटेंगी खाली हाथ
बार-बार समझाएँगी खुद को
कि तारीखों में गुजरा वक्त
लौटकर नहीं आता
मगर गुज़रते वक्त में अक्सर तारीखें लौटती हैं।

Friday, November 14, 2014

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                     ज़रूरी है सहेजना बचपन को....


किसी भी व्यक्ति का बचपन उसकी स्मृतियों का महत्वपूर्ण पड़ाव होता है जहाँ जीवन के सबसे निश्छल, पवित्र और अनगढ़ लम्हे थिरकते रहते हैं। जिस तरह धरती की कोख में सृजन का सुख छिपा रहता है और अवसर आने पर वह फूट पड़ता है ठीक वैसी ही हैं ये कोमल स्मृतियां जिनसे सम्पूर्ण जीवन स्पंदित होता रहता है। बचपन वो वक्त जहाँ हर कोई खुद को तीन जहानों के सुल्तान की मानिंद समझता है, जहाँ दादी नानी के आँगन की छाँव बसती है, और जेब में बतासों सी मीठी खुशियाँ भरी रहती हैं। हम जब अपने अतीत में चहलकदमी करते हैं तो कमोबेश यही रंग हमारे जेहन में उभरते हैं परन्तु जब मैं मेरी पीढ़ी के बचपन और आज के बचपन की तुलना करती हूँ तो पाती हूँ कि कितना परिपक्व और संवेदनाविहीन हो गया है आज का बचपन। बचपन को देख जो भाव और मासूमियत सीधे दिल में उतर जाया करती थी वह आज नदारद है। आज गीली मिट्टी सा कोरा यह बचपन अनेक सांचों में एक साथ ढलाए जाने की पीड़ा से गुजर रहा है। अत्याधुनिक तकनीक  के दौर और माता- पिता की अपेक्षाओं की दोहरी मार झेलते बच्चें आज बेहद तनाव से गुजर रहे हैं। पढ़ाई के साथ साथ हर क्षेत्र में परफेक्ट बनने की होड़ में आज का बचपन डिप्रेशन का शिकार हो रहा है। अगर इस दिशा में किए गए शोध और    सर्वे की बात की जाए तो हाल ही में राजधानी दिल्ली में करीब 11 फीसदी स्कूली छात्रों में डिप्रेशन के लक्षण पाए गए हैं। रांची इन्स्टीट्यूट आँफ न्यूरो साइकियाट्री एंड एलायड सांइस (रिनपास) ने दिल्ली के लगभग 3000 बच्चों का सर्वे किया जिसमें चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। नतीजों में यह पाया गया कि लगभग 11.2 फीसदी छात्र डिप्रेशन के शिकार थे ,6.3 फीसदी छात्रों में आंशिक तनाव के लक्षण मिले और 10.7 फीसदी बच्चों को अकेलापन पंसद था। इसी के साथ लगभग 26.5 फीसदी बच्चों में खुद को चोट पहुँचाने के लक्षण पाए गए। ये आँकड़े चिन्ता में डालने वाले तो हैं ही  साथ ही सोचने पर भी मजबूर करते हैं कि क्या कारण है कि आज अत्यधिक सतर्कता और सुविधाओं के साथ पला बढ़ा यह बचपन  अकेला, आक्रामक और असंवेदनशील हो गया है।
अगर गौर किया जाए तो इस समस्या की जड़ों में कहीं ना कहीं हम स्वयं ही हैं और अगर हमने समय रहते इस पौध को नहीं संभाला तो इनका भविष्य एक ऐसे बियाबान सा होगा जिसमे तनाव और डिप्रेशन की दीमक लगी होगी। इस गला काट प्रतिस्पर्धा की दौड़ में हमने अपनी इच्छाओं और अपेक्षाओं का बोझ मासूम कंधों पर डाल दिया है। मिसाल के तौर पर अगर किसी स्कूल की पैरेंट टीचर मीटिंग को ही लिया जाए तो हर शिक्षक लगभग एक ही शिकायत सुनता है कि मेरे बच्चे को आप हर गतिविधि में भाग लेने का अवसर नहीं प्रदान करते। हर गतिविधि में एक सीमा में ही बच्चों को भाग लेने का अवसर मिल पाता है ऐसे मे शिक्षक और बच्चा दोनों ही इस उधेड़बुन में रहते कि आखिर कैसे इन अतिउत्साही अभिभावकों को संतुष्ट किया जाए। यही अपेक्षाएं प्रतिस्पर्धाओं को जन्म देती हैं और नतीजा यह होता है कि माता-पिता बच्चों के आपसी सहज व्यवहार में भी स्वार्थ का बीज रोप देते हैं। यही कारण है कि उनके बीच आपसी समझ और सहयोग की भावना समाप्त हो जाती है और जब वे मिलते हैं तो एक आभासी आवरण ओढे हुए होते हैं जिसमें दोस्ती और स्नेह जैसे भावों का अभाव ही होता है। कामकाजी माता-पिता बच्चों के साथ वैसे ही कम समय व्यतीत कर पाते हैं ऐसे में जब वह अपने मित्रों की टोली से भी बिछड़ जाता है तो वह तकनीक और इंटरनेट की छांव में पलता बढ़ता है जो उसके व्यक्तित्व को कृत्रिम बना देते हैं। टी.वी और गेम्स बच्चों की एकाग्रचित्ता में तो कमी लाते ही है साथ ही उनकी याददाश्त पर भी असर डालते हैं। व्हाट्स एप्प और मोबाइल के बढ़ते प्रयोग से बच्चों की दिमागी कसरत नहीं हो पाती और इयर फोन के बढ़ते प्रयोग से इनकी श्रवण शक्ति भी कम हो जाती है।
एक पल के लिए सोचे तो कितने अवरोधों से गुजर रही है आज की यह नन्हीं पौध, कितनी खोखली हैं इसकी जड़ें और आखिर कैसा पोषण मिल रहा है उसे?  और हम इन सभी सवालों को दरकिनार कर हमारी नजरें केवल इसकी उत्पादकता पर टिकाए रहते है जिसके श्रेष्ठ रहने की कोई सम्भावना नहीं। आखिरकार हम जैसा बीज बो रहे हैं जैसा खाद- पानी दे रहे हैं वैसी ही तो फसल होगी। हमारे जीवन में अनेक ऐसे पल आते हैं जब ये बच्चें ही हममें एक ऊर्जा, उमंग का संचार करते हैं । एक नया हौंसला भरते हैं आज दरकार हैं इनकी ऊर्जा और मासूमियत को एक सही दिशा और गति प्रदान करने की। आज हम बच्चों पर उच्छृंखलता का आक्षेप लगाते हैं पर उनके इस व्यवहार के पीछे भी कहीं ना कहीं हम ही हैं। हो सकता है बच्चे हमेशा हमारी बात नहीं सुने, ऐसा भी हो सकता है कि वे हमारा हर कार्य जो हम पूर्ण समर्पण के साथ करते हों नहीं देख पाएं पर वे एक चीज हमेशा महसूस करते हैं जो है हमारा व्यवहार और वे उससे ही सर्वाधिक प्रभावित भी होते हैं।अतः सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता हमारे व्यवहार पर है। हम बच्चों की प्रशंसा केवल और केवल उनके श्रेष्ठ प्रदर्शन पर करते हैं वे हमारे इस व्यवहार को भी एक संस्कार की तरह ग्रहण करते हैं और इस विश्वास के साथ कर्मक्षेत्र में आगे बढ़ते हैं कि केवल अच्छा प्रदर्शन ही हमें प्रशंसा प्राप्त करा सकता है और धीरे –धीरे वे इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीवन मूल्यों और सिद्धांतो से भी समझौता कर बैठते हैं। वस्तुतः यही स्वार्थ और समझौतावादी जीवन दर्शन ही उनके भावी व्यवहार की निर्मिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आज बचपन एक चिंतनीय दशा में है, वह एक संक्रमण की अवस्था से गुजर रहा है।जहाँ एक और हमारे जीवन मूल्य हैं वही दूसरी और तकनीक का बढ़ता प्रयोग और होड़। इस मासूमियत को सहेजने के लिए हमें गंभीरता से प्रयास करने होंगें। हमें संयम से काम लेना होगा क्योंकि परिणाम हमें एक ,दो या कुछ दिनों में प्राप्त नही होने वाले, इस स्थिति को सुधारने के लिए हमें बदलाव अपने स्तर से करने होंगे। हमें अपने ही व्यवहार से बच्चों को यह सिखाना  होगा कि कठिन से कठिन स्थिति का कैसे सामना किया जाता है। इसी के साथ हर व्यक्ति का आदर करना और लेने की अपेक्षा देने के सुख की महत्ता समझानी होगी। उनके विचारों को सही दिशा में मोड़ना होगा और चूँकि उनके विचारों के केन्द्र में हम हैं अतः हमें सजग होकर स्वयं में बदलाव लाने होंगे।
बच्चे आज भ्रमित हैं ,अकेले हैं और वैचारिक स्तर पर अपरिपक्व हैं इसलिए उनके व्यक्तित्व की दिशा को कोई भी मोड़ सकता है । यही कारण है कि आज कई बच्चे गलत संगत व लत में पड़कर अपना जीवन अँधेरे में धकेल रहे हैं। कुंभकार जिस प्रकार मिट्टी को कल्पित आकृति प्रदान करता है और उसे अग्नि के संसर्ग से गुजारकर अपने उद्देश्य में सफल होता है और एक मूर्त रूप प्रदान करता है ठीक वैसे ही हमें बचपन रूपी कोरी मिट्टी को आकार प्रदान कर, परिस्थतियों के तपन की शक्ति प्रदान कर एक श्रेष्ठ नागरिक में रूपान्तरित करने का प्रयास करना होगा। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होगी परिवार की और माता-पिता की अतः आज आवश्यकता है सजग पैरेंटिग की जो बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार करे , उन्हें संवेदनात्मक रूप से मजबूत बनाए और एक ऐसी सुदृढ जमीन तैयार करे जिस पर मानवता की फसल लहलहा उठे।
                                                                                                                                                                         

Tuesday, October 21, 2014

‘साहित्य के आइने में घूमती प्रतिरोध की संस्कृति’

 ‘साहित्य के आइने में घूमती प्रतिरोध की संस्कृति’







आदिवासी साहित्य और इसकी संभावनाओं पर बहुत कुछ लिखा जा  चुका है,लिखा जा रहा है पर स्थिति जस की तस है..इस समाज का जीवन दर्शन जितना सरल है,समस्याएँ उतनी ही जटिल.जल, जंगल और जमीन से जुड़ा यह आदिम समाज आज अपनी ही जमीन से खदेड़ा जा रहा है.इस समाज की समस्याओं के तह में जाने से पूर्व इसकी पृष्ठभूमि जान लेना अतीव आवश्यक है। आदिवासी समुदाय सदियों से मुख्यधारा से कटा रहा है। यही कारण है कि आधुनिकता के तय मानदण्डों के अनुरूप वह अब भी पिछड़ा है। यह समाज कभी अपनी इच्छा से तो कभी समाज के जटिल सामाजिक नियमों की आड़ में दूर दराज जंगलों में तो कभी पहाड़ों में तो कभी पाताललोक जैसी दुरूह और जटिल स्थानों पर खदेड़ा गया है। इस समुदाय की अपनी एक संस्कृति है, रस्मों रिवाज है और उन्हीं के अनुसार अपने ही तय नियम और कानून भी। आज यह समाज अपने भिन्न भिन्न नामों और रूपों में हमारे देश के मानचित्र पर सिमटा हुआ सा चिन्हित किया जा सकता है। ये जनजातियां हमारे बीच ही उपस्थित हैं चाहे वे पेरू के माची ग्वेकाओं हों या झारखंड के बिरहोर, शबर, कोरबा, असुर या राजस्थान की सहरिया  भील या मीणा जनजाति, ये सभी आज भी अपने ही संघर्षों में सिमटे हुए एक गुमनाम जीवन जीने को अभिशप्त हैं। भारतीय संविधान में आदिवासी समुदायों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है -जिनमें अलग-अलग भू-भाग में निवास करना, अनूठी सांस्कृतिक परम्परा, प्रगति की दृष्टि से जो पिछड़े हैं तथा जो अपने ही समुदाय में सिमटे हैं जैसे तत्वों को समावेशित किया गया है।
अगर इसी क्रम में इस धारा के साहित्य की बात की जाए तो यह अभी बहुत अधिक संख्या में प्रकाश में नहीं आ पाया है। हिन्दी साहित्य में इस प्रवृति विशेष और समुदाय विशेष की समस्याओं से ओतप्रोत लेखन की बात की जाए तो यह संख्या की दृष्टि से अत्यल्प ही है। “भारत के संदर्भ में आदिवासी साहित्य सृजन को तीन रूपों में विभक्त कर सकते हैं-प्रथम- आदिवासियों का परंपरागत वाचिक साहित्य, दूसरा गैर आदिवासियों (औपनिवेशिक शासन के समर्थक एवं विरोधी वर्ग द्वारा लिखा गया साहित्य) द्वारा आदिवासी जीवन पर लिखा गया साहित्य और तीसरादृआदिवासी तबकों के शिक्षित वर्ग का लेखन।”1 आधुनिक साहित्य में विमर्शों की भीड़ में इसे आदिवासी लेखन, आदिवासी विमर्श या आदिवासी साहित्य की संज्ञा प्रदान की गई है। हिन्दी साहित्य में आदिवासी विमर्श अब कोई नया विमर्श नहीं रह गया है। यद्यपि विमर्शों की दौड़ में फिलवक्त स्त्री और दलित विमर्श ही केन्द्र में हैं परन्तु इन्हीं के साथ आदिवासी विमर्श भी अपनी जगह बनाने की कशमकश में रत दिखाई पडता है।
वर्तमान में उत्तर आधुनिकता की बयार में जो मुख्यधारा की नवीन संस्कृति फल-फूल रही है वो अतिस्वार्थ और अहम् केन्द्रित है। आधुनिक समाज के जीवन मूल्य प्रतिस्पर्धा और संघर्ष प्रेरित हैं। ऐसे में आदिवासी जन जीवन इनसे दूर भागने का प्रयास करता है। जब हम आदिवासी समाज के जीवन संघर्ष और चुनौतियों की बात करते हैं तो वैश्विक पटल पर बिखरे तमाम आदिवासी समूह एवं जनजातियां अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत दिखाई पड़ते हैं। आधुनिक समाज उनके सामने अधिक विकल्प नहीं छोडते हुए केवल दो ही मार्ग रखता है या तो वे मुख्यधारा का आधिपत्य स्वीकार कर लें या फिर अपने अत्यन्त सीमित संसाधनों में लुक छिप कर जीते हुए अपने भौतिक अस्तित्व की समाप्ति के लिए स्वयं को समर्पित कर दें। अब इस संस्कृति ने दबे स्वर में ही सही प्रतिरोध करना प्रारम्भ कर दिया है, यद्यपि यह प्रतिरोध हमेशा से ही करना पड़ा है परन्तु अब यह संघर्ष अस्मिता को लेकर है  और पूर्व से कुछ अधिक मुखर है और सम्भवतः इसीलिए इसे  अब प्रतिरोध की संस्कृति भी कहा जाने लगा है।
भूमंडलीकरण के इस दौर  में आदिवासियों से सम्बंधित अनेक समस्याएं विश्व समुदाय के समक्ष मुंह बाए खडी है। इन समस्याओं में नस्ल भेद ,रोटी, कपड़ा-मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता, विस्थापन की समस्या और पहचान का संकट आदि प्रमुख हैं। इन्हीं के साथ समय-समय पर परम्परागत आदिवासी संस्कृति के संरक्षण की बात भी उठायी जाती है। प्रगति व विकास की बयार में अपनी हिस्सेदारी दर्ज करने के लिए किसी भी मौलिक संस्कृति में परिवर्तन होना अनिवार्य है।आदिवासी संस्कृति को लेकर यह कयास लगाया जाता है कि परिवर्तन होने पर यह अपनी पहचान खो देगी। परन्तु यहां एक बात जोड़ना आवश्यक है कि आदिवासी संस्कृति सदा से ही खुली रही है यहां इसकी मौलिकता पर खतरा उठने की बात भी निरर्थक है क्योंकि यह संस्कृति सदैव ग्रहणशील रही है और इसी कारण यह विकास के तमाम पहलुओं को आत्मसात करती हुई समृद्ध होती जाएगी। इस संस्कृति के जीवनदर्शन में एक नैरन्तर्य और गत्यात्मकता रही है। हाँ, शिक्षा को लेकर यह वर्ग अब भी पिछडा है । शिक्षा किसी भी संस्कृति के नव सृजन संवहन और परिवर्धन के लिए परम आवश्यक है। अतः किसी भी संस्कृति के लिए उसकी मातृभाषा में शिक्षण विकास की दृष्टि से एक सकारात्मक पहल हो सकती है। आदिवासी पारम्परिक ज्ञान एवं संस्कृति से सम्बंधित साहित्य जिस भी रूप में उपलब्ध है उसे अनूदित कर पाठ्यवस्तु में शामिल करें तो आदिवासी संस्कृति के भाषाई सौन्दर्य से तो हम अवगत होंगे ही साथ ही आदिवासी गल्प ,मुहावरे, प्रतीक, बिम्ब, कथाओं, मान्यताओं, विश्वास और दर्शन की जानकारी आदिवासी नयी पीढी और गैर आदिवासी ग्लोबल समुदाय को प्राप्त होगी। भाषायी पहचान हासिल होने से इस संस्कृति को प्रोत्साहन भी मिलेगा जिससे उन्हें हाशिए पर होने के एहसास से भी मुक्ति मिलेगी।
आदिवासी साहित्य या लेखन के उद्देश्य पर प्रकाश डाला जाए तो यह साहित्य आदिवासी जीवन का प्रमाणिक दस्तावेज होने के साथ-साथ प्रकृति से नेकट्य के कारण बहुत से ऐसे पहलुओं पर प्रकाश डालता है जो अनछुए हैं। साथ ही यह उन सभी संघर्षों को एक साथ लाने का प्रयास करता है जिनके दंश झेलते हुए यह समाज सूखी झाडियों सा रसहीन जीवन जीने को अभिशप्त है। पूर्वाेत्तर के आदिवासियों ने अपनी अस्मिता को बचाए रखने के लिए कई आंदोलन किए हैं और इसी के साथ उन्होंने अपनी संघर्ष की प्रत्यंचा पर कलम भी चलाई है। । असम,मिजोराम, नागालैंड, मणिपूर का आंदोलन अपनी अस्मिता के साथ साहित्य को ढूँढने की कोशिश कर रहा है। वहाँ पर आज बोड़ो साहित्य लोकगीतों, लोककथाओं, गीतों और गाथाओं में देखने को मिलता है। कवि,कहानीकार, उपन्यासकारों ने बोड़ो साहित्य की समृद्ध परंपरा को चलाया है। हिन्दी में आदिवासी साहित्य अपनी कमजोर स्थिति में है और इस कमजोर स्थिति का कारण है कि आदिवासी स्वयं इस विमर्श के भागीदार नहीं हैं। आज हम आप यहां उनके साहित्य उनके संघर्ष और उनके भविष्य की संभावनाओं पर जिक्र कर रहे हैं। उनका स्वंय का हस्तक्षेप नहीं होने से ,जिसके भी अनेक कारण है ,वे सभी  समस्याएँ अपने वास्तविक रूप में नहीं आ पाती जिनसे वो रूबरू होते हैं। हॉं महाराष्ट्र और झारखण्ड में वे सक्षम हैं, साहित्य में उनका हस्तक्षेप है। इसके अलावा वहां समय-समय पर अनेक साहित्यिक सम्मेलन भी होते रहते हैं और यही कारण है कि उन्हें विशेष पहचान भी मिली है। मगर महाराष्ट्रीय व संथाली आदिवासी साहित्य सम्मेलनों की तरह अन्य साहित्य सम्मेलनों का जिक्र खुल कर नहीं आ पाता।  संथाली इस समस्या के प्रति कुछ सजग है परन्तु अन्य नहीं। इसी संदर्भ में सुनीति कुमार चटर्जी कहते हैं कि आदिवासी भाषाएं अपनी मौत मरती जाएंगी और अन्ततः समाप्त हो जाएंगी। अगर सही मायने में आदिवासी विमर्श को जवाब देना है तो इस संदर्भ में कि क्या ये भाषाएं खत्म हो जाएंगी। भाषायी सम्मान के संदर्भ में अगर शिक्षित आदिवासियों की बात की जाए तो उनमें अपने धर्म, भाषा, रहन-सहन और संस्कृति को लेकर हीनभावना है और अपनी इसी हीन मनोदशा के कारण वे भाषाई पहचान छुपाकर हिन्दी और अंग्रेजी में वार्तालाप करते हैं। वस्तुतः यह उनका पलायन है स्वयं से, अपनी पहचान से और अपनी संस्कृति से । यही कारण है कि वे मुख्यधारा की संस्कृति की ओर आकृष्ट हो रहे हैं।
आदिवासी समुदाय की एक अन्य महत्वपूर्ण समस्या है - ‘विस्थापन की समस्या’ हाल ही में हुए डोंगरिया और कांध जनजाति के संदर्भ में इसे विस्तार से समझ सकते हैं। विकास आज एक अहम मुद्दा है और इसी विकास के नाम पर आदिवासी समाज को उसी के घर से खदेडा जा रहा है। परन्तु  विकास वास्तविकता में क्या है, क्या इसका मतलब वृक्षों को काटना है, प्राकृतिक संपदा का अंधाधुध दोहन करना है और आदिवासियों को उजाड़ना है? क्या पर्वतमालाओं, वनक्षेत्रों, नदियों और खेतों को कंक्रीट के जंगलों में विकसित करना ही विकास है? क्या इस विकास की आड़ में एक सभ्य और प्रकृति के साहचर्य और प्रेम में पनपी संस्कृति को विस्थापित कर देना,  कोई समझदारी है? आज अनेक राज्यों में ऐसी कई परियोजाएं चल रही हैं जिनमें विस्थापन के नाम पर इन संस्कृतियों को समाप्त करने की कोशिश की जा रही है। इसी के चलते कुछ स्थानों पर प्रतिरोध की संस्कृति ने जन्म लेना प्रारम्भ कर दिया है और इसी का प्रतिफल है कि ओडिशा के नियमगिरि पर्वत के आस-पास के क्षेत्र में खनन पर केन्द्र सरकार की तरफ से रोक लग चुकी है। ‘वेदान्ता ग्रुप’ की ओर से होने वाले इस खनन परियोजना पर फिलहाल काम बंद होने से उन संगठनों और आंदोलनों को थोड़ा बल मिला है जो पिछले कई वर्षाे से इसके खिलाफ प्रतिरोध कर रहे थे और संघर्ष चला रहे थे। गत वर्ष भी वहां के बहुसंख्यक आदिवासी समाज ने सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश, बॉक्साइट खनन की मंजूरी को नामंजूर कर दिया था, परन्तु ऐसा प्रतिरोध हर जगह नहीं हो रहा है। आदिवासियों की तमाम समस्याओं पर बहस जो आज आप और हम कर रहे हैं कई सालों से हो रही है, बहसें चल रही हैं, मुकदमे हो रहे हैं, मीडिया का हस्तक्षेप भी बराबर हो रहा है लेकिन इसके बरवस आदिवासियों का उजड़ना बराबर जारी है। सरकारें आती हैं, जाती हैं, उन्हें फिर से बसाने का दावा करती है, मुआवजा देती है लेकिन क्या इन वायदों से और कागजी दावों से हम इस वर्ग विशेष की संस्कृति की रक्षा कर पाए हैं? क्या हम उन्हें उन जैसा ही समृद्ध फिर से बसा पाए हैं? कुछ भी हो पर प्रतिरोध की इन घटनाओं और डोंगरिया और कांध जनजाति ने थोडा ही सही परन्तु आशान्वित किया है कि अगर एकजुट हो और जुझारूपन हो तो किसी भी जनजाति को विस्थापित करना इतना आसान नहीं।
विगत कुछ दशकों और मौजूदा समय में हिन्दी साहित्य में आई अनेक औपन्यासिक रचनाओं ने इन सभी मुद्दों को उठाने की पुरजोर कोशिश की है। इसी क्रम में इस आलेख में हम कुछ उपन्यासों की चर्चा करेंगे, क्योंकि ये उपन्यास कहीं तो हमारे पूर्वाग्रहों के पार एक नयी दृष्टि विकसित करने का प्रयास करते हैं तो कहीं कहीं ये दिकू समाज की संकीर्ण सोच को भी उजागर करते हैं और इस तरह ये आदिवासी जीवन से जुड़ी समस्याओं को देखने के नए कोँण, नयी दृष्टियॉं विकसित करते हैं।  इन उपन्यासों में जिनकी चर्चा यहां आवश्यक है में पहला उपन्यास है महुआ माजी कृत ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’। यह उपन्यास आदिवासी जीवन की अनेक समस्याओं की एक साथ जांच पड़ताल करता हुआ दिखाई देता है। इस उपन्यास में उठाई गई मूल समस्या विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन की समस्या है। यूरेनियम एवं लौह खदानों में प्रदूषण की समस्या से जूझते हुए आदिवासियों का चित्रण इस उपन्यास की मूल थीम है। विकिरण की समस्या को लेकर लिखा गया यह सम्भवतः हिन्दी का प्रथम उपन्यास है। लेखिका खदानों में कार्यरत आदिवासियों पर रेडियेशन के खतरनाक नतीजों को लेकर बहुत ही बेबाकी से अपने विचार अभिव्यक्त करती है। मरंगगोड़ा वस्तुतः जमशेदपुर से कुछ दूरी पर स्थित एक कस्बा है जहां की खदानों से निकलता यूरेनियम और उसका कचरा जीवन वहां की जनजातियों के जीवन में लगातार जहर घोलता जा रहा है। वास्तविकता में यह समस्या केवल मरंगगोड़ा के आदिवासियों की ही समस्या नहीं है वरन् उन सभी जनजातियों की समस्या है, जिसे सभ्य समाज केवल अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करता है। दिकुओं द्वारा महिलाओं का आर्थिक एवं शारीरिक शोषण, शिक्षा के अभाव से जागरूकता की कमी, अंधविश्वास और दहेज प्रथा आदि ऐसी समस्याएँ हैं जिनका चित्रण प्रस्तुत उपन्यास में किया गया है। जनजाति आक्रोश,विद्रोह आज की विकट समस्या है। वस्तुतः जनजातियों के आक्रोश से जुड़ी ये समस्याएँ  सांस्कृतिक संकट ,आर्थिक बेरोजगारी और शोषण की समस्याएँ हैं। जब कोई जनजाति इसके कारण  समझने में या उचित निदान खोजने में असफल और हताश हो जाती है तो अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए विद्रोह का रास्ता अपनाती है जिसे ही हूल या उलगुलान कहा जाता है।
‘रूपतिल्ली की कथा’, ‘पठार पर कोहरा’, ‘ग्लोबल गांव के देवता’, ‘पांव तले की दूब’, ‘अग्निगर्भ’ (बांग्ला) और उड़िया उपन्यास ‘आदिभूमि’ आदिवासी जीवन के खुरदरे यथार्थ को बड़े ही बेबाकी और सजीवता से उकेरते हुए नजर आते हैं।  ये उपन्यास आदिवासी जीवन सम्बन्धी अनेक पूर्वाग्रहों को एक साथ तोड़ते हैं। दिकू समाज का यह भ्रम है कि आदिवासी असभ्य, जंगली, भयानक और बर्बर होते हैं परन्तु इन उपन्यासों में यह स्थापित किया गया है कि वे बेहद भोले, मासूम और निश्छल होते हैं जो मूलतः सभ्य समाज से भयाकुल है इसीलिए वे अपने ही खोल में छिपे रहने का प्रयास करते हैं। श्री प्रकाश मिश्र  के ‘रूपतिलली की कथा’  उपन्यास में ऐसे ही पूर्वाग्रहों में फंसकर मेघालय की ‘खासी’ जनजाति को बर्बर और आदमखोर जनजाति के रूप में चित्रित किया गया है। इस उपन्यास में वे आदिवासियों के अंधविश्वास व मान्यताओं पर  भी कटाक्ष करते हैं। वे कहते हैं - ‘‘आदिवासी लोगों की दो कमजोर नसें हैं - अरण्यमुखी संस्कृति और उत्सवधर्मिता।’’ दिकू दृष्टि से छिद्रान्वेषण करते हुए भी वे खासी जनजाति के इतिहास को उनकी राजनीतिक सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ रेखांकित करते हैं। इसी के साथ वे मातृप्रधान खासी समाज में स्त्री की दोयम स्थिति भी रेखांकित करते हैं। श्री प्रकाश मिश्र यहां इस जनजाति के परंपरा से बंधने और खुद को न बदलने की जिद को भी ‘जयंती’ पात्र के माध्यम से स्पष्ट करते हैं - ‘परंपरा कोई नहीं बदलता, क्योंकि परंपरा ही एक कौम की पहचान बनाती है। वहीं दूसरी कौमों से अलगाती है।’
‘पठार पर कोहरा’  उपन्यास में भी राकेश कुमार सिंह कमोबेश यही सवाल फिर उठाते हैं और आदिवासी समाज के प्रति हमारी सोच को उजागर करते हैं। वे उन्हीं पूर्वाग्रहों को हवा देते हैं जो आप और हम इस समाज के प्रति पाले हुए हैं। वे स्पष्ट करते हैं, ‘‘आदिवासी समाज और संस्कृति के प्रति हमारे सुसंस्कृत समाज का रवैया मनोरंजन मात्र ही रहा है। जंगल के बाहर सदैव यह ढूंढने के प्रयास ही अधिक रहे हैं कि जनजातियों के जीवन में क्या अद्भुत है? क्या विलक्षण है वहाँ जिसका आस्वादन चटखारे लेकर किया जा सकता है? क्यों आदिवासी समाज के जीवन में इतना दैन्य है और क्यों अभाव, शोषण और उपेक्षा के पाटों में झारखंड की जनजातियॉं पिसती जा रही हैं।” (पठार पर कोहरा पृष्ठ 154) इस उपन्यास के माध्यम से वे झारखंड की मुंडा, उराव जनजातियों की कथा कहते हैं। यहां भी नागर संस्कृति लेखक पर हावी हो जाती है और लेखक इस जनजाति की दैन्यता पर विलाप करता हुआ आगे बढ़ जाता है और लेखकीय प्रतिबद्धता कहीं पीछे छूट जाती है।
रणेन्द्र ‘ग्लोबल गांव के देवता’ उपन्यास में आदिवासी समाज के बीच मानो खुद उपस्थित होते हैं। हर एक सत्य को पूर्ण प्रामणिकता के साथ उजागर करते हुए वे भी इस समाज के दैन्य पर ही ठिठक जाते हैं। वे बताते हैं कि आदिवासी अनेक मादक द्रव्यों यथा सलप, हड़िया के नशों में धुत होकर अपना जीवन जीते हैं और इस नशे में न उन्हें अपने वर्तमान की फिक्र है ना ही भविष्य की। वस्तुतः इन नशों में वे अपने सहज मुनष्य होने के अस्तित्व को ही भुला बैठतें हैं। अकर्मण्यता का जीवन जीते हुए वे मनुष्य से जानवर का अभिशप्त जीवन जीने लग जाते हैं। इस जीवन में अगर कभी चिकित्सकीय परामर्श की आवश्यकता पड़ती है तो वे काम करते हैं अंधविश्वास और टोने टोटके। यह उपन्यास भी पूर्व दो उपन्यासों की तरह ही आदिवासियों को जंगली, जाहिल और अंधविश्वासी बनाकर ही प्रस्तुत करता है।
इसी श्रृंखला में रणेन्द्र के ही ‘गायब होता देश’ में उन्होंने मुंडा समाज के वर्तमान यथार्थ को उसकी मान्यताओं से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यह उपन्यास उपन्यास झारखंड और विशेषकर राँची के आसपास के जीवन की यात्रा है।   लेखक प्रस्तुत उपन्यास में बताते हैं कि मुंडा जनजाति का अतीत उतना ही समृद्ध था जितना समुद्र का असीम विस्तार। स्वार्थ से नितान्त अलग यह संस्कृति प्रकृति से उतना ही लेने में विश्वास रखती है जितनी वास्तव में इसको जरूरत है। बाकी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए संजो कर रखना इनका उसूल है। अगर आज हम केवल यह जीवन दर्शन अपना लें तो इस बढ़ती हुई भोगवादी संस्कृति पर लगाम सकती है। मानवता को विजयिनी हार पहनाने वाली इस संस्कृति को अपने नियमों से बेहद लगाव है। परंतु भू माफियाओं की गिद्ध दृष्टि में हर सम्वेदना, संस्कृति, आस्था और जीवन मूल्य बेमानी है।राँची की गायब होती बस्तियाँ वस्तुतः आदिवासी सपनों का गायब होना है। वस्तुतः यह उपन्यास मुंडा जाति के अतीत के माध्यम से वर्तमान और भविष्य को देखने का प्रयास करता है और उसके सिमटते जाने का दर्द उकेरता है।
उड़िया उपन्यासकार प्रतिभा रॉय ‘आदिभूमि’ में ओडिशा के बोंडा आदिवासी समाज की कथा कहती है। बोंडा समाज हिंसक है, धनुष बाण चलाता है और छोटी-छोटी बातें में अपने साथियों पर जहर लगे तीर चला देता है इसीलिए इसे मानुषमारू समाज की संज्ञा दी गई है। इसी के साथ इस समुदाय की अनेक सामाजिक समस्याओं यथा-छोटे वर के साथ बड़ी कन्या का विवाह, बुढ़ा गयी, सास के युवा पति ससुर से कामक्षुधा की तृप्ति, जड़ होती रूग्ण परम्पराएं  और बढ़तो अपराध और अकर्मण्यता को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है। इस उपन्यास की लेखिका सोमा मृदली से सोमारा तक की सौ वर्ष की कथा कहते हुए इस समाज के अनेक चरित्रों की कथा को प्रकट करती है। महाश्वेता देवी का ‘अग्निगर्भ’ उपन्यास दिकु समाज की सहानुभूति और उसके पूर्वाग्रह को प्रकट ना कर आदिवासी संघर्ष को प्रतिध्वनि प्रदान करता है। इस उपन्यास में केवल उनकी अरण्य संस्कृति, रहन-सहन और तमाम आंचलिक तत्वों पर बल न देकर उनकी तीव्र जिजीविशा, जुझारूपन और अस्मिता बचाने की ललक को उजागर करने का प्रयास किया गया है। यद्यपि यह उपन्यास 1979 में प्रकाशित हुआ और अनूदित होकर हिन्दी में काफी बाद में आया परन्तु यहॉं इसका उल्लेख करना इसलिए अत्यावश्यक है क्योंकि यह उपन्यास उनकी संघर्ष चेतना को मुखरित करता है। बटाईदारी और अधाई जैसी घृणित प्रथाओं में आज अनेक किसान पिस रहे हैं। उत्पादन पर उनका अधिकार नहीं है। खेतीहर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नसीब नहीं होती। ऐसे में अगर वो हिंसक बन जाए तो इसमें आश्चर्य क्यों होता है। ‘अग्निगर्भ’ में सम्पूर्ण परिस्थितियां अग्निगर्भ के समान है जिनमें जलकर बसाई टूडू नामक संथाल मारा जाता है। विवशताएं और परिस्थितियां व्यक्ति के भविष्य का निर्धारण करती है अगर मनुष्य पुरजोर कोशिशों के बाद भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में असमर्थ रहता है तो उसका हिंसक होना स्वाभाविक है।
स्पष्ट है कमोबेश सभी उपन्यास आदिवासी वर्ग की दयनीय, असहाय, लाचार स्थिति को चित्रित करने के साथ-साथ मुख्यवर्ग की उनके प्रति मानसिकता को ही उजागर करने का प्रयास करते हैं परन्तु इन रचनाओं से उनका वह पक्ष सामने नहीं आ पा रहा जिनके कारण वे विशिष्ट हैं। इन रचनाओं के इतर कुछ ऐसी अनूदित रचनाएँ भी हैं जिनके माध्यम से आदिवासी शिक्षित वर्ग जागरूकता और संवेदना के साथ  इस समुदाय की विशेषताओं को उकेरने का प्रयास किया है। हम उन्हें हाशिए पर धकेलते हैं परन्तु यह हाशिया मुख्यधारा से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रकृति संतुलन में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। इनकी मान्यताएं और विचारधारा इतनी बहुमूल्य है जिन्हें अगर अमल में लाया जाए तो विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं पर आसानी से काबू पाया जाता है। भोक्ता की अनुभूति और सृष्टा की अनुभूति में बहुत बड़ा अंतर होता है और यही अंतर इन उपन्यासों में भी देखने को मिलता है। आदिवासी विमर्श या आदिवासी समस्याएं और समाधान इतने प्रभावी रूप से साहित्य में अभिव्यक्त नहीं हो पाए क्योंकि यह विमर्श गैर आदिवासियों के एक वर्ग के द्वारा किया गया है और दिकू समाज ने तो हमेशा से ही आदिवासियों को छला है फिर वह संवेदना के स्तर पर हो या सहानुभूति के स्तर पर। आज हो सकता है सरकार के और हमारे आपके प्रयासों से आदिवासी समाज कुछ समय के लिए बच जाए परन्तु क्या वो हमेशा के लिए बचे रहेंगे यह जवाब देने की स्थिति में हम नहीं हैं।



  संदर्भ
1. आदिवासी दुनिया दृश्री हरिराम मीणा , नेशनल बुक ट्रस्ट ,नई दिल्ली.
2. आदिवासी लेखन एक उभरती चेतना- रमणिका गुप्ता,सामयिक प्रकाशन.
3. आदिवासी साहित्य विमर्श- गंगा सहाय मीणा, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
4. दलित साहित्य की विकासयात्रा- डॉ राम चंद्र , साहित्य संस्थान
5. महुआ माजी - ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’
6. आदिभूमि- प्रतिभा रॉय
7. श्री प्रकाश मिश्र  - ‘रूपतिलली की कथा’
8. रणेन्द्र -‘ग्लोबल गांव के देवता’, भारतीय ज्ञानपीठ
9. रणेन्द्र - ‘गायब होता देश’-पेंगुइन बुक्स इण्डिया
10.आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी- सं. रमणिका गुप्ता, वाणी  प्रकाशन,संस्करणरू2008.
 11.आदिवासी लेखन एक उभरती चेतना-सं.रमणिका गुप्ता, सामयिक
प्रकाशन ,संस्करणरू2013
 12.आदिवासी साहित्य यात्रा- संपा. रमणिका गुप्ता, संस्क. 2008
 13.सुबह के इंतजार में- हरिराम मीणा, अक्षर शिल्पी प्रकाशन,संस्करण- 2007,

Tuesday, October 7, 2014

शरद पूर्णिमा पर...

शरद पूर्णिमा पर...


1.शांत सनातन नील व्योम से ,
दे रहे तारागण आशीर्वाद.
ऋतु परिवर्तन से हो रहा ,
इस धरती का पुनर्जन्म..
                        2.  ज्योत्सना दिवस यह आतप मुक्ति का,
                           ज्यों प्रतिबिम्ब है लीला ऩटी का.
                            अमृत कला की निज दृष्टि से,
                            हरता ताप संपूर्ण सृष्टि का..
3. शुक्ल रात्रि शरद ऋतु की,
    सरस्वती जैसा  शुभ्र स्वरूप
    विशाखा का उदित नक्षत्र इसमें
    ज्यान प्राप्ति का मणिकांचन संयोग...


दुराचारों की जकड़न और घटती संवेदनाएँ

           
आजकल अखबार, न्यूज चैनल्स और सोशल मीडिया बलात्कार और यौन शोषण की खबरों से अटे पड़े हैं । इन्हें देखकर पढकर मन खिन्न हो जाता है और अचानक कई प्रश्न भी मन में कौंध उठते हैं कि सहसा क्या हुआ है कि इन घटनाओं में इतनी तेजी आई है या फिर मीडिया ही इन घटनाओं को प्रमुखता से छापने लगा है और आखिर क्यों यह सभ्य माना जाने वाला समाज पाशविकता की सारी हदें पार कर रहा है। जानकार कहते हैं कि ये घटनाएँ पूर्व में भी घटती थी परन्तु इतनी अधिक संख्या में इनका प्रकाश में आना अब प्रारंभ हुआ है। वे यह भी तर्क देते हैं कि देह शोषण संबंधी इन घटनाओं में दस में से चार मामले झूठे होते हैं। यह सब सुनकर मन सही गलत और सच झूठ के भँवर में घूमने लगता है। तर्क चाहे कुछ भी हो परन्तु यह बात सत्य है कि  दुराचार के मामले बढे हैं और 21 वीं सदी के  इस विकासशील भारत में भी हमारी निर्भया आज  समाज के ठेकेदारों और उसकी जड़तावादी सोच के आगे नतमस्तक हैं।
 वस्तुतः बलात्कार की समस्या को जहाँ हम सिर्फ स्त्रियों के प्रति अपराध समझ कर देखते हैं तभी हम गलती कर बैठते हैं। बलात्कार जैसी ये घटनाएँ सिर्फ स्त्री के साथ ही नहीं घटती वरन् हर उस वर्ग के साथ घटती हैं जो शोषित है ,कमजोर, वंचित  है। कुछ समाज सुधारक बताते हैं कि अगर शोषित वर्ग को सशक्त कर दिया जाए तो इस प्रकार की घटनाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है परन्तु बदलाव अभी मीलों दूर है। स्कूल ,कॉलेज,ऑफिस ,समाज या अन्य कार्यक्षेत्रों में जहाँ भी किसी कमजोर को दबाया जाता है वो कृत्य भी इसी श्रेणी में आता है। अन्य मामलों की अपेक्षा में स्त्री के संदर्भ में यह ज्यादा प्रकाश में सिर्फ इसलिए आ जाता है क्योंकि  इसे एक सामाजिक अपराध की संज्ञा प्राप्त है। शक्ति का केन्द्रीकरण जब समाज के किसी एक विशेष अंग पर हावी हो जाता है तो उसके दूसरे अंगों का शोषण होता है  और वह दबा हुआ और असहाय महसूस करता है और यही कारण है कि हिंसा और बलात्कार जैसी घटनाएँ निरन्तर बढ रही है। हाल ही में लगातार सुर्खियों में आ रही बलात्कार औऱ छेड़छाड़ की घटनाओं पर नजर डाले तो आँकड़े देश की अस्मिता को शर्मसार करने वाले हैं। समाज अब असम्वेदनशील हो गया है। रोज खबरों के बियांबान से ना जाने कितनी घटनाएँ हमारी आँखों से होकर गुजरती है, कही पेड़ों पर लाश टकी मिलती है तो कहीं किसी पर एसिड फेंके जाने की खबर तो कहीं दिल्ली घटना सी त्रासदी परन्तु हम सिर्फ और सिर्फ आँकड़ों पर नजर डालते हुए अगली किसी ऐसी ही घटना के घटने का इंतजार करने लग जाते हैं। हम तब तक इन घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेते जब तक हमारा कोई अपना इसकी चपेट में ना आ जाए। बेलगाम होती इन वीभत्स घटनाओँ औऱ इन अस्मत के लूटेरों पर किस प्रकार नियंत्रण पाया जाय  यह यक्ष प्रश्न आज हमारे समक्ष सर उठाए खड़ा है।
बढते हुए बलात्कार की  इन घटनाओं के मद्देनज़र ही कभी घृणित अपराध के लिए अधिकतम यानि, मौत की सज़ा की मांग उठ रही है तो कभी " लात्कार" को नए और विस्तृत संदर्भों में देखने की आवश्यकता। हाल ही में घटी कुछ आपराधिक घटनाओं ने न सिर्फ़ पूरे देश को झकझोर दिया बल्कि इस बहस को और हवा भी दे दी है। आज विडम्बना यह है कि इन अतिसम्वेदनशील मुद्दों पर राजनेताओं के बयान औऱ टिप्पणियाँ चौंकाने वाली हैं। उन्हें पढकर सुनकर आश्चर्य होता है कि हमारे देश के विकास के महत्वपूर्ण चेहरे कैसी अमानवीय सोच रखते हैं। इसी संदर्भ में अगर बात सोशल मीडिया की करें तो युवा पीढी ज्ञान और सम्पर्क के इस श्रेष्ठ साधन का गलत प्रयोग कर रही है। स्मार्ट फोन यूजर्स की संख्या दिन ब दिन बढती जा रही है और आज इस तरह के क्लिप्स  इन मोबाइल फोन पर  आसानी से अपलोड किए जा रहे हैं जिनसे युवा मन भटकन का शिकार हो रहा है।  इन माध्यमों से लाखों लोग अपनी काम पिपासा को बुझाने में लगे हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो दूसरों को कष्ट देकर इसका सुख भोगने की चाहत में अपराधों को अंजाम दे रहे हैं। अगर आँक़ड़ों की बात की जाए तो टेलीकॉम पोर्टल Themobileindia.com पर इंडस्ट्री के सूत्रों का हवाला देते हुए 2013 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 90 लाख से ज्यादा लोग अपने मोबाइल फोन पर  ऐसी क्लिपिंग्स को डाउनलोड करते हैं और उसका लुत्फ उठाते हैं और इनमें से एक बड़ा वर्ग उस बचपन  का है जो किशोरावस्था की ओर अग्रसर हो रहा है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि आज मोबाइल रिपेयरिंग की लगभग हर दुकान, साइबर कैफे और यहां तक कि फुटपाथ पर लगने वाली दुकानों में ऐसे माइक्रो मेमोरी कार्ड या पेन ड्राइव आराम से मिल जाएंगे, जिनमें आपत्तिजनक सामग्री की भरमार होती है। अगर युवा वर्ग ऐप्प संस्कृति के इन खतरों से बचने के लिए सजग हो जाए तो  इन अपराधों में एक सीमा तक कमी लाई जा सकती है। आवश्यकता है युवाओं को सही राह दिखाने की ,उनके भीतर मानवीय संवेदना के उत्स को प्रवाहित करने की ताकि हमारी महनीय संस्कृति सुरक्षित रह सके। निःसंदेह

हम आज शिक्षित हो रहे हैं , समझदार हो रहे हैं और आधुनिकता की दौड़ में बेटियों की परवरिश बेटो की तरह कर रहे हैं परन्तु ठीक उसी समय हम बेटों की परवरिश बेटियों की तरह करना भूल जाते हैं। स्त्री तत्व इंसानियत का परिष्कृत रूप है  और संवेदनशीलता इसका श्रेष्ठ गुण। इसी स्त्री तत्व को हमें हमारे बच्चों में रोपना है। सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक सोच की जड़ें समाज में बहुत गहरे तक फैली है और यही सोच ऐसे अपराधों में  शह प्रदान करती है अतः कोई भी क्रांति सामंती ताकतो के इन दुर्गों को ढहाए बिना सफल नहीं हो सकती। इससे बचाव की पहल हमें खुद से करनी होगी। समाज में उग आई इस बलात्कार संस्कृति को समाप्त करने के लिए हमें परिवार के स्तर पर बदलाव प्रारम्भ करने होंगें। हमें संवेदनशील होने के साथ साथ प्रतिक्रियात्मक भी होना होगा नहीं तो बाहुल्य में हो रही इन  घटनाओं से इस आपराधिक कृत्य का सामान्यीकरण हो जाएगा। प्रशासनिक संस्थाओं,  न्यायपालिका और समाज के सामूहिक प्रयासों से ही ऐसे वीभत्स कृत्यों से मुक्ति संभव है।

Sunday, September 14, 2014

आलेख:वैश्वीकरण और हिन्दी:- प्रसार और प्रवाह / डॉ. विमलेश शर्मा - Apni Maati Quarterly E-Magazine

मानव समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ कहा गया है, क्योंकि इसके पास मस्तिष्क है, और इस मस्तिष्क में उपजते हैं विचार। इन विचारों को अभिव्यक्त होने के माध्यम की जरूरत होती है। हालांकि यों तो मौन भी मुखर होता है किन्तु अभिव्यक्ति के स्तर पर भाषा ही वह माध्यम है जिससे विचार, अनुभव और भाव मूर्त रूप धारण करते हैं। भाषा वस्तुतः व्यक्ति मात्र की पीङाओं ,उल्लासों और संवेदनाओं का एक अनुवाद है। भाषा वैचारिक और मानस पटल पर उद्वेलित होने वाली भावनाओं का प्रतिबिम्ब है। विश्व में कई भाषाएं बोली जाती हैं और सम्भवतः सभी भाषाएं आपस में संवेदना के स्तर पर जुङाव रखती है परन्तु हिन्दी भाषा अपनी सहजता और लचीलेपन के कारण इस संवेदनशीलता की इस विशेषता के अत्य़न्त निकट है. हिन्दी शब्द पूर्व में  भारतीयता या भारत से संबंध का द्योतक था जो कि प्रायः अभारतीयों द्वारा प्रयोग में लाया जाता था, अर्थात् वे लोग जो भारत से आए हैं या भारतीय हैं उन्हें और उनकी बोली को हिन्दवी कहते थे। कालांतर में यह शब्द हिन्दी प्रदेश की उपभाषाओं एवं बोलियों के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। हिन्दी के इतिहास पर नजर डालें तो पाते हैं कि इसका इतिहास हजार वर्षों से भी पुराना है तथा यह भाषा अपनी विकास प्रक्रिया में एक गतिशील नदी की तरह बहती हुई निरन्तर जटिलता से सरलता की ओर अग्रसर होती गई।

     आज हम जिस समृद्ध हिन्दी को बोलते और अभिव्यक्त करते है उसके विकास की भी अपनी कहानी है।शैशवावस्था में हिन्दी अपभ्रंश के बहुत निकट थी। 1000-1100 ई. के आस पास तक हिन्दी का कुछ ऐसा ही मिला जुला रूप था। उस समय इसका व्याकरण भी अपभ्रंश का ही प्रतिरुप था.अनेक परिवर्तनों को संजोए हुए ,अवधी और ब्रज के सान्निधय में 1500 ई. तक आते आते हिन्दी स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बना कर वर्तमान स्वरूप में आने लगी। हिन्दी साहित्य का मध्यकाल (1500-1800) आक्रमणों का काल था अतएव विदेशी आक्रमणकारियों की भाषा संस्कृति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था जिसके परिणामस्वरुप हिन्दी में तुर्की व फारसी शब्दों का समावेश बहुतायत से हुआ। इसी दौर में व्यापार के माध्यम से विदेशी सम्पर्क भी बढ़ने लगा अतः पूर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी और अंग्रेजी भाषा के शब्दों का समावेश भी हिन्दी में हुआ।ठीक इसी समय पिंगल, मैथिली, ब्रजभाषा और खङी बोली का स्वर्णिम साहित्य रचा गया। मुगल काल में उर्दू का उद्भव हुआ और उर्दू के कई शब्द हिन्दी भाषा में रच बस गए। भारत जैसे विवधता पूर्ण राष्ट्र में हिन्दी ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका परतंत्रता से मुक्ति दिलाने में निभाई। हिन्दी वह भाषा थी जो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हो या उसके बाद चले आंदोलन, देश भर में आजादी की अलख जगाने में सेतु बनी खास कर उत्तर भारत में। यही वजह रही कि स्वतंत्रता के पश्चात अंग्रेजों की ओर से बनाई व्यवस्था में हर काम अंग्रेजी में होने और अभिजात्य वर्ग के अंग्रेजी का प्रयोग करने के बावजूद 22 बोलियों से युक्त हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया।

वर्तमान में हिन्दी देश के मानचित्र पर व्यापक फलक पर छायी हुई जनभाषा है.यह न केवल सम्पर्क भाषा के रूप में देश को एक सूत्र में बांधे रखने का महती काम कर रही है, साथ ही अपने लचीलेपन व लोकप्रियता तथा सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण रखने की क्षमता के कारण ही हिन्दी का राजभाषा का दर्जा कायम है, हालांकि इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने की मांग हर कहीं से उठती रही है, पर क्षेत्रीयता के चलते अभी यह स्थिति नहीं बन पाई है। आज हिन्दी व्यापार,ज्ञान-विज्ञान,अध्य़ात्म और संस्कृति  के विभिन्न आयामों की छटा को समूचे विश्व में प्रसारित कर अपनी पहचान का दायरा भी बढ़ा रही है। वर्तमान में विश्व के 33 देशों में हिन्दी भाषा बोली एवं समझी -जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हिंदी विश्व में तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा थी परन्तु आज यह दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा का दर्जा प्राप्त कर चुकी है।

     भारत विश्वभर में सर्वाधिक विविधताओं वाला देश है। बहुभाषिकता की दृष्टि से भी यह तथ्य पूर्णरूपेण सत्य है। हजारों मातृभाषाएं यहां अनेक वर्षों से बोली जाती रही है। इन्ही भाषाओं में  से कुछ ने देश को एकता के सूत्र में पिरोने का काम किया .पुरातन समय में जो काम संस्कृत कर रही थी वही आज हिंदी कर रही है। हिंदी आज समाचार पत्रों,संचार माध्यमों में प्रयोग बाहुल्य से अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है।यह भाषा अनुवाद तथा मौलिक लेखन जैसी सचेतन दृष्टि से आगे बढ़कर प्रसाद की ‘उल्का लेकर अमर शक्तियाँ,खोज रही ज्यों खोया प्रात’ पंक्ति का अनुसरण करती दिखाई दे रही हैं.

        हिंदी भाषा का साहित्य भी आज विविध विधाओं के माध्यम से वैश्विक फलक पर अपना स्थान बना रहा है। उत्कृष्ट लेखन व हिंदीतर श्रेष्ठ साहित्य का अनुवाद इस भाषा को मांझ कर इसके  वैश्विक स्वरूप को प्रभावी रूप से प्रस्तुत कर सकता है जो कि भूमंडलीकरण के इस दौर में परम आवश्यक है। आज हिन्दी के प्रचार में पत्र पत्रिकाओं के साथ साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्र भी अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन हिन्दी को बढ़ावा दे कर सहारा बन रहे इन माध्यमों से ही हिन्दी को सबसे बड़ा खतरा भी है। ये माध्यम बोल चाल की भाषा के नाम पर विदेशी भाषा के व्यामोह से स्वंय को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं और इनमें प्रयुक्त भाषा में अंग्रेजी शब्दों की बहुतायत होने लगी है परिणाम है कि हिंदी के स्वरूप में बदलाव आ रहा है और हिंग्लिश के रूप में एक नया अपभ्रंश रूप अवतरित होने लगा है।वर्तमान में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग केवल भाषागत आवश्यकता के लिए ही नहीं होता अपितु एक सामाजिक स्तर प्रदर्शन के रूप में किया जा रहा है। सह राजभाषा के पद पर आसीन अंग्रेजी को आज विकास का पर्याय माना जा रहा है। मध्यवर्ग इस प्रवृत्ति को अधिक ओढ़ रहा है यही कारण है कि कई बार हिंदी की स्थिति शोचनीय लगती है परन्तु साथ ही इसके प्रसार को देखकर आश्वस्ति होती है कि तुमुल कोलाहल में भी हिंदी अपनी शांत, सौम्य परन्तु दमदार उपस्थिति दर्ज करा रही है। यह हिंदी की लोकप्रियता का ही प्रमाण है कि आज संचार के अत्याधुनिक साधनों मोबाइल और इन्टरनेट जहां अंग्रेजी का एकछत्र राज्य हुआ करता था वहां भी यह भाषा विस्तार प्राप्त कर रही है। आज इन यंत्रों पर देवनागरी टंकण हेतु अनेक एप्स उपलब्ध हैं जिससे हिंदी लोकप्रिय हो रही हैं। तकनीकविज्ञों के अनुसार हिन्दी कम्प्यूटर इत्यादि के लिए संस्कृत के पश्चात सर्वश्रेष्ठ भाषा माध्यम है और इसका कारण इसकी ध्वन्य़ात्मक प्रकृति है। हिन्दी विश्व की बिरली भाषा है जो ध्वनि संचरित है। अर्थात जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। और अब जब कि इस तरह की तकनीक अपना जोर जमाने लगी है जिसमें वस्तुओं को कार्य आदेश लिख कर नहीं बल्कि बोल कर दिए जाएंगे तब इस ध्वन्यात्मकता का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है। परन्तु यह केवल एक पक्ष है वास्तविकता में हिंदी आज अनेक समस्याओं से जूझ रही है।

                      वर्तमान समय में हिन्दी भाषा एक संक्रमण के दौर से गुजर रही है। यह संक्रमण भाषाई तो है ही साथ ही सांस्कृतिक भी है। आज हिंदी पर भूमंडलीकरण अपना व्यापक प्रभाव डाल रहा है. ऐतिहासिक दृष्टि से विश्व ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के प्रारम्भ में आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया में भूमंडलीकरण की अवधारणा को महसूस किया। भूमंडलीकरण समकालीन विश्व की विशिष्टताओं में से एक है। वस्तुत़ः यह सम्पूर्ण विश्व को एक गाँव में बदलने की अवधारणा है जो सीमाओं, सरहदों, दीवारों,विभिन्नताओं से परे है. भूमंडलीकरण का प्रत्यक्ष संबंध बाजारवाद से है। इसी का प्रभाव है कि प्रत्येक गतिविधि व्यावसायिक दृष्टिकोण या तो स्वयं अपना रही है या अपनाने को मजबूर है। संगीत, कला ,विज्ञान, दर्शन आदि के साथ ही साहित्य पर भी व्यावसायिकता का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ रहा है। वास्तव में यह वैश्विकरण आंचलिकता, स्थानीयता व क्षेत्रीयता का धुर विरोधी है चाहे वो कला के क्षेत्र में हो या अन्य किसी क्षेत्र में इसी का परिणाम है कि देशज तत्वों पर संकट दिन ब दिन  गहराता जा रहा है। भाषा भी इसी दंश को झेल रही है। यही एकमात्र कारण है जिससे अंग्रेजी का दबदबा निरन्तर बढ़ता जा रहा है। भारत में हिन्दी उपभोक्ता समाज की भाषा है अतः विदेशी निवेशकों और कंपनियों को भारत के धरातल पर उतरने के लिए एवं उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए हिन्दी के सहारे की सख्त आवश्यकता है। अपनी इसी आवश्यकता के चलते वे अपने उत्पादों की जानकारी, उनकी विज्ञापन सामग्री हिन्दी में प्रस्तुत तो कर रहे हैं पर उसमें वे गुणवत्ता या मानकीकरण की अनदेखी कर रहे हैं। गैर भाषाई दक्षता प्राप्त लोगों की ओर से किया गया अनुवाद न केवल हास्तास्पद होता है बल्कि कई बार अनजाने में या सरलता और सहजता के नाम पर हिन्दी के स्वरूप के साथ छेड़छाड़ भी साबित होता है। यह बदलाव अगर लचीलेपन की जद में हो तब तो उचित है परन्तु जब भाषा की अस्मिता से ही खिलवाड़ हो तो स्थिति चिन्ताजनक हो जाती है। शनैः शनैः यह हिन्दी के अपने शब्दों का स्थान लेने लगता है जो भाषाई खतरा बन कर उभरता है।

          आज  हिन्दी किसी प्रदेश विशेष की भाषा न रहकर समूचे देश की भाषा बन गई है.विदेशों में भी इसका पठन पाठन हो रहा है। प्रवासी भारतीय साहित्य अन्तरराष्ट्रीय फलक पर हिन्दी को अपनी विशिष्ट पहचान दिला रहा है.इस प्रकार हिन्दी भाषा और साहित्य का दायरा निःसन्देह विश्व के मानचित्र पर बढ़ा है परन्तु विज्ञापनों व समाचार माध्यमों में प्रय़ुक्त हो रही हिन्दी भाषा ने इसके स्वरूप व भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। हिन्दी की बोलियों का स्वर्णिम साहित्य वर्तमान में पूर्णरूपेण लुप्त हो चुका है ऐसे में इस साहित्य की श्रेष्ठ रचनाएं अंधेरे में धूमिल हो रही है.आज हिन्दी में नए शब्दों का प्रचलन न के बराबर हो रहा है साथ ही बाजार की भाषा बनने की प्रक्रिया में इसकी मूल प्रकृति भी नष्ट हो रही है। आज  विश्व के अधिकांश विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई ज़रूर जाती है परन्तु या तो अंग्रेजी भाषा में या क्लिष्ट हिन्दी में। भाषा का मानकीकरण एक अन्य ऐसा प्रमुख बिन्दु है जो हिन्दी के रूप को प्रभावित करता है। हालांकि केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय इस दिशा में प्रयास कर रहा है और निदेशालय ने मानकीकरण के लिए स्थायी समिति भी गठित कर रखी है, फिर भी इस ओर प्रभावी काम होने की जरूरत है। आज विश्व स्तर पर हिन्दी फैल तो रही है पर अपने ही घर में उपेक्षित जिंदगी जी रही है। जिससे स्वतंत्रता के उपरान्त भी कहीं न कहीं परतंत्रता का बोध स्वतः ही हो जाता है। यहीं हिन्दी की वर्तमान दशा भी है और  दिशा भी जिसे राष्ट्रहित में अनुकूल बनाना बहुत जरूरी है।इन सबके साथ हिन्दी के अत्यधिक विस्तार के साथ ही भाषाई एकरूपता की समस्या आ खड़ी होती है. हिन्दी में अनेकरूपता की भरमार है। यह अनेकरूपता ध्वनि स्तर पर,लेखन के स्तर पर,शब्द स्तर पर और वाक्य स्तर पर पाई जाती है.वर्तमान में आवश्यकता है। हिन्दी के सर्वमान्य मानकीकृत रूप को अपनाने की और इसे व्यावहारिक स्तर पर प्रचलित करने की क्योंकि हिन्दी जन जन की भाषा है। इसका प्रसार भी भाषाई ज्ञान के दायरों से दूर व्यावहारिकता की छांव में ही हो सकता है।


डॉ. विमलेश शर्मा
कॉलेज प्राध्यापिका (हिंदी)
राजकीय कन्या महाविद्यालय
अजमेर राजस्थान 
ई-मेल:vimlesh27@gmail.com
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भारत एक युवा राष्ट्र है और युवावर्ग सर्वाधिक चिन्तित रोजगार को लेकर है. अगर हिन्दी को रोजगारोन्मुखी आयाम प्रदान किया जाए तो युवाशक्ति इस भाषा से और अधिक जुड़ सकती है। इस हेतु शिक्षा प्रणाली में बदलाव की आवश्यकता है ताकि यह भाषा अपनी वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके। अनुवाद को बढ़ावा देकर हिन्दी की बाईस बोलियों के साहित्य को प्रकाश में लाया जा सकता है। इसी के साथ आवश्यकता है इस भाषा के साहित्य को पुनर्जिवित करने की क्योंकि इस समय यह मात्र एक वैचारिक अखाड़ा बनकर रह गया है जिसमें प्रयोगवाद ,माक्सर्वाद ,उत्तर आधुनिकतावाद, संरचनावाद,विखण्डनवाद निरन्तर जूझ रहे हैं अतः दरकार है ऐसे साहित्य सृजन की जो सम्वेदनात्मक जमीन तैयार कर हिन्दी भाषा की पौध को हरिताभ कर सकता है।













आलेख:वैश्वीकरण और हिन्दी:- प्रसार और प्रवाह / डॉ. विमलेश शर्मा - Apni Maati Quarterly E-Magazine

Wednesday, August 20, 2014

शब्दों का बावरा अहेरी 'अज्ञेय' /डॉ. विमलेश शर्मा(अजमेर) - Apni Maati Quarterly E-Magazine

                                                   
                                                         
कुछ हस्ताक्षरों से साहित्य कालजयी हो जाता है। हिन्दी साहित्य में ऐसे ही हस्ताक्षरों की अग्रिम पंक्ति में जिनसे साहित्य को विशिष्ट पहचान मिली है में शुमार है सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय। अज्ञेय 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर ग्राम में जन्मे थे। अज्ञेय आज भी सामान्य पाठकों के लिए अज्ञेय है। इस महानायक का जीवन अत्यधिक वैविध्यपूर्ण रहा है। उन्होंने अपनी अनुभवी आँखों से जीवन को बेहद नजदीक से देखा था यही कारण है कि बात चाहे कहानियों की की जाए या इनकी कविताओं की वहां पर सम्पूर्ण मानव जीवन अत्यंत ही सहजता एवं सूक्ष्मता के साथ अनेक स्तरों पर उद्घाटित होता है। व्यक्तिगत जीवन में मितभाषी होते हुए भी वे अपनी रचनाओं में असामान्य रूप से मुखर हैं।  वे साहित्य सृजन में वैयक्तिकता को प्राथमिकता देते हैं। उनकी सृजनधर्मिता सदैव से नवोन्मेषी रही है। अज्ञेय का मानना था कि परम्परा बहता नीर है जो नित नवीन होकर बहती रहती है। वस्तुतः तभी उसकी प्रासंगिकता भी है। साहित्य में वे प्रयोगधर्मी थे । वे सत्य ही साहित्य सृजन में राही नहीं वरन् नवीन राहों के अन्वेषी रहें हैं।
               
अज्ञेय जी 
अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार सप्तक का प्रकाशन हिन्दी कविता के क्षेत्र में एक युगान्तरकारी परिवर्तन है। तार सप्तक का प्रकाशन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी वरन् यह एक लम्बी सुनिश्चित योजना का परिणाम था। तारसप्तक के कवि एक साथ एक जगह एक विचारधारा में कैसे संग्रहित हुए इसका भी एक अपना इतिहास है। इसी तार सप्तक से हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट प्रवृत्ति प्रयोगवाद का प्रारम्भ हुआ है। अज्ञेय के अनुसार प्रयोग क्रिया है तो प्रयोगशीलता कवि कर्म। अज्ञेय और आलोचना का भी विशेष संबंध रहा है। तार सप्तक की भूमिका भी आलोचना का विषय रही है। रचनात्मक स्तर पर तार सप्तक के कवियों में पूर्ववर्ती काव्य परम्परा के प्रति आक्रोश था। तारसप्तक के सभी कवि अलग-अलग शैली में लिख रहे थे पर अलग - अलग लिखते हुए भी वे  एक स्वर में यही कह रहे थे- कवि तोड़ो अपने शब्द जालजो आज खोखला शून्य हुआ। यह है अपने पुरखों की वैभव योगमयी कलुषित वाणी त्याग इसे अब बनना है ..तुझ को ही अगुआ।’ (अज्ञेय-ता.स. पृ.88) नवीन के प्रति यह आग्रह ही तारसप्तक की महत्ता है।

 अज्ञेय का साहित्य परम्पराप्रयोग और आधुनिकता का मिश्रण है। वे रचना में सम्प्रेषण और वैयक्तिक अभिव्यक्ति को महत्व देते हैं। उनके अनुसार ‘‘यदि हम आधुनिकता की चर्चा साहित्य और कलाओं के संदर्भ में करते हैं तो इन दोनों को जोड़कररखना अनिवार्य हो जाता है। साहित्य और कला मूलतः एक सम्प्रेषण है। इस सम्प्रेषण में वे भाषा का प्रयोग एक तीर की भाँति करते हैं। (केन्द्र और परिधि)  अज्ञेय समय-समय पर इस तीर को पैना भी करते रहते हैं। इस संबंध में अज्ञेय की अवधारणा स्पष्ट है वे कहते हैं- ‘‘मेरी खोज भाषा की खोज नहीं हैकेवल शब्दों की खोज है। भाषा का उपयोग में ऐसे ढंग से करना चाहता हूं कि वह नए प्राणों से दीप्त हो उठे।’’ य़ही कारण है कि भाषा के परिमार्जन में अज्ञेय निरन्तर प्रयोग करते रहे हैं। आज हम प्रयोगों के प्रति दुराग्रह रखकर शब्दों के प्रयोग में भाषा के परिष्कार और परिमार्जन को लेकर चिंतित हो जाते हैं। अज्ञेय उसे बड़ी सहजता से लेते हैं। अज्ञेय शब्दों की गरिमा में विश्वास रखते हैं वे कहते हैं- शब्द का आत्यंतिक या अपौरूषेय अर्थ नहीं है। अर्थ वही हैउतना ही है जितना हम उसे देते हैं। उनके अनुसार शब्द का अर्थ एक सर्वथा मानवीय अविष्कार है। जिसे वह अभिव्यक्ति के सफल सम्प्रेषण हेतु प्रयुक्त करता है।

                अज्ञेय के कवि रूप की बात की जाए तो उसमें अखिल विश्व अपने श्रेष्ठतम रूप में संपदित होता है। उनकी कविताओं में उनका युग प्रतिबिम्बित होता है जो परम्पराओं को सहेजे हुए स्वंय को अद्यतन करता रहता है। अज्ञेय की काव्य यात्रा जहां भग्नदूत’ और चिंता’ काव्य संग्रहों की गीतात्मक कविताओं से प्रारंभ होती है वहीं वे इत्यलम्हरी घास पर क्षण परबावरा अहेरीइन्द्रधनुष रौंदे हुए थे,अरी ओ करूणामय प्रभासागर मुद्राआँगन के पार द्वार और कितनी नावों में कितनी बार द्वारा आधुनिक हिन्दी कविता को सर्वथा नया मोड़ देते हैं। कवि मन संवेदनशील होता है परन्तु अज्ञेय में एक सजग बौद्धिकता की उपस्थिति उनकी संवेदना को नियंत्रित करती है। यही नहीं उनकी कविताओं में स्वर वैविध्य व बिम्ब प्रयोग भी उनकी बौद्धिकता का ही परिचायक है। अज्ञेय की कविताओं में निजी अनुभूतियां शब्दों का आकार लेती है।साथ ही अज्ञेय परिवेश से बहुत अधिक प्रभावित होते हैं। इस संदर्भ में वे कहते हैं- ‘‘आज का लेखक इस प्रकार अपने परिवेश से दबा है- जो कि वह स्वयं है और जितना ही अच्छा लेखक हैउतना ही अधिक वह अपना परिवेश है।वे कहते हैं अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के अनावश्यक आड़म्बर की आवश्यकता नहीं होती वरन् संवेदनाएं तो मौन में भी प्रखरित होती हैं। इसी को लेकर वे कहते हैं- ‘‘मौन भी अभिव्यंजना है,जितना तुम्हारा सच हैउतना ही कहो। (जितना तुम्हारा सच है।)

                अज्ञेय शब्दों के चतुर शिल्पी हैं। प्रयोगधर्मिता से जहां वे तारसप्तक बुनकर नया इतिहास रचते हैं वहीं रंगों  और सौन्दर्य से वे बिम्बों की सजीव झांकी भी प्रस्तुत करते हैं। भोर का ये बावरा अहेरी,अपनी बौद्धिकता की कनियों से हरी घांस पर कविता की शबनम खिलाता है। कवि होने के साथ ही अज्ञेय ऐसे कथाकार और चिंतक भी हैं जिन्होंने तमाम तरह के विरोधों को झेलकर भी सतत् नवोन्मेषी प्रयोग साहित्य में किये हैं। अज्ञेय आधुनिक लेखक और पाठक दोनों को अपनी रचनाधर्मिता से प्रभावित करते हैं। अज्ञेय अन्तर्मुखी है वे बनने से पहले गुनते हैं। यही गुनना और घटनाओं का सूक्ष्म दृष्टि से चुनाव हम शेखरः एक जीवनी, ‘नदी के द्वीप’ और अपने-अपने अजनबी में देखते हैं।  अपनी रचनाओं में कभी वे श्लील और अश्लील पर प्रश्न करते हैं तो कभी चेतन अवचेतन मन का द्वन्द्व अपनी रचनाओं में दिखाते हैं। शेखर एक जीवनी तो चेतन अवचेतन मन के तनावसंवाद और जिज्ञासाओं की प्रश्नावली है जिसे अज्ञेय अपने रचनाकर्म से उद्घाटित करते हैं।

                
डॉ. विमलेश शर्मा
कॉलेज प्राध्यापिका (हिंदी)
राजकीय कन्या महाविद्यालय
अजमेर राजस्थान 
ई-मेल:vimlesh27@gmail.com
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प्रयोगों के  प्रति आग्रही इस राहों के अन्वेषी ने एक से बढ़ कर एक प्रयोग साहित्य की हर विधा में किए हैं। पठार का धीरज, गेंग्रीन, शरणदाता अज्ञेय की श्रेष्ठ कहानियां है।अज्ञेय के समग्र चिंतन को टी. एस.इलियट के चिंतन के समकक्ष देखा जा सकता है। उनके बिम्ब और भाषा शब्द के आकर्षण की सीमा मानते हैं । किसी भी रचना में अज्ञेय के विचार सीधी सपाट शैली में नहीं आते वरन् उनमें विचारों का अद्भुत संकेन्द्रण देखने को मिलता है। अज्ञेय आधुनिकता की आड़ में मूल्यों को भूलने का नहीं करते वरन् इसके बरक्स वे उनका निरन्तर परीक्षण करने को कहते हैं। साहित्य अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का ही क्षेत्र है अतः साहित्यकार को अपनी रचना दृष्टि के विकास हेतु संवेदना में नित नए प्रयोग करने होते हैं। उसे सूक्ष्म दृष्टि से घटना के मौन स्पंदन को बुनना होता है क्योंकि यह साहित्य के वर्तमान होने की परम आवश्यकता है।  वस्तुतः यही अज्ञेय की उपादेयता है कि अज्ञेय अनवरत विचारों से गतिशील हाते हुए परम्परा के साथ रहकर भी उससे अभिन्न रहकर  कालातीत साहित्य का सृजन कर कालजयी होते हैं। अज्ञेय के लेखन में  एक युग झलकता है । व्यक्ति के माध्यम से वहां भारतीय लोक जीवन और पश्चिम के बौद्धिक अभिजात्य का अनुपम संतुलन है।वैचारिकता , गहन सम्वेदनशीलता ,शिल्प के प्रति असामान्य सजगता, ऱमणीय गम्भीरता में भी तरल चापल्य का लालित्य, अंतर्मुखी  चिन्तनधारा का प्रभाव आदि ऐसे तत्व है जो उनके काव्य को एक खास विशिष्टता प्रदान करते हैं।  वे अपने रचनाकर्म से कुछ इस प्रकार हर नवोदित कवि और रचनाकार को क्षण भर सोचकर सजग रहते हुए सृजन कर्म करने को कहते हैं-        
      
  “सुनो कवि। भावनाएं नहीं है सोती,
                भावनाएं खाद है केवल
                जरा उनको दबा ऱखो
       जरा सा और पकने दो, ताने और तचने दो..”…..

प्रेमचंद होने का अर्थ/ डॉ. विमलेश शर्मा

हमारी सभ्यता साहित्य पर आधारित है। हम जो कुछ हैंसाहित्य के बनाए हैं। प्रेमचन्द का यह कथन उनकी रचनात्मक सजगता और साहित्यिक दायित्व को रेखांकिंत करता है। शब्दों का शिल्पी प्रेमचंद कलम का जादूगर प्रेमचंद,उर्दू में फितरतनिगार की उपाधि से महिमामंडित,  उपन्यास सम्राट प्रेमचंद, हिन्दी साहित्य का प्रारम्भकर्ता प्रेमचंद ये सभी उपमाएं मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक व्यक्तित्व के समक्ष छोटी जान पड़ती है। यों तो हिन्दी साहित्य परम्परा में अनेक शब्द शिल्पी हुए हैं परन्तु प्रेमचन्द का अंदाज एकदम निराला है। इसका कारण है प्रेमचंद जमीन से जुड़े थें। उनकी कथाओं के पात्र एक व्यापक भूमि से उठाए गए थे। जिनमें आम जनजीवन सांसे लेता है। यही कारण हे कि आम आदमी प्रेमचन्द साहित्य को पढ़ते हुए उनमें स्वयं को पाता है और यही एक कारण भी है कि प्रेमचंद आज भी प्रांसगिक है। प्रेमचंद समन्वय के पक्षधर थे फिर चाहे बात सामाजिक समन्वय की हो, सांस्कृतिक समन्वय की, भाषायी समन्वय की या आदर्श और यथार्थ के समन्वय की उनकी रचनाएँ इन सभी समन्वयों का जीवंत उदाहरण है। मानसरोवर के आठ खण्ड़ो में वर्णित कहानियों में जिंदगी की पेचीदेगियों और यंत्रणाओं को झेलता हुआ आम आदमी ही अपनी सम्पूर्ण दुर्बलताओं एवं सबलताओं के साथ दिखाई पड़ता है। ईदगाह, नशा, बूढ़ी काकी, बड़े भाई साहब,मंत्र ऐसी ही कहानियाँ है जिनमें मानव अपनी तमाम क्षुद्रताओं और वृहद् संवेदनाओं को लेकर एक साथ उद्घाटित हुआ है। 

प्रेमचंद की कहानियाँ जहां एक और सामाजिक समस्याओं को उठाती है तो वहीं देश की अनेक राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं पर करारा व्यंग्य करती हुई भी दिखाई पड़ती है। चार बेटो वाली विधवा ओर शतरंज के खिलाड़ी कहानी इन्हीं विसंगतियों को अपने चरम पर उद्घाटित करती है। वस्तुतः प्रेमचंद का समूचा साहित्य एक संवेदनशील एवं जागरूक मन की उपज है वे कहते है कि मन पर जितना गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती। वे स्कूली शिक्षा के बजाय व्यावहारिक शिक्षा के पक्षधर थे। उनका मानना था कि अनुभवों से व्यक्ति सब कुछ अर्जित कर सकता है। यही जीवन मूल्य उन्होंने अपने पात्रों में भी उतारें है।

      उनके कर्मभूमि उपन्यास का नायक अमरकान्त इसी संदर्भ में कहता है कि मैं अब तक व्यर्थ में शिक्षा के पीछे पड़ा रहा। स्कूल और शिक्षा से अलग रहकर भी आदमी बहुत कुछ सीख सकता हैं। वे शिक्षा को केवल अपनी मनोभावनाओं की योग्यता को प्राप्त करने का साधन भर मानते थे। इसी के साथ वे इसे प्रगतिशीलता का वाहक भी मानते थे। परम्परा और प्रगतिवाद दो परस्पर विरोधी अवधारणाएँ रही है परन्तु प्रेमचंद के साहित्य में ये दोनों ही अवधारणाऐं स्थान पाती हैं, क्योंकि प्रेमचंद का साहित्य समय सापेक्ष रहा है। उनका 1930 से पूर्व रचा गया साहित्य आदर्शवादी साहित्य की श्रेणी में आता है। जहां वे आदर्श की बड़ा महत्व देते हुए आदर्श को साहित्य की आत्मा कहते हैं। इसीलिए इस समय के साहित्य में देश सेवा , त्याग, क्षमा, बलिदान, वीरता और उदारता की उदात्त भावनाओं पर बल दिया। परन्तु रंगभूमिउपन्यास के बाद उनका आदर्शवाद खंडित होना प्रारम्भ हो गया। गबन ,कर्मभूमि ,और गोदान उपन्यास और बासी भात खुदा का साझो, कफन और पूस की रात कहानियां इसका स्पष्ट प्रमाण है। प्रे

मचंद ने अपने अनुभव से यह भलीभांति जान लिया था कि कोरा आदर्शवाद भारत की मेहनतकश जनता की समस्याओं का हल नहीं हैं इसलिए वे स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं कि बंधुत्व और समता, सभ्यता तथा प्रेम जीवन में आरम्भ से ही आदर्शवादियों का सुनहला स्वप्न रहे है जिसे वास्तविकता में प्राप्त करना संभव नहीं है। उनके विचार और चिंतन में आया यह मोड़ कफन कहानी के माध्यम से बडे ही कलात्मक ढंग से उजागर हुआ है। जहाँ वे घीसू ओर माधो पात्रों के माध्यम से धार्मिक मान्यताओं के प्रति न केवल उदासीनता व अवज्ञा प्रकट करते है वरन् वे उनकी खिल्ली भी उड़ाते हैं। इस कहानी में घीसू ओर माधो भूख के आगे बर्बर और हृदयहीन भी हो जाते है। जिसके चलते वे प्रसूति पीड़ा स्त्री की मृत्यु को भी भूल जाते है। यही वह वीभत्स दृश्य है जहां बौद्धिक मानवता की प्रगतिशीलता पर व्यंग्य कसा जाता है कि कहां है विकास और मूल्य जहां इंसान को दो जून की रोटी ओर एक कफन भी भयस्सर नहीं हो पाता। उन पर इस कहानी को लेकर अनेक आक्षेप भी लगाए गए परन्तु उनका मानना था कि काव्य और साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ना मात्र नहीं है वरन् साहित्य वह है जो समाज की आम समस्याओं से स्पंदित होता हो, जुड़ाव रखता हो और हमारी विचार और भाव संबंधी आवश्यकताओं की खुराक हो। वे चीजों की तरह कला और साहित्य की भी उपयोगिता को तराजू पर तोलते थे। उनका मानना था कि साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना व मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं हैं । वह देशभक्ति और राजभक्ति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
      प्रेमचंद आडम्बर व दिखावे के विरोधी थे। यही बात उन्होंने साहित्य में भाषा के प्रयोग में भी अपनायी। उनका मानना था कि साहित्य में उसी भाषा का प्रयोग सार्थक है,जिसे आम जनजीवन समझता हो इसीलिए उन्होंने अपने लेखन में हिन्दुस्तानी भाषा का समावेश किया। क्योंकि उस समय हिन्दुस्तानी भाषा सम्पर्क भाषा थी और उसका दायरा बड़ा था। वे मानते थे कि समाज की बुनियाद भाषा है और उसी भाषा का प्रयोग साहित्य में होना चाहिए जिसे कौम समझे जिसमें कौम की आत्मा हो। प्रेमचंद को साहित्य यथार्थ जीवन का सच्चा पैरोकार है। उनका साहित्य अपने युग का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है वरन् उन्होंने जीवन के ऐसे अमिट रेखा चित्र साहित्य में उकेरे है जो आज भी जीवंत है।

Sunday, July 27, 2014

यूँ टूट जाते हैं चंद ख्वाब....


वर्तमान दौर अनास्था का दौर है औऱ शिक्षित य़ुवा मन पर आयोगों की नीतियाँ और कारगुजारिया कहर बरपा रही है।  अभी दिल्ली विश्वविद्यालय औऱ विश्वविद्यालय  अनुदान आय़ोग की असहमति के चलते विद्यार्थी उनकी नीतियों के  शिकार हुए ही थे कि अब राजस्थान लोक सेवा आयोग सवालों के घेरे में है। अपनी महत्वपूर्ण और निष्पक्ष क्रियाकलापों के परिदृश्य में, लोक सेवा आयोगों ने भारतीय संविधान में सर्वोच्च स्थान पाया है। लोक सेवा आयोगों का उनके द्वारा सम्पादित किए जाने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के ही कारण ऐसी संस्थाओं के लिए निष्पक्षता एक अनिवार्य तत्व बन जाता है और इसी विशेषता  के द्वारा वह जनता के मध्य विश्वसनीय बन पाती है परन्तु  इन आयोगों की हालिया स्थिति चिन्ताजनक है। मध्यप्रदेश के पश्चात् अब राजस्थान लोक सेवा आयोग  की मौजुदा स्थिति  अपने निराशाजनक प्रदर्शन के चरम पर है। आरएएस प्री औऱ हाल ही में सम्पादित करवाई जा रही स्कूल व्याख्याता परीक्षा में पायी जा रही गड़बड़ियों के चलते इसकी विश्वसनीयता में गहरी सेंध लगी है।  इसी सप्ताह आयोग को पेपर लीक  प्रकरण  के चलते आरएएस प्री 2013 परीक्षा रद्द करनी पड़ी। एक सप्ताह में दो परीक्षा निरस्त होने से आयोग की कार्यप्रणाली कठघरे में है। इसी के साथ प्रश्नों के दोहराव और प्रश्न पत्र बिकने जैसे  समाचार भी निरन्तर प्रकाशित हो रहे हैं। इसी के चलते अन्य परीक्षाओँ की विश्वसनीयता पर भी  संशय के  बादल  मंडरा रहे हैं। एक के बाद एक हो रही अनियमितताओँ से यह संस्था युवा मन के सब्र का इम्तिहान सी लेती नजर आ रही है। आयोग की निष्पक्षता पर अब सवालिया निशान लग चुके हैं औऱ इन गड़बड़ियों का सबसे बड़ा कारण इसकी माडरेशन प्रणाली को बताया जा रहा है। पूर्व में आयोग किसी भी परीक्षा हेतु विशेषज्ञों से तीन अलग अलग पर्चें तैयार करवाता था और परीक्षा सम्पन्न होने तक स्वंय आयोग को यह नहीं पता होता था कि कौनसा प्रश्न पत्र अमुक परीक्षा में आने जा रहा है। कुछ गड़बड़ियों के चलते आयोग को अपनी इस पद्धति में बदलाव करना पड़ा और नतीजा हम सबके सामने है। वर्तमान में कई विशेषज्ञ एक परीक्षा के पर्चे को तैयार करते हैं। चैयरमेन इसे छपने से पूर्व कई विशेषज्ञों से इसकी जाँच करवाते है।  परिणाम यह होता है कि इस समूची प्रक्रिया में  परीक्षक से लेकर बोर्ड मेम्बर, आयोग सदस्यों तथा छपाई तक वह पर्चा कई लोगों की जानकारी में आ जाता है और उसकी गोपनीयता संदिग्ध हो जाती है। कारण जो भी रहे हो पर दोष सिर्फ और सिर्फ आयोग का ही है क्योंकि जब भविष्य निर्माण  जितनी अहम जिम्मेदारी किसी के कांधो पर हो तब आयोग केवल प्रिंटिंग प्रेस पर जिम्मेदारी डाल कर अपना दामन नहीं बचा सकता।
राजस्थान लोक सेवा आयोग का  50 वर्षों का स्वर्णिम इतिहास रहा है जिसका दावा वह खुद करता है। यही नही आयोग गत वर्षों में अनेक क्षेत्रों में  राष्ट्रीय स्तर पर एक्सीलेंसी अवार्ड भी प्राप्त कर चुका है फिर आमजन उससे ऐसी गलतियों की उम्मीद कैसे कर सकता है। अभ्यर्थी सालों बेहतर भविष्य के निर्माण में किसी परीक्षा की तैयारी करते हैं और वह पूरे विश्वास और निष्ठा से  परीक्षा देने आयोग की शरण में आता है पर उनके सपनों पर कुठाराघात होता है  और वे कांच की भांति टूटकर बिखर पड़ते हैं जब कोई स्वार्थी पुरूष अट्टहास करता हुआ कहता है कि मैं  बीते दस सालों में ना जाने कितने लोगों को आरएएस आईपीएस  अधिकारी बना चुका हूँ । यह कथन उन सभी सपनों को एक साथ तोड़ता है जो पूरी पूरी रात जागकर एकाग्रचित्त मन से अपने औऱ अपने परिवार के  लिए एक चमकीले आकाश को संजोते है, जो कई बेड़ीयों को तोड़ने को  खुद को सबल बनाने को बुने गए हो। आरपीएससी सच ही अब एक स्कैंङल कमीशन बन चुका है जहां योग्य उम्मीदवारों की योग्यता और उनके धैर्य की बलि चढाई जाती है। आय़ोग की  ऐसी लापरवाही का खामियाजा निर्दोष औऱ बेरोजगारों को भुगतना पड़ता है। आज परीक्षाओँ  के पर्चे लीक हो रहे हैं, बाजारों में बिक रहे हैं, कहीं कोई परीक्षा केन्द्र ही बिका हुआ है तो कहीं उक्त धारणा बलवती है कि फलां केन्द्र से परीक्षा देने पर चयन पक्का है। आज परीक्षा होने के तुरन्त बाद मामले न्यायालय की शरण में चले जाते है। आयोग में इतनी अधिक अनियमितताएँ हैं कि याचिकाएँ दायर होना अब आम बात हो गई है। य़े मामले लम्बी अवधि तक कोर्ट में अनिर्णित पड़े रहते है। जिसका खामियाजा सफल अभ्यर्थियों को भी भुगतना पड़ता है।अब इन सब अनियमितताओं को दूर कर आय़ोग के ढाँचे में आमूलचूल बदलाव की आवश्यकता है। आयोगों में बैठे उन तमाम दलालों को सबक सिखाकर एक मिसाल कायम करने की दरकार है  ताकि इस सड़े गले तंत्र को पुनर्जीवित किया जा सके।   भविष्य में बेरोजगार सपनों के साथ खिलवाड़ ना हो इसलिए आवश्यक है कि  सरकार ऐसे ठोस कदम उठाए जिससे इस संस्था पर लोगों का विश्वास फिर से कायम हो सके।  आयोग  की नीतियों में बदलाव कर इसकी निष्पक्षता को पुनः कायम करने की आवश्यकता है ताकि युवा मन फिर से आशान्वित हो अपने सपनों को नये आयाम प्रदान कर सके औऱ बेरोजगारों की बढती फौज पर अंकुश लग सके।