Wednesday, March 25, 2015

अभिव्यक्ति पर लगाम कितनी ज़रूरी

                   अभिव्यक्ति पर लगाम कितनी ज़रूरी
आज जब लगातार अभिव्यक्ति पर हमले हो रहे हों उस समय सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी का निर्णय कितना सही है यह निश्चय ही समय तय करेगा पर स्वस्थ और जागरूक आलोचना के लिए निश्चय ही यह सुखद संकेत है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 66 ए को रद्द किया जाना इस संदर्भ में एक सार्थक पहल है अर्थात् अब सोशल मीडिया चाहे वह फेसबुक हो या ट्वीटर वहाँ किसी टिप्पणी को लेकर सीधी गिरफ्तारी नहीं हो सकती। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि वहाँ किसी भी तरह की मानहानि और अनर्गल वार्तालाप को अब छूट मिल गई है। देश की सुरक्षा, विदेशी संबंधों, नैतिकता और जीवन मूल्यों पर की जाने वाली विवेकहीन और गैरजिम्मेदार टिप्पणियों पर न्यायालय अभी भी तटस्थ है। अगर देखा जाए तो कई मामलों में रोक जरूरी भी थी क्योंकि वहाँ ऐसे अनेक तत्व हैं जो सामाजिक दृष्टि से खतरनाक है, जो सिर्फ बवाल खड़ा करने के उद्देश्य से ही लिखते हैं , स्त्री विरोधी मानसिकता लेकर उन्हें नाना प्रकारों से उत्पीड़ीत करते हैं। उन पर रोक होनी चाहिए क्योंकि निजी हमले किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किए जा सकते। इस आजादी का यह अर्थ कतई नहीं लगाना चाहिए कि अभिव्यक्ति की जिम्मेदारी अब समाप्त हो गई है। अभिव्यक्ति संजीदा होनी चाहिए क्योंकि उसके सामाजिक सरोकार हैं।वस्तुतः जिस अभिव्यक्ति के हनन की हम बात करते हैं उसके दोषी हम सभी हैं। अगर लेखक कँवल भारती के संदर्भ में ही बात की जाए तो उन्होंने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की थी जिससे उन्हें तो धार्मिक उन्माद फैलाने का दोषी माना जाए पर उन्हें व्यक्ति विशेष से संबंधित होने के कारण जेल जाना पड़ा। यहाँ यह बात स्पष्ट होना जरूरी है कि रोक अभिव्यक्ति पर लगाई गई थी या उस अभिव्यक्ति के किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित होने के कारणों पर । ऐसा ही मामला 11 वीं कक्षा के उस छात्र का भी था जिसने वयक्तिविशेष को लेकर टिप्पणी की थी । निःसंदेह इन संदर्भों में यह निर्णय स्वागत योग्य है पर आम मानस अभी भी अड़ा है कि नियम सभी के लिए समान होने चाहिए फिर चाहे वह आम आदमी हो, नेता हो या फिर अपराधी क्योंकि केवल एकपक्षीय रोक सदा प्रतिरोध को जन्म देती है। नेताओं के वे विवादित बयान भी प्रतिबंधित होने चाहिए जो वे विवेकहीनता का परिचय देते हुए अक्सर सरेआम उगल देते हैं। बहरहाल इस संदर्भ में अभिव्यक्ति की आजादी के मायने इतने ही हैं कि विचार अभिव्यक्त हों पर पूरी जिम्मेदारी के साथ हों क्योंकि विचार सामाजिक बदलाव में महती भूमिका अदा करतें हैं। अभिव्यक्ति की पुरजोर दस्तक आज भी उन तमाम किवाड़ों पर जरूरी है जो सामाजिक बराबरी की तमाम संभावनाओं को रोके हुए हैं ऐसे में यह फैसला भय को कम करता है और आशान्वित करता है कि एक जिम्मेदार अभिव्यक्ति बेरोक बयां हो सकती है चाहे उसके परिणाम अधिक महनीय नहीं हो। इस संदर्भ में रघुवीर सहाय याद आते हैं---
"कुछ होगा कुछ होगा ,अगर मैं बोलूंगा /
और कुछ हो न हो ,मेरे भीतर का एक 
कायर तो टूटेगा ...


Thursday, March 19, 2015

खुशवंत सिंह होने के मायने..

विमल यात्रा

स्मृतियों में बने रहेंगें खुशनुमा खुशवंत सिंह

        स्मृतियों में बने रहेंगें खुशनुमा खुशवंत सिंह


बहुत कम लोग होते हैं जिनके हर्फों में जादूई करिश्मा होता है  और उनका प्रभाव भी उतना ही असरकारी होता है। ऐसे व्यक्ति अपने मने मुताबिक जीते  हैं  और अपनी जीवन शैली और व्यक्तित्व के माध्यम से ऐसा चित्र उकेरने का सामर्थ्य रखते हैं जो कि काल की अनवरत यात्रा में  भी कभी धूमिल नहीं होता। ‘डेथ एट माई डोरस्टेप’ लिखने वाले खुशवंत ऐसे ही लेखक है जो भारतीय पाठक के जनमानस को सदैव गुदगुदाते रहेंगे। खुशवंत सिंह नाम है एक जिंदादिल इंसान का ,खुद पर हँसने का सामर्थ्य रखने वाले रचनाकार का,लेखक  , पत्रकार और इतिहासकार का जो कि अपनी बेबाक जीवनशैली के लिए सदैव याद किए जाएँगें। वे अपनी रचनाओं में दिल परोसते थे , संवेदनाओं का इन्द्रधनु रचते थे और पाठक को वो सब पढने पर मजबूर करते थे जो कहीं ना कहीं उसी के अन्तरमन में छुपा होता था। एक प्रतिबद्ध पत्रकार के रूप में वे चाहते थे कि अधिक से अधिक सूचनाएँ पाठकों तक पहुँचनी चाहिए। लिखा गया ऐसा होना चाहिए जो एक चौंक और उत्तेजना पाठकों में भर दे । कमोबेश यही कारण था कि पाठक उनकी और आकर्षित होते थे। खुशवंत मशहूर पत्रिका योजना के संस्थापक संपादक थे इसके साथ ही वे इलस्ट्रेडेट वीकली,द नेशनल हेराल्ड और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे महत्वपूर्ण अखबारों से जुड़े रहे। वे अपने लिखे से सदैव सुर्खियों में बने रहे। वे एक बहस के घेरे को सदैव अपने इर्द गिर्द रखते थे और जब कभी ऐसा नहीं होता तो वो खुद ही कह पड़ते कि शायद कुछ गड़बड़ लिख रहा हूँ कहीं से कोई शिकायत नहीं मिली इन दिनों। उनका लिखा ही उनकी जीवटता का दस्तावेज़ है यही कारण है कि वे अपने अंतिम वर्षों में भी लेखन से जुड़े रहे  और कहते रहे  ‘ हिकायतें हस्ती सुनी ,तो दरमियां से सुनी, न इब्तिदा की खबर है न इन्तहां मालूम’। उनका जीवन एक ऐसा कैनवास था जिस पर रंग बिखर कर अपनी पूर्णता को प्राप्त करते थे।  वे किसी भी धर्म के प्रति कट्टर नहीं थे और अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीना जानते थे। उन्होनें पत्रकारिता को रोचक बनाते हुए उसे किस्सागोई से जोड़ा। प्रयोगधर्मी पत्रकार के रूप में पहचाने जाने वाले खुशवंत युवाओं को आगे बढ़ाने में विश्वास रखते थे। ‘खुशवंतनामा :मेरे जीवन के सबक’ किताब में वे  बड़े ही बेबाकी से अपनी दास्तां सुनाते हुए वे हर व्यक्ति को एक खुशनुमा जीवन जीने की नसीहत भी देते हुए दिखाई देते हैं।  इस किताब में उन्होंने अपने जिए को गढ़ा है तथा बढ़ती उम्र, मौत के डर, यौनाचार के सुख,सेवानिवृत्ति के बाद सुखी रहने के उपाय और कविता का सुख जैसे विषयों पर अपने विचार रखे हैं। अपने कमियों को स्वीकार करना सबसे बड़े साहस का काम है और खुशवंत ने इसे खुशी खुशी किया था। वे आम पाठक के दिल को जानते थे इसीलिए  वे कभी किस्सागोई के माध्यम से तो कभी सेक्स पर बेबाक लेखन के माध्यम से तो कभी चुटकुलों के माध्यम से हर व्यक्ति के दिल के करीब पहुँच जाते हैं। उनमें वे सब करने की काबिलियत थी जो आम  संपादक सोच भी नहीं सकते थे। कभी खालिस्तान के पैरोकारो की खुली आलोचना तो कभी ,द सैटेनिक वर्सेज का विरोध उनके अपने निर्णय थे जिनके माध्यम से वे अपनी स्वतंत्र सोच का उदाहरण रखते हैं। खुद को धार्मिक नहीं सांस्कृतिक कहने वाला यह सिख  धर्म और धर्मनिरपेक्षता पर  अपनी निरपेक्ष राय रखना जानता था। अपनी जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से सीख लेने वाले इस कर्मशील व्यक्तित्व ने 1951 में आकाशवाणी से अपना सफर शुरू किया । उन्होंने कुछ समय अमेरिका में तुलनात्मक धर्म और समकालीन विषय पर अध्यापन भी किया । 1969 में उन्होंनें इलस्ट्रेटेड वीकली की कमान संभाली और उसे सूचना दो, चौंकाओं और उत्तेजित करो के मंत्र से नयीं ऊँचाईयाँ प्रदान की। पत्र पत्रिकाओं को एक नया अवतार प्रदान करते हुए उन्होने साहित्य को उसमें व्यापक फलक पर विस्तार प्रदान किया। कार्टून और व्यंग्य को भी उन्होंने भरपूर तवज्जो प्रदान कर  हर व्यक्ति को खुश रखने का प्रयास किया।
  उन्होंने अपने जीवन में अनेक आलोचनाओं का सामना किया। कभी पियक्कड़ और कभी अय्याश की उपमाओं से उन्हे नवाज़ा गया परन्तु वे अनवरत लिखते गए ।एक पत्रकार, उपन्यासकार , इतिहासकार , स्तम्भकार और लगभग  80 की संख्या के आसपास लिखा  उनका रचनात्मक लेखन उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता का प्रमाण है।  उन्होंने कई उपन्यास और कथासंग्रह लिखे हैं जिनमें, 'ट्रेन टू पाकिस्तान', 'आई शैल नॉट हियर द नाइटएंगल' और 'दिल्ली' प्रमुख हैं। 95 साल की उम्र में उन्होंने 'द सनसेट क्लब' जैसा उपन्यास लिखा। उन्होंने अपनी आत्मकथा ट्रूथ, लव एंड ए लिटिल मैलिस लिखी, जिसे पेंग्विन बुक्स ने 2002 में प्रकाशित किया ।खुशवंत 1980 से लेकर 1986 तक राज्यसभा के सदस्य  भी रहे हैं । काम अपनी ज़मीन खुद तलाशता है और यही कारण है कि उन्हें साहित्य और पत्रकारिता में उल्लेखनीय कामों के लिए 1974 में पद्म भूषण सम्मान से नवाज़ा गया हालांकि जिसे उन्होंने सरकार को 1984 में लौटा दिया। वस्तुतः यहाँ उनका विरोध स्वर्ण म‌दिर में सेना को घुसने को लेकर था। बाद में सरकार ने 2007 में उन्हें  पुनः पद्म विभूषण से नवाजा।
अद्भुत व्यक्तित्व के धनी और बिंदास जीवनशैली के प्रस्तोता खुशवंत के लेखन में जीवन सांसे लेता था। आम जीवन की पगडंडियों से घूमता हुआ उनका लेखन हर व्यक्ति को अपनी ही कहानी जान पड़ता था। उनके लेखन में मासूमियत और वैचारिकता का अद्भुत सामंजस्य था। हँसी किस सलीके से आमजन तक पहुँचायी जाती है इसके वो उस्ताद थे। हर महीने का रोमांच और प्रेम का अल्लहड़पन उनकी रचनाओं की जीवनीशक्ति थी। लेखनी के इस जादूगर की  लेखन शैली  का ही कमाल था जो कि उनकी हर पुस्तक को बेस्ट सेलर के तमगे से नवाज़ती थी। उनका लिखा गुदगुदाता है ,एक शरारत भरी मुस्कुराहट को थिकरन देता है और खुद को कामुक कहने का होंसला भी रखता है। इन्हीं शब्दों के साथ ज़िंदादिली से भरपूर औऱ पत्रकारिता को ह्यूमर प्रदान करने वाले इस 99 वें की उम्र में भी जवां रहने वाले लेखक को विनम्र आदरांजलि..

Thursday, March 5, 2015

बदल रहा है फाग का मिजाज़

                    बदल रहा है फाग का मिजाज़


 फगुनाहट हवाओं में है और शायद इसी आहट से  प्रेम के रंग में तन और मन दोनों सराबोर हो उठे  हैं । शायद  हर मन श्याम और राधा भाव में भीगा है इसीलिए तो मौसम भी चहकने लगा  है  जब फागुन रंग इतनी   शिद्दत से झमकते हो किसी भी मन का बौरा जाना स्वाभाविक है।  फागुन अपने साथ रंग और रास लेकर आता है यही कारण है कि जब हर मन शीत में किसी कोने में दुबका होता है तो यह चुप से उसे बाहर निकालने का प्रयास करता है।ऋतु चक्र में परिवर्तन को लेकर वसंत झूमकर प्रकृति की यात्रा पर निकलता है और वनस्पतियों की शिराओं को नव औषधि प्रदान करता है।  यह औषध अपना व्यापक प्रभाव डालते हुए मानव मन तक भी पहुंचती है।  आज समय बदला हुआ है, फाग बदला हुआ है, धारणाएँ और जीवन मूल्य भी करवट बदल रहे हैं परन्तु जो नहीं बदला है वो है मानव मन।  वो आज भी उत्सव में उतना ही प्रफुल्लित होता है जितना पूर्व में होता था परन्तु अब जो कुछ गुम हुआ है वह है उत्सवों को मनाने की लोकधर्मिता। नई पीढ़ी अगर वसंत, फगुनाहट और लोकगीतों से परिचित नहीं है तो यह अधिक आश्चर्य की घटना नहीं है क्योंकि हम ही ने उन्हें इन सब से दूर कर दिया है कभी प्रतियोगिताओं की दौड़ में तो कभी अपनी अपेक्षाओं की आड़ में हम जाने अनजाने उन्हें लोक से दूर कर देते हैं। यों तो वसंत हर मन को रंगता है परन्तु आज की पीढ़ी ऋतु चक्र से अनभिज्ञ है इसका  एक कारण प्रकृति से दुराव है। जो शीतल हवा का झोंका मानव मन को राहत पहुँचा सकता है उसके ज़ख्मों पर नरम फोहे सा आश्वासन रख सकता है  प्रकृति के ऐसे रहस्यों से नयी पीढ़ी अनभिज्ञ है।  वसंत जीवनरूपी यज्ञ का अमृत है, आयुष्य है जिससे जीवन को सरस होने की ऊर्जा तैयार होती है।  धरती का अद्भुत सौन्दर्य वसंत में ही दीख पड़ता है क्योंकि पीले अमलतास  और टेसू फाग में जमकर हुलसते हैं  और यही कारण है कि हर कानन वासंती रंग में मचल उठता है।  इस समय प्रकृति  दाता भाव से भर उठती है। वस्तुतः वसंत हर मन को भरने की चेष्टा करता है परन्तु आज के इस कल युग में ठहरकर विचार करने या दूसरे को भरने का भाव कहाँ है आज तो मन स्वयं ही रीता है, बुझा है और यही शायद प्रकृति में भी प्रतिबिम्बित हो रहा है । रूखा और रीता मन रास और राग को भूल ज़िंदगी के गुणा भाग में उलझा है। क्या वाकई वसंत की मोहकता कम हो गई है.?  अगर देखा जाए तो आज वसंत की फगुनाहट अवसाद में है, जो मादकता उसकी बयार में बहा करती है वह शीत के चलते ठिठकी हुई है।  जो सरसों फागुन में उल्लास बिखेरती हुई अपने सम्पूर्ण यौवन पर रहती है वह सहमी सी है यही हाल रबी की अन्य फसलों का भी है। जिस ऋत में वनस्पतियों में रस उत्पन्न होता है, धरा नाना फूलों के खिलने से धानी चुनर ओढ़ लेती है आज वह कभी अप्रत्याशित वर्षा से तो कभी शीत से जूझ रही है। कोयल की कूक अब सुनाई नहीं पड़ रही है क्योंकि वसंत का मिज़ाज अब बदल रहा है। प्रकृति के संसाधनों का हमने इतना अधिक दोहन कर लिया है कि ऋतु चक्र गड़बड़ा गया है।  लगातार बढ़ते इस असंतुलन और मनुष्य की स्वार्थी और भोगवादी दृष्टि का परिणाम यह है कि न केवल मौसम का मिजाज  बदल रहा है  और वसंत काल छोटा हो गया है वरन् इस बदलाव से किसान का मन भी उदास हो गया है।  जो मौसम कलाओं का है, राग रागिनियों का है वह अलसाया हुआ है।  जिस ऋतु के बारे में श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि ऋतुओं में मैं वसंत हूँ वही मौसम जलवायु परिवर्तन की मार सहते सहते हमसे रूठ गया है  और शायद यही कारण है कि आज का युवा इस मौसम की जादुई छुअन को महसूस नहीं कर पा रहा है। आज कश्मीर की वादियां  गुलजा़र नहीं है, झरनों की कल कल का स्वर मद्धम सा सुनाई देता है ऐसे में आज न केवल आवश्यकता है हम सभी को एकजुट होकर प्रकृति के दाता भाव को, अहो भाव को स्वीकार करने की। इससे भी  कहीं अधिक उसे सहेजने की क्योंकि यह मौसमी अनियमितता इस धरा के जीवन के लिए अनुकूल नहीं है।


अगर देखा जाए तो वसंत का आगमन केवल प्रकृति के भौतिक उपादानों पर ही नहीं आता वरन् मनुष्य की चेतना में भी आता है और इस  आतंरिक वसंत का आगमन तब ही होता है जब मनुष्य के अंतरमन में अंतश्चेतना के फूल खिलते हैं। वो प्रकृति में रमता है, उसके बीच एक उमग का अनुभव करता है। वस्तुतः बीज रूप में उल्लास और आनंद तो हर मन में छिपा है बस उसे खिलने के लिए अनुकूल परिस्थितियों और ज़मीन की आवश्यकता होती है।  जब वह ज़मीन मिल जाती है तो फिर तन और मन में महावसंत का क्रांतिकारी आगमन होता है। इसीलिए इसे ऋतुराज की संज्ञा से भी नवाजा गया है क्योंकि यह चेतना के अभ्युदय का भी काल है इसीलिए शायद इसका वासंती रंग जोगियों और सूफी फकीरों का भी पसंदीदा रंग है।  यह समय है संकल्पों का इसीलिए आज जरूरत है प्रकृति का आभार व्यक्त कर उसके खोये संतुलन को लौटाने के प्रयासों का जिससे यह धरा और आकाश फिर से राग, आग और फाग में डूब जाए और हर मन संगीत की वासंती बंदिशों में समाधिस्थ हो जाए। इस ऋतु में जहां कण कण में प्रेम पलता है उस समय ऐसे संकल्प लिए जाए जिससे प्रकृति चहक उठे, जिस अवसाद और धुंध की चादर में अभी वो लिपटी है वो दूर हो जाए और रंग पर्व की इस श्रृंगारिक ऋतु में वसंत का वह खोया हुआ यौवन सरसों की पीली साड़ी में लिपटा हुआ लौट आए जिसे देख साहित्य मचल उठता थावस्तुतः अबीर और गुलालों के रंगों की सार्थकता तभी है जब प्रकृति स्वस्थ होगी नहीं तो यह लोकउत्सव और फागुन की बयार अनमनी हो जाएगी आइए चेतना के इस महोत्सव पर हम एक होने और विवेकशील होने का संकल्प लें क्योंकि केवल इसी संकल्प के साथ हम महत्त्वपूर्ण कवियों के शाब्दिक बिंबों को वास्तविक आकार दे पाएंगें और गा पाएंगे-“ सखि राग ,फाग और आग को संग ले.. देखो फिर फिर आया है बसंत..."