Thursday, September 29, 2016

स्त्री जीवन के अधखुले पन्ने 3

अच्छा प्रयास है पिंक... ना सुनने का अादी नहीं है ना ये समाज, मालूम है हमें यह बात, सो नया कुछ नहीं है, पर ज़रूरी है ये बातें यूँ कहना,बताना भी ...
वो निर्णायक होंगे आपकी झिझक को हथियार बनाएंगें... आपके जीवन के कमजोर पडे़ पक्षों को इतनी कोमलता से सहलाएंगे कि वो जख़्म फ़िर से हरे हो जाएंगे। स्त्री जीवन की त्रासदी को देख, सुन, महसूस कर मन इतना त्रस्त और हलकान हो चुका है कि इस फिल्म के प्रसंग,घटनाक्रम प्रभावान्विति में सफल नहीं हो पाए पर इसे देखकर जेहन में घुमड़ रहे सभी सवालों ने फिर से फन उठाकर कलम उठाने पर मज़बूर कर दिया।

कामकाजी महिलाओं के लिए समाज के तथाकथित रूग्ण वर्ग की कुत्सित और दकियानूसी सोच जो फिल्म में बतलायी गयी है, ठीक ही बतलायी है। परम्परावादी और स्त्री को अपने कदमों की धूल समझने वाले उस वर्ग के लिए स्त्री आज भी पिंक ही है, वे उसके मानवीय मनोभावों को बाज़ारू घोषित करने की पूरी कोशिश करेंगे और उस कोशिश में कामयाब भी होते हैं।
कितना अच्छा होता कि त्रास झेलती उन लड़कियों के साथ उनका परिवेश भी खड़ा होता... उन लड़कियों को रिश्तों में ही सबसे अधिक छल का सामना ना करना पड़ता, फलक को उसके कार्यस्थल पर अपने सहकर्मियों से कुछ परिपक्व सहेजन मिली होती.। मैं सोचती हूँ, डूबती हूँ और फ़िर जीवन में लौटती हूँ कि यह जीवन है परियों का सजीला देश नहीं।
काश! पुरूष रिश्ते निभाने में स्त्रियों जैसे ही कुछ साहसी और एकनिष्ठ हो पाते और स्त्रियां उनके वर्ग के संघर्ष की कुछ साझेदार बन पाती तो सांस लेने के लिए शायद कुछ और ताज़ी हवा बीमार और थके फेफड़ों को मिल सकती है, पर काश तो काश ही होता है ...
फिल्म का संदेश कि, ना में अगर -मगर की गुंजाइश नहीं होती ठीक है और समाज को भी अब यह बात समझ ही लेनी चाहिए।
स्त्रियों की यौनिकता पर, उसके स्टेटस पर, उसके निर्णयों पर सवाल उठाने और मुंह बिचकाने वाले लोगों के लिए तथा जो स्त्री को स्वतंत्र होते हुए, पंख पसार उड़ते हुए देखने से कुढ़ते हैं उनके लिए ऐसी फिल्मों का निर्माण होता रहना चाहिए... बाकि यह फिल्म ना कहने की हिम्मत के लिए ज़रूर देखी जानी चाहिए क्योंकि मध्यवर्गीय वर्ग आज भी इस ना पर अपनी भृकुटी वक्र कर लेता है...

#रोजनामचा
#स्त्री_जीवन_के_अधखुले_पन्ने_3

Thursday, September 22, 2016

#स्त्री_जीवन_के_अधखुले_पन्ने_2

मैं ना कह तो दूँ पर किसी को ना सुनने की आदत तो हो!!
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women empowerment pics के लिए चित्र परिणाम
भावनाओं के गुलाबी सैलाब में बहते हुए हम स्त्रियाँ, ना को हमारे शब्दकोश का विरोधी शब्द मान बैठती हैं। जब हमारा मन ही ना का आदी नहीं तो फ़िर परिवेश से समझदारी की आशा करना तो बेमानी है ना । दोष इस हामी में इनका कहाँ है, ये कमबख्त लड़कियाँ गर्भ से ही सहनशीलता का रसायन चखकर इंच-इंच बढ़ती हैं । वहां भी संघर्षों से जूझ कर दुनिया की ना को हाँ समझकर जीवन में कदम रखती है पर हर बार एक ना का सामना कर सहम जाती हैं । यह परिवेश उस पर ना की कितनी ओढ़नियाँ ओढ़ाता है, इसे तो गिनना ही संभव नहीं। और इन्हीं जबरन पैराहनों में उसका कोमल मन कहीं छिप जाता है। जमाने की ना उस पर इतनी हावी हो जाती है कि वह अपनी ना भूला बैठती है और अगर कभी अपनी चेतना से ना कह भी दे तो बागी घोषित कर दी जाती है।
आप संदेश देते हैं कि स्त्री की ना का सम्मान होना चाहिए। ज़रा कार्य स्थलों पर गौर फ़रमाइए.. दुगुनी मुस्तैदी से काम करने पर भी यह सामंती मानसिकता उसे दोयम ठहराने का पूरा प्रयास करेगी। उसकी किसी कार्य की असमर्थ ना को वहाँ उसके स्त्रीत्व से जोड़ दिया जाएगा,और फ़िर छींटाकशी। कई महिलाएं ऐसे ही कारणों से अवसाद में आ जाती हैं और बात वही कि वह ना कहने में उतनी सहज नहीं हो पायी जितना कि अन्य वर्ग।
´ना` तो स्वत्व की रक्षा में निर्भया ने भी कही थी और इस लड़की सौम्या जैसी कई अन्याओं ने भी पर क्या वह सुनी गयी? ´ना` तो हर वो स्त्री कहती है जो समाज की क्रूरता का जवाब अपने हौंसले से देती है पर क्या आप उस ना के आदी हैं? ना हर वो स्त्री कहती है जो अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीना चुनती है पर क्या आप उस ना के आदी हैं? क्या आप उसे वह सम्मान दे पाए हैं जिसकी वह अधिकारी है?
शायद नहीं.. बस इसीलिए ना सुनने की आदत डालिए, इसे अपने उस फौलादी अहं पर चोट मत समझिए । हाँ या ना यह उस जीवन के जीने का प्रमाण है जिसे आप खिलखिलाते देखने के आदी नहीं है। ना सुनिए, दुनिया की खूबसूरती शायद आपकी इस आदत से ही कुछ और खिल जाए...बढ़ जाए...
किसी शायर ने ठीक ही तो कहा है..
लफ़्ज़ों के इत्तिफ़ाक़ में, यूँ बदलाव करके देख,
तू देखकर ना मुस्कुरा, बस मुस्कुरा के देख...
ये मुस्कुराहट कटाक्ष के बजाय सम्मान के साथ आए तो कितनी बातें बन सकती हैं... हैं ना?

Thursday, September 15, 2016

आखिर क्यों है यह विरोधाभास ?


ऐसा क्यों है कि विश्व के मानचित्र पर एक ओर भारतीय स्त्री अपनी वैचारिकता औऱ मेधा में सबसे उल्लसित औऱ तेज चमकती हुई दिखाई देती हैं वही दूसरी ओऱ वह अब भी अपनी मुक्ति के लिए संघर्षरत दिखाई देती है? यह विरोधाभास क्यों है कि कोई स्त्री इतनी सशक्त होती है औऱ कोई घोर अशक्त। इस समूचे वाद में केन्द्रीय प्रश्न पर ही सुई ठहरती है कि आखिर क्यों देहरी के बाहर हो या भीतर प्रभावशाली वर्ग स्त्री के हक की बात सुनने में उससे रूप या देह की मांग करता है? हमारा यह परिवेश स्त्री को लेकर कितना विचित्र है, यह उसके साथ घटती नाना प्रकार की घटनाओं से स्वयं सिद्ध हो जाता है। कहीं यही उसे यत्र नार्यस्तु पूज्यन्तेकी तर्ज़ पर  शक्ति के पद पर आसीन करता है तो कहीं यही उसे अबला बना कर क्रूर अट्टहास करता है। एक तरफ़ हमारे ही बीच से इंदिरा नूयी फॉर्चून पत्रिका में अमेरिका में दूसरे पायदान पर  ताकतवर महिला के रूप में चुनी जाती है वहीं देश की अनेक महिलाएँ देह और देहरी के बीच शोषण से अब भी जूझ रही है।  पत्रिका में ही अमेरिका से बाहर एसबीआई प्रमुख अरूंधति भट्टाचार्य, आईसीआईसीआई बैंक प्रमुख चंदा कोचर और एक्सिस बैंक की सीईओ शिखा शर्मा ताकतवर महिला बैंकर्स के रूप में विश्व को अपनी दमदार छवि का प्रदर्शन करती हुई देश का नाम रोशन करती हैं। दूसरी ओर खबर देश की राजधानी दिल्ली से यूँ भी आती है कि 24 महिला सैनिक अपने एक ऑफिसर के खिलाफ यौन उत्पीड़न से त्रस्त होती दिखाई देती है। इंदिरा नूयी अपने वक्तव्य में अपनी कामयाबी का श्रेय अपनी परवरिश,परिवेश औऱ भारत से जुड़ाव को देती है तो सवाल खड़ा होता है कि फिर आखिर क्यों वही परिवेश अन्य महिलाओं के लिए बेड़ियां बन जाता है?   
कैसा विरोधाभास है कि कोई इसी परिवेश को अपनी सफलता की ज़ानिब बताता है तो अन्य इसी परिवेश में अपनी मूलभूत अधिकारो के लिए ही तरसता रह जाता है। कोई पूर्ण स्वतंत्र है तो कोई अपने निर्णय लेने में असक्षम? दरअसल इन विरोधाभासों की पृष्ठभूमि हमारा परिवेश तय करता है। होता यूँ है कि किसी वर्ग को प्रभु होने का अवसर दमित वर्ग ही प्रदान करता है। परिवेश ने स्त्री को सदा कोमल और कमज़ोर कहकर हाशिए पर रखा। साथ ही स्त्रियों के लिए सामाजिक परिवेश का एक बड़ा हिस्सा भी हमेशा से ही नकारात्मक भूमिका में रहा है। उसने उसके  देह के साथ-साथ हँसने, बोलने, खेलने, पहनने जैसी स्वाभाविक क्रियाओं को भी बेड़ियों में बाँधा। समाज की बंध्या सोच का आलम यह है कि शिक्षित औऱ सम्पन्न परिवार भी संस्कारों की आड़ में, उसे परवरिश में अपने हक औऱ हकूक की बात करने का ज़ज़्बा नहीं दे पाते । इसीलिए एक आम  महिला, एक शक्ति बनने में ,अर्थव्यवस्था में अपनी सक्रिय भागीदारी तय करने में, पिछड़ जाती है।
विडम्बना है कि हमारी संस्कृति आधुनिक होने का दावा तो करती है पर प्रगतिशीलता को ख़ारिज़ करती है। वह स्त्री का अस्तित्व स्वीकारती तो है परन्तु सकारात्मकता के साथ उसे अपने अधिकार देने में  झिझकती है यही कारण है कि लैंगिक असमानता के अनेक प्रसंग हमारे सामने आ जाते है। देश की राजधानी से महिला पुलिस के साथ छेड़छाड़ की सामूहिक घटना का सामने आना चौंकाने वाला है। जब दूसरों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने वाली महिलाएँ इस कदर यौन उत्पीड़न और छेड़छाड़ का शिकार हो सकती हैं तो आम महिलाओं की तो बिसात ही क्या। यह पहली मर्तबा नहीं है जब महिलाओँ की चाल-ढाल, रंग को लेकर छींटाकशी की गयी हो या अपने प्रभाव के माध्यम से उन्हें धमकाने औऱ प्रलोभन का प्रयास किया गया हो। अनेक-अनेक प्रसंग लगभग रोज़ समाचारों की सुर्खियों में तैरते मिलेंगें जहाँ स्त्री शोषित की भूमिका में स्पष्ट नज़र आती है। अभियानों, आंदोलनों के बावजूद हालात बदलते नज़र नहीं आ रहे हैं कारण है कि स्त्री के अस्तित्व के प्रति स्वीकार भाव अभी भी समाज में नहीं आ पाया है। मानव जाति में स्त्री का पृथक अस्तित्व एक तथ्य है परन्तु यह तथ्य मानवता के आधे हिस्से के रूप में है ना कि नारीत्व के खतरे के रूप में। समाज उसे कमतर आंकता है औऱ अपने प्रभुत्व के तिलिस्म से उस पर अधिकार हासिल करता है। लड़की का भीरू स्वभाव, चरित्र और आचरण परिस्थिति और सामाजिक ढाँचें की उपज है। यदि परिस्थितियाँ बदली जाएँ तो अनेक महिलाएं अरूधंति भट्टाचार्य या इंदिरा नूयी बन सकती है। परन्तु य़थार्थ इसके उलट है। एन सी आर बी रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर रोज 60 दुष्कर्म की घटनाएं घटती हैं । महिलाओँ की सुरक्षा की दृष्टि से  मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश,महाराष्ट्र और दिल्ली देश में सर्वाधिक असुरक्षित हैं। कारण यही है कि महिला उत्पीड़को के मन में ना तो कठोर न्यायिक व्यवस्था का भय है ना ही कठोर सामाजिक अंकुश ऐसे में लगातार घटती घटनाएं भय पैदा करती है साथ ही अन्य स्त्रियों के लिए भी सामाजिक दायरे को औऱ कठोर कर देती है।


हमें यह मानना होगा कि जब तक पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे में वैचारिक क्रांति के प्रयास नहीं किए जाते, छुटपन से ही मानसिकता में समानता के बीज नहीं बोये जाते,स्त्री मुक्ति का वास्तविक परचम नहीं फहराया जा सकता है। स्त्री को उसकी वास्तविक पहचान दिलाने के लिए समाज को अपना दकियानूसी खोल  उतारना होगा तभी शोषण और विद्रूपता का यह खेल वाकई समाप्त हो पाएगा ।  यह विरोधाभास सालता है कि एक तरफ स्त्री शक्ति के नाम सर्वाधिक शक्तिशाली महिलाओँ के नामों में शुमार होते हैं तो वहीं वह देह के घेरे में वह अब भी कैद नज़र आती है। रोजगार  औऱ समाज का कोई  भी स्तर हो स्त्रियाँ वहाँ सुरक्षित नहीं है। उन्हें वास्तविक सुरक्षा प्रदान सोच में बदलाव लाकर ही की जा सकती है। सशक्त होती स्त्रियाँ सिद्ध करती हैं कि वे इल्म औऱ हुनर में किसी से कम नहीं है औऱ अगर उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाए तो वे भी सांतवे आसमान को छूने का हुनर रखती हैं।