Saturday, September 14, 2019

चप्पा_चप्पा_चरखा_चले

कुछ बातें सौंधी मिट्टी सी आपको खींचती है , सीला कर जाती हैं और मन का भीतरी कोना एकाएक महका जाती हैं ।अदीबों की इस क़ारीगरी को किसी ने चारागरी कहा तो किसी ने कीमिया कह कर उसे पारलौकिक सिद्ध करने का प्रयास तक कर दिया ।

जाने कितने ऐसे गीत हैं जो मन को गुदगुदाते हैं ; ठीक उस निष्ठुर की तरह जो गर सामने बैठा हो तो ना आप उसे देख पाएँ और ना ही वो आपको; पर योंही चुप मन एक मन से पीठ सटाए जाने कितनी बातें कर जाता है ; चुपचाप!

भीड़ में एकाएक किसी स्मृति से  गालों पर ललाई फूट पड़े और दूसरी ओर अनेक आँखें प्रश्नों के साथ टिक जाए तो ; दोनों का सामना फिर प्रशासनिक सवाल-ज़वाबों से कम नहीं होता जान पड़ता । और फिर तैर जाता है “औनी-पौनी यारियाँ तेरी बौनी-बौनी बेरियोँ तले” सा कोई अफ़साना ।

जीवन जीने के कितने साज-ओ-सामान हैं ; पागल प्रेमी इस के स्वाद को बख़ूबी जानते हैं सो सुलग-सुलग कर जीते हैं ; यह सुलगन चंद मुलाक़ातों की भेंट चढ़ सकती है पर कोई सहेज कर रखता है पवित्र स्मृतियों को उम्र भर के लिए ; उसी सीली माचिस की डिबिया में बारूद के साथ।

माचिस फ़िल्म में गुलज़ार के बोलों से सजा और हरिहरन और सुरेश वाडकर का गाया गीत है -“चप्पा चप्पा चरखा चले”।गीत के बोल जाने कितने कोमल एहसासों को समेटे हुए हैं कि काश्मीर के शीत में भी भावनाओं का ताप सुलगाने की कुव्वत रखता है।

गोरी चटखारे जो कटोरी से खिलाती थी ....कच्ची मुँडेर के तले की जाने कितनी बातें हर मन के चूल्हे को जलाती है...

चुन्नी लेकर सोती थी कमाल लगती थी ...ज्यों स्मृति में कोई शरारत छिपी हो ; कोई अक्स अपनी शोख़ी के साथ ठोढी को थपक दे रहा हो , कोई ओट से चुप झाँक सब देख रहा हो ;  तैर जाता है ।

यारियों और बौनी बेरियों  का यह गीत जाने कितनी महीन रेखाएँ दो हथेलियों पर खींच जाता है; चार आँखों के मिलने की बात को आम कर जाता है ; कितनी अनुपस्थियों को अबीर गुलाल-सा गालों पर सजा जाता है ।

वाकई प्रेम चरखे का सूत तो हर चप्पे पर यों ही  कतता दिखाई देता है ।

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विमलेश शर्मा