फगुनाहट हवाओं में है और शायद इसी आहट
से प्रेम के रंग में तन और मन दोनों सराबोर हो उठे हैं । शायद हर मन श्याम और राधा भाव में भीगा है इसीलिए तो मौसम भी चहकने
लगा है। जब फागुन रंग इतनी शिद्दत से झमकते हो किसी भी मन का बौरा जाना स्वाभाविक है। फागुन अपने साथ रंग और रास लेकर आता है यही कारण है
कि जब हर मन शीत में किसी कोने में दुबका
होता है तो यह चुप से उसे बाहर निकालने का प्रयास करता है।ऋतु चक्र में परिवर्तन
को लेकर वसंत झूमकर प्रकृति की यात्रा पर
निकलता है और वनस्पतियों की शिराओं को नव
औषधि प्रदान करता
है। यह औषध अपना व्यापक
प्रभाव डालते हुए मानव मन तक भी पहुंचती
है। आज समय
बदला हुआ है, फाग बदला हुआ है, धारणाएँ
और जीवन मूल्य भी करवट बदल रहे हैं परन्तु जो नहीं बदला है वो है मानव मन। वो आज भी उत्सव में उतना ही प्रफुल्लित होता है
जितना पूर्व में होता था परन्तु अब जो कुछ गुम हुआ है वह है उत्सवों को मनाने की लोकधर्मिता। नई पीढ़ी अगर वसंत, फगुनाहट और लोकगीतों
से परिचित नहीं है तो यह अधिक आश्चर्य की घटना नहीं है क्योंकि हम ही ने उन्हें इन
सब से दूर कर दिया है।
कभी प्रतियोगिताओं की
दौड़ में तो कभी अपनी अपेक्षाओं की आड़ में हम जाने अनजाने उन्हें लोक से दूर कर देते हैं। यों तो वसंत हर मन को रंगता है परन्तु आज
की पीढ़ी ऋतु चक्र से अनभिज्ञ है।
इसका एक कारण प्रकृति से दुराव है। जो शीतल हवा का झोंका मानव मन को राहत
पहुँचा सकता है उसके ज़ख्मों पर नरम फोहे सा आश्वासन रख सकता है प्रकृति के ऐसे रहस्यों से नयी पीढ़ी अनभिज्ञ है। वसंत जीवनरूपी यज्ञ का अमृत है, आयुष्य है जिससे
जीवन को सरस होने की
ऊर्जा तैयार होती है। धरती का अद्भुत सौन्दर्य वसंत में ही दीख पड़ता है क्योंकि पीले अमलतास और टेसू फाग में जमकर हुलसते हैं और यही कारण है
कि हर कानन वासंती रंग में मचल उठता
है। इस समय प्रकृति दाता भाव से भर उठती है। वस्तुतः वसंत हर मन को भरने की चेष्टा करता है परन्तु
आज के इस कल युग में ठहरकर विचार करने या दूसरे को भरने का भाव कहाँ है आज तो मन स्वयं
ही रीता है, बुझा है और यही शायद प्रकृति में भी प्रतिबिम्बित हो रहा है । रूखा और रीता मन रास और राग को
भूल ज़िंदगी के गुणा
भाग में उलझा है। क्या वाकई वसंत की मोहकता कम हो गई है.? अगर देखा जाए तो आज वसंत की फगुनाहट अवसाद में
है, जो मादकता उसकी बयार में बहा करती है वह शीत के चलते ठिठकी हुई है। जो सरसों फागुन में उल्लास बिखेरती हुई अपने सम्पूर्ण यौवन पर रहती
है वह सहमी सी है यही हाल रबी की अन्य फसलों का भी है। जिस ऋत में वनस्पतियों में रस
उत्पन्न होता है, धरा नाना फूलों के खिलने से धानी चुनर ओढ़ लेती है आज वह कभी अप्रत्याशित
वर्षा से तो कभी शीत से जूझ रही है। कोयल की कूक अब सुनाई नहीं पड़ रही है क्योंकि
वसंत का मिज़ाज अब बदल रहा है। प्रकृति के संसाधनों का हमने इतना अधिक दोहन कर लिया
है कि ऋतु चक्र गड़बड़ा गया है। लगातार बढ़ते
इस असंतुलन और मनुष्य की स्वार्थी और भोगवादी दृष्टि का परिणाम यह है कि न केवल मौसम
का मिजाज बदल रहा है और वसंत काल छोटा हो गया है वरन् इस बदलाव से किसान
का मन भी उदास हो गया है। जो मौसम कलाओं का
है, राग रागिनियों का है वह अलसाया हुआ है।
जिस ऋतु के बारे में श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि ऋतुओं में मैं वसंत हूँ
वही मौसम जलवायु परिवर्तन
की मार सहते सहते हमसे
रूठ गया है और शायद यही कारण है कि आज का युवा
इस मौसम की जादुई छुअन को महसूस नहीं कर पा रहा है। आज कश्मीर की वादियां गुलजा़र
नहीं है, झरनों की कल कल का स्वर मद्धम सा सुनाई देता है ऐसे में आज न केवल आवश्यकता
है हम सभी को एकजुट होकर प्रकृति के दाता भाव को, अहो भाव को स्वीकार करने की। इससे भी कहीं अधिक उसे सहेजने की क्योंकि यह मौसमी अनियमितता इस धरा के जीवन के
लिए अनुकूल नहीं है।
अगर देखा
जाए तो वसंत का आगमन केवल प्रकृति के भौतिक उपादानों पर ही नहीं आता वरन् मनुष्य की
चेतना में भी आता है और इस आतंरिक वसंत का
आगमन तब ही होता है जब मनुष्य के अंतरमन में अंतश्चेतना
के फूल खिलते हैं। वो प्रकृति में रमता है, उसके बीच एक उमग का अनुभव करता है। वस्तुतः बीज रूप में उल्लास और आनंद तो हर मन में छिपा है बस उसे खिलने के लिए अनुकूल
परिस्थितियों और ज़मीन की आवश्यकता होती है।
जब वह ज़मीन मिल जाती है तो फिर तन और मन में महावसंत का क्रांतिकारी आगमन होता
है। इसीलिए इसे ऋतुराज की संज्ञा से भी नवाजा गया है क्योंकि यह चेतना के अभ्युदय का
भी काल है इसीलिए शायद इसका वासंती रंग जोगियों और सूफी फकीरों का भी पसंदीदा रंग है। यह समय है संकल्पों का इसीलिए आज जरूरत है प्रकृति
का आभार व्यक्त कर उसके खोये संतुलन को लौटाने के प्रयासों का जिससे यह धरा और आकाश
फिर से राग, आग और फाग में डूब जाए और हर मन संगीत की वासंती बंदिशों में समाधिस्थ हो जाए। इस ऋतु में जहां कण कण में प्रेम पलता है
उस समय ऐसे संकल्प लिए जाए जिससे प्रकृति चहक उठे, जिस अवसाद और धुंध की चादर में अभी
वो लिपटी है वो दूर हो जाए और रंग पर्व
की इस श्रृंगारिक ऋतु
में वसंत का वह खोया हुआ यौवन सरसों की पीली साड़ी में लिपटा हुआ लौट आए जिसे देख
साहित्य मचल उठता था।
वस्तुतः अबीर और
गुलालों के रंगों की सार्थकता तभी है जब प्रकृति स्वस्थ होगी नहीं तो यह लोकउत्सव और
फागुन की बयार अनमनी हो जाएगी ।आइए
चेतना के इस महोत्सव पर हम एक होने और विवेकशील होने का संकल्प लें क्योंकि केवल इसी
संकल्प के साथ हम महत्त्वपूर्ण कवियों के शाब्दिक
बिंबों को वास्तविक आकार दे पाएंगें और गा पाएंगे-“ सखि राग ,फाग और आग
को संग ले.. देखो फिर फिर आया है बसंत..."
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