स्त्रियों की दासता की एक लम्बी कहानी है। सभ्यता के शुरूआती दौर से ही शायद उसे दोयम ठहराने की क़वायद शुरू हो गई थी। उसके सौन्दर्य , वैचारिक उच्चता , संतुलन की योग्यता, श्रेष्ठता या मानवीय मनोभावों की उच्च भूमि को देख उसे बंधन में रखने की इच्छा बलवती हुई और इस प्रक्रिया में उस पर नाना भाँति के बंधन लगाए गए। उसे शिक्षा से वंचित रखा गया और चहारदीवारी के एक सीमित दायरे तक समेट दिया गया। कभी उसे हिजाब में आपादमस्तक ढका गया और कभी नाना भाँति की रवायतों में जकड़ा गया।
जब उसने प्रतिकार किया तो एक चिंतन सामने आया जिसे स्त्रीवाद के नाम से जाना जाने लगा। पर यह चिंतन, स्त्री-विमर्श उसमें ठीक उसी समय जाग्रत हो गया था , जब उसे मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया। वर्तमान में बहुत कुछ सुखद है पर कितना कुछ सुखद है यह भी विदित है ही।
यहाँ फिलवक्त सौम्या स्वामीनाथन के निर्णय पर बात हो रही है।उसने हिजाब की बाध्यता के चलते एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लेकर ईरान में शतरंज चैम्पियनशिप की एक महत्त्वपूर्ण प्रतिस्पर्धा, एशियन टूर्नामेंट से खुद को अलग कर लिया है। सवाल उठता है कि एक तरफ़ डेनमार्क जैसे अन्य देश हैं जो हिज़ाब के ख़िलाफ़ फ़ैसले लेकर स्त्री के हक़ में खड़े हो रहे हैं वहीं मुस्लिम देश अभी भी कट्टरवादी मानसिकता को लेकर जी रहे हैं, चिंतनीय है।
इस्लाम की कट्टरता कई मायनों में उसके मानवीय होने पर प्रश्नचिह्न लगाती है। अगर हर धर्म की रवायत का सम्मान किया जाए तो भी मुझे हिजाब कभी भी स्त्री के हक. में खड़ा नज़र नहीं आता। हिजाब और तीन तलाक़ जैसे मुद्दे सदैव एक टीस देते रहे हैं। स्त्री को हिजाब मे सिर्फ़ इसलिए रखना कि यह इस्लाम की रवायत है तो उसका या ऐसी ही कोई मान्यता जो किसी अन्य धर्म से संबंधित हो , परन्तु वह मूल अधिकारों की जद में आए तो उसका प्रतिकार ज़रूरी है।
29 वर्ष की स्वामीनाथन भारत में शतरंज की पांचवी रैंक की खिलाड़ी है। उधर ईरान में महिलाओं के लिए , धार्मिक मान्यता के चलते सिर पर हिज़ाब रखना अनिवार्य है और इसी की पालना वहाँ जाने वाले खिलाड़ियों को भी करनी होगी ;यह सोच वाकई मानवाधिकारों का हनन है। फ़िलहाल सौम्या के ईरान ना जाने के निर्णय से वे एशियन टूर्नामेंट से बाहर हो गईं हैं परन्तु जब बात अपने साथ-साथ अपने वर्ग के हकूक के लिए हो तो स्वयं को हवि करना ही होता है और यूँही हिजाब जैसे पैरहन को परचम बना लेना होता है।
किसी भी व्यक्ति ख़ासकर खिलाड़ी पर अगर वो उस देश का नागरिक नहीं है तो धार्मिक पहनावे को थोपने की कोई गुंजाइश होनी ही नहीं चाहिए। वस्तुत: ऐसी संकीर्ण सोच वाले देश को मेज़बानी का मौक़ा ही क्यों दिया जाए, विचार तो यहाँ भी किया जाना चाहिए| ऐसे मुद्दों पर गर देश का प्रतिनिधित्व भी मूक हो तो मुद्दे सदियों तक मुद्दे ही बने रह जाते हैं। ईरान की कट्टरता कई मामलों में हमारे सामने है।
खिलाड़ियों को बहुत से मोर्चों पर क़ुर्बानियाँ देनी होती है , बहुत से मुद्दे चाहे वे सुरक्षा को लेकर हो या सुविधाओं को लेकर उन्हें समझौता करना पड़ता है, ऐसे में हिजाब की अनिवार्यता जैसे तुग़लक़ी फ़रमान मनुष्यता के मसले पर फिर-फिर सोचने को मजबूर करते हैं।
हाँ यहाँ पर सरकार को भी दखल देना चाहिए था.. हो सकता है ज़ल्द ही इस दिशा मे कुछ क़दम उठाए जाएं पर फ़िलहाल तो सौम्या का निर्णय है और हमारी तालियाँ । हालाँकि ऐसा करने वाली वे पहली नहीं हैं पर इस प्रतिरोध को जारी रखने वाली वे कड़ी बनी इसकी ख़ुशी है।
#तेरे_हक़_में_यह_उत्सर्ग
जब उसने प्रतिकार किया तो एक चिंतन सामने आया जिसे स्त्रीवाद के नाम से जाना जाने लगा। पर यह चिंतन, स्त्री-विमर्श उसमें ठीक उसी समय जाग्रत हो गया था , जब उसे मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया। वर्तमान में बहुत कुछ सुखद है पर कितना कुछ सुखद है यह भी विदित है ही।
यहाँ फिलवक्त सौम्या स्वामीनाथन के निर्णय पर बात हो रही है।उसने हिजाब की बाध्यता के चलते एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लेकर ईरान में शतरंज चैम्पियनशिप की एक महत्त्वपूर्ण प्रतिस्पर्धा, एशियन टूर्नामेंट से खुद को अलग कर लिया है। सवाल उठता है कि एक तरफ़ डेनमार्क जैसे अन्य देश हैं जो हिज़ाब के ख़िलाफ़ फ़ैसले लेकर स्त्री के हक़ में खड़े हो रहे हैं वहीं मुस्लिम देश अभी भी कट्टरवादी मानसिकता को लेकर जी रहे हैं, चिंतनीय है।
इस्लाम की कट्टरता कई मायनों में उसके मानवीय होने पर प्रश्नचिह्न लगाती है। अगर हर धर्म की रवायत का सम्मान किया जाए तो भी मुझे हिजाब कभी भी स्त्री के हक. में खड़ा नज़र नहीं आता। हिजाब और तीन तलाक़ जैसे मुद्दे सदैव एक टीस देते रहे हैं। स्त्री को हिजाब मे सिर्फ़ इसलिए रखना कि यह इस्लाम की रवायत है तो उसका या ऐसी ही कोई मान्यता जो किसी अन्य धर्म से संबंधित हो , परन्तु वह मूल अधिकारों की जद में आए तो उसका प्रतिकार ज़रूरी है।
29 वर्ष की स्वामीनाथन भारत में शतरंज की पांचवी रैंक की खिलाड़ी है। उधर ईरान में महिलाओं के लिए , धार्मिक मान्यता के चलते सिर पर हिज़ाब रखना अनिवार्य है और इसी की पालना वहाँ जाने वाले खिलाड़ियों को भी करनी होगी ;यह सोच वाकई मानवाधिकारों का हनन है। फ़िलहाल सौम्या के ईरान ना जाने के निर्णय से वे एशियन टूर्नामेंट से बाहर हो गईं हैं परन्तु जब बात अपने साथ-साथ अपने वर्ग के हकूक के लिए हो तो स्वयं को हवि करना ही होता है और यूँही हिजाब जैसे पैरहन को परचम बना लेना होता है।
किसी भी व्यक्ति ख़ासकर खिलाड़ी पर अगर वो उस देश का नागरिक नहीं है तो धार्मिक पहनावे को थोपने की कोई गुंजाइश होनी ही नहीं चाहिए। वस्तुत: ऐसी संकीर्ण सोच वाले देश को मेज़बानी का मौक़ा ही क्यों दिया जाए, विचार तो यहाँ भी किया जाना चाहिए| ऐसे मुद्दों पर गर देश का प्रतिनिधित्व भी मूक हो तो मुद्दे सदियों तक मुद्दे ही बने रह जाते हैं। ईरान की कट्टरता कई मामलों में हमारे सामने है।
खिलाड़ियों को बहुत से मोर्चों पर क़ुर्बानियाँ देनी होती है , बहुत से मुद्दे चाहे वे सुरक्षा को लेकर हो या सुविधाओं को लेकर उन्हें समझौता करना पड़ता है, ऐसे में हिजाब की अनिवार्यता जैसे तुग़लक़ी फ़रमान मनुष्यता के मसले पर फिर-फिर सोचने को मजबूर करते हैं।
हाँ यहाँ पर सरकार को भी दखल देना चाहिए था.. हो सकता है ज़ल्द ही इस दिशा मे कुछ क़दम उठाए जाएं पर फ़िलहाल तो सौम्या का निर्णय है और हमारी तालियाँ । हालाँकि ऐसा करने वाली वे पहली नहीं हैं पर इस प्रतिरोध को जारी रखने वाली वे कड़ी बनी इसकी ख़ुशी है।
#तेरे_हक़_में_यह_उत्सर्ग
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