Monday, June 18, 2018

ज़रा_ज़रा_सी_खिली_तबीयत_ज़रा_सी_ग़मगीन_हो_गई_है

कुछ अल्फ़ाज़ सिर्फ़ और सिर्फ़ महसूस किए जा सकते हैं...! क्या कीजिए फिर कि स्याही के ये निशाँ सीधे दिल पर दस्तक देते हैं...।

ऐसा ही ठीक ऐसा ही लिखा जाना चाहिए कि पढ़कर महुआ के चुप नाद को बूँद-बूँद महसूस किया जा सके,  किसी हरसिंगार का माँग पर हौले से आ ठहरना महसूस किया जा सके। बात बरस जाने में , खिल जाने में नहीं है उस क्रिया की प्रक्रिया में है, , बनकर देखने भर से, नज़र -नज़र के फेर  से चीज़ें बदल जाया करती हैं।

ठीक उसी तरह जैसे ज़माने के बीच आने से जो सबसे पहले ग़ायब होती है , वह है मासूमियत। नहीं?  ज़रा टटोलिए अपनी तस्वीरों को सच वे खुद बयां कर देंगी। सुख छिपने में है , नेपथ्य में है इसीलिए माँ कहती है दुनिया के मंच पर उतरना तो धीर होकर और खिलना तो अलसायी धूप होकर।

कहा जाता है कि लिखने वाले सिरफिरे होते हैं , बात-बेबात कुछ भी लिखते रहते हैं । कोई उसे कहानी कह देता है , कोई आलाप भर तो कोई कविताई दरअसल वह अपने लिखे से कबीर के ही उस लिखे की लकीर को ही कुछ और लम्बी करता रहता है कि लिखना तो खुद ही को , उस ईश्वर को कुछ और जानने की यात्रा में उठाया गया या कि ठहरा हुआ एक शांत क़दम है। कबीर ने यही तो कहा कि , यह जिनि जानो गीत है, यह तो निज ब्रह्म विचार!

जिहाल-ए-मस्ती मकुन-ब-रन्जिश,बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है !फ़िलहाल पार्श्व में यह गीत बज रहा है और खिड़की पर तिर्यक चाँद ,ज़ेहन में कहीं कबीर तो कहीं बिहारी अब सोच लिजिए क्या कुछ गुज़रने वाला है अहसासातों से लबरेज़ समन्दर पर। उठते ज्वार के बीच उसे देखना सुखद है। ठीक उसी तरह कि,”वो आके पहलू में ऐसे बैठे ,के शाम रंगीन हो गई है  ।

यह गीत प्रिय गीतों में से एक है, क़रीब है और सुनते ही शाम रंगीन हो जाती है।गुलज़ार साहब के लिखे को सिर्फ़ पढ़ा या सुना नहीं जा सकता। वो भीतर उतरता भी है और आँसुओं में ढुलकता भी है।

ललित कलाएँ इसीलिए तो रेचक कहलाती हैं और साथ ही रोचक भी,  मनश्चिकित्सा के लिए प्रभावी , कारगर और असरदार भी। सो बुनिए, गुनिए, गुनगुनाइए क्योंकि तिश्नगी की हद तक जाकर ही तिश्नगी से मुक्ति संभव है।

#ज़रा_ज़रा_सी_खिली_तबीयत_ज़रा_सी_ग़मगीन_हो_गई_है

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