एल्बर्ट आइन्सटाइन का कथन है “अगर आप अपने बच्चे
को बुद्धिमान बनाना चाहते है तो उन्हें परी कथाएँ पढ़ाएं और अगर आप उन्हें और
अधिक बुद्धिमान बनाना चाहते हैं तो और अधिक परी कथाएँ पढ़ाएं।“ निः सन्देह आइन्सटाइन ने यह कथन बच्चों में सृजनात्मकता उत्पन्न करने
के लिए ही कहा होगा लेकिन आज तकनीक और आधुनिकता के इस हाइटैक दौर में परीलोक की इन
कथाओं का वजूद समाप्त हो रहा है। इन्टरनेट, मोबाइल व सिनेमा के युग में बचपन
निरन्तर खोता जा रहा है। हम पंचतंत्र एवं सिंहासन बत्तीसी व दादी नानी से परियों
की जिन कहानियों को पढ़कर बड़े हुए हैं वे आज के बचपन के लिँए आउटडेटेड हो चुकी हैं।
आज विज्ञान का युग है, विकास का युग है, प्रतिस्पर्धा का युग है, और इसी यांत्रिक युग ने बच्चों से उनकी मासूमियत भी छीन
ली है। एक बेपरवाह और उन्मुक्त बचपन आज अति जागरूक अभिभावकों की अपेक्षाओं के भेंट
चढ़ गया है। आधुनिक गैजेटनुमा अस्त्रों ने बच्चों को साहित्य़ रूपी पारस से पूर्ण
रूपेण वंचित कर दिया है। वर्तमान में बचपन रूपी इस पौधे के विकास के लिए सृजनात्मकता
की परम आवश्यकता है और यह तभी संभव है जब बच्चों को साहित्य के माध्यम से कल्पना
की खाद दी जाए। बाल साहित्य प्राचीन समय से लेकर अब तक अनवरत लिखा जा रहा
हे l हम स्वंय चाचा चौधरी ,नागराज ,पराग ,नंदन आदि पत्रिकाएँ पढ़ते –पढ़ते बड़े हुए हैं। आज की बात
की जाए तो वर्तमान बाल साहित्य और प्राचीन बाल साहित्य में अंतर मात्र
इतना है कि राजा - रानी, परी – कथाओं,देव-दानवों आदि की जगह अब आधुनिक मशीनों, कारों, हेलीकोप्टर,चिम्पू , चीकू , गोर्की ,लालू आदि पात्रों ने ले ली हे l इसी परिप्रेक्ष्य़
में अगर हिन्दी में बाल साहित्य पर नजर डाली जाए तो यह सर्वथा
उपेक्षित सा नजर आता है। इस क्षेत्र में जो उल्लेखनीय साहित्य उपलब्ध है वह मूलतः
अनूदित साहित्य ही है। यद्यपि हिन्दी में बाल साहित्य़ लिखा जा रहा है परन्तु वह
अभी भी शिशुवत् ही है । वह अभी भी प्रकृति, तितली,पर्वत,झरना या ऐतिहासिक
चरित्रों पर ही लिखा जा रहा है और इस स्तर पर वह आज के बच्चों के दिमागी स्तर से
मेल नहीं खाता । आज का बचपन 21 वीं सदी में जी रहा है जिसका जीवन इंटरनेट के एप्स
के इर्द गिर्द घूमता है। वह संवेदनशील है परन्तु स्वंय़ को किसी सुपरहीरो से कम
नहीं आंकता है। उसका कल्पना जगत पूर्णतः वैज्ञानिक है अतः उसे कोरी तुक बन्दी या
शब्दों के हेरफेर में नहीं उलझाया जा सकता। ऐसे में दरकार है ऐसे साहित्य की जिसमे
फैंटेसी तो हो लेकिन वह समय की चाक पर घूमता हुआ हो, काल से होड़ से लेता हुआ हो
और आधुनिक बच्चों की रूचि के अनुकूल हो। वर्तमान में आवश्यकता है साहित्य की एक ऐसी जमीन तैयार करने की जो कि ज्ञानवर्धक
होने के साथ ही बच्चों के कोमल मन पर सकारात्मक प्रभाव भी डाले।
य़द्यपि
विगत दशकों में इस क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय कृतियों की रचना हुई है परन्तु वे
संख्या की दृष्टि से कम ही हैं। इनमें कुछ रचनाएं यथा प्रेमचंद की कुत्ते की
कहानी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की' बतूता का जूता',कमलेश्वर के बाल नाटक, रमेश थानवी की
घड़ियों की हड़ताल श्रेष्ठतम है।
इन्ही के साथ हरिकृष्ण देवसरे,
राजेन्द्र यादव,मन्नू भण्डारी,रमेश चन्द्र शाह राजेश जोशी तथा ओमप्रकाश
कश्यप ने भी इस क्षेत्र में लिखा है परन्तु
हिन्दी का यह लेखन बच्चों में हैरी पॉटर,शेरलेक होम्स या टिन टिन जैसी दीवानगी
नहीं उत्पन्न करता। इसी क्रम में अगर पत्रिकाओं की बात की जाए तो चंदामामा, किलकारी, बाल कविता, नंदन , चंपक आदि ने भी इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है परन्तु
फिर भी आज यह साहित्य हाशिए पर है। वस्तुतःआज के बाल साहित्य की जो स्थितियाँ है
उसके जिम्मेदार आज के लेखक ही हैं जो बाल मनोविज्ञान व परिवेश को दरकिनार कर सिर्फ
कागज भरने के लिए लिख रहे हैं। वस्तुतः न उन्हें बच्चों से कोई सरोकार है, ना उनकी भावनाओं से,ना ही साहित्य से और ना ही आज के समय से।
वर्तमान में बच्चों के मस्तिष्क
का विकास कम्प्यूटर की गति से हो रहा है। वे
सिर्फ कथा सुनते या पढ़ते नहीं हैं, बल्कि अपनी तर्कशील दृष्टि से उस कहानी के परिवेश, पात्र
और घटनाओं की गहन जाँच पड़ताल भी करते चलते
हैं। वे जिज्ञासु हैं। उन्हें मालूम है कि इस सृष्टि में कहीं पर भी परीलोक जैसा स्थान नहीं हैं, उन्हें
यह भी ज्ञात है कि जादू जैसी कोई चीज होती ही नहीं है ,यह केवल कल्पना मात्र है।
वे सिर्फ विज्ञान की शक्ति व यथार्थ को
जानते हैं। उन्हें अब वे कहानियाँ रास नहीं रातीं, जिनकी
पात्र परियाँ होती हैं ,जिनके पात्र महज आदर्श होते हैं और जहाँ जादू की छड़ी से
बड़े से बड़े काम चुटकी बजाते सम्पन्न हो जाते हैं। उन्हें वे ही कहानियाँ
विश्वसनीय लगती हैं, जिनके पात्र उनकी ही तरह दैनिक जीवन के
दबावों को झेल रहे हैं,कभी जीत रहे हैं तो कभी हार रहे हैं। इसी के साथ परिवेश भी
उन्हें सही गलत का ज्ञान कराये बिना बहुत कुछ सिखा रहा है। यही कारण है कि बच्चों
और उनके लेखकों में एक पीढ़ी का अंतर आ जाता है। वस्तुतः आज के लेखक उन्हीं
अनुभूतियों और स्मृतियों को ही साहित्य में गढ़ रहे हैं जो उन्होंने स्वंय अपने
बचपन में जी हैं और जिस परिवेश में वे पले बढे हैं। हमारे नन्हें इस
साहित्य से दूर हैं क्योंकि वह उनकी समझ से मेल नहीं
खाता और शायद इसीलिए वे इसे वे पिछड़ा करार कर देते हैं। हमारी नन्हीं पौध टी.वी.
व सिनेमा में अपना अधिकांश समय व्यतीत कर रही है जो कि उनका एक उपभोक्ता की तरह
प्रयोग कर रहे हैं। ये माध्यम आधुनिकता के नाम पर उन्हें एडल्ट कंटेन्ट परोस रहे हैं, जिससे उनमें संवादहीनता की स्थिति आ रही है, उनकी सृजनात्मक
एवं कल्पनात्मक शक्ति का ह्रास हो रहा है और वे असमय ही
वयस्क हो रहे हैं । वस्तुतः बच्चा जब
किताब पढ़ रहा होता है तो वह उन शब्द बिम्बों
के अनुरूप एक कल्पना लोक का निर्माण करता है , यह प्रक्रिया उसे कल्पनाशील बनाती हैं। टी.वी. कल्पना के इस अवसर को भी उनसे छीन लेता
है और इस प्रकार अधिगम के अवसर कम हो जाते हैं।
बच्चों के लिए लिखना आसान नहीं है। इस के लिए
लेखक को उस दुनिया में प्रवेश करना होता है जहाँ आज का बचपन जी रहा हो। आज का बचपन
इस य़ांत्रिक संसार में अकेला है इसलिए वह अपने साथ डोरेमोन, नोबिता जैसा दोस्त
चाहता है, उसके अपने संघर्ष है इसलिए वह पावर रेंजर्स, ट्रांसर्फामर्स या भीम जैसा
शक्तिशाली बनना चाहता है ,वह शिन शैन जैसा शरारती है और इसी के ही साथ वह एक
निश्छल चंचल मन रखता है इसीलिए टॉम एंड जैरी को वह अपने करीब पाता है। वर्तमान
हिन्दी बाल साहित्य ऐसे रोचक चरित्रों को गढ़ने की दृष्टि से बहुत पीछे है। उसे अपनी नयी सोच एवं दिशाओं से इस
आधुनिक बालमन का सहचर बनना होगा। अतः अब दरकार है ऐसे बाल साहित्य की जिसमें
फैंटेसी हो, परीकथाएँ हों..जरुऱ
हों पर यथार्थ के धरातल पर उतरती हुई, वे ऐसी हों जो कि इस आधुनिक बालमन से, उसके
वास्तविक जीवन से साम्य रखती हों, जो उसके जीवन की समस्याओं और सम्वेदनाओं से
जुड़ाव रखती हों । यह साहित्य आधुनिक समय और जीवन शैली के अनुसार उनके तर्कों को
शांत करने वाला हो ,उनकी कल्पनाओं में सतरंगी रंग भरने वाला हो, उनमें मानवीय दृष्टिकोण
पैदा करने वाला हो , उनकी कोमल भावनाओं को सींचने वाला हो और इन सबसे ऊपर वह नैतिक
मूल्यों का विकास करने वाला हो।
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