Thursday, December 18, 2014

गुज़रते वक्त में तारीखें लौटती हैं


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कैलेण्डर की तारीखें बदल रहीं हैं
अब भी, उस 16 के बाद भी
बहुत कुछ घट रहा है अब भी
पर कुछ है जो थम गया है
जैसे कि महीनों में थमा है दिसम्बर
 कुछ उम्मीदें अब नहीं चमकती
पौ फटते ही नहीं अलसती
कुछ फीतें अब नहीं बँधते
दुआओं के ग्लास भरे पड़े हैं
और वे चंदीली मूँछें अमिट हो गई हैं
कुछ गेंदें अब नहीं उछल रही नन्हें हाथों में
कुछ रोशनियाँ नही बिखर रही पन्नों पर
कुछ किताबें मायूस हैं, चुप हैं
पन्ने नहीं फड़फड़ाते उनके
 बंद हैं वो अलमारियों में
कुछ नहीं! सच बहुत कुछ थम गया है
सर्द सुबह में ज्यों जम जाती है ओस बूँदें
उसी मानिंद आस जमी है कई सूनी आँखों की
कई गरम यादों के स्वेटर उधडे़ हैं
छुअने ठिठुर रहीं हैं
और पश्मीना अपनी गर्माहट पर ज़ार ज़ार रोते हैं

कुछ दरवाजे तरसते हैं उन मासूम दस्तकों को
कि बरसें उन पर फिर
अपनी सी 
वो सबसे कोमल दस्तकें

कुछ कभी ना पहने जाने वाली यूनिफार्म टँगी हैं
स्मृतियों की खूँटियों पर
वो खूशबू अब भी कायम है
नहीं है तो बस वह ताप
जो हर मन को पिघलाना जानता था
वाकई! कुछ घडि़यों के रूक जाने के बाद भी
तारीखें बदल रही है अब भी
बहुत सी जिंदगियाँ चल रही है अब भी
पर कुछ है
जो अब सिर्फ कट रहीं हैं
बहुत सी आँखें अब खोजेंगी उस वक्त को
गमज़दा होंगी, मायूस होंगी वे बरसेंगी
और लौटेंगी खाली हाथ
बार-बार समझाएँगी खुद को
कि तारीखों में गुजरा वक्त
लौटकर नहीं आता
मगर गुज़रते वक्त में अक्सर तारीखें लौटती हैं।

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