मानव मन सदा से प्रकृति का साथ चाहता है इसीलिए तमाम व्यस्तताओं से बचकर वह जा पहुँचता उस छाँव में जहाँ वह खुद को पुनर्ववा कर सकता है। इस प्रक्रिया में वह कभी नदियों को जीता है ,कभी पर्वतों को लांघता है तो कभी मरूस्थलों को टोहता है। जिस तरह शब्दों का आलोडन ,विलोडन चेतना को झंकृत करता है उसी तरह ऋतुओं का नर्तन और ऐतिहासिक स्थापत्य मन को वीतरागी तो कभी मयूर कर देता है। पर्यटन खुद से पुनः पुनः जुड़ने का अवसर तो है ही साथ ही सांस्कृतिक धरोहर और विरासत से जुडने का मौका भी। भारत का पर्यटन और स्वास्थ्यप्रद पर्यटन मुहैया कराने की दृष्टि से विश्व में पाँचवा स्थान है। भारत जैसे विरासत के धनी राष्ट्र के लिए पुरातात्विक विरासत केवल दार्शनिक स्थल भर नहीं होती वरन् इसके साथ ही वह राजस्व प्राप्ति का स्रोत और अनेक लोगों को रोजगार देने का माध्यम भी होती है। भारत में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें अनेक प्रयास कर रही हैं परन्तु कई स्थानों पर हालांत चिंताजनक हैं। पर्यटन के संदर्भ में अगर हम राजस्थाल की बात करें तो यह प्रदेश भारत के मानचित्र पर प्रमुखता से उभरा हुआ नज़र आता है। यहाँ सांझ के दूरस्थ सीमांत पर रेत के टीलों पर सोने सी चमकती हवेलियाँ हैं तो सिंह की सी गर्जना सा ओज लिए नाहरगढ़ जैसे किले। धोरों की इस धरती पर कहीं महल हैं ,कहीं छतरियाँ तो ,कहीं अपने यौवन पर इठलाती झीलें परन्तु कहीं ना कहीं इनकी एक उपेक्षा सी जान पड़ती है। राजस्थान का लगभग हर जिला ऐतिहासिक धरोहरों से संरक्षित है परन्तु सवाईमाधोपुर, मेड़ता,नागौर और चित्तौड़ जैसे महत्वपूर्ण स्थान आज रख-रखाव और यथेच्छ संरक्षण के अभाव में सभ्यता के ध्वंश अवशेष में बदलने की ओर अग्रसर है। चित्तौड़गढ़, कुम्भलगढ़ और प्रतापगढ़ जिलों में अनेक ऐसे गहन कानन और रम्य स्थान है जिन्हें पर्यटन स्थानों के रूप में विकसित किया जा सकता है। ऐतिहासिक नगरी मेड़ता जहाँ मीरा जैसी भक्तिन और स्त्री प्रतिरोध का स्वर उत्पन्न हुआ था आज सर्वथा उपेक्षणीय है। वहाँ पर जर्जर अवस्था में खड़ा मीरा महल अपनी दुर्दशा पर स्वयं रोता हुआ नज़र आता है। हालांकि एक संग्रहालय बनाकर औऱ अनेक शिलालेखों पर तत्कालीन इतिहास और मीरां के पदों को उकेरने का प्रयास किया गया है जो वरेण्य है परन्तु पुरातन की उपेक्षा और उसे खत्म होते देखते जाना पीड़ा का विषय है। हाल ही में एक खबर ने बताया कि बारिश से जैसलमेर की हवेली में पटवा की हवेली की छत गिर गई है। ये खबरे इंगित करती है कि सभ्यता और संस्कृति की इन धरोहरों को वाकई संरक्षण की दरकार है।
राजस्थान में अरावली, विंध्याचल व मालवा के पठार उपस्थित
हैं, जिनके बीच स्थित जंगल में जैव विविधता का संगम होता है, अनेक प्राकृतिक और
शांत स्थल है जिन्हें पर्यटन स्थलों की भाँति विकसित कर इन स्थानों का संरक्षण और
जनता को इसकी विरासत से परिचित किया जा सकता है। राजस्थान में कुम्भलगढ़ और
चित्तौड़गढ़ के इर्द-गिर्द ऐसे अनेक स्थान है जो अभी भारत के पर्यटन मानचित्र पर उभर भी नहीं पाए हैं। कई
झीलें जिनमें अजमेर की आनासागर झील जैसी महत्वपूर्ण झीलें भी है सीवेज का संग्रह
भर होकर रह गई है। कई बार तो हालात इतने विकट हो जाते हैं कि दुर्गंध के मारे इन
के अस पास से गुजरना मुश्किल हो जाता है। हालांकि देश और विदेश की कुछ स्वयं सेवी
संस्थाओं के माध्यम से इसे बचाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं पर हालांत अभी भी
विकट है।
राजस्थान में अरावली पर्वतमाला
का अवैध खनन और ऐतिहासिक धरोहरों के आस पास की जमीन पर अवैध स्वामित्व जैसी घटनाएँ
भी चिंता का विषय हैं। कई ऐतिहासिक स्थान
हरियाली के अभाव बीहड़ स्थानों में तब्दील हो गए हैं और अनेक अपराधों की शरणस्थली
बन गए हैं। पेड़- पौधों की अवैध कटाई प्रतापगढ़ जैसै हरे भरे जिले को भारी नुकसान
पहुँचा रही है। पेड़ो की इस अवैध कटाई के चलते जहां शहरों में पेड़-पौधे कम हो रहे
हैं वहीं जंगल भी घट रहे हैं और स्वास्थ्यपरक वातावरण का भी ह्रास हो रहा है । आज
दरकार है सरकार और आम जनता दोनों को अपने दायित्व बोध के प्रति सजग होने की और अवैध कटाई पर रोक लगाकर पेड़-पौधों के संरक्षण की
महती अन्यथा प्रदेश के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पर्यावरण पर भी इसका विपरित प्रभाव
पड़ेगा। आज प्रदेश में जयपुर, जैसलमैर और
उदयपुर जिलों में अनेक पर्यटक आते हैं । इसी तर्ज पर अगर हर जिले मुख्यालय और उसकी
धरोहरों की और ध्यान देते हुए यदि ठीक तरह से कार्य योजना बना कर ऐतिहासिक स्थलों
को सहेजने का प्रयास किया जाए तो इन पर्यटकों को अनेक अन्य जिले के पर्यटन स्थलों
की ओर भी आकर्षित किया जा सकता है। इसके लिए जिला मुख्यालयों पर पर्यटन सूचना केन्द्र बनाए
जाने की ज़रूरत हैं। वहीं पर्यटकों के आने-जाने के लिए सड़क मार्गों को
दुरूस्त करने और हर जिले को रेल मार्ग से जोड़ने की आवश्यकता है। राजस्थान के
कई जिले पारिस्थतिकी पर्यटन केन्द्रित जिले
हैं । वर्तमान में इन इको ट्युरिज्म सेंटर के प्रति भी लोगों का रूझान और जागरूकता
कम है। अतः आवश्यकता है कि पारिस्थतिकी पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए घनी वादियों, जंगलों ,सघन पेड़ों और शहरों से
दूर वनों में पारिस्थतिकी केन्द्र बनाए जाए जिससे लोगों में इनके प्रति जागरूकता
पैदा हो। साथ ही इनका व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार भी किया जाना आवश्यक है
क्योंकि परिचय के अभाव में लोग यहां नहीं आते हैं जबकि यहां आकर प्रकृति के अद्भुत
सौन्दर्य का आनंद लिया जा सकता है।
राजस्थान की ज़मी पर अनेक
अभ्यारण्य और राष्ट्रीय उद्यान है,साथ ही अनेक जैव विविधता वाले स्थान है अगर
पर्यावरणीय दृष्टि से इन्हें सहेजा जाए तो कई स्थान वैश्विक धरोहरों की बराबरी भी
कर सकते हैं। आज जरूरत है सबसे पहले एकजुट होने की औऱ पर्यावरण के प्रति सजगता
दिखाकर उसके प्रति एक सनातन दृष्टि विकसित करने की । फोग लकड़ी और अरावली के अवैध
खनन को रोकने और वंसुधरा को ओर हरियल करने की कोशिश करने की जिससे वाकई यह धरती
धानी चूनर औढ़ कर पधारो म्हारे देश की उक्ति को वास्तविक रूप में चरितार्थ कर सके।
यहाँ साल, आम ,गुर्जन ,अमरूद ,बरगद, जामुन सुर्ख फूलों से लदे ढाक वृक्ष बहुतायत
से मिलते हैं। परन्तु प्राकृतिक चक्र के अंसुतिलत होने और मनुष्य की स्वार्थपरता
के कारण आज इनका क्षेत्रफल सिमट रहा है। अतः सभी को एकजुट होकर वृक्षारोपण अभियान
को जीवन में उतारना होगा नहीं तो आने वाली पीढ़ी इस प्राकृतिक धरोहर और संपदा से
विमुख हो सकती है। अगर हमने सहेजने की सामाजिक जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लिया तो कई
प्राकृतिक दृश्य और कल कल करते झरने उनके लिए किसी पुस्तक के चित्र भर रह सकते
हैं। आज ज़रूरत है ऐसे कानून बनाने की जिनसे महस्वपूर्ण प्राकृतिक स्थल कचरे के
ढेर में बदलने से रूक सकें।
रजवाड़े औऱ दरबारों की भव्य
परम्परा राजस्थान की विरासत है। आमेर की ही तर्ज पर आज हर किले को पर्यटन और आम
जनता से जोड़ने की ज़रूरत है जिससे यहाँ
का हर बच्चा बच्चा और आने वाले सैलानी यहाँ की विरासत और संस्कृति के उन अनछुए पहलूओं
से परिचित हो सके जो कभी प्रकाश में नहीं आ पाए। वस्तुतः पर्यटन रोजगार के नाना
अवसर भी प्रदान करता है । अगर किसी क्षेत्र विशेष को पर्यटन की दृष्टि से बढ़ावा
मिलता है तो वहाँ के स्थानीय नागरिकों को भी उससे लाभ मिलता है। रजवाड़ो के साथ –साथ
राजस्थान में जन जातियों का भी बाहुल्य रहा है। यहाँ भील , मीणा, गरासिया
जनजातियों के लोक नृत्य और संस्कृति खासा लोकप्रिय हैं । चाहे घूमर हो या
कालबेलिया सभी ने विश्व स्तर पर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है। प्राकृतिक, स्थापत्य
और संस्कृति के इन आकर्षण के केन्द्रों को अगर प्राथमिकता में रखकर इनके विकास की
ठानी जाए तो पर्यटन के क्षेत्र में मरूधर देश के स्वर भी वैश्विक स्तर पर गूँज कर
अपनी एक विशिष्ट पहचान बना सकते हैं।
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