उल्लास के संक्रमण का पर्व मकर
संक्रांति
जनवरी का महीना अर्थात् नए
संकल्पों का महीना। वह महीना जहां प्रकृति का हर उपादान मानों एक दूसरे को धन्यवाद
दे रहा हो और प्राणी मात्र को चैतन्य करने का प्रयास कर रहा हो। वस्तुतः यह माह
सृष्टि के सृजन पथ पर चलने का प्रस्थान बिंदु है। प्रकृति सदा एक लय में गुंथी
रहती है औऱ जब बदलाव की करवट लेती है तो कभी प्रिय तो कभी अप्रिय आहट
का आभास होता है। परन्तु प्रकृति सही गलत का बोध भुलाकर अपनी शाश्वत परिक्रमा में निरन्तर
व्यस्त रहती है। इसी परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रथम सोपान है मकर संक्रांति का
पर्व जो वर्ष के पहले पखवाड़े में आता है और विविधता से भरे इस देश को एकता के
सूत्र में बांधता है । सम्पूर्ण सृष्टि आसमान और धरती को नापती हुई ,परिवर्तन की
थाप पर ऋतुओं सी थिरकती हुई, सुर्य और चंद्रमा के रूप में अपनी शाश्वत यात्रा तय करती
रहती है। सम्पूर्ण सृष्टि को ऊर्जिस्वत करने वाला और रोज पूर्व की कोख से जन्म
लेने वाला सूर्य जब अपनी कक्षा बदलकर
परिवर्तन का संदेश देता है तो सम्पूर्ण प्रकृति हुमक उठती है। सूर्य इस दिन
दक्षिणायन से उत्तरायण होता हुआ धनु से मकर राशि में प्रवेश करता है। एक प्रकार से
इस राशि में सुर्य की कक्षा में परिवर्तन होता है , संक्रमण होता है यही कारण है
कि इसे संक्रान्ति काल की संज्ञा दी गई है। नवम्बर ,दिसम्बर माह के सर्द दिन जब
हवाओं में बर्फ घुली होती है और सूरज बादलों की ओट में रज़ाई ओढ़े बैठा रहता है इस
दिन अपनी खुमारी उतार अपने पुराने शबाब पर लौट आता है। संक्रांति काल में सूर्य
अपनी ऊर्जा में कुछ बढ़ोतरी करता है यही कारण है कि सर्दी का असर कुछ कम होने लगता है और सर्द दिन जो अपने आप को
समयचक्र के अनुसार कुछ पहले समेटकर रात के आगोश में चले जाते थे इस दिन से अपना शामियाना कुछ और देर धरती पर
लगाते हैं।
सुर्य के उत्तर होने के इस
पर्व को समूचा देश समान उल्लास से मनाता है। हरियाणा और पंजाब में इस पर्व को लोहड़ी
के रूप में मनाया जाता है, तो तमिलनाड़ू में इसे पोंगल के रूप में । कर्नाटक , केरल
तथा आँध्रप्रदेश में यह उत्तरायणी या संक्रांति के नाम से तो बिहार में इसे खिचड़ी
और उत्तरप्रदेश, असम में इसे दानपर्व और
बिहू के नाम से जाना जाता है। भारत के हर त्योहार के पीछे ऐतिहासिक घटनाएं और
मान्यताएँ हैं और ऐसा इस पर्व
के साथ भी है। वेद और पुराणों में भी इस दिन के माहात्म्य का उल्लेख है अन्य धार्मिक
कथाओं में भी इस दिन के संबंध में अनेक कथाएं हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान भास्कर
अपने पुत्र से मिलने उसके घर जाते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार महाभारत के तटस्थ और
समर्पित नायक भीष्म पितामह ने इसी दिन को ही स्वेच्छा से देह त्याग के लिए चुना। इसके पीछे यह
मान्यता है कि उत्तरायण में देह त्यागने वाली आत्मा देवलोक में गमन करती है एवं उसे मोक्ष की
प्राप्ति होती है.। इसके साथ ही एक मान्यता यह भी जुड़ी है कि इसी दिन गंगा मैया भागीरथ का
अनुसरण करती हुई कपिल मुनि के आश्रम से गुजर कर सागर से मिलती है.।
बहरहाल इतिहास जो
भी रहा हो इस तिथि का अपना खगोलीय और वैज्ञानिक महत्व भी है। जब सूर्य पूर्व से उत्तर की ओर गमन करता
है तो पृथ्वी पर पहुँचने वाली पराबैंगनी किरणों का प्रभाव कुछ कम हो जाता है परिणामतः यह ताप जीवन ऊर्जा
की तरह काम करता है। मकर संक्रांति वस्तुतः एक खगोलीय घटना है जिससे सृष्टि के शाश्वत
तत्वों की दिशा तय होती और इस प्रकार सृष्टि के पुनर्गठन की इस
प्रक्रिया में सकारात्मकता
का उत्सर्ग होता है। जड़ और चेतन सभी पदार्थ एक लय में आकर संगठित होने का संदेश
देते नज़र आते हैं। यह त्यौहार ऋतुओँ
का संधि काल है अतः स्वास्थ्य लाभ करने का भी यह श्रेष्ठ अवसर होता है। वसंत के आगमन की
आहट लिए और शीतल मंद बयार के झोंके लिए यह पर्व हर मन को चैतन्य
करने का प्रयास करता
है। तिल और गुड़ से बने पकवान शरीर में एक नयी स्फूर्ति उत्पन्न करते हैं। इस पर्व की पूर्व
संध्या पर भंगड़ा और गिद्दा की धूम होती है जहां पंजाबी लोग अग्नि के इर्द-गिर्द नृत्य कर उल्लास जताते हैं.। उनका यह उल्लास नयी ऋतु के स्वागत के लिए होता है। जयपुर और
अहमदाबाद में तो इस दिन बड़े बड़े पतंगबाज अपने तंज लड़ाते हैं। अलसुबह से ही देर शाम तक आसमान
सतरंगें सपनों से सजा
होता है। हर हाथ का सपना सातवें आसमान तक की उड़ान भरता है। पतंग हर अरमान को
मानों पंख प्रदान कर आसमान पर पेंच लड़ाती हुई दिखती है और उस उड़ान के साथ मन भी मौजूं
हो जाता है।
आज का दौर तथाकथित आधुनिकता का दौर है। मशीनीकृत इस युग में भावनाओं का
कोई मोल नहीं है। भीड़ में एकाकी जीवन जीता हुआ व्यक्ति गलाकाट प्रतिस्पर्धा में
पिस रहा है और इन सब में वह खुद को कहीं बहुत पीछे छोड़ आया है। आज जब भावनाओं का सैलाब
परोक्ष रूप से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उड़ेला जा रहा है और आभासी शांति की तलाश की
जा रही है तब आवश्यकता है उस उत्सवधर्मी संस्कृति को लौटा लाने की जिससे हमारे युवा इस
आपाधापी के युग में कुछ पल खुद के करीब गुजा़र सकें। वर्तमान में जब
युवा वर्ग परम्पराओं से दूर हट रहा है, पाश्चात्य
संस्कृति का मुरीद हो रहा है और अपने ही खोल में सिमट रहा है उस समय आवश्यकता है उन्हें जड़ों
की और खींचने की। यह संभव है इन्हीं त्योहारों की गज़क मिठास से जो कि उल्लास
और मस्ती के पर्याय हैं। आज जिन अनजान खतरों को देखकर देश पग पग पर खंडित हो रहा है
उसका संभार और एकता को पुनर्स्थापित करने में ये त्यौहार महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।
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